इसकी लोकप्रियता के और चाहे जो भी कारण हों पर एक तो यह अवश्य रहा प्रतीत होता है कि इस दर्शन ने जीवन में दिखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। सांख्याचार्यों के इस प्रकृति-कारण-वाद का महान् गुण यह है कि पृथक् -पृथक् धर्म वाले सत्वों, रजस् तथा तमस् तत्वों के आधार पर जगत् के वैषम्य का किया गया समाधान बड़ा न्याययुक्त तथा बुद्धिगम्य प्रतीत होता है।
'सांख्य' नाम की मीमांसा-'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति 'संख्या' शब्द के आगे अणु प्रत्यय जोड़ने से होती है और संख्या शब्द की व्युत्पत्ति सम+चक्ष्ङ्ि धातु ख्यान् दर्शन+अङ् प्रत्यय टाप है, जिसके अनुसार इसका अर्थ सम्यक् ख्याति, साधु दर्शन अथवा सत्य ज्ञान है। सांख्याचार्यों की यह सम्यक् ख्याति, उनका यह सत्य ज्ञान व्यक्ताव्यक्त रूप द्विविध अचित् तत्व से पुरुष रूप चित् तत्व को पृथक् जान लेने में निहित है। ऊपर-ऊपर से प्रपंच में सना हुआ दिखाई पड़ने पर भी पुरुष वस्तुत: उससे अछूता रहता है। उसमें आसक्त या लिप्त दिखाई पड़ने पर भी वस्तुत: अनासक्त या निर्लिप्त रहता है--सांख्याचार्यों की यह सबसे बड़ी दार्शनिक खोज उन्हीं के शब्दों में सत्वपुरुषान्यताख्याति, विवेक ख्याति, व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञान, आदि नामों से व्यवहृत होती है। इसी विवेक ज्ञान से मानव जीवन के परम पुरुषार्थ या लक्ष्य की सिद्धि मानते हैं। इस प्रकार 'संख्या', शब्द सांख्याचार्यों की सबसे बड़ी दार्शनिक खोज का वास्तविक स्वरूप प्रकट करने वाला संक्षिप्त नाम है जिसके सर्वप्रथम व्याख्याता होने के कारण उनकी विचारधारा अत्यंत प्राचीन काल में 'सांख्य' नाम से अभिहित हुई। गणनार्थक 'संख्या' शब्द से भी 'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति मानी जाती है। महाभारत में सांख्य के विषय में आए हुए एक श्लोक में ये दोनों ही प्रकार के भाव प्रकट किए गए हैं। वह इस प्रकार है 'संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते। तत्त्वानि च चतुविंशद् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता: (महाभा. १२ । ३११ । ४२)। इसका शब्दार्थ यह है कि जो संख्या अर्थात् प्रकृति और पुरुष के विवेक ज्ञान का उपदेश करते हैं, जो प्रकृति का प्रभाव प्रतिपादन करते हैं तथा जो तत्वों की संख्या चौबीस निर्धारित करते हैं, वे सांख्य कहे जाते हैं। कुछ लोगों की ऐसी धारणा है कि ज्ञानार्थक 'संख्या' शब्द से की जाने वाली गौण। सांख्य में प्रकृति एवं पुरुष के विवेक ज्ञान से ही जीवन के परम लक्ष्य केवल या मोक्ष की सिद्धि मानी गई है, अत: उस ज्ञान की प्राप्ति ही मुख्य है और इस कारण से उसी पर सांख्य का सारा बल है। सांख्य (पुरुष के अतिरिक्त) चौबीस तत्व मानता है, यह तो एक सामान्य तथ्य का कथन मात्र है, अत: गौण है।
उदयवीर शास्त्री ने अपने 'सांख्य दर्शन का इतिहास' नामक ग्रंथ में (पृष्ठ ६) सांख्य शास्त्र के कपिल द्वारा प्रणीत होने में भागवत ३-२५-१ पर श्रीधर स्वामी की व्याख्या को उद्धृत करते हुए इस प्रकार लिखा है-अंतिम श्लोक की व्याख्या करते हुए व्याख्याकार ने स्पष्ट लिखा है- तत्वानां संख्याता गणक: सांख्य-प्रवर्तक इत्यर्थ:। इससे निश्चित हो जाता है कि यही कपिल सांख्य का प्रर्वतक या प्रणेता है। श्रीधर स्वामी के गणक: शब्द पर शास्त्री जी ने नीचे दिए गए फुटनोट में इस प्रकार लिखा है- मध्य काल के कुछ व्याख्याकारों ने 'सांख्य' पद में 'संख्य' शब्द को गणनापरक समझकर इस प्रकार के व्याख्यान किए हैं। वस्तुत: इसका अर्थ तत्व ज्ञान है। परंतु गहराई से विचार करने पर यह बात उतनी सामान्य या गौण नहीं है जितनी आपातत: प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत प्राचीन काल में दार्शनिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में जब तत्वों की संख्या निश्चित नहीं हो पाई थी, तब सांख्य ने सर्वप्रथम इस दृश्यमान भौतिक जगत् की सूक्ष्म मीमांसा का प्रयास किया था जिसके फलस्वरूप उसके मूल में वर्तमान तत्वों की संख्या सामान्यत: चौबीस निर्धारित की थी। इनमें भी प्रथम तत्व जिसे उन्होंने 'प्रकृति' या 'प्रधान' नाम दिया, शेष तेईस का मूल सिद्ध किया गया। चित् पुरुष के सान्निध्य से इसी एक तत्व 'प्रकृति' को क्रमश: तेईस अवांतर तत्वों में परिणत होकर समस्त जड़ जगत् को उत्पन्न करती हुई माना था। इस प्रकार तत्व संख्या के निर्धारण के पीछे सांख्यों की बहुत बड़ी बौद्धिक साधना छिपी हुई प्रतीत होती है। आखिर सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा दीर्घ काल तक बिना चिंतन और विश्लेषण किए तत्वों की संख्या का निर्धारण कैसे संभव हुआ होगा?
उपर्युक्त विवेचन से ऐसा निश्चय होता है कि सांख्य दर्शन का 'सांख्य' नाम दोनों ही प्रकारों से उसके बुद्धिवादी तर्कप्रधान होने का सूचक है। सांख्यों का अचित् प्रकृति तथा चित् पुरुष, दोनों ही मूलभूत तत्वों को आगम या श्रुति प्रमाण से सिद्ध मानते हुए भी मुख्यत: अनुमान प्रमाण के आधार पर सिद्ध करना भी इसी बात का परिचायक है। आज कल उपलब्ध सांख्य प्रवचन सूत्र एवं सांख्यकारिक, इन दोनों ही मौलिक सांख्य ग्रंथों को देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि इनमें सांख्य के दोनों ही मौलिक तत्वों- प्रकृति एवं पुरुष की सत्ता हेतुओं के आधार पर अनुमान द्वारा ही सिद्ध की गई है (सां. सू. १।१३०-१३७, १४०-१४४, एवं सांख्यकारिका १५ तथा १७)। पुरुष की अनेकता में भी युक्तियाँ ही दी गई हैं (सां. सू. १।१४९; तथा सांख्यकारिका १८)। सत्कार्यवाद की स्थापना भी तर्कों के ही आधार पर की गई है। (सां. सू. १।११४-१२१, ६।५३; तथा सांख्यकारिका ९)। इस प्रकार सांख्या शास्त्र का श्रवण, जो विवेक ज्ञान का मूलाधार है, तर्क प्रधान है। मनन, अनुकाल तर्कों द्वारा शास्त्रोक्त तथ्यों तथा सिद्धांतों का चिंतन है ही। इस प्रकार जिस संख्या या विवेक ज्ञान के कारण सांख्य दर्शन का 'सांख्य' नाम पड़ा, उसका विशेष संबंध तर्क और बुद्धिवादिता से है। इस बुद्धिवाद के कारण अवांतर काल में सांख्य दर्शन के कुछ सिद्धांत वैदिक संप्रदाय से बहुत कुछ स्वतंत्र रूप से विकसित हुए जिसके कारण बादरायण व्यास तथा शंकराचार्य आदि आचार्यों ने इसका खंडन करते हुए अवैदिक संप्रदाय, तक कह डाला। यह संप्रदाय अपने मूल में तो अवैदिक नहीं प्रतीत होता, और अपने परवर्तीश् (Classical) रूप में भी सर्वथा अवैदिक नहीं है।
प्रसिद्ध भाष्यकार विज्ञानभिक्षु ने भी सांख्य को आगम या श्रुति का सत् तर्कों द्वारा किया जाने वाला मनन ही माना है। उन्होंने अपने सांख्य प्रवचन-सूत्र-भाष्य की अवतरणिका में यही बात इस प्रकार कही है-जो एकोऽद्वितीय:' इत्यादि पुरुष विषयक वेद वचन जीव का सारा अभियान दूर करके उसे मुक्त कराने के लिए उस पुरुष को सर्व प्रकार के वैषर्म्य- रूपभेद से रहित बताते हैं उन्हीं वेद वचनों के अर्थ के मनन के लिए अपेक्षित सद् युक्तियों का उपदेश करने के लिए सांख्यकर्ता नारायणावतार भगवान् कपिल आविर्भूत हुए थे।
सांख्य दर्शन की वेदमूलकता-विज्ञान भिक्षु के पूर्व प्रवचनों से स्पष्ट है कि वे सांख्य शास्त्र को वेदानुसारी मानते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि 'एकोऽद्वितीय.' इत्यादि वेद वचनों के अर्थ का ही वह सद् युक्तियों एवं तर्कों द्वारा समर्थन करता है, उसका प्रतिपादन और विवेचन करके उसे बोधगम्य बनाता है। विज्ञान भिक्षु ने वस्तुत: लोक में प्रचलित पूर्व परंपरा का ही अनुसरण करते हुए अपना पूर्वोक्त मत प्रकट किया है। अत्यंत प्राचीन काल से ही महाभारत, गीता, रामायण, स्मृतियों तथा पुराणों में सर्वत्र सांख्य का न केवल उच्च ज्ञान के रूप में उल्लेख भर हुआ है, अपितु उसके सिद्धांतों का यत्र-तत्र विस्तृत विवरण भी हुआ है। गीता में भी सांख्य दर्शन के त्रिगुणात्मक सिद्धांत को बड़ी सुंदर रीति से अपनाया गया है। 'त्रिगुणात्मिका प्रकृति नित्य परिणामिनी है। उसके तीनों गुण ही सदा कुछ न कुछ परिणाम उत्पन्न करते रहते हैं, पुरुष अकर्ता है' -सांख्य का यह सिद्धांत गीता के निष्काम कर्मयोग का आवश्यक अंग बन गया है (गीता १३/२७, २९ आदि)। इसी प्रकार अन्यत्र भी सांख्य दर्शन के अनेक सिद्धांत अन्य दर्शनों के सिद्धांतों के पूरक रूप से प्राचीन संस्कृत वाड्मय में दृष्टिगोचर होते हैं। इन सब बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि यह दर्शन अपने मूल में वैदिक ही रहा है, अवैदिक नहीं, क्योंकि यदि सत्य इससे विपरीत होता तो वेदप्राण इस देश में सांख्य के इतने अधिक प्रचार-प्रसार के लिए उपर्युक्त क्षेत्र न मिलता। इस अनीश्वरवाद, प्रकृति पुरुष द्वैतवाद, (प्रकृति) परिणामवाद आदि तथाकथित वेद विरुद्ध सिद्धांतों के कारण वेद बाह्य कहकर इसका खंडन करने वाले वेदांत भाष्यकार शंकराचार्य को भी ब्रह्मसूत्र २।१।३ के भाष्य में लिखना ही पड़ा कि 'अध्यात्मविषयक अनेक स्मृतियों के होने पर भी सांख्य योग स्मृतियों के ही निराकरण में प्रयत्न किया गया। क्योंकि ये दोनों लोक में परम पुरुषार्थ के साधन रूप में प्रसिद्ध हैं, शिष्ट महापुरुषों द्वारा गृहीत हैं तथा 'तत्कारणं सांख्य योगाभिषन्नं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशै: या (श्वेता. ६।१३) इत्यादि श्रोत लिंगों से युक्त हैं।' स्वयं भाष्यकार के अपने साक्ष्य से भी स्पष्ट है कि उनके पूर्ववर्ती सूत्रकार के समय में भी अनेक शिष्ट पुरुष सांख्य दर्शन को वैदिक दर्शन मानते थे तथा परम पुरुषार्थ का साधन मानकर उसका अनुसरण करते थे। इन सब तथ्यों के आधार पर सांख्य दर्शन को मूलत: वैदिक ही मानना समीचीन है। हाँ, अपने परवर्ती विकास में यह अवश्य ही कुछ मूलभूत सिद्धांतों में वेद विरुद्ध हो गया है जैसे उत्तरवर्ती सांख्य वैदिक परंपरा के विरुद्ध निरीश्वर है, उसकी प्रकृति स्वतंत्र रूप से स्वत: समस्त विश्व की सृष्टि करती है। परंतु इस दर्शन का मूल प्राचीनतम छांदोग्य एवं वृहदारण्यक उपनिषदों में प्राप्त होता है। इसी से इसकी प्राचीनता सुस्पष्ट है।
सांख्य संप्रदाय-इस दर्शन के दो ही मौलिक ग्रंथ आज उपलब्ध हैं-पहला छह अध्यायों वाला 'सांख्य-प्रवचन-सूत्र' और दूसरा सत्तर कारिकाओंवाला 'सांख्यकारिका'। इन दो के अतिरिक्त एक अत्यंत लघुकाय सूत्र ग्रंथ भी है जो 'तत्व समास' के नाम से प्रसिद्ध है। शेष समस्त सांख्य वाड्मय इन्हीं तीनों की टीका और उपटीका मात्र है। इनमें सांख्य सूत्रों के उपदेष्टा परंपरा से कपिल मुनि माने जाते हैं। कई कारणों से उपलब्ध सांख्य-प्रवचन-सूत्रों को विद्वान लोग कपिलकृत नहीं मानते। इतनी बाद अवश्य ही निश्चित है कि इन सूत्रों को कपिलोपदिष्ट मानने पर भी इसके अनेक स्थलों को स्वयं सूत्रों के ही अत: साक्ष्य के बल पर प्रक्षिप्त मानना पड़ेगा। सांख्याकारिकाएँ ईश्वर कृष्ण द्वारा रचित हैं, जिनका समय बहुमत से ई. तृतीय शताब्दी का मध्य माना जाता है। वस्तुत: इनका समय इससे पर्याप्त पूर्व का प्रतीत होता है। कपिल के शिष्य आसुरि का कोई ग्रंथ नहीं बताया जाता, परंतु इनके प्रथित शिष्य आचार्य पंचशिख के नाम से अनेक सूत्रों के व्यासकृत योगभाष्य आदि प्राचीन ग्रंथों में उद्धृत होने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इनके द्वारा रचित कोई सूत्रग्रंथ अति प्राचीन काल में प्रसिद्ध था। अनेक विद्वानों के मत से यह प्रसिद्ध ग्रंथ षष्ठितंत्र ही था। उदयवीर शास्त्री के मत से वर्तमान काल में उपलब्ध षडध्यायी सांख्य-प्रवचन-सूत्र ही षष्ठि (साठ) पदार्थों का निरूपण करने के कारण 'षष्ठितंत्र' के नाम से भी ज्ञात था। उनके मत से संभवत: कपिल मूर्ति के प्रशिष्य पंचशिखाचार्य ने उस पर व्याख्या लिखी थी और वह भी मूलग्रंथ के ही नाम पर षष्ठितंत्र कही जाती थी। कुछ विद्वानों के मत से 'षष्ठि तंत्र' प्रसिद्ध सांख्याचार्य वार्षगण्य का लिखा हुआ है। जैगीषध्य, देवल, असित इत्यादि अन्य अनेक प्राचीन सांख्याचार्यों के विषय में आज कुछ विशेष ज्ञान नहीं है।
सांख्य के प्रमुख सिद्धांत-सांख्य दृश्यमान विश्व को प्रकृति-पुरुष-मूलक मानता है। उसकी दृष्टि से केवल चेतन या केवल अचेतन पदार्थ के आधार पर इस चिदविदात्मक जगत् को संतोषप्रद व्याख्या नहीं की जा सकती। इसीलिए लौकायतिक आदि जड़वादी दर्शनों की भाँति सांख्य न केवल जड़ पदार्थ ही मानता है और न अनेक वेदांत संप्रदायों की भाँति वह केवल चिन्मात्र ब्रह्म या आत्मा को ही जगत् का मूल मानता है। अपितु जीवन या जगत् में प्राप्त होने वाले जड़ एवं चेतन, दोनों ही रूपों के मूल रूप से जड़ प्रकृति, एवं चिन्मात्र पुरुष इन दो तत्वों की सत्ता मानता है। जड़ प्रकृति सत्व, रजम् एवं तमस्, इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है। ये गुण 'बल च गुणवृत्तम्' न्याय के अनुसार प्रति क्षण परिगामी हैं। इस प्रकार सांख्य के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का वास्तविक परिणाम है, शांकर के वेदांत की भाँति भगवन्माय: का विवर्त, अर्थात् असत् कार्य अथवा मिथ्या विलास नहीं है। इस प्रकार प्रकृति को पुरुष की ही भाँति अज और नित्य मानने तथा विश्व को प्रकृति का वास्तविक परिणाम सत् कार्य मानने के कारण सांख्य सच्चे अर्थों में बाह्यथार्थवादी या वस्तुवादी दर्शन हैं। किंतु जड़ बाह्यथार्थवाद भोग्य होने के कारण किसी चेतन भोक्ता के अभाव में अपार्थक या अर्थशून्य अथवा निष्प्रयोजन है, अत: उसकी सार्थकता के लिए सांख्य चेतन पुरुष या आत्मा को भी मानने के कारण अध्यात्मवादी दर्शन है। मूलत: दो तत्व मानने पर भी सांख्य परिणामिनी प्रकृति के परिणामस्वरूप तेईस अवांतर तत्व भी मानता है। इसके अनुसार प्रकृति से महत् या बुद्धि, उससे अहंकार, तामस, अहंकार से पंच-तन्मात्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध) एवं सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय (पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय तथा उभयात्मक मन) और अंत में पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, तेजस्, जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत, इस प्रकार तेईस तत्व क्रमश: उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार मुख्यामुख्य भेद से सांख्य दर्शन २५ तत्व मानता है। जैसा पहले संकेत कर चुके हैं, प्राचीनतम सांख्य ईश्वर को २६वाँ तत्व मानता रहा होगा। इसके साक्ष्य महाभारत, भागवत इत्यादि प्राचीन साहित्य में प्राप्त होते हैं। यदि यह अनुमान यथार्थ हो तो सांख्य को मूलत: ईश्वरवादी दर्शन मानना होगा। परंतु परवर्ती सांख्य ईश्वर को कोई स्थान नहीं देता। इसी से परवर्ती साहित्य में वह निरीश्वरवादी दर्शन के रूप में ही उल्लिखित मिलता है। �[आ. प्र. मि.]