आस्तीक ऋषि जरत्कारु और तक्षक की बहन जरत्कारु के पुत्र, एक ऋषि। गर्भावस्था में ही माँ कैलास चली गई थीं और शंकर ने उन्हें ज्ञानोपदेश किया। गर्भ में ही धर्म और ज्ञान का उपदेश पाने के कारण इनका नाम आस्तीक पड़ा। भार्गव ऋषि से सांगवेद का अध्ययन समाप्त कर इन्होंने शंकर से मृत्युंजय मंत्र का अनुग्रह लिया और माता के साथ आश्रम लौट आए। पिता की मृत्यु सर्पदंश से होने के कारण राजा जनमेजय ने सर्पसत्र करके सब सर्पों को मार डालने के लिए यज्ञ किया। अंत में तक्षक नाग की बारी आई। जब माता जरतकारु को यज्ञ की बात मालूम हुई तो उन्होंने आस्तीक को मामा तक्षक की रक्षा की आज्ञा दी। आस्तीक ने यज्ञ मंडप में पहुँचकर जनमेजय को अपनी मधुर वाणी से मोह लिया। उधर तक्षक घबराकर इंद्र की शरण गया। ब्राह्मणों के आह्वान पर भी जब तक्षक नहीं आया तब ब्राह्मणों ने राजा से कहा कि इंद्र से अभय पाने के कारण ही वह नहीं आ रहा है। राजा ने आदेश दिया कि इंद्र सहित उसका आह्वान किया जाए। जैसे ही ब्राह्मणों ने 'इंद्राय तक्षकाय स्वाहा' वैसे ही इंद्र ने उसे छोड़ दिया और वह अकेले यज्ञकुंड के ऊपर आकर खड़ा हो गया। उसी समय राजा ने आस्तीक से कहा तुम्हें जो चाहिए मांगो। आस्तीक ने तक्षक को कुंड में गिरने से रोककर राजा से अनुरोध किया कि सर्पसत्र रोक दीजिए। वचनबद्ध होने के कारण जनमेजय ने खिन्न मन से आस्तीक की बात मानकर तक्षक को मंत्रप्रभाव से मुक्ति दी और नागयज्ञ बंद करा दिया। सर्पों ने प्रसन्न होकर आस्तीक को वचन दिया कि जो तुम्हारा आख्यान श्रद्धासहित पढ़ेंगे उन्हें हम कष्ट नहीं देंगे। जिस दिन सर्पयज्ञ बंद हुआ था उस दिन पंचमी थी। अत: आज भी भारतीय उक्त तिथि को नागपंचमी के रूप में मनाते हैं। (स.)