सामाजिक नियोजन सामाजिक विज्ञानों में सामाजिक नियोजन की अवधारणा (या प्रत्यक्ष concept) बहुत कुछ अस्पष्ट है। सामाजिक नियोजन अवधारणा का प्रयोग सुविधानुसार विभिन्न अर्थों तथा संदर्भों में किया जाता है। सामान्यतया दो संदर्भों में यह प्रयोग किया जाता है: (१) समाज कल्याण और सामाजिक सुरक्षा के कार्यों से संबंधित नियोजन, तथा (२) आर्थिक, औद्योगिक, राजनीतिक, शैक्षणिक आदि क्षेत्रों के अतिरिक्त समाज के अवशिष्ट क्षेत्रों से संबंधित नियोजन। इनमें भी प्रथम अर्थ में सामाजिक नियोजन की अवधारणा का प्रयोग अधिक प्रचलित है। आम तौर पर ऐसी धारणा है कि इस प्रकार के सामाजिक नियोजन तथा अन्य नियोजनों यथा आर्थिक नियोजन, का कोई विशेष पारस्परिक संबंध नहीं है। उपर्युक्त सीमित अर्थों में सामाजिक नियोजन के प्रत्यक्ष का प्रयोग अतर्कसंगत तथा सर्वथा अनुपयुक्त है। सामाजिक नियोजन का प्रत्यय या अवधारणा कहीं अधिक व्यापक तथा महत्वपूर्ण है।
सामाजिक तथा नियोजन दोनों ही शब्दों की प्रकृति का एक सामान्य विवेचन करने से सामाजिक नियोजन की अवधारणा संबंधी अनिश्चितता या अस्पष्टता कुछ हद तक दूर की जा सकती है। सामाजिक का सामान्य अर्थ समाज से संबंधित स्थितियों से है तथा समाज का सामान्य अर्थ मनुष्यों के विभिन्न पारस्परिक संबंधों की व्यवस्था के रूप में लिया जाता है। समाज की इस व्यवस्था के अंतर्गत समाविष्ट पारस्परिक संबंध विविध प्रकार के होते हैं। यथा, पारिवारिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, संस्तरणीय आदि और इनमें से प्रत्येक प्रकार के संबंधों का क्षेत्र इस भाँति काम करता है कि वह बड़ी समाज व्यवस्था के अंतर्गत स्वत: एक व्यवस्था या उपव्यवस्था निर्मित कर लेता है। इस प्रकार समाज एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत विभिन्न कोटि के सामाजिक संबंधों द्वारा निर्मित अत:संबंधित उपव्यवस्थाएँ संघटित हैं। इस दृष्टि से सामाजिक शब्द का सामान्य प्रयोग सामाजिक विज्ञानों में समाज व्यवस्था से संबंध रखने वाली स्थितियों के अर्थ में किया जाता है। राजनीतिक, आर्थिक या किसी अन्य प्रकार के मानवीय संबंध को सामाजिक की परिधि के बाहर रखना अतर्कसंगत है। अत: समाज व्यवस्था अथवा उसकी विविध उपव्यवस्थाओं संबंधी सभी स्थितियाँ सामान्यतया सामाजिक हैं।
नियोजन शब्द का भी विशिष्ट अर्थ है। नियोजन का स्वरूप कालक्रम की दृष्टि से भविष्योन्मुख तथा मूल्यांकन दृष्टि से आदर्शोंन्मुख होता है। नियोजन के अंतर्गत विद्यमान स्थितियों तथा संभावित परिवर्तनों की प्रकृति, उपयोगिता एवं औचित्य को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी सुगठित रूपरेखा निर्मित की जाती है जिसके आधार पर भविष्य के परिवर्तनों को अपेक्षित लक्ष्यों के अनुरूप नियंत्रित, निर्देशित तथा संशोधित किया जा सके। नियोजन की धारणा में अनेक तत्व निहित हैं जिनमें कुछ मुख्य तत्व ये हैं-(१) अपेक्षित तथा इच्छित स्थितियों या लक्ष्यों के संबंध में स्पष्टता। यह निश्चित होना चाहिए कि किन स्थितियों या लक्ष्यों के संबंध में स्पष्टता। यह निश्चित होना चाहिए कि किन स्थितियों की प्राप्ति अभीष्ट है। यह चुनाव का प्रश्न है। चूँकि अपेक्षित स्थितियों के अनेक विकल्प हो सकते हैं, इस कारण विभिन्न विकल्पों में से निश्चित विकल्प के निर्धारणार्थ चुनाव अनिवार्य हो जाता है। यह चुनाव केवल मूल्यों के आधार पर ही संभव है। (२) विद्यमान स्थितियों तथा अपेक्षित स्थितियों या लक्ष्यों के बीच की दूरी का ज्ञान भी नियोजन का एक प्रमुख तत्व है। इस समय जो स्थितियाँ विद्यमान हैं वे कब और किस सीमा तक इच्छित उद्देश्य तक पहुँचा सकती हैं और कहाँ तक उससे हटाकर दूर ले जा सकती हैं, इसका अधिकतम सही अनुमान लगाना आवश्यक है। सामान्यतया नियोजन की आवश्यकता विद्यमान स्थितियों के रूप और दिशा के प्रति असंतोष से उत्पन्न होती है और यह असंतोष स्वभावतया देश, काल तथा पात्र सापेक्ष है। (३) अपेक्षित स्थितियों या लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक साधन कहाँ तक उपलब्ध हो सकते हैं, इसका ज्ञान भी आवश्यक तत्व है। यदि लक्ष्यों का निर्धारण उपलब्ध साधनों के संदर्भ में नहीं होता तो वे केवल कल्पना के स्तर पर ही रह जाएंगे। अपेक्षित स्थितियों की प्राप्ति कामना मात्र पर निर्भर नहीं है, उनकी प्राप्ति के लिए साधनों का ज्ञान होना आवश्यक है। (४) अपेक्षित स्थितियों या लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में विद्यमान स्थितियों, उपलब्ध साधनों तथा संभावित घटनाओं के संदर्भ में एक कालस्तरित स्पष्ट रूपरेखा तैयार करना नियोजन का महत्वपूर्ण तत्व है। इस रूपरेखा के अनुरूप ही व्यवस्थित तथा निश्चित प्रकार से क्रियाकलापों एवं विचारों को इस तरह संगठित किया जा सकता है कि इच्छित लक्ष्यों की सिद्धि संभव हो।
सामाजिक तथा नियोजन इन दोनों शब्दों की सामान्य विवेचना के आधार पर सामाजिक नियोजन के प्रत्यक्ष का अर्थ समझने में सुविधा हो जाती है। कोई भी ऐसा नियोजन जो पूर्ण या आंशिक रूप से समाज व्यवस्था या उसकी उप व्यवस्थाओं में अपेक्षित परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है सामाजिक नियोजन है। सामाजिक स्तर पर अपेक्षित संस्थात्मक तथा संबंधात्मक स्थितियों के स्थापनार्थ अथवा उसमें परिवर्तन या संशोधन के लिए विवेकपूर्ण तथा सतर्क, संगत दृष्टि से संगठित क्रिया-कलापों की सुनिश्चित रूपरेखा सामाजिक नियोजन है। समाज के विभिन्न अंत:संबंधित क्षेत्रों के परिवर्तनों को व्यवस्थित एवं संतुलित प्रकार से निश्चित दिशा की ओर ढालना सामाजिक नियोजन का विकसित तथा व्यापक रूप है। इस व्यापक सामाजिक-नियोजन का कार्य विभाजन आदि संबंधी सुविधाओं की दृष्टि से अनेक विशिष्ट क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है, यथा आर्थिक उपव्यवस्था में इच्छित परिवर्तन लाने के लिए ऐसी योजना को आर्थिक नियोजन की संज्ञा देना उचित होगा। यही बात समाज व्यवस्था की अन्य उपव्यवस्थाओं, यथा राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि के संबंध में भी लागू होती है। सभी प्रकार के ऐसे नियोजन, जो समाज व्यवस्था के सिकी भी भाग से संबंधित हैं, सामाजिक हो जाते हैं। चूँकि समाज की आर्थिक उपव्यवस्था का नियोजन आधुनिक युग में अधिक प्रचलित है-संभवत: जिसका कारण आर्थिक उपव्यवस्था का अन्य उपव्यवस्थाओं की अपेक्षा जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण होना तथा अधिक नियंत्रणीय होना है-इस कारण एक ऐसी सामान्य धारणा व्याप्त है कि आर्थिक नियोजन कोई ऐसा नियोजन है जो व्यापक सामाजिक नियोजन से पूर्णतया स्वतंत्र है। नि:संदेह प्रत्येक सामाजिक उपव्यवस्था की अपनी विशेषता होती है, उसका अपना विशिष्ट स्थान होता है और इस दृष्टि से अन्य उपव्यवस्थाओं की भाँति आर्थिक उपव्यवस्था भी समाज व्यवस्था के एक विशिष्ट क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य संपन्न करती है, किंतु इससे यह निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत न होगा कि उसका अस्तित्व पूर्णतया स्वतंत्र है और आर्थिक नियोजन का सामाजिकश् नियोजन से कोई संबंध नहीं है। जिस प्रकार समाज व्यवस्था से आर्थिक उप व्यवस्था जैसी उपव्यवस्थाएँ संबंधित हैं उसी प्रकार सामाजिक नियोजन से आर्थिक नियोजन जैसे नियोजन भी संबंधित हैं।
नियोजन का संबंध नियंत्रण तथा निर्देशन से है। समाज के सभी क्षेत्रों में नियंत्रण तथा निर्देशन का अनुशासन समान रूप से लागू नहीं होता। अपनी विशिष्ट प्रकृति के कारण कुछ क्षेत्र अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक नियंत्रण योग्य तथा कुछ कम नियंत्रणीय होते हैं। सामान्यतया प्राविधिक तथा आर्थिक स्तर से संबंधित विषय धार्मिक तथा विचारात्मक स्तर से संबंधित विषयों की अपेक्षा अधिक नियंत्रणीय होते हैं। जो स्तर भौतिक उपयोगिता तथा सभ्यता के उपयोगितावादी तत्वों के जितना निकट होगा और सांस्कृतिक एवं मूल्यात्मक तत्वों के प्रभाव से जितना दूर होगा वह उतना ही नियंत्रण तथा निर्देशन के अनुशासन में आबद्ध हो सकता है। इसी कारण समाज व्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में नियोजन अपेक्षाकृत अधिक सरल हो जाता है। संभवत: शुद्ध प्राविधिक या प्रौद्योगिक क्षेत्र को छोड़कर अन्य किसी क्षेत्र में पूर्णतया नियंत्रित तथा निर्देशित नियोजन करना कठिन है। नियोजक की अनेक सीमाओं के अंदर योजना बनानी होती है और ये सीमाएँ संबंधित समाज व्यवस्था के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक संदर्भ द्वारा निर्मित होती हैं। इसी कारण समाज व्यवस्था या उसकी किसी उपव्यवस्था का नियोजन नवनिर्माण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नवनिर्माण तो किसी ची का एकदम नए सिरे से, बिना किसी बाधा या सीमा के, इच्छित आधारों पर निर्माण करना है। वास्तव में नियोजन नवनिर्माण की अपेक्षा परिष्करण या पुनर्गठन अधिक है क्योंकि विद्यमान स्थितियों के दायरे में ही नियोजक को अभिलषित परिवर्तनों की रूपरेखा बनानी पड़ती है। वह अपनी कल्पनाशक्ति को मुक्त विचरण के लिए नहीं छोड़ सकता। प्रत्येक समाज व्यवस्था अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक स्थितियों के अनुरूप नियोजन के लिए प्रेरणा भी प्रदान करती है और सीमाएँ भी निर्धारित करती है।
समाज व्यवस्था की विभिन्न उपव्यवस्थाओं के परस्पर संबंधित होने के कारण किसी भी एक उपव्यवस्था का नियोजन दूसरी उपव्यवस्थाओं से प्रभावित होता है और स्वत: भी उनकी प्रभावित करता है। प्राय: विभिन्न उप व्यवस्थाओं की सीमा रेखाएँ स्पष्ट नहीं होतीं और किसी एक उपव्यवस्था के क्षेत्र में नियोजन करने वाला व्यक्ति अपने को दूसरी उपव्यवस्था के क्षेत्र का अतिक्रमण करता हुआ सा पाता है। उदाहरणार्थ, आर्थिक व्यवस्था के नियोजन के सिलसिले में कभी ऐसे भी प्रश्न उठते हैं जिनका संबंध राजनीतिक वैधानिक उपव्यवस्था से होता है। ऐसी स्थिति में आर्थिक नियोजन के हित में यह अनिवार्य हो जाता है कि अपेक्षित दिशा में प्रगति के लिए राजनीतिक वैधानिक उपव्यवस्था के उन तत्वों को भी नियोजन के अनुरूप ढाला जाए जो आर्थिक उपव्यवस्था से संबंधित हैं। अत: किसी भी उपव्यवस्था का नियोजन केवल संबंधित क्षेत्र के अंदर ही परिसीमित नहीं किया जा सकता। प्रत्येक क्षेत्र में नियोजन जितना ही व्यापक और गहन होता जाता है उतना ही जटिलतर भी होता जाता है। इस जटिलता या समाज के विभिन्न क्षेत्रों की परस्पर संबद्धता को ध्यान में रखे से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक निजयोदन का अवधारणा मूलत: समाजशास्त्रीय है। (रमेशचंद्र तिवारी)