साइनस को कीटर, नाल या विवर कहते हैं। शरीर की रचना के अनुसार शरीर का यह भाग है, जो वायु या रुधिर से भरा रहता है। वायुकोटर नासागुहा में खुलते हैं। विभिन्न अस्थियों के नाम पर इनके नाम दिए गए हैं। रक्त से भरे कोटर को नाल या शिरानाल कहते हैं। ये तानिक नाल (sinus of durameter), हृदय स्थित नाल (sinus of heart) इत्यादि हैं, जो स्थानों के अनुसार विभिन्न नामों से अभिहित किए गए हैं। विवर अनेक स्थलों गुदा, महाधमनी, अधिवृषण, वृक्क आदि पर पाए जाते हैं और स्थलों के अनुसार इनके विभिन्न नाम हैं।

साइनस उस रोग को भी कहते हैं जिसे हम नाड़ीव्रण या नासूर कहते हैं। इस रोग में प्रस्राव या पीप निकलता है, जो जल्दी अच्छा नहीं होता। अनेक दशाओं में विवर के मध्य में बाह्य पदार्थों या मृत अस्थियों के कारण ऐसा होता है। इस रोग के बड़े-बड़े विवर गाल या कपाल की अस्थियों में पाए जाते हैं। छोटे-छोटे विवर नाक में होते हैं। इस रोग के कारण, मुख, कपाल या आँखों के पीछे एक निश्चित काल पर प्रति दिन पीड़ा होती है। कभी-कभी नाक से प्रस्राव भी गिरते हैं। ऐसे प्रस्रावों के इकट्ठा होने और श्लेष्मिक कला के सूज जाने और प्रस्राव के न निकल सकने के कारण पीड़ा होती है।

दाँत को रोगों के कारण भी कोटर (antrum) आक्रांत हो सकता है। कभी-कभी प्रस्राव में दुर्गंध रहती है, विशेषत: उस दशा में जब प्रस्राव आक्रांत कोटर से होकर निकलता है। ऐसे कोटर को बारंबार धोने से रोग से मुक्ति मिल सकती है। रोगमुक्ति के लिए साधारणतया शल्यकर्म की आवश्यकता नहीं पड़ती। अधिक से अधिक कोटर के छेद को बड़ा किया जा सकता है, ताकि उससे वह पूरा धोया जा सके। सर्दी-जुकाम को रोकने और नाक की बाधाओं को हटाने, श्लेष्म या दाँत के रोगों का तत्काल उपचार करने से नाड़ीव्रण का आक्रमण रोका जा सकता है। उष्ण और हवा तथा प्रकाश रहित कमरे में रहने से और श्लेष्मा के कारण, नाड़ीव्रण के आक्रमण की संवेदनशीलता बढ़ सकती है। [फूलदेव सहाय वर्मा]