साइक्लोट्रॉन १९३२ ई. में प्रोफेसर ई. ओ. लारेंस (Prof. E.O. Lowrence) ने वर्कले इंस्टिट्यूट, कैलिफोर्निया, में सर्वप्रथम साइक्लोट्रॉन (Cyclotron) का आविष्कार किया। वर्तमान समय में तत्वांतरण (transmutation) तकनीक के लिए यह सबसे प्रबल उपकरण है। साइक्लोट्रॉन के आविष्कार के लिए प्रोफेसर लारेंस को १९३९ ई. में 'नोबेल पुरस्कार' प्रदान किया गया।
साइक्लोट्रॉन के आविष्कारक के पूर्व, आवेशित कणों के त्वरण (acceleration) के लिए काकक्रॉफ्ट वाल्टन की विभवगुणक मशीन, वान डे ग्राफ स्थिर विद्युत जनित्र, अनुरेख त्वरक आदि उपकरण प्रयुक्त होते थे। परंतु इन सभी उपकरणों के उपयोग में कुछ न कुछ प्रायोगिक कठिनाइयाँ विद्यमान थीं। उदाहरणस्वरूप, अनुरेख त्वरक के उपयोग में निम्न दो असुविधाएँ थीं; (१) असुविधाजनक लंबाई (जितना ही छोटा कण होगा एवं जितने ही अधिक ऊर्जा के कण प्राप्त करना चाहेंगे, उतनी ही अधिक लंबाई की आवश्यकता होगी) तथा (२) आयनित धारा की अल्प तीव्रता। इस तरह की असुविधाओं को प्रोफेसर लारेंस ने साइक्लोट्रॉन के आविष्कार से दूर कर दिया।
रचना एवं तकनीकी विस्तार-साइक्लोट्रॉन की एक साधारण रचना चित्र १. में दिखाई गई है। इसमें एक चपटी, बेलनाकार, निर्वातित कक्षिका C होती है, जिसके अंदर दो खोखले अर्धवृत्ताकार धातु के बक्स D1 तथा D2 रहते हैं। D1 और D2 कोश् 'डीज़' (Dees) कहा जाता है, क्योंकि इनका आकार अंग्रेजी के शब्द डी (D) की तरह होता है। D1 और D2 के बीच १०,००० वोल्ट एवं उच्च आवृत्ति (१०७ आवृत्ति) के क्रम का प्रत्यावर्ती विभव दिया जाता है। कक्षिका C एक विशाल विद्युच्चुंबक N S के बीच रहती है। विद्युच्चुंबक से प्राप्त लगभग १५,००० गाउस का क्षेत्र 'डीज़'श् के चपटे फलकों पर लंबत: कार्य करता है। s, जो 'डीज़' के केंद्र में होता है, आयनों का स्रोत है, जहां से त्वरण के लिए धनावेशित आयन प्राप्त होते हैं।
सिद्धांतत: साइक्लोट्रॉन, सरल होते हुए भी, एक जटिल एवं महँगा उपकरण है, जिसमें बहुत से नाजुक तकनीकी विस्तारों की आवश्यकता होती है:
साधारणतया एक चपटे बेलनाकार कुछ इंच लंबे एवं ३० इंच या इससे अधिक व्यास के ताम्रतंतु बक्स, को दो भागों में काटकर 'डीज़' का निर्माण किया जाता है।
(२) कक्षिका C पीतल की बनी होती है। इसके ऊपरी एवं निचले फलक, जो चुंबकीय क्षेत्र को कक्षिका के अंदर अधिक प्रबल करने में सहायक होते हैं, भारी इस्पात के बने होते हैं। कक्षिका के अंदर उच्च निर्वात स्थापित किया जाता है, जिससे आयनों की आपसी टक्कर कम-से-कम हो और मशीन की क्षमता कम न हो।
(३) शक्तिशाली विद्युच्चुंबक का भार कुछ सौ टन या इससे अधिक ही होता है। इस अधिक भार का कारण लोहे के ध्रुव खंड, लपेट के लिए प्रयुक्त ताम्र आदि हैं। इस तरह साइक्लोट्रॉन भारी होने के साथ-साथ महँगा भी हो जाता है।
(४) प्रक्षिप्त (आयन) के त्वरण के लिए उपयुक्त प्रत्यावर्ती विभव (~१०,००० वोल्ट्, १०७ आवृत्ति) दोनों 'डीज़' के मध्य स्थापित किया जाता है। यह विभव रेडियो तकनीक द्वारा प्राप्त किया जाता है।
(५) त्वरण के लिए घनावेशित आयन, गैस के आयनीकरण द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। कक्षिका को निर्वातित करने के उपरांत उसमें आयनित गैस को लगभग १०-४ सेंमी. दाव पर भर दिया जाता है जिसके घनावेशित आयन (हाइड्रोजन, ड्यूटीरियम, हीलियम) उपयोग में लाए जाते हैं। अब 'डीज़' के ठीक ऊपर रखे हुए गरम फिलामेंट (F) से इलेक्ट्रॉनों की धारा 'डीज़' के केंद्र में फेंकी जाती है जिससे गैस का आयनीकरण हो जाता है और घनावेशित आयन ऋणावेशित डी (D) की ओर आकृष्ट हो जाते हैं। तदुपरांत त्वरण क्रिया प्रारंभ हो जाती है।
(६) प्रक्षिप्तों को उनके सामान्य प्रक्षेपपथ से हटाकर टार्नेट पर फेंकने के लिए विक्षेपक इलेक्ट्रोड (deflector electrod) की आवश्यकता होती है। विक्षेप के लिए उच्च वोल्टता (~६०,००० वोल्ट) इलेक्ट्रोड पर दी जाती है।
क्रिया सिद्धांत-उपकरण का क्रिया सिद्धांत चित्र २. में दिखाया गया है। S पर उत्पन्न घनावेशित आयन उस 'डी' की ओर आकृष्ट होगा जो उस क्षण ऋणावेशित होगा। अब आयन अर्धवृत्ताकार पथ पर चलकर उस डी को पार कर दोनों 'डीज़' के मध्य के रिक्त भाग तक पहुँचेगा। अब यदि प्रयुक्त प्रत्यावर्ती विभव की आवृत्ति एवं चुंबकीय क्षेत्र का मान इस तरह चुना जाए कि जब आयन दोनों 'डीज़' के बीच रिक्त भाग में पहुँचे, तब दूसरा डी (जो पहले घनावेशित था) ऋणावेशित हो जाए, अब आयन और अधिक वेग के उस 'डी' की ओर आकृष्ट हो जाएगा। चूँकि आयन का वेग अब और अधिक होगा, अत: वह और भी अधिक व्यास का अर्धवृत्ताकार पथ अपनाएगा। इस तरह जब भी आयन एक 'डी' को पार कर 'डीज़' के मध्य के रिक्त भाग में पहुँचेगा, तब उसके सामने का 'डी' उसके लिए सदैव ही ऋणावेशित होगा। इस तरह आयन का वेग और उसकी ऊर्जा भी बढ़ती ही जाएगी। 'डीज़' की परिमा पर ऋणावेशित विक्षेपक इलेक्ट्रोड (P) होता है, जो त्वरित आयनों को तत्वांतरण के लिए रखे गए टार्गेट पर फेंकता है।
संसार के कुछ प्रसिद्ध साइक्लोट्रॉन- यद्यपि बहुत-सी तकनीकी कठिनाइयों के कारण साइक्लोट्रॉन का निर्माण आसान नहीं है, फिर भी बहुत से साइक्लोट्रॉन इन दिनों अनेक देशों में प्रयुक्त हो रहे हैं। इनमें से अधिकांश अमरीका में ही हैं। इंग्लैंड में केंब्रिज, बर्मिंघैम तथा लिवरपूल की प्रयोगशालाओं में साइक्लोट्रॉन हैं। लगभग एक-एक साइक्लोट्रॉन पैरिस, कोपेनहेगेन, स्टॉकहोम, लेनिनग्राड एवं टोकियो में हैं। एक साइक्लोट्रॉन कलकत्ता (भारत) में भी है।
कैलिफॉर्निया में बहुत-से साइक्लेट्रॉनों के निर्माण की देखभाल प्रोफेसर लारेंस ने की है। लारेंस का पहला साइक्लोट्रॉन (१९३२ ई.) ५,००० वोल्ट्स प्रत्यावर्ती विभव एवं १४,००० गाउस चुंबकीय क्षेत्र द्वारा कार्यान्वित हुआ और १.२ मेव (Mev. अर्थात् Million Electron Volts) के प्रोटॉन दे सका था। लारेंस ने पुन: सन् १९३४-३६ में एक-दूसरे साइक्लोट्रॉन का निर्माण किया, जो लगभग १०० टन से भी अधिक भारी था। इस मशीन से ८ मेव के ड्यूट्रॉन तथा १६ मेव के ऐल्फाकण उत्पन्न किए जा सकते थे। दुनियाँ के तमाम साइक्लोट्रॉन लारेंस के इस दूसरे साइक्लोट्रॉन (सन् १९३४-३६) के ही नमूने पर बने हुए हैं।
१९३९ ई. में प्रोफेसर लारेंस एवं उनके सहयोगियों ने और भी बड़े आकार एवं भारवाले साइक्लोट्रॉन का निर्माण किया। इस उपकरण में विद्युत चुंबक का ही भार लगभग २०० टन था। इस उपकरण से लारेंस ८ मेव के प्रोट्रॉन, १६ मेव के ड्यूट्रॉन एवं ३८ मेव के ऐल्फा कण प्राप्त करने में सफल हुए।
अन्य प्रबल आयन त्वरक मशीनें-विगत कुछ वर्षों में साइक्लोट्रॉन से भी प्रबल त्वरक मशीनों का निर्माण हुआ है और हो भी रहा है। इन मशीनों से १००-१००० मेव ऊर्जा के कण प्राप्त किए जा सकते हैं। यद्यपि ये मशीनें भी साइक्लोट्रॉन की ही तरह तुल्यकालत्व (synchronism) अथवा अनुनाद (resonance) के मूलभूत सिद्धांत पर ही आधारित हैं, फिर भी इनमें नवीन तकनीक का समावेश है। ये मशीनें भी अंतरिक्ष किरणों द्वारा उत्पन्न काफी शक्तिशाली प्रक्षिप्तों के ही समान ऊर्जा कणों को उत्पन्न कर सकती हैं। इन मशीनों के नाम हैं: सिंक्रोसाइक्लोट्रॉन, बीटाट्रॉन एवं प्रोटॉनसिंक्रोट्रॉन।
सिंकोसाइक्लोट्रॉन - १९४६ ई. में प्रोफेसर लारेंस ने इस मशीन का निर्माण किया। इस मशीन द्वारा २०० मेव के ड्यूट्रॉन एवं ४०० मेव के ऐल्फा कण प्राप्त किए जा सकते हैं। मेसॉनों (mesons) को प्रयोगशाला में उत्पन्न करने के लिए इस मशीन का उपयोग किया गया है।
बीटाट्रॉन- १९४१ ई. में इस मशीन का निर्माण वर्स्ट (Kerst) ने सर्वप्रथम न्यूयॉर्क में किया। इस मशीन से १०० मेव के इलेक्ट्रॉन प्राप्त किए जा चुके हैं और ५०० मेव तक के इलेक्ट्रॉन प्राप्त किए जा सकते हैं।
प्रोटॉनसिंक्रोट्रॉन- १९४५ ई. में कैलिफोर्निया के प्रोफेसर मैकमिलन ने सर्वप्रथम इस मशीन के निर्माण के लिए विचार रखा था। ब्रूकहैवन राष्ट्रीय प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा प्रोट्रॉन सिंक्रोट्रॉन (cosmotron) का निर्माण किया है जिससे ३ मेव (Bev. अर्थात् (Billion Electron Volts) के प्रोट्रॉन प्राप्त किए जा सकते हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में और भी बड़ी मशीन (बीवेट्रॉन) का निर्माण हुआ है जिससे लगभग ७ बेव के प्रोट्रॉन प्राप्त किए जा सकते हैं।
साइक्लोट्रॉन की उपयोगिता - साइक्लोट्रॉन की उपयोगिताएँ इतनी अधिक है कि उन सबको यहाँ उद्धृत करना संभव नहीं। फिर भी मुख्य उपयोगिताएँ यहाँ पर दी जा रही हैं। उच्च ऊर्जा के ड्यूट्रॉन, प्रोट्रॉन, ऐल्फ़ा कण एवं न्यूट्रॉन की प्राप्ति के लिए यह एक प्रबल साधन है। ये ही उच्च ऊर्जा कण नाभिकीय तत्वांतरण क्रिया के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। उदाहरण स्वरूप साइक्लोट्रॉन से प्राप्त उच्च ऊर्जा के ड्यूट्रॉन बेरिलियम (4Be2) टार्गेट की ओर फेंके जाते हैं जिससे बोरॉन (5B10) नाभिकों एवं न्यूट्रॉनों का निर्माण होता है और साथ ही ऊर्जा (Q) भी प्राप्त होती है। संपूर्ण प्रक्रिया को निम्न रूप से प्रदर्शित कर सकते हैं:
4Be9 + 1H5 5B10 + O0U1 +Q
यह प्रक्रिया न्यूट्रॉन स्रोत का भी कार्य कर सकती है। बर्कले का साइक्लोट्रॉन यदि उपयोग में लाया जाए, तो बमवर्षक ड्यूट्रॉनों की ऊर्जा १९ मेव होगी। अत: पूरी प्राप्त ऊर्जा २३ मेव (१ मेव रिकॉयल बोरॉन नाभिक एवं लगभग २२ मेव न्यूट्रॉन) हो जाती है।
नाभिकीय तत्वांतरण के अध्ययन के शैक्षिक महत्व के अतिरिक्त यह रेडियो सोडियम, रेडियो फॉस्फोरस, रेडियो आयरन एवं अन्य रेडियोऐक्टिव तत्वों के व्यापारिक निर्माण के लिए उपयोग में लाया गया है। रेडियोऐक्टिव तत्वों की प्राप्ति ने शोधकार्य में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। हर रेडियोऐक्टिव तत्व चिकित्सा, विज्ञान, इंजीनियरी, टेक्नॉलोजी आदि के क्षेत्रों में नए-नए अनुसंधानों को जन्म दे रहा है। ये अनुसंधान निश्चय ही 'परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग' के ही अंश हैं। [शुद्धोदन प्रसाद मिश्र]