इनैमल धातु पर पिघलाकर चढ़ाई गई काँच (अथवा काँच के समान पदार्थ) की तह को इनैमल कहते हैं। धातुपदार्थों के ऊपर काँचीय परत जमाने की कला बड़ी पुरानी है। परंतु साधारण बोलचाल में किसी भी वस्तु के ऊपर की चमकदार तह को इनैमल कहा जाता है। साइकिल और मोटरकार पर चढ़ा सेलूलोज़ रंग या दाँतों की ऊपरी प्राकृतिक परत प्राविधिक रूप से इनैमल नहीं है। प्राविधिक दृष्टिकोण से इनैमल अकार्बनिक काँचीय परत है जो पिघलाकार किसी सतह पर जमाई जाती है। मुख्यत: काँच, चीनी मिट्टी के पात्र, धातु और खनिज पदार्थों की सतहों पर इनैमल किया जाता है। वस्तुत: इनैमल कम ताप पर प्रद्रवित होनेवाला काँच है। सोने और चाँदी पर (कभी-कभी ताँबे पर भी) किए काम को हिंदी में साधारणत: मीना या मीनाकारी (इनैमल) कहते हैं।

इतिहास-इनैमल कला का कहाँ और कब आविष्कार हुआ, यह बताना अति कठिन है। अधिक संभावना यही है कि इनैमल कला का आविष्कार, काँच कला के समान, पश्चिमी एशिया में हुआ। प्राचीन समय के इनैमल सुसज्जित स्वर्ण, रजत, ताम्र और मिट्टी के पात्र उपलब्ध हुए हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि इनैमल कला का ज्ञान प्राचीन मिस्र, ग्रीस और बाइज़ैंटाइन साम्राज्य के लोगों को भी था।

इंग्लैंड की सभ्यता के पूर्व आयरलैंड निवासी भी यह कला जानते थे। मार्को पोलो के भ्रमण के पश्चात् चीन और जापान में भी इस कला का प्रसार हुआ। मिस्र की प्राचीन समाधियों में मीनाकृत आभूषण प्राप्त हुए हैं। उस समय स्वर्ण, रजत और ताम्र धातुओं पर कई प्रकार की सुंदर मीनाकारी की जाती थी। भारत में लखनऊ तथा जयपुर की १७वीं शताब्दी की मीनाकारी बहुत प्रसिद्ध थी जिसमें पारदर्शी मीना के पृष्ठ पर उत्कीर्णन (नक्काशी) रहता था। ऐसे काम को अंग्रेजी में बासटेय (छिछला उत्कीर्णन) कहते हैं।

इनैमल मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं :

(१) कठोर ईनमल-यह नरम इस्पात और ढलवाँ लोहे पर सुरक्षा और सजावट के लिए चढ़ाया जाता है।

(२) मृदु इनैमल-यह मंद ताप पर द्रवित होता है और स्वर्ण, रजत तथा ताम्र पर सुंदरता और सजावट के लिए लगाया जाता है। मीनाकारी इसी जाति का इनैमल है।

स्वच्छ करना-इनैमल करने के पहले वस्तुओं को पूर्णतया स्वच्छ करना आवश्यक है। इसकी रीति निम्नलिखित है :

नरम इस्पात-इसकी सतह इनैमल करने के पूर्व पूर्ण रूप से स्वच्छ कर ली जाती है। वस्तुविशेष को बंद भट्टी (मफ़ल फ़र्नेस) के भीतर ६००-७००° सेंटीग्रेड पर तप्त करने से मोरचा ढीला होकर झड़ जाता है और तेल, वसा इत्यादि अशुद्धियाँ जलकर नष्ट हो जाती हैं। अशुद्धियों को पूर्ण रूप से निकाल देने के लिए तापन के पश्चात् अम्लशोधन का सर्वदा प्रयोग किया जाता है। इस रीति में धातु की वसतुओं को तनु (फीके) सल्फ्यूरिक या हाइड्रोक्लोरिक अम्ल में डुबा दिया जाता है। साधारण: ६-१० प्रतिशत तप्त सलफ्यूरिक अम्ल का प्रयोग किया जाता है। १० प्रतिशत हाइड्रोक्लोरिक अम्ल बिना गर्म किए ही प्रयुक्त हो सकता है। अम्लशोधन की क्रिया १५ मिनट से लेकर आधे घंटे तक की जाती है। इससे लौह वस्तु पर मोरचा और अन्य सब अशुद्धियाँ पूर्णतया नष्ट हो जाती हैं। इसके पश्चात् वस्तु को स्वच्छ जल में हौज में डुबोकर छोड़ दिया जाता है। फिर धुली वस्तुओं को सोडा के १ प्रतिशत विलियन में डुबाने के पश्चात् उन्हें निकालकर सुखा लिया जाता है। लौह वस्तुओं पर क्षार की पतली परत जम जाने से मोरचा नहीं लगता है।

ढलवाँ लोहा-इस प्रकार के लोहे की वस्तुओं का अम्लशोधन नहीं किया जाता है। ऐसे लोहे की सतहों को तापन और बालुकाप्रेक्षपण (सैंडब्लास्टिंग) द्वारा साफ किया जाता है। ८००° सें. तक तप्त करने से तेल, वसा, फासफोरस, गंधक इत्यादि अशुद्धियाँ जलकर नष्ट हो जाती हैं। बालुकाप्रक्षेपण के लिए वायु की दाब ७० से ८० पाउंड प्रति वर्ग इंच रखी जाती है और करकराती, शुष्क और महीन बालू ढलवाँ लोहे की सतह को स्वच्छ करके चमका देती है।

स्वर्ण, चाँदी और ताम्र-इन धातुओं की सतहों को स्वच्छ करने के लिए इनको भी तप्त किया जाता है और तनु सल्फ्यूरिक अम्ल में उबाला जाता है। जल से धोने के पश्चात् इनको सोडा विलयन में डुबाया जाता है और तदुपरांत सुखा लिया जाता है।

इनैमल करना-विविध धातुओं पर इनैमल करने की रीति नीचे दी जाती है:

इस्पात-इनैमल तैयार करने के लिए वे ही कच्चे पदार्थ प्रयुक्त होते हैं जो काँचनिर्माण में काम आते हैं। इनैमल में मुख्यत: तार के लिए अल्युमिना के बोरोसिलिकेट प्रयुक्त होते हैं। कुछ इनैमलों में सीसा (लेड) भी मिला रहता है। कुछ ऐसे रासायनिक पदार्थ भी मिलाए जाते हैं जिनसे इनैमल में कुछ विशेष भौतिक गुण आ जाएँ। उदाहरणत: इनैमल में यदि कोबाल्ट, निकल और मैंगनीज़ के आक्साइड उपस्थित रहते हैं तो प्रसरणगुणांक में भिन्नता होते हुए भी इस्पात पर यह इनैमल दृढ़ता से जम जाता है। इस्पात की वस्तुओं पर पहले उपयुक्त आक्साइडोंवाले इनैमल की परत चढ़ा दी जाती है। इस परत को अस्तर (ग्राउंड कोट इनैमल) कहा जाता है। चुने सूत्र के अनुसार आवश्यक पदार्थों को मिलाकर और उन्हें अग्निसह मिट्टी की घरिया या कुंड में रखकर भट्ठी में तप्त करके द्रवित किया जाता है और द्रव को शीतल जल में उड़ेल दिया जाता है। इस क्रिया में द्रवमिश्रण भुरभुरे कणों में परिवर्तित हो जाता है। इन कणों को 'काचिक' (फ्रट) कहा जाता है। यह सुगमता से पीसकर चूर्ण किया जा सकता है। इसको पात्रपेषणी (पॉट मिल) में बेंटोनाइट जैसी सुघट्य मिट्टी और जल के साथ मिलाकर पीसा जाता है। मिट्टी के कारण काचिक जल में निलंबित हो जाता है और इसको इनैमल घोला (स्लिप) कहा जाता है। इनैमल घोला लगाने के कुछ पूर्व सुहागा, अमोनियम कार्बोनेटस, इपसम लवण, मैगनीशिया इत्यादि जैसे पदार्थ (.१-.५ प्रतिशत) मिला देने से घोला गाढ़ा हो जाता है।

इनैमल घोला लगाने की कई विधियाँ हैं जो वस्तु की आकृति, नाप, ढाँचे और भार पर निर्भर हैं :

(१) खोखली वस्तुओं को घोला में डुबाकर शीघ्र निकाल लिया जाता है। (२) साइनबोर्ड आदि में घोला एक ही तरफ तैराकर कूर्च (ब्रश) द्वारा लगाया जाता है। (३) भारी या छिद्रयुत वस्तुओं और कई रंग में बननेवाले साइनबोर्डों या अन्य वस्तुओं पर घोला प्रक्षेपयंत्र (वायुकूर्च) द्वारा भी छिड़का जा सकता है। इन यंत्रों में वायु की दाब ३०-४० पाउंड प्रति वर्ग इंच होती है। घोला लगाने के उपरांत उसे सुखा लिया जाता है।

द्रावण-कोमल इस्पात के ऊपर लगे प्रारंभिक इनैमल घोला की परत के सूखने के बाद वस्तु को बंद भट्ठी में, जिसका ताप प्राय: ९००° सें. होता है, कुछ मिनटों तक रखकर परत को द्रवित किया जाता है।

एक लोहे के ढाँचे पर बहुत सी नुकीली लाहे की कीलें होती हैं और प्रत्येक वस्तु तीन कीलों की नोकों पर आधारित रहती है। वस्तुओं समेत यह ढाँचा बंद भट्ठी में डाल दिया जाता है और तीन चार मिनट पश्चात् बाहर निकाल लिया जाता है। ठंडा होते ही वस्तु की सतह पर इनैमल की कठोर चमकदार परत जम जाती है। प्रारंभिक इनैमल परत जमाने के पश्चात् उसी परत पर सफेद या रंगदार इनैमल का घोला लगाया जाता है और इस घोले के सूखने पर स्टेंसिलों का प्रयोग करके चित्र या अक्षर बनाए जाते हैं। अनावश्यक शुष्क घोला ब्रुश द्वारा सावधानी से पृथक् कर दिया जाता है। फिर वस्तु को भट्ठी में डालकर सूखे घोले को द्रवित कर लिया जाता है।

इनैमल के सूत्रों के कुद उदाहरण :
सुहागा
२८.५
प्रतिशत
काचिक
१००
भाग
फेल्स्पार
३१.२
''
सुघट्य मिट्टी
''
फ्लोरस्पार
६.०
''
जल
४०
''
क्वार्ट्ज़
२०.०
''
कोबाल्ट आक्साइड
०.३५
''
मैंगनीज़ डाइ-आक्साइड
०.९५
प्रतिशत
सोडा
९.०
''
सोडियम नाइड्रेट
४.०
''
-------------
100.0

प्रारंभिक इनैमल-काचिक पात्रपेषणी के लिए घोला

प्रयोग के एक घंटे पूर्व घोला में १ प्रतिशत सुहागा मिलाया जाता है।

श्वेत इनैमल काचिक

पात्रपेषणी के लिए घोला

सुहागा २८.३ प्रतिशत काचिक १०० भाग
क्वार्ट्ज़ १५.३ ,, मिट्टी ,,
फेल्स्पार ३४.० ,, बंग आक्साइड ,,
क्रायोलाइट १६.३ ,, मैगनीशियम आक्साइड ०.२५ ,,
पोटशियम नाइट्रेट (शोरा) ६.१ ,, अमोनियम १००.० ,,
  -----   कार्बोनेट ०.१२५ ,,
  100.0 ' जल ३०.० ,,

श्

श्वेत या दूधिया रंग का इनैमल ऐंटिमनी आक्साइड अथवा ज़िरकोनियम से भी बनाया जाता है। कुछ इनैमल सुहागा रहित भी होते हैं और कुछ में सिंदूर (रेड लेड) का उपयोग होता है। इन इनैमलो का द्रवणांक प्रारंभिक इनमल के द्रवणांक से कम होता है।

ढलवाँ लोहा-इस प्रकार के लोहे के लिए इनैमल की संरचना में कुछ भिन्नता होती है और ये कम ताप पर द्रावित होते हैं। इस लोहे की छोटी, चिपटी और साधारण वस्तुओं पर प्रारंभिक इनैमल की परत की आवश्यकता नहीं होती। इनकी सतहों को स्वच्छ करने के पश्चात् इनपर डुबाकर या छिड़ककर इनैमल लगा दिया जाता है। उच्च कोटि की वस्तुओं के लिए प्रारंभिक इनैमल परत की आवश्यकता होती है। बड़ी और जटिल आकारवाली वस्तुओं पर इनैमल घोला 'शुष्क रीति' (ड्राइप्रोसेस) से लगाया जाता है। प्रारंभिक इनैमल काचिका में कोबल्ट या निकेल के आक्साइड नहीं होते। प्रारंभिक इनैमल घोला की बहुत पतली परत कूर्च (ब्रुश) से या प्रक्षेपण द्वारा चढ़ा दी जाती है और परत के सुखने पर वस्तु को बंद भट्ठी में तप्त किया जाता है जिससे प्रारंभिक परत गलकर ढलवाँ लोहे के छिद्रों में समा जाती है और लोहे की सतहों पर चिपचिपाहट आ जाती है। वस्तु को तब भट्ठी के बाहर निकाला जाता है और एक लंबे बेंटवाली (दस्तादार) चलनी से सफेद या रंगीन इनैमल घोला का शुष्क किया हुआ महीन चूर्ण चिपचिपी सतह पर समान रूप से छिड़क दिया जाता है और वस्तु को पुन: भट्ठी में डाल दिया जाता है जिससे इनैमल द्रवित होकर वस्तु की सतह पर जम जाता है। इस क्रिया को दुहराया भी जा सकता है जिससे इनैमल की परत मोटी हो जाए।

 

प्रारंभिक इनैमल काचिक पात्रपेषणी के लिए घोला

सुहागा ३२ प्रतिशत काचिक १०० भाग

फेल्स्पार ६४ ,, मिट्टी १ भाग

सिंदूर (रेड लेड) ४ ,, जल ३५ भाग

------

१०० प्रतिशत

प्रयोग के समय एक प्रति शत सुहागा मिला लेना चाहिए। रंगीन या सफेद इनैमल के सूत्र इस्पात इनैमलों के ही समान हैं।

स्वर्ण, रजत तथा ताम्र-जैसा ऊपर बताया गया है, इन धातुओं पर लगाए जानेवाले इनैमल को 'मीना' कहते हैं। यह अत्यंत कम ताप पर गलनेवाला काँच होता है ओर इसकी संरचना लौह इनैमल के समान ही होती है। इनैमल को कूटकर महीन चूर्ण कर लिया जाता है। फिर इसको जल से धोकर इसकी सतह पर मोम की पतली परत लगाकर मीनाकारी का आकल्पन (नकशा) बनाया जाता है और तदुपरांत कलाकार उपयुक्त हस्तयंत्रों से उत्कीर्णन और नक्काशी करते हैं तथा महीन तारों को टाँके से जोड़ते हैं जिसमें आकल्पन के अनुसार भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार का मीना किया जा सके। मीनाकारी की कई विधियाँ हैं, जैसे चैंपलीव, क्लाइसोन, बासटेय, लिमोजेस, प्लाक ऐ जूर। संक्षेप में, इनैमल का गाढ़ा लेप रिक्त स्थान में रख दिया जाता है और सुखाने के पश्चात् भट्ठी में या फुँकनी द्वारा पिघला दिया जाता है। फिर वस्तु का अम्लशोधन का और उसे खूब स्वच्छ करके, अतिरिक्त इनैमल को कुरंड (कोरंडम) से रगड़कर निकाल लिया जाता है। अतं में प्यूमिस से पालिश करने पर मीना में चमक आ जाती है।

सं.ग्रं.-लारेंस आर.मेरनाथ : इनैमल्स (१९२८); जे.ई. हैंसन : पोर्सलेन इनैमलिंग (१९३७); लुई एफ़ डे : इनैमलिंग (१९०७); ग्रेटा पैक : जुएलरी ऐंड इनैमलिंग (१९४५); जे. ग्रीनवाल्ड : इनैमलिंग ऑन आयरन ऐंड स्टील (१९१९); जे.ई. हैंसन : टेकनीक ऑव विट्रियस इनैमलिंग (१९२७); ए.आई. ऐंड्रयूज़ : इनैमल लेबोरटरी मैनुअल (१९४१) (रा.च.)