सामाजिक नियंत्रण (Social control) के अंतर्गत व्यापक अर्थ में वे सभी सामाजिक प्रक्रियाएँ और शक्तियाँ आती हैं जिनके द्वारा सामाजिक संरचना को स्थायित्व मिलता है और वह अस्त-व्यस्त होने से बचती है। समाजशास्त्र (sociology) में सामाजिक नियंत्रण के अध्ययन का अभिप्राय यह ज्ञात करने का प्रयत्न करना है कि सामाजिक ढाँचा किस प्रकार बना रहता है और सामाजिक अंत:क्रियाएँ किस प्रकार सुव्यवस्थित रूप में चलती रहती हैं।
सामाजिक नियंत्रण का अध्ययन तात्विक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, सामाजिक समस्याओं तथा विघटन को भली भाँति समझने तथा उनका निराकरण करने के लिए भी उपयोगी है, क्योंकि तलाक, अपराध आदि अनेक सामाजिक समस्याओं का प्रमुख कारण सामाजिक नियंत्रण की प्रणालियों एवं शक्तियों की असफलता है। वास्तव में सामाजिक नियमों के उल्लंघन (deviation) को रोकने की प्रक्रिया को ही सामाजिक नियंत्रण कहते हैं अत: सामाजिक व्यवस्था में संतुलन बनाए रखने वाली शक्तियों और प्रणालियों के अध्ययन का व्यावहारिक महत्व स्पष्ट है। तात्विक दृष्टि से सामाजिक नियंत्रण, सामाजिक संरचना एवं सामाजिक परिवर्तन के साथ, समाजशास्त्र का प्रमुख अंग है।
सामाजिक नियंत्रण की परिभाषा विभिन्न समाजशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। इसकी परिधि में कौन-कौन सी प्रक्रियाएँ आती हैं, इस संबंध में कई दृष्टिकोण हैं। एक दृष्टिकोण आत्मनियमन (self regulation) को सामाजिक नियंत्रण से संबद्ध, किंतु उसकी परिधि से बाहर मानता है और दूसरा सामाजिक नियंत्रण के अंतर्गत आत्मनियमन की प्रक्रियाओं को रखने के पक्ष में हैं। विभिन्न समाजशास्त्रियों की रचनाओं में इन दो दृष्टिकोणों के प्रति झुकाव भिन्न-भिन्न मात्रा में पाया जाता है। यद्यपि सामाजिक नियंत्रण के क्षेत्र के संबंध में दृष्टिकोण के इस अंतर की चर्चा स्पष्ट रूप से कम ही हुई है, तथापि यह अंतर महत्वपूर्ण है, और यह बहुत हद तक मानव स्वभाव तथा समाज की प्रकृति के संबंध में विभिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित है।
सामाजिक नियंत्रण के संबंध में एक और प्रश्न यह उठाया गया है कि इसकी प्रणालियों को किस हद तक संपूर्ण समुदाय का हित साधक माना जा सकता है। कुछ विद्वान, जिनमें मार्क्सवादी विद्वान भी सम्मिलित हैं, यह मानते हैं कि सामाजिक नियंत्रण सदा समग्र समुदाय तथा इस समुदाय के सभी व्यक्तियों के हित में हो, यह आवश्यक नहीं है। उनका कहना है कि अनेक व्यवस्थाओं में सामाजिक नियंत्रण की प्रणालियों का प्रमुख कार्य सत्तारूढ़ वर्ग की स्थिति को दृढ़ बनाए रहना होता है। यह आवश्यक नहीं कि इस वर्ग के हित में और पूरे समुदाय के हितों में सामंजस्य हो।
सभी समाजों में सामाजिक नियंत्रण, समाजीकरण (socialization) की प्रक्रियाओं से संबद्ध रहता है। बहुत हद तक सामाजिक नियंत्रण की सफलता समाजीकरण की सफलता पर निर्भर रहती है। समाजीकरण से तात्पर्य उन प्रक्रियाओं से होता है जिनके द्वारा मानव शिशु सामाजिक प्राणी बनता है। नवजात मानव शिशु बहुत ही असहाय होता है। जन्म से न उसे भाषा पर अधिकार मिलता और न संस्कृति पर। उसका व्यक्तित्व भी अत्यंत अविकसित अवस्था में होता है। शैशव काल में समुदाय के अन्य सदस्यों के संपर्क द्वारा ही धीरे-धीरे मानव शिशु के व्यक्तित्व का विस्तार एवं परिपाक होता है। स्पष्ट है कि इसमें मुख्य हाथ माता, पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों के संपर्क का रहता है। समाजीकरण के द्वारा ही व्यक्ति अपने समुदाय की संस्कृति तथा उनकी मान्यताओं, मूल्यों और आदर्शों को आत्मसात् करता है, अर्थात् समुदाय में प्रचलित अच्छे-बुरे के मानदंड उसके व्यक्तित्व के भाग बन जाते हैं। यही कारण है कि बड़े होने पर वह अपने समुदाय में प्रचलित आदर्शों एंव व्यवहार प्रणालियों का बिना किसी बाहरी दबाव अथवा भय के भी स्वभावत: पालन करता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री टेलकट पार्सन्स ने इस प्रक्रिया मूल्यों के आंतरीकरण (internatiation of values), को अपने सिद्धांतों में बहुत महत्व दिया है। वस्तुत: मानव व्यक्तित्व के विकास के संबंध में यह दृष्टि फ्रायड तथा अन्य मनोविश्लेषणवादियों की खोजों की देन है। फ्रायड के अनुसार मन के अच्छाई बुराई का निर्णय करने वाले के पक्ष (super ego) का अस्तित्व जन्म के समय नहीं होता। उसका विकास शैशवकालीन अनुभवों द्वारा जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही होता है।
सामाजिक व्यवस्था के स्थायित्व का एक बड़ा कारण यही है कि प्रत्येक समुदाय अपने सदस्यों के व्यक्तित्व को अनुकूल रूप देता है। उस समुदाय के अच्छे-बुरे के मानदंड उनके व्यक्तित्व के अचेतन स्तर के भाग बन जाते हैं। अत: बड़े होने पर तर्कों आदि के प्रहार से भी इन आस्थाओं को भंग नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि किसी भी समुदाय के अधिकतर सदस्य उसके अधिकतर नियमों का पालन स्वाभाविक रूप से करते हैं।
इस प्रकार सामाजिक नियंत्रण की सफलता का आधार बहुत हद तक सामाजीकरण की प्रक्रियाएँ हैं। समाज एवं संस्कृति अपने सदस्यों के व्यक्तित्व को ही से गढ़ते हैं कि वह उनके स्थायित्व में बाधक न बने। इसका एक अच्छा प्रमाण हाल ही में किए गए कार्डिनर, लिंटन आदि के शोधकार्य द्वारा मिलता है। इनके दृष्टिकोण को व्यक्तित्व संस्कृति दृष्टिकोण, (personality culture approach) कहते हैं। यह दृष्टिकोण नृतत्वशास्त्र और मनोविज्ञान की सामग्री के समन्वय का परिणाम है। इस क्षेत्र में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि प्रत्येक संस्कृति में एक विशेष प्रकार के व्यक्तित्व का प्राधान्य होता है। व्यक्तित्व के एक ही प्रकार के आधारभूत गठन (basic personality structure) के प्राधान्य के कारण सांस्कृतिक परंपरा की अविरलता बनी रहती है और सामाजिक व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहती है। कार्डनर और लिंटन के अनुसार प्रत्येक समुदाय में एक ही प्रकार के व्यक्तित्व के आधारभूत गठन पाए जाने का कारण शैशव में लालन-पालन के समान ढंग हैं।
उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट है कि सामाजिक नियंत्रण में परिवार का महत्व सर्वाधिक है। यद्यपि सामान्यत: परिवार, राज्य की भाँति सामाजिक नियमों को भंग करने वालों को दंड देता हुआ दृष्टिगोचर नहीं होता, तथापि नि:संकोच कहा जा सकता है कि सामाजिक नियंत्रण का सबसे महत्वपूर्ण आधार परिवार ही है। पहली बात तो यही है कि शैशव काल में व्यक्ति का संपर्क मुख्यत: परिवार के सदस्यों से ही होता है। इस प्रकार व्यक्तित्व के निर्माण में तथा उसमें सामाजिक मूल्यों को प्रविष्ट कराने में परिवार का प्रमुख हाथ रहता है। बड़े हो जाने पर भी व्यक्ति का जितना लगाव परिवार से रहता है, उतना किसी अन्य संस्था अथवा समूह से नहीं। सच बात तो यह है कि आज भी विश्व के अधिकतर मनुष्यों का व्यवहार व्यक्तिगत अहम् की अपेक्षा पारिवारिक अहम् (family ego) से अधिक परिचालित होता है। व्यक्ति, सामाजिक नियमों को तोड़ने से स्वयं अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने परिवार के अहित के डर से भी विरत होता है। यही कारण है कि जिन बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों में ऐसे लोगों की संख्या अधिक हो जाती है जो अपने परिवारों से अलग रहते हैं, उनमें सभी प्रकार का सामाजिक विघटन बड़ी मात्रा में दृष्टिगोचर होता है। साथ ही यह सर्वमान्य है कि परिवारों के टूटने अथवा उनके गठन के शिथिल होने के साथ किशोरापराध आदि अनेक समस्याओं का प्रकोप बढ़ जाता है।
सामाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक साधनों में पड़ोस, स्थानीय समुदाय आदि का भी बहुत महत्व है। यह सर्वविदित है कि सामाजिक नियमों का उल्लंघन न करने का कारण बहुत बार पड़ोसियों का भय भी होता है। भारत तथा अन्य सभ्यताओं में ग्रामीण समुदाय औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार से सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में बहुत ही महत्वपूर्ण योग देते थे, किंतु आधुनिक सामाजिक शक्तियों के फलस्वरूप सामाजिक नियंत्रण में पड़ोस आदि स्थानीय सामाजिक संबंधों का महत्व कम होता जा रहा है। आधुनिक नगरों में बहुधा पड़ोसी एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं, उनमें एकता की भावना का अभाव रहता है तथा एक-दूसरे के व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप को बुरा समझा जाता है। अत: सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप में आधुनिकता के साथ-साथ पड़ोस का महत्व कम होता प्रतीत होता है।
शिक्षा संस्थाओं का सामाजिक नियंत्रण में बड़ा महत्व है। शिक्षा संस्थाओं द्वारा विद्यार्थियों के विचारों, भावनाओं एवं व्यवहारों को समाज स्वीकृत साँचों में ढालने का प्रयत्न किया जाता है। यों तो इस संबंध में सभी प्रकार की शैक्षणिक संस्थाओं का अपना महत्व है किंतु प्राथमिक पाठशालाओं का प्रभाव संभवत: सर्वाधिक होता है।
राज्य स्पष्टत: सामाजिक नियंत्रण का अत्यंत महत्वपूर्ण साधन है। अन्य संस्थाओं को अपेक्षा राज्य की विशेषता यह है कि इसे बल-प्रयोग अथवा हिंसा का अधिकार है। यदि कोई व्यक्ति सामाजिक नियमों के उल्लंघन की ओर इस प्रकार प्रवृत्त होता है कि परिवार तथा सामाजिक नियंत्रण के अन्य अनौपचारिक साधन उसे रोक नहीं सकते, तो राज्य उसे दंडित करके सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में योग देता है। वास्तविक दंड द्वारा राज्य सामाजिक नियमों को भंग होने से जितना बचाता है उससे कहीं अधिक दंड का भय बचाता है। सामाजिक सुव्यवस्था बनाए रखने में राज्य जिन साधनों का प्रयोग करता है वे इतने प्रत्यक्ष होते हैं कि बहुधा राज्य को सामाजिक नियंत्रण के आधार के रूप में आवश्यकता से अधिक महत्व दे दिया जाता है। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक काल में सामाजिक नियंत्रण में राज्य का कार्यक्षेत्र एवं महत्व बढ़ता जा रहा है। पहले जिस प्रकार के नियंत्रण के लिए परिवार, पड़ोस, जाति आदि पर्याप्त थे, उसके लिए भी अब राज्य की सहायता आवश्यक हो गई है। बीसवीं शताब्दी में राज्य का कार्यक्षेत्र भी बढ़ता जा रहा है। अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में अधिकतर पाश्चात्य विद्वान यह मानते थे कि आर्थिक मामलों मे राज्य की हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए तथा कोई राज्य उतना ही अच्छा है जितना कम वह शासन करता है। किंतु आज विश्व के अधिकतर देशों में राज्य को जनता के कल्याण तथा सुरक्षा के लिए उत्तरदायी माना जाने लगा है। स्वभावत: इस प्रकार कार्यक्षेत्र बढ़ने के साथ सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप में भी राज्य का महत्व बढ़ता जा रहा है।
सामाजिक ढाँचा तभी बना रह सकता है और सामाजिक व्यवस्था तभी सुचारु रूप से चल सकती है, जब मानव व्यवहार का स्वरूप सुनिश्चित बना रहे। यदि सभी लोग मनमाना व्यवहार करने लगें तो किसी प्रकार की सामाजिक सुव्यवस्था असंभव है। अत: प्रत्येक समाज में विभिन्न प्रकार के सामाजिक नियम अथवा संहिताएँ (social codes) पाई जाती हैं। यह अपेक्षा की जाती है कि सभी व्यक्तियों के व्यवहार इन्हीं प्रणालियों में प्रचलित होंगे। सामाजिक संहिताएँ अनेक प्रकार की होती हैं। इनमें कानून, रीति-रिवाज, (customs), शिष्टाचार के नियम, फैशन आदि प्रमुख हैं। इन सामाजिक संहिताओं पर आधारित होने के कारण व्यवहार सुनिश्चित रहते हैं तथा एक-दूसरे के व्यवहारों अथवा हितों का अवरोध नहीं करते। विभिन्न प्रकार की संहिताओं के पीछे भिन्न-भिन्न प्रकार की अनुशास्ति (sanction) रहती है। अर्थात् संहिताओं द्वारा व्यवहार को सीमाबद्ध करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के दंड एवं पुरस्कार होते हैं। कानून भंग करने पर शारीरिक अथवा आर्थिक दंड का भय रहता है। रीति-रिवाज के उल्लंघन से समुदाय द्वारा निंदा का भय रहता है तथा उनके पालन से सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है। धार्मिक संहिताओं के पीछे यह विश्वास रहता है कि बुरा काम करने पर दैव के दंड का भाजन बनना पड़ेगा और अच्छा कार्य करने से सुख-समृद्धि की वृद्धि होगी। अर्थात् धार्मिक नियमों के पालन से पुण्य तथा स्वर्ग आदि की प्राप्ति की आशा की जाती है और उनके उल्लंघन से पाप तथा नरक में जाने की आशंका की जाती है। शिष्टाचार के नियमों को भंग करने से उपहास तथा निरादर का भय रहता है। इस प्रकार विभिन्न सामाजिक संहिताएँ अनेक प्रकार के मानव व्यवहारों को सुनिश्चित दिशाओं में प्रेरित कर सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में सहायक होती हैं।
सामाजिक नियंत्रण न केवल शारीरिक दंड के भय से होता है और न केवल प्रत्यक्ष उपदेशों द्वारा। सामाजिक सुव्यवस्था बनाए रखने में प्रतीकात्मक कृतियों का भी बहुत बड़ा हाथ है। प्रतीकों की सबसे महत्वपूर्ण व्यवस्था मानवीय भाषा है। शायद भाषा ही मनुष्यों को पशुओं से अलग करने वाला सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है। भाषा में केवल अभिधा की ही शक्ति नहीं रहती, उसमें लक्षण और व्यंजना आदि भी पाई जाती है। अत: अपने समुदाय की भाषा सीखने के साथ-साथ मानव शिशु मानवीय आदर्श एवं मूल्य भी अनजाने ही आत्मसात् कर लेता है। भाषा के विभिन्न प्रयोग, उदाहरणत: व्यंग आदि, सामाजिक नियमों के उल्लंघन को रोकने में बहुत सहायक होते हैं। कहावतें सामाजिक नियमों के सूक्ष्म व्यतिरेक को भी पकड़ने और सामने लाने की क्षमता रखती हैं। साथ ही वह उल्लंघन करने वाले पर चोट कर तुरंत दंड भी देती हैं। इस प्रकार कहावतें भी सामाजिक नियंत्रण का महत्वपूर्ण साधन हैं। साहित्य के अन्य रूप भी सामाजिक नियंत्रण में सहायक होते हैं। नायक, खलनायक और मूर्ख के चरित्र-चित्रणों द्वारा ऐसे प्रतिमान उपस्थित होते हैं जो कुछ प्रकार के व्यवहार को प्रश्रय देते हैं तथा कुछ अन्य प्रकार के व्यवहारों से विरत करते हैं। पौराणिक कथाओं (myths) और अनुष्ठानों (rituals) का भी सामाजिक नियंत्रण में महत्वपूर्ण स्थान देता है। पौराणिक कथा अपने शुद्ध रूप में उपदेश नहीं देती। वह ऐसे प्रतीकात्मक प्रतिमान उपस्थित करती है जो व्यक्ति के विचारों एवं व्यवहार को गहराई से प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए भारत में राम की कथा, इस समाज की सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था, परिवार को शक्ति प्रदान करती है। भारत तथा अन्य कृषक सभ्यताओं में पितृसत्ताक परिवार सामाजिक जीवन की धुरी होता है। इस प्रकार के परिवार के स्थायित्व के लिए पिता की आज्ञा का पालन अत्यंत आवश्यक है। राम के चरित्र में सबसे बड़ी बात यही है कि उन्होंने पिता की आज्ञा का पालन किया, भले ही वह आज्ञा न्यायोचित नहीं थी और उसके कारण उन्हें राज्य छोड़कर वन में जाना पड़ा। इस प्रकार यह कथा परंपरागत भारतीय समाज के आधारभूत नियम को बल प्रदान कर व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने में सहायक होती हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि पौराणिक कथाओं के दैवी पात्रों और लौकिक व्यक्तियों के नाम (analogical correspondence) में विश्वास के आधार पर प्रत्येक सामाजिक स्तर (status) और कार्यभाग (role) के लिए निश्चित रूढ़ प्रकार (stereotypes) उपस्थित कर दिए जाते हैं।
अनुष्ठान प्रतीकात्मक कृत्य हैं और पौराणिक कथाओं की भाँति यह भी गहराई से मानव विचारों, भावनाओं और व्यवहारों को सुनिश्चित स्वरूप प्रदान कर सामाजिक नियंत्रण में सहायक होते हैं। जीवन के प्रमुख मोड़ों पर होने वाले संस्कार व्यक्ति के कर्तव्यों और स्थितियों को उसके सामने तथा समुदाय के अन्य सदस्यों के सामने लाकर सामाजिक सुव्यवस्था में सहायक होते हैं। उदाहरण के लिए यज्ञोपवीत होने पर द्विज बालक को समुदाय में निश्चित स्थान दिया जाता है तथा उसे विशेष प्रकार के व्यवहार के लिए प्रेरित किया जाता है। इस प्रकार के संस्कार (rites de passage) अन्य जनजातीय तथा अजनजातीय समाजों में भी पाए जाते हैं। दूर्खीम ने आस्ट्रेलिया निवासी जनजातीय लोगों के अनुष्ठानों के महत्व पर अच्छा प्रकाश डाला है। नृतत्वशास्त्री रेडक्लिफ़ ब्राउन का कहना है कि अनुष्ठान विभिन्न व्यक्तियों और समूहों के पारस्परिक संबंध तथा कार्यभाग को प्रत्यक्ष लाकर सामाजिक दृढ़ता बनाए रखने के सहायक होते हैं। उदाहरणार्थ पुत्रजन्म संबंधी अनुष्ठानों में परिवार के सदस्यों तथा समुदाय के अन्य लोगों (भारत में नाई, धोबी आदि) के विशेष प्रकार से सम्मिलित होने से यह स्पष्ट होता है कि नवजात शिशु का संबंध केवल अपने माँ-बाप से ही नहीं है, बल्कि पूरे समुदाय में उसका सुनिश्चित स्थान है।
सामाजिक नियंत्रण, सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने से संबंधित है, किंतु सामाजिक परिवर्तन से इसका कोई मौलिक विरोध स्वीकार करना आवश्यक नहीं। इसमें संदेह नहीं कि किसी पुरानी सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक नियंत्रण करने वाली जो विविध संस्थाएँ, समूह, संहिताएँ, प्रतीकात्मक कृतियाँ आदि होती हैं वे बहुधा नई व्यवस्था आने के मार्ग में बाधक होती दिखाई देती हैं। किंतु सुव्यवस्थित सामाजिक परिवर्तन के लिए इन सभी में संतुलन और साथ-साथ परिवर्तन होना आवश्यक है। अत: सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में भी सामाजिक-नियंत्रण पर ध्यान देना आवश्यक है।
सं. ग्रं.-पाल एच. लैंडिस: सोशल कंट्रोल (१९५६); रिचार्ड टी. लपेर: ए थियरी ऑव सोशल कंट्रोल (१९५४); ई. ए. रॉस: सोशल कंट्रोल (१९०१); फ्रेडरिक ई. लूमले: मींस ऑव सोशल कंट्रोल (१९२५); क्लूसान: पर्सनैलिटी इन नेचर, सोसायटी ऐंड कल्चर (१९३३); हैंस गर्थ और सी. राइट मिल्स, कैरेक्टर ऐंड सोशल स्ट्रक्चर (१९५३); टैलकट पार्सन्स: सोशल सिस्टम (१९५१); रावर्ट के. मर्टन: सोशल थियरी ऐंड सोशल कल्चर (१९५०)। (इंद्रदेव)