आलवार तमिल भाषा के इस शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-अध्यात्म ज्ञान के समुद्र में गीता लगानेवाला व्यक्ति। आलवार तमिल देश के प्रसिद्ध वैष्णव संत थे। इनका हृदय नारायण की भक्ति से आप्लावित था और ये लक्ष्मीनारायण के सच्चे उपासक थे। इनके जीवन का एक ही उद्देश्य था---विष्णु की प्रगाढ़ भक्ति में स्वत: लीन होना और अपने उपदेशों से दूसरे साधकों को लीन करना। इनकी मातृभाषा तमिल थी जिसमें इन्होंने सहस्रों सरस और भक्तिस्निग्ध पदों की रचना कर सामान्य जनता के हृदय में भक्ति की मंदाकिनी बहा दी। इन विष्णुभक्तों की संख्या पर्याप्त रूप से अधिक थी, परंतु उनमें से १२ भक्त ही प्रधान और महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इनका आविर्भावकाल सप्तम शतक और दशम शतक के अंतर्गत माना जाता है। इन आलवारों में गोदा स्त्री थी, कुलशेखर केरल के राजा थे और शेष भक्तों में कई अछूत तथा चोरी डकैती कर जीवनयापन करनेवाले व्यक्ति भी थे। आलवारों के दो प्रकार के नाम मिलते हैं-एक तमिल, दूसरे संस्कृत नाम। इनकी स्तुतियों का संग्रह नालायिरप्रबंधम् (४,००० पद्य) के नाम से विख्यात है जो भक्ति, ज्ञान, प्रेम सौंदर्य तथा आनंद से ओतप्रोत आध्यात्मिकता की दृष्टि से यह संग्रह 'तमिलवेद' की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।

श्रीवैष्णव आचार्य पराशर भट्ट ने इन भक्तों के संस्कृत नामों का एकत्र निर्देश इस प्रख्यात पद्य में किया है :

भूतं सरश्च महादाह्वय-भट्टनाथ-

श्रीभक्तिसार-कुलशेखर-योगिवाहान्।

भक्तां्घ्रारेण-परकाल-यतींद्रमिश्रान्

श्रीमत्परांकुशमुनिं प्रणतोऽस्मि नित्यम्।।

आलवारों के दोनों प्रकार के नाम हैं-(१) सरोयोगी (पोयगैआलवार), (२) भूतयोगी (भूतत्तालवार), (३) महत्योगी (पेय आलवार), (४) भक्तसागर (तिरुमडिसै आलवार), (५) शठकोप या परांकुश मुनि (नम्म आलवार), (६) मधुर कवि, (७) कुलशेखर, (८) विष्णुचित्त (परि आलवार), (९) गोदा या रंगनायकी (आंडाल), (१०) विप्रनारायण या भक्तपदरेणु (तोंडर डिप्पोलि), (११) योगवाह या मुनिवाहन (तिरुप्पन), (१२) परकाल या नीलन् (तिरुमंगैयालवार)। इनमें प्रथम तीनों व्यक्ति अत्यंत प्राचीन और समकालीन माने जाते हैं। इनके बनाए ३०० भजन मिलते हैं जिन्हें श्रीवैष्णव लोग ऋग्वेद का सार मानते हैं। आचार्य शटकोप अपनी विपुल रचना, पवित्र चरित्र तथा कठिन तपस्या के कारण आलवारों में विशेष प्रख्यात हैं। इनकी ये चारों कृतियां श्रुतियों के समकक्ष अध्यात्ममयी तथा पावन मानी जाती हैं : (क) तिरुविरुत्तम्, (ख) तिरुवाशिरियम्, (ग) पेरिय तिरुवंताति तथा (घ) तिरुवायमोलि। वेदांतदेशिक (१२६९ ई.-१३६९ ई.) जैसे प्रख्यात आचार्य ने अंतिम ग्रंथ का उपनिषदों के समान गूढ़ तथा रहस्यमय होने से 'द्रविडोपनिषत्', नाम दिया है और उसका संस्कृत में अनुवाद भी किया है। तमिल के सर्वश्रेष्ठ कवि कंबन् की रामायण रंगनाथ जी को भी तभी स्वीकृत हुई, जब उन्होंने शठकोप की स्तुति ग्रंथ के आरंभ में की। इस लोकप्रसिद्ध घटना से इनका माहात्म्य तथा गौरव आंका जा सकता है। कुलशेखर केरल देश के राजा थे, जिन्होंने राजपाट छोड़कर अपना अंतिम समय श्रीरंगम् के आराध्यदेव श्रीरंगनाथ जी की उपासना में बिताया। इनका मुकुंदमाला नामक संस्कृत स्तोत्र नितांत प्रख्यात है। आंडाल आलवार विष्णुचित्त की पोष्य पुत्री थी और जीवन भर कौमार्य धारण कर वह रंगनाथ को ही अपना प्रियतम मानती रही। उसे हम तमिल देश की 'मीरा' कह सकते हैं। दोनों के जीवन में एक प्रकार की माधुर्यमयी निष्ठा तथा स्नेहमय जीवन इस समता का मुख्य आधार है।

आलवारों के पद भाषा की दृष्टि से भी ललित और भावपूर्ण माने जाते हैं। भक्ति से स्निग्ध हृदय के ये उद्गार तमिल भाषा की दिव्य संपत्ति हैं तथा भक्ति के नाना भावों में मधुर रस की भी छटा इन पदों में, विशेषत: नम्म आलवार के पदों में, कम नहीं है।

सं.ग्रं.-डूपर : हिम्स ऑव दि अलवारस, कलकत्ता, १९२९; बलदेव उपाध्याय : भागवत संप्रदाय, काशी, सं. २०१०।