आलम शेख हिंदी (ब्रजभाषा) के मुसलमान कवियों में प्रमुख। 'कविता कौमुदी', 'मिश्रबंधु विनोद', 'हिंदी साहित्य का इतिहास' (रामचंद्र शुक्ल), 'हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण' आदि ग्रंथों में 'आलम' नाम के दो कवि माने गए हैं, एक शाहंशाह अकबर के समकालीन सूफी कवि आलम जिनकी रचना 'माधवानल कामकंदला' शीर्षक प्रेखाख्यान है और दूसरे आैंरगजेब के पुत्र मुअज्जमशाह (शाहंशाह बहादुर शाह) के आश्रित रीतिकालीन पद्धति पर कवित्त सवैया छंदों में शृंगारिक मुक्तकों के रचयिता आलम जिनके बार में जनश्रुति है कि यह ब्राह्मण थे और 'शेख' नाम की रंगरेजिन की काव्यप्रतिभा पर मुग्ध हो मुसलमान बन गए थे। लेकिन डा. विश्वनाथप्रसाद मिश्र (लेख, आलम और उनका समय, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५०, अंक १-२, सं. २००२ वि.) तथा श्री भवानीशंकर याज्ञिक (लेख, आलम और रसखान, पोद्दार अभिनंदन ग्रंथ, पृ. २९१-३०२) ने बहुत छानबीन एवं अनुसंधान के बाद सिद्ध किया है कि आलम नाम के केवल एक कवि थे जिनका रचनाकाल सन् १५८३ ई. से १६२३ ई. था। उक्त दोनों विद्वानों ने प्रमाणित किया है कि दो आलमों संबंधी प्रवाद की उत्पत्ति का आधार शिवसिंह सरोज में उद्धृत छंद :

जानत औलि किताबन कों जे निसाफ के माने कहे हैं ते चीन्हें।

पालत हैं इत आलम कों उत नीके रहीम के नाम कों लीन्हें।।

मोजमसाह तुम्हैं करता करिबे को दिलीपति हैं वर दीनहें।

काबिल हैं ते रहैं कितहूँ कहूँ काबिल होता हैं काबिल कीन्हें।।

मुअज्जमशाह के दरबारी कवि लाला जैतसिंह महापात्र रचित 'माजम प्रभाव' का है और इसमें प्रयुक्त 'आलम' शब्द का तात्पर्य आलम नामक कवि से न होकर 'जगत्' से है। अत: आलम का रचनाकाल जो उपर्युक्त छंद के आधार पर १६५५ ई. (सं. १७१२) के आसपास माना जाता रहा है, भ्रामक है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि 'गुरुग्रंथ साहब' के अंतिम भाग में दी हुई 'रागमाला' 'माधवानल कामकंदला' (आलम रचित) का अंश है। 'गुरुग्रंथ साहब' का वर्तमान रूप वही है जो १६०४ ई. (सं. १६६१) तक निश्चित हो चुका था और अकबर का शासनकाल सन् १६०५ ई. तक रहा। अत: मुअज्जमशाह के समसामयिक कवि आलम की रचना का अंश उसमें होना संभव नहीं है। आलम की चार कृतियां (द्र.डा. विश्वनाथप्रसाद मिश्र का लेख 'आलम' की कृतियां, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५२, अंक ३, सं. २००० वि.) प्रामाणिक मानी जाती हैं :

१. माधवानल कामकंदला जिसमें माधवानल और कामकंदला की प्रेमकथा दोहा चौपाइयों में वर्णित है। इस ग्रंथ को कुछ विद्वान् सूफी-प्रभाव-समन्वित मानते हैं।

२. श्यामसनेही में रुक्मिणी विवाह की कथा है और इसकी रचना भी दोहा चौपाई शैली में हुई है।

३. सुदामाचरित में कृष्ण सुदामा की मैत्री की मार्मिक कथा है जिसका आधार पौराणिक है।

४. आलमकेलि मुक्तक रचनाओं का संग्रह है और इसमें लगभग ४०० छंद हैं। आलमकेलि की एकाधिक हस्तलिखित प्रतियां प्राप्य हैं जिनपर विभिन्न नाम मिलते हैं, यथा 'आलम के कवित्त', 'रसकवित्त', 'आलमकेलि', 'अक्षरमालिका' और 'चतु:शती'। परंतु इनमें से कोई एक नाम सर्वमान्य नहीं है।

'आलमकेलि' का का प्रकाशन उमाशंकर मेहता ने वाराणसी से सन् १९२२ ई. में करवाया। इसके कुछ कवित्तों में 'शेख' छाप है तो कुछ में 'आलम'। ग्रंथ की पुष्पिका से स्पष्ट हो जाता है कि कवि कवि का पूरा नाम 'शेख आलम' था और 'शेख साईं' नाम से भी उसे जाना जाता था। कतिपय विद्वान् इसलिए शेख को आलम की स्त्री नहीं मानते और उनकी प्रेमकथा को निराधार बताते हैं।

आलम की प्रसिद्धि मुख्यत: मुक्तकों के कारण ही हुई। अत: 'आलमकेलि' को उनकी सर्वप्रमुख रचना माना जा सकता है। आलमकृत मुक्तकों में भावात्मक तीव्रता इतनी अधिक है कि विद्वानों का एक वर्ग उनके कवित्तों को सूफी काव्य की प्रकृति का मानता है और दूसरा वर्ग उन्हें उत्कृष्ट भक्ति काव्य के अंतर्गत परिगणित करने के पक्ष में है। (कै.चं.श.)