इकबाल, डाक्टर सर मुहम्मद इकबाल (१८७६-१९३८ ई.) के पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे जिन्होंने सियालकोट में बसकर कुछ पीढ़ी पूर्व इस्लाम धर्म स्वीकार कर दिया था। इकबाल के पिता फारसी और अरबी जानते थे और सूफी विचारों से प्रभावित थे। इकबाल ने पहले सियालकोट में शिक्षा प्राप्त की और वहाँ के मौलवी सैयद मीर हसन से बहुत प्रभावित हुए। उसी समय से कविताएँ लिखना आरंभ कर दिया था और दिल्ली के प्रसिद्ध कवि नवाब मिर्जा दाग़ को अपनी कविताएँ दिखाते थे। जब उच्च शिक्षा के लिए लाहौर पहुँचे तो यहाँ कविसम्मेलनों में आने जाने लगे। गवर्नमेंट कालेज, लाहौर में उस समय टामस आर्नल्ड दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे, वह इकबाल को बहुत पसंद करने लगे और कुछ समय बाद इकबाल उन्हीं की सहायता से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए यूरोप गए। एम.ए. पास करके इकबाल कुछ समय के लिए ओरिएँटल कालेज और उसके पश्चात् गवर्नमेंट कालेज, लाहौर में अध्यापक नियुक्त हो गए। १९०५ ई. में इन्हें गवेषणापूर्ण अध्ययन के लिए इंग्लैंड और जर्मनी जाने का अवसर प्राप्त हुआ। १९०८ ई. में डाक्टरी और बैरिस्टरी पास करके लाहौर लौट आए। आते ही गवर्नमेंट कालेज में फिर नियुक्त हो गए, परंतु दो ही वर्ष बाद वहाँ से अलग होकर वकालत करने लगे। १९२२ ई. में 'सर' हुए और १९२६ ई. में कौसिल में मेंबर। १९२८ में मद्रास, मैसूर, हैदराबाद में रिकंस्ट्रक्शन ऑव रेलिजस थाट इन इस्लाम पर भाषण दिए। १९३० में प्रयाग में मुस्लिम लीग के सभापति चुने गए, जहाँ उन्होंने पाकिस्तान की प्रारंभिक योजना प्रस्तुत की। १९३४ ई. से ही बीमार रहने लगे और अप्रैल, १९३८ में लाहौर में देहाँत हो गया।

उर्दू कवियों में इकबाल का नाम १९वीं शताब्दी के अंत ही से लिया जाने लगा था और जब वह भारत से बाहर गए तो बहुत प्रसिद्ध हो चुके थे। लंदन में इकबाल ने उर्दू छोड़कर फारसी में लिखना आरंभ किया। कारण यह था कि इस भाषा के साधन से वह सभी मुसलमान देशों में अपने विचारों का प्रचार करना चाहते थे। इसीलिए फारसी में उर्दू से अधिक उनकी रचनाएँ प्राप्त होती हैं।

इकबाल की कविता में दार्शनिक, नैतिक, धार्मिक और राजनीतिक धाराएँ बड़े कलात्मक ढंग से मिल गई हैं। उनकी विचारधारा कुछ धार्मिक नेताओं और कुछ दार्शनिकों के गहरे ज्ञान से मिलकर बनी है। इकबाल ने जब लिखना आरंभ किया तो उनके विचार राष्ट्रीय भावों से भरे हुए थे परंतु धीरे-धीरे वह एक प्रकार की दार्शनिक संकीर्णता की ओर बढ़ते गए और अंत में उनका यह विश्वास हो गया कि मुसलमान भारतवर्ष में अलग ही रहकर सुखी रह सकते हैं। वैसे उन्होंने मनुष्य की आत्मशक्ति, मानव ज्ञान, सर्वगुणसंपन्न आलौकिक पुरुष, प्रकृति पर मनुष्य की विजय, व्यक्ति और समाज, पूर्व और पश्चिम के सांस्कृतिक संबंधों पर बहुत सी कविताएँ लिखी हैं, किंतु उनके पढ़नेवाले को यह अनुभव अवश्य होता है कि वे खुले हृदय से समस्त जनजातियों को एक सूत्र में बाँधने के लिए उत्सुक नहीं थे, वरन् संसार में मुसलमानों का बोलबाला चाहते थे। इसलिए उनके दार्शनिक विचारों में जटिल प्रतिकूलता मिलती है। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ ये हैं :

उर्दू में : 'बांगेदरा', 'बाले जिबरील', 'ज़र्बेकलीम' और फारसी में : 'असरारे खुदी', 'नमूज़े बेखुदी', 'पयामें मशरिक', 'ज़बूरे अज़म', 'जावेदनाम', 'मुसाफिर', 'पस चे बायद कर्द'।

अंग्रेजी में : 'लेक्चर्स ऑन रिकंस्ट्रक्शंस ऑव रेलिजस थॉट इन इस्लाम', 'डेवलपमेंट ऑव मेटाफिज़िक्स इन पर्शियन'।

सं.ग्रं.-सालिक : ज़िक्रे इकबाल; यूसुफ हुसेन खां : रूहे इकबाल; खलीफ़ा अब्दुल हकीम : फ़लसफ़ए इकबाल; मुहम्मद ताहिर : सीरते इकबाल; खलीफ़ा अब्दुल हकीम : फ़िक्रे इक़बाल; के.जी. सय्यदेन : इकबाल्स एजुकेशनल फ़िलॉसफ़ी; ए. गनी ऐंड नूर इलाही : बिब्लियोग्राफी ऑव इकबाल; मजहरुद्दीन : इमेज ऑव वेस्ट इन इकबाल। (सै.ए.हु.)