सामाजिक विघटन सामाजिक संगठन का विलोम है। इसलिए सामाजिक संघटन क्या है इसे स्पष्ट करने पर ही सामाजिक विघटन का अर्थ स्पष्ट होगा:
समाज सामाजिक संघर्षों का तानाबाना है। सदस्यों के पारस्परिक संबंधों की अभिव्यक्ति सामाजिक समितियों तथा संस्थाओं के माध्यम से होती है और जब सामाजिक समितियाँ तथा संस्थाएँ अपने मान्य उद्देश्यों के अनुरूप कार्य करती हैं तो हम कहते हैं कि समाज संघटित है। सामाजिक संघटन का आधार है समाज के सदस्यों द्वारा सामाजिक उद्देश्यों की समान परिभाषा और उनकी पूर्ति के लिए समान कार्यक्रम पर एकमत होना। किसी समाज में यदि सामाजिक उद्देश्यों और कार्यक्रमों में मतैक्य है तो हम कह सकते हैं कि उक्त समाज पूर्णत: गठित है।
समाज परिवर्तनशील और प्रगतिशील है। परिवर्तन का वेग विभिन्न कालों में विभिन्न रहा है और यदि परिवर्तन न होता तो समाज का वह रूप न होता जो आज हम देखते हैं। मानव व्यवहार, सामाजिक मान्यताएँ, सामाजिक मूल्य और सामाजिक कार्यक्रम, सभी बदल रहे हैं। इसलिए किसी एक समय हम यह नहीं कह सकते कि सामाजिक मूल्यों एवं कार्यक्रमों पर समाज में मतैक्य है। पूर्ण गठित समाज अमूर्त अवधारणा (कांसेप्ट) है जिसे साकार नहीं किया जा सकता। प्रत्येक समाज बदलता रहता है और बदलने से विचारों में भेद होना स्वाभाविक है। इसलिए कुछ अंश तक विघटन की प्रवृत्ति बनी ही रहती है। सामाजिक परिवर्तन से सामाजिक संतुलन की स्थिति बिगड़ती है। इस प्रकार सामाजिक विघटन परिवर्तनशील समाज का सामान्य गुण है।
समाज समूहों से बनता है और समूह सदस्यों के मध्य सामाजिक संबंध को कहते हैं। जब सामाजिक संबंध छिन्न-भिन्न होते हैं तो समूह टूट जाता है और समूह के टूटने को ही सामाजिक विघटन कहेंगे, वह समूह परिवार हो अथवा पड़ोस, समुदाय हो या राष्ट्र।
प्रत्येक व्यक्ति बहुत से संबंधित होता है और किसी एक समय वह सभी समूहों से संघर्षरत हो जाए, यह संभव नहीं है। किसी एक समूह के संदर्भ में कोई व्यक्ति विघटित हो सकता है जबकि अन्य समूहों से उसके व्यावहारिक संबंध बने रह सकते हैं।
समाज को प्रभावित करने वाले बहुत से तत्व हैं। किसी एक तत्व को सामाजिक विघटन का मूल आधार मान लेना तर्कसंगत नहीं है। सामाजिक विघटन को कई संदर्भों में समझा जा सकता है जैसे परिवार, समुदाय, राष्ट्र, अथवा विश्व। किसी एक तथ्य के आधार पर किसी भी क्षेत्र में सामाजिक विघटन की पूर्ण व्याख्या संभव नहीं। सामाजिक संरचना, सामाजिक मूल्य, सामाजिक अभिवृत्तियाँ, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक निर्णय और सामाजिक संकट सभी सामाजिक विघटन को जन्म देते हैं।
समाज की व्याख्या सामाजिक संरचना और सामाजिक कार्यों (सोशल फंकशन) के संदर्भ में की जाती है। सामाजिक समूह एवं संस्थाएँ सामाजिक व्यवहार का स्वरूप बनाते हैं और प्रगतिशील समाज में सामाजिक संरचना में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। परिवार, विद्यालय, धर्म, विवाह, राज्य, व्यावसायिक प्रतिष्ठान इत्यादि सामाजिक संरचना के अंग हैं। यद्यपि इन संगठनों अथवा संस्थाओं का उदय बहुत समय पहले हुआ, तथापि इनके स्वरूप में सदा परिवर्तन होता रहा है। भारतवर्ष में परिवार जैसी प्राचीन संस्था में विगत २५ वर्षों में मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह, बाल-विवाह-निषेध, स्त्रियों का परिवार में उच्च स्थान, ये सभी इसी शताब्दी के देन है। परिवर्तनों के कारण समितियों एवं संस्थाओं के सदस्यों की प्रस्थिति और भूमिका में परिवर्तन होते रहते हैं और सदस्यों के पारस्परिक संबंध इतने परिवर्तनशील हैं कि उनके चिरस्थायी रूप निर्धारित नहीं किए जा सकते। परिणामस्वरूप व्यक्तिगत विचलन उत्पन्न होता है। परिस्थितियों अथवा अज्ञान के वश व्यक्तियों को नई भूमिकाएँ ग्रहण करनी पड़ती हैं। कई बार तो नई भूमिकाएँ समाज को प्रगति की ओर ले जाती हैं, परंतु अधिकांशत: इनसे सामाजिक विघटन की प्रवृत्ति बढ़ती है। इस प्रकार समाज की प्रगति के कारक हो सामाजिक विघटन के कारण बन जाते हैं।
इलिएट और मेरिल ने सामाजिक विघटन की व्याख्या में सामाजिक परिवर्तन पर ही अपने विचार आधारित किए हैं। समाज के विभिन्न तत्वों में परिवर्तन की समान गति न होने के कारण समाज में विघटन उत्पन्न होता है। भौतिक संस्कृति की प्रगतिशीलता तथा अभौतिक संस्कृति की आपेक्षिक स्थिरता के कारण पुरानी पीढ़ियों द्वारा निर्मित सामाजिक मापदंडों और निर्धारित आचार व्यवहार को बदलना अति कठिन है। परिणामस्वरूप ऐसी सामाजिक संस्थाएँ जो समाज में स्थिरता लाती हैं, बदलती हुई परिस्थितियों में प्रगति में अवरोध उत्पन्न कर सामाजिक विघटन को जन्म देती हैं। भौतिक संस्कृति में परिवर्तन होने का कारण विचारधाराओं, अभिवृत्तियों और सामूहिक मूल्यों में परिवर्तन होते हैं। कुछ लोग पुराने विचारों और पुराने व्यवहारों को पकड़े रहते हैं। और नई भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्नश् प्रादर्श आगे बढ़ जाते हैं तो ऐसी परिस्थिति के कारण समाज में विघटन उत्पन्न होता है। इसके इलिएट और मेरिल ने सांस्कृतिक विलंबन (कल्चरल लैग) कहा है।
समाज में व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए सामाजिक रूढ़ियाँ, प्रथाएँ और कानून हैं। धर्म की नैतिक अथवा अनैतिक धारणाएँ भी व्यवहार को नियंत्रित करने में साधन हैं। सामाजिक संस्थाओं और सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन होने के साथ ही पुराने व्यवहार प्रतिमान, असामयिक तथा असंगत हो जाते हैं और नए व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए नई रूढ़ियों अथवा परंपराओं का निर्माण उसी गति से नहीं होता। पुराने नियंत्रण तो समाप्त हो जाते हैं परंतु नए नियंत्रण वा नई मर्यादाएँ उतनी तेजी से नहीं बन पातीं। इस शून्यता के करण विचलित व्यवहार को प्रोत्साहन मिलता है और सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है।
प्रत्येक समाज में सामूहिक और व्यक्तिगत सामाजिक उद्देश्य होते हैं जिनकी पूर्ति के लिए व्यक्ति व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से प्रयास करते हैं। व्यक्ति के प्रत्येक व्यवहार के पीछे कोई उद्देश्य रहता है। वह उद्देश्य कोई वस्तु, आदर्श या व्यक्ति हो सकता है। परिणामस्वरूप उस उद्देश्य का एक सामाजिक अर्थ होता है। व्यक्तिगत और सामूहिक व्यवहार की प्रेरणा इन उद्देश्यों से उत्पन्न होती है। सामाजिक उद्देश्यों से एक विशिष्ट प्रकार की अभिवृत्ति का जन्म होता है जो जीने के ढंग और विभिन्न वस्तुओं से एवं विभिन्न परिस्थितियों में अनुभवों के योग से निर्मित होती हैं। सामाजिक अभिवृत्तियों का उदय अनुभव से होता है। भारतीय बच्चों में जाति और धर्म संबंधी अभिवृत्तियों का विकास भारतीय समाज में उनके जन्म लेने के कारण होता है। व्यक्ति अपने उपसमूह की मान्यताओं और व्यवहार प्रतिमानों को ग्रहण करता है और कई बार उप समूह के आदर्श एवं प्रतिमान वृहत् समाज के विपरीत होते हैं। परिणामत: सामाजिक विचलन ऐसी परिस्थितियों में बढ़ता है और इस प्रकार समाज विरोधी अभिवृत्तियाँ व्यक्ति में समूह के संदर्भ से उत्पन्न होती हैं और इनसे विघटित समाज की अभिव्यक्ति होती है।
यद्यपि सामाजिक विघटन एक निरंतर प्रक्रम है, तथापि सामाजिक संकटों के कारण भी विघटन की अभिव्यक्ति व्यापक रूप में होती है। जब किसी समूह की सामान्य क्रियाओं में विक्षोभ या उग्र अवरोध उत्पन्न होता है जिससे विचार का व्यवहार के प्रचलित प्रतिमानों में परिवर्तन करना आवश्यक होता है और यदि अपेक्षित परिवर्तन के लिए कोई पूर्व आदर्श नहीं होता है तो हम ऐसी स्थिति को संकट की स्थिति कहेंगे। सामान्य व्यक्ति के लिए परिवर्तित परिस्थिति में नए व्यवहार प्रतिमान स्थापित करना और सामंजस्य स्थापित करना कठिन होता है। सामाजिक ढाँचे में इस प्रकार के उग्र अवरोध अधिकांशत: व्यक्तियों के लिए नई स्थिति और नई भूमिकाएँ उत्पन्न करते हैं जो उनके लिए कष्टदायक होती हैं। युद्ध भी एक सामाजिक संकट है और उसके कारण भी सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है।
सामाजिक विघटन समाज का रूप नहीं वरन् मूल रूप से एक प्रक्रम है जिसमें संघर्ष, अत्यधिक स्पर्धा, विग्रह और सामाजिक विभेदीकरण जैसे अन्य प्रक्रम हैं और उसमें नाश, रूढ़ियों और संस्थाओं में संघर्ष, समूहों द्वारा एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप तथा उनका हस्तांतरण प्रकट होता है।
सामाजिक विघटन की व्याख्या विभिन्न समाजशास्त्रियों ने विभिन्न दृष्टिकोणों से की है। धर्मशास्त्रीय सिद्धांत अति प्राचीन है। बीमारी, अपराध, मृत्यु, अकाल, गरीबी, युद्ध सभी अवांछनीय घटनाएँ ईश्वर की इच्छा पर निर्भर हैं और ईश्वरेच्छा से यह विघटनकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। यद्यपि यह सिद्धांत आदिम समाज में उत्पन्न हुआ और आज भी आदिम जातियाँ आपत्तिकाल में जादू, टोना और देवपूजन द्वारा ही इन आपत्तियों को दूर करने का प्रयास करती हैं तथापि सभ्य समाज भी पूर्णरूपेण इस मनोवृत्ति से मुक्त नहीं हैं। आज भी देवता की उपासना, पूजा पाठ द्वारा धनवृद्धि की कामना करना, संतान लाभ हेतु स्त्री-पुरुषों द्वारा ओझाओं के पास जाना आदि इसी मनोवृत्ति के प्रतीक हैं।
दूसरे विचारक सामाजिक विघटन नैसर्गिक मानते हैं। उनके अनुसार मानव इस प्रकार से व्यवहार करता है कि दु:ख और यातनाएँ उत्पन्न होती हैं। मनुष्य के स्वभाव में ही अच्छी-बुरी दोनों अभिवृत्तियाँ हैं और जिस मनुष्य में जो अभिवृत्ति प्रबल होगी वह वैसा ही व्यवहार करेगा।
तीसरे वर्ग के विचारक सामाजिक विघटन की व्याख्या मनोजैवकीय आधार पर करते हैं। उनसे एक कदम आगे विघटन की भौगोलिक व्याख्या करने वाले विचारक हैं जो जलवायु, मिट्टी, तापक्रम, वर्षा आदि भौगोलिक कारकों को मनुष्य के व्यावहारिक निर्धारक मानते हैं और अपराध, आत्महत्या, पागलपन इत्यादि को कतिपय विशेष भौगोलिक परिस्थितियों से उत्पन्न मानते हैं।
सामाजिक समस्या सिद्धांत समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इस संप्रदाय के विचारकों के अनुसार सामाजिक समस्याएँ सामाजिक विघटन को जन्म देती हैं और समस्याओं का समाधान करने पर ही सामाजिक प्रगति संभव है। ये विचारक सुधारवादी हैं जिनके अनुसार बेकारी, अपराध, बुढ़ापा सभी सामाजिक समस्याएँ हैं जिनके समाधान के बिना समाज में विशृंखलता और असामंजस्य उत्पन्न हो जाएगा।
सांस्कृतिक सिद्धांत सैद्धांतिक दृष्टिकोण से सभी अन्य सिद्धांतों से आगे है। विभिन्न सामाजिक स्स्थां केश् के असमायोजित होने और अपेक्षित रूप में कार्य न करने से सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है, जैसे परिवार या स्कूल यदि अपने निश्चित कार्य करने में असमर्थ हैं तो उनके कार्य न करने से बाल-अपराध, बाल-दुर्व्यवहार की समस्या उत्पन्न होती हैं।
सामाजिक समस्या को विघटन का परिणाम माना जाए अथवा कारण, यह कहना कठिन है परंतु इतना स्पष्ट है कि दोनों का एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। यदि सामाजिक घटना वैयक्तिक विघटन की कोई परिस्थिति है और हम देखते हैं कि इससे कुछ नए मूल्यों का जन्म होता है और अनुभव करते हैं कि इस परिस्थिति में सामूहिक प्रयत्न की आवश्यकता है और इसके परिवर्तमान पक्षों का मापना संभव है तो हम कहेंगे कि उक्त परिस्थिति समस्यात्मक है। दूसरे शब्दों में सामाजिक समस्या वैयक्तिक अथवा सामूहिक विघटन की वह परिस्थिति है जिसमें स्वीकृत मूल्यों और व्यवहार प्रतिमानों का विरोध नए मूल्यों और व्यवहार प्रतिमानों द्वारा उत्पन्न होता है और उस विरोध के निवारण के लिए समूह अथवा व्यक्ति सजग एवं सचेष्ट है और साथ ही मान्य मूल्यों और प्रतिमानों से विचलन का मापन हो सकता है तथा समस्याओं को जन्म देने वाले कारकों का नियंत्रण और सुधार भी संभव है। यदि वे दोनों संभावनाएँ नहीं हैं तो परिस्थिति समस्यात्मक नहीं कही जा सकती।
सामाजिक समस्याएँ जीवन के प्रत्येक पक्ष से संबंधित हैं। ग्रामीण जीवन की समस्याएँ: नागरीकरण की समस्याएँ; जनसंख्या के वितरण की समस्याएँ; वैयक्तिक समस्याएँ, जैसे शारीरिक तथा मानसिक रोग; व्यवहार संबंधी समस्याएँ, जैसे अपराध, वेश्यावृत्ति, मदात्यय, पारिवारिक समस्याएँ, जैसे पारिवारिक कलह, संबंध-विच्छेद, विधवा विवाह, बाल विवाह; निवास की समस्याएँ; रोजगार संबंधी समस्याएँ; और निम्न जीवन स्तर, गरीबी, सामाजिक ्ह्रास तथा द्वंद्व इत्यादि। इनके निवारण और उन्मूलन के लिए सामाजिक समायोजन और नियंत्रण की आवश्यकता होती है।
भारत में सामाजिक विघटन-१९वीं और २०वीं शताब्दी में समस्त संसार में तेजी से परिवर्तन हुए हैं, परंतु २०वीं शताब्दी की मध्यावधि में भारतवर्ष में जो परिवर्तन हुए हैं संभवत: उसका दूसरा उदाहरण संसार में नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सामाजिक भिन्नताएँ, विलक्षणताएँ, धर्म तता जातिभेद, रीति-रिवाज का पिछड़ापन इतना सामने आया है कि अनुभव होता है, देश में एक भाषा नहीं, एक विचार पद्धति नहीं, एक उद्देश्य नहीं, एक संस्कृति नहीं। धर्म, जाति, वेशभूषा, भाषा, लोक संस्कृति इतनी भिन्न हैं कि एक-दूसरे के प्रति सहयोग और एकता की भावना अति दुर्लभ है। देश में धर्म, जाति, भाषा, निवास क्षेत्र तथा वेशभूषा के आधार पर एक-दूसरे के प्रति घृणा एवं अविश्वास व्यापक हैं। अशिक्षा, अंधविश्वास, बौद्धिक पिछड़ापन और भी द्वेष तथा अविश्वास को बढ़ाते हैं। सामाजिक समस्याएँ जेसे जन्म-मृत्यु की उच्च दर, पौष्टिक भोजन का अभाव, अपराध, वेश्यावृत्ति, बीमारी, सामाजिक असुरक्षा इस विघटन को और भी बढ़ाते हैं।
सामाजिक विघटन में सबसे मुख्य कारक जाति व्यवस्था है। जाति व्यवस्था परंपरागत स्थायी समाज में उपयोगी संस्था थी, परंतु आज मनुष्य के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। एक जाति का दूसरी जाति के प्रति अविश्वास, एक का दूसरे के प्रति विरोध, घृणा, सभी जाति प्रथा की देन हैं। देश की एक-चौथाई जनसंख्या मानवेतर जीवन व्यतीत करती है। समाज में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का निम्न स्थान है। वह पुरुष की संगिनी नहीं वरन् दासी है। परिणामस्वरूप देश की आधी जनसंख्या तिरस्कृत, निस्सहाय और परावलंबी जीवन व्यतीत करती है।
नए समाज में नए अवसरों की प्राप्ति के लिए योग्यता का अधिकतम विकास करने के लिए शिक्षा संस्थाएँ ही एकमात्र साधन हैं। यदि यह कहा जाए कि नए समाज का आधार और हमारे नए आदर्शों की पूर्ति स्कूलों और कॉलेजों से होगी तो अनुचित नहीं है; परंतु इसमें कोई मूल परिवर्तन समय के अनुसार नहीं हो सका है। बढ़ती हुई जनसंख्या ने विकास के सभी कार्यक्रमों को तथा आयोजन के सभी उपक्रमों को विफल बना दिया है। जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है उस गति से अन्न और अन्य जीविकोपयोगी साधनों का निर्माण नहीं हो सका है।
अशिक्षा, अंध विश्वास, रूढ़िवादिता, वर्तमान जीवन के प्रति उदासीनता इत्यादि ने परिवार नियोजन के सभी प्रयासों को विफल बना दिया है। बीमारी और पौष्टिक आहार की कमी के कारण जनसंख्या की कार्यक्षमता अत्यल्प है। समाज विरोधी शक्तियाँ तस्कर व्यापारी, अपराधी, जुआरी, शराबी भी बड़ी संख्या में क्रियाशील हैं। देश में पुरानी प्रथाओं जैसे बाल विवाह, दहेज प्रथा, सजातीय विवाह, जेवर का शौक आदि के सिवा अन्य सामाजिक प्रथाएँ हैं जो प्रगति में बाधक हैं।
प्राचीन सामाजिक संस्थाओं में भी परिवर्तन का प्रस्ताव स्पष्ट दिखाई दे रहा है। संयुक्त परिवार का नया रूप बन रहा है और संयुक्त परिवार के भग्न होने से बच्चों की देखभाल, अनाथ बच्चों और नि:सहाय स्त्रियों की समस्या तथा बूढ़े लोगों की समस्याएँ बढ़ रही हैं। विवाह की प्राचीन मान्यताओं और दहेज जैसी प्रथाओं से भी विघटन उत्पन्न हो रहा है। भूतपूर्व अपराधी जातियों, आदिम जातियों तथा हरिजनों के समाज में असमायोजन होने से वर्गों और जातियों में संघर्ष दिखाई देता है और इससे प्राचीन जाति प्रथा संबंधी मान्यताएँ छिन्न-भिन्न हो रही हैं। समाज के वर्गीकरण तथा सामाजिक स्तर के पुराने आधार तो टूट रहे हैं परंतु नई मान्यताएँ और नए आधार उनका स्थान ग्रहण नहीं कर रहे हैं। पिछड़े वर्गों के उद्धार और सुधार के लिए किए जा रहे प्रयास अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं।
भारतीय समाज की समस्याओं का विश्लेषण सामाजिक संस्थाओं और समूहों की संरचना तथा कार्य के संबंध में किया जा सकता है। प्राचीन समाज में संरचना और कार्य में पारस्परिक अनुरूपता थी परंतु तीव्र सामाजिक परिवर्तन के आक्रमण से पुरानी संरचना और कार्य का तारतम्य भंग हो गया है जिसके लिए सामाजिक आयोजन, सामाजिक सुधार तथा समाज सेवा के कार्यक्रम चलाए गए हैं।
सं. ग्रं.- न्यू मेयर, एच. मार्टिन: सोशल प्राब्लेम्स ऐंड चेंजिंग सोसाइटी; एलिएट, मबेल ए., एंड सोशल डिसआर्गनाइजेशन; रोजेन क्विस्ट, कार्ल एम: सोशल प्राब्लेम्स; लेमावर्ट, इडबिन एम.: सोशल पैथालोजी।
(चंद्रप्रकाश गोयल)