साँची स्थिति: २३२९उ. अ. तथा ७७४५पू. दे.। यह गाँव भारत के मध्य प्रदेश राज्य के सिंहोर जिले में स्थित है। यहाँ प्राचीन स्तूपश् तथा अन्य भग्नावशेष हैं, जिनके कारण यह स्थान प्रसिद्ध है। सन् १८१८ में जनरल टेलर को पहले पहल इन स्तूपों एवं भग्नावशेषों का पता चला और सन् १८१९ में कैप्टन फेल ने इनका विवरण दिया।

साँची ग्राम बलुआ पत्थर की ३०० फुट ऊँची, समतल चोटी वाली पहाड़ी पर स्थित है। समतल चोटी के मध्य में और पहाड़ी की पश्चिमी ढलान की ओर जाने वाली संकीर्ण पट्टी पर मुख्य अवशेष हैं, जिनमें बृहत् स्तूप, चैत्य तथा कुछ समाधियाँ सम्मिलित हैं। बृहत् स्तूप पहाड़ी के मध्य में स्थित हैं। यह स्तूप ठोस, गोलीय खंड है और लाल बलुआ पत्थरों का बना हुआ है। आधार पर स्तूप का व्यास ११० फुट है। आधार से बाहर की ओर ढलान वाली, १५ फुट ऊँची पटरी (berm) है, जो स्तूप के चारों ओर ५फुट चौड़ा प्रदक्षिणापथ बनाती है और इस पटरी के कारण आधार का व्यास १२१ फुट, ६ इंच हो जाता है। स्तूप का शीर्ष समतल है और मूलत: इस समतल पर पत्थर की वष्टनी तथा प्रचलित कलश था। यह वेष्टनी सन् १८१९ तक थी। जब स्तूप पूर्ण था, तब उसकी ऊँचाई अवश्य ही ७७फुट रही होगी। स्तूप के चारों ओर पत्थर की वेष्टनी लगी है, जिसमें चार प्रवेशद्वार हैं और इन पर सजावटी एवं चित्रमय खुदाई है। उत्तर और दक्षिण की ओर एक पत्थर वाले दो स्तंभ थे जिन पर सम्राट अशोक की राजाज्ञाएँ खुदी हुई थीं। इनमें से एक पूर्वी द्वार पर सन् १८६२ तक था और उसकी लंबाई १५ फुट २ इंच थी। प्रत्येक द्वार के अंदर ध्यानी बुद्ध की लगभग मानवाकार मूर्तियाँ हैं, पर ये अपने मूल स्थान से हट गई हैं।

संपूर्ण स्मारक के प्रमुख आकर्षण, चारों दिशाओं में स्थित, चार प्रवेश द्वार हैं। स्तंभ के तीसरे शहतीर तक इनमें से प्रत्येक की ऊँचाई २८ फुट ५ इंच तथा ऊपर के अलंकरण तक कुल ऊँचाई ३२ फुट ११ इंच है। ये द्वार सफेद बलुआ पत्थर के बने हैं और इन पर बुद्ध संबंधी लोक कथाओं एवं जातक कथाओं के दृश्य अंकित हैं। इन दृश्यों में भगवान् बुद्ध की प्रतीकों (चरण चिन्ह या बोधि वृक्ष) द्वारा व्यक्त किया गया है। कालांतर के बौद्ध शिल्प में ध्यानावस्थित या उपदेश देते हुए बुद्ध की मूर्तियों का बाहुल्य है, पर इन द्वारों पर ऐसी मूर्तियों का कोई चिन्ह भी नहीं मिलता है।

स्तूप का निर्माण काल लगभग २५० ई. पू. का माना गया है और संभवत: इसे सम्राट अशोक ने बनवाया था। द्वारों की नक्काशी से ज्ञात होता है कि ये ईसवी शताब्दी के कुछ पूर्व के हैं। साँची के इतिहास के बारे में कुछ ज्ञात नहीं है। चीनी यात्री फाह्यान तथा हुएनत्सियांग ने भी अपनी यात्रा के विवरण में इसका कहीं उल्लेख नहीं किया है। महावंश नामक ग्रंथ में केवल एक कहानी दी हुई है। इस कहानी में इस बात का वर्णन है कि जब अशोक उज्जयिनी का शासक नियुक्त किया गया था, तब उसने किस प्रकार वसंतगिरि या चैत्यागिरि नगर के श्रेष्ठी की कन्या से विवाह किया था। पर स्तूप की कहीं चर्चा नहीं है। अब उपर्युक्त वसंतनगर को वेसनगर कहते हैं और इसके भग्नावशेष भिलसा के पास मिले हैं।

साँची के बृहत् स्तूप के समीप संभवत: चौथी शताब्दी का, गुप्त शैली में निर्मित, एक छोटे मंदिर का भग्नावशेष है। इसके समीप चैत्यश् के सभा भवन का भग्नावशेष है, जो वास्तु की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि अपने ढंग का यही भवन प्राप्त है और शेष प्राप्त चैत्य चट्टानों को काटकर बनाए गए हैं; चैत्य का जो कुछ शेष है, वह है बड़े-बड़े स्तंभों की शृंखला और दीवार की नींव, जिससे यह प्रकट होता है कि चैत्य ठोस अर्धवृत में समाप्त होता था। वृहद् स्तूप के उत्तर पूर्व में पहले एक छोटा स्तूप था, जो अब ईटों का ढेर मात्र है और इसके सामने एक प्रवेश द्वार है। वृहद् स्तूप के पूर्व में चबूतरे पर बुद्ध की विशाल प्रतिमाओं से युक्त, अनेक समाधियाँ हैं। पहाड़ी की पश्चिमी ढलान पर एक अन्य छोटा स्तूप है, जिसके चारों ओर बिना प्रवेश द्वार की वेष्टनी है।

साँची में अनेक शव पेटिकाएँ तथा चार सौ से अधिक उत्कीर्ण लेख मिले हैं, जिनमें से अंतिम लेख वेष्टनियों एवं द्वारों पर खुदा हुआ है। इलाहाबाद और सारनाथ में प्राप्त स्तंभों की तरह का स्तंभ यहाँ खुदाई में प्राप्त हुआ है, जिस पर सम्राट अशोक की राजाज्ञा अंकित है। यह राजाज्ञा मालवा के महामात्र को संबोधित कर लिखी गई है और इसमें स्तूप के चारों ओर के मार्ग के रख-रखाव के संबंध में कहा गया है।

द्वार और वेष्टनियों पर अंकित अभिलेख बड़े महत्व के हैं। इनमें से कुछ श्रेणियों (guild) द्वारा, जैसे विदिशा के हाथी दाँत के कारीगरों की श्रेणी, अंकित कराए गए हैं और कुछ सभी वर्गों के व्यक्तियों द्वारा, जैसे श्रेष्ठी, व्यापारी, राजकीय लिपिक एवं अश्वारोही सैनिक, अंकित कराए गए हैं। इन लेखों से स्पष्ट है कि सभी वर्गों के लोगों में बौद्ध धर्म के प्रति दृढ़ आस्था थी। बौद्ध गुहालेखों में जिस प्रकार अन्य धर्मों के अस्तित्व का पता चलता है, वैसा कोई उल्लेख साँची के अभिलेखों में नहीं है, पर अभिलेखों में शैव और वैष्णव नामों की उपस्थिति से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन समय में इन धर्मों का अस्तित्व था। विभिन्न स्थानों के, जैसे एरान या एरानिका (Eran or Eranika), पुष्कर या पोखरा (Pushkar, or Pokhara), उज्जैन या उज्जैयिनी (Ujjain or Ujeni) के, दाताओं से दान प्राप्त हुआ था।

प्रथम या द्वितीय शताब्दी ई. पू. से लेकर ९वीं एनं १०वीं ई. तक के अभिलेख मिले हैं। दक्षिणी द्वार के स्तंभों के ऊपर रखा शहतीर आंध्र के राजा शातकर्णि (Satakarni) द्वारा उपहार के रूप में दिया गया था और इसकी रचना शैली से लगता है कि यह ई. पू. दूसरी शताब्दी के पूर्वार्ध में बना था। दो अभिलेख ४१२ ई. तथा ४५० ई. (गुप्त काल) के हैं, जिनमें काकनादाबोत (Kakanadabota) बिहार को भिखारियों को भोजन कराने तथा दीपक जलाने के लिए दिए गए अनुदानों का उल्लेख है। एक अन्य अभिलेख कुषाण राजा संभवत: जुष्क या वासुदेव, से संबंधित मालूम पड़ता है। इन लेखों में काकनाद (Kakanada) दिया है, पर साँची का नाम कहीं भी नहीं मिलता है।

सन् १८८१-८२ में साँची के वृहत् स्तूप की मरम्मत की गई और गिरे हुए द्वारों को पुन: स्थापित किया गया। इस समय तक यह स्थान उपेक्षित सा रहा। सन् १८८६ में फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय ने भोपाल का बेगम से साँची के द्वारों में से एक को उपहार के रूप में माँगा था। तत्कालीन भारत सरकार ने द्वार भेजना अस्वीकार कर दिया था, लेकिन इसका प्लास्टर ऑव पेरिस का साँचा बनवाकर पैरिस भेज दिया था। यहाँ के द्वारों के सांचे लंदन के साउथ केंसिंग्टन म्यूजियम, डब्लिन तथा एडिन्बरो में भी हैं। श्[अजितनारायण मेहरोत्रा]