सल्फ़ोनेमाइड (Sulfonamides) द्रव्यों का एक वर्ग, जिसमें पैरा-ऐमिनो-बेंजीन सल्फ़ोनेमाइड का मूल-रचना-सूत्र विद्यमान है, सल्फ़ोनेमाइड कहलाता है। पैराऐमिनो बेंजीन सल्फ़ोनेमाइड को सल्फ़ोनिल ऐमाइड भी कहते हैं और इस यौगिक में सल्फ़ोनेमाइड मूलक (-So2NH2) के हाइड्रोजन परमाणुओं के स्थान पर विभिन्न यौगिकों के मूलक प्रतिस्थापित करके, अनेक यौगिक प्राप्त किए जा सकते हैं, जिनका सामूहिक नाम सल्फोनेमाइड है।

ओषधि विज्ञान में इस वर्ग की ओषधियों की अपेक्षा संभवत: किसी अन्य वर्ग की ओषधियाँ अधिक लाभप्रद नहीं सिद्ध हुई। इसका कारण यह है कि इनकी सहायता से अनेक जानें बचाई जा सकती हैं। बीमारी की अवधि काफी घटाई जा सकती तथा कुछ बीमारियों से बचाव की व्यवस्था भी की जा सकती है।

सन् १९०८ में पी. गेलमो (P. Gelmo) ने पैरा-ऐमिनो बेंज़ीन सल्फ़ोनेमाइड का संश्लेषण रंजक उद्योग में एक द्रव्य के लिए किया था और इसकी सहायता से कुछ ऐज़ो रंजक (azo dyes) बनाए गए। बाद में पता चला कि इन रंजकों में कुछ प्रतिजीवाण्विक (antibacterial) प्रभाव भी है, परंतु इस ओर कुछ विशेष ध्यान न दिया गया। सन् १९३२ में जर्मनी में फ्रट्ज़ मीट्ज़ह (Fritz Mietzsch) तथा जोजेफ़ क्लेरर (Josef Klarer) ने प्रांटोसिल (prontosil) तथा अन्य सल्फ़ोनेमाइड युक्त ऐजो रंजकों का पेटेंट कराया और सन् १९३५ में गेरहार्ट डोमाक (Gerhar Domagk) ने अपने एक शोध-निबंध द्वारा यह घोषणा की कि उसने प्रांटोसिल का उपयोग चूहों में स्ट्रेप्टोकॉकस (Streptococcus) संक्रमण की चिकित्सा के लिए किया तथा यह ज्ञात किया कि प्रांटोसिल की जीव-विषाक्तता बहुत कम है और स्ट्रेप्टोकॉकस से संक्रमित चूहों पर इसके उपयोग से उनकी मृत्यु होनी रुक गई या कम हो गई। बाद में खरगोशों पर भी इसका प्रयोग करने से यही फल प्राप्त हुए। डोमाक ने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि प्रांटासिल केवल जीवधारियों के अंदर ही जीवाणुनाशक का कार्य कर सकता है, बाहर परीक्षण नली में उपस्थित जीवाणुओं में नहीं।

इसके पश्चात् फ्रांस में ए. ज़िरार्द (A. Girard) ने प्रांटोसिल का संश्लेषण करके उसका नाम रूबियारॉल (Rubiarol) रखा तथा जीवों में इसका प्रयोग करके डोमाक के फलों की पुष्टि की। जे. ट्रेफूएल (J. Trefouel), एफ. निथ (F. Nith) तथा डी. बोवेट (D. Bovet) ने यह प्रदर्शित किया कि शरीर के ऊतक (body tissue) में यह ऐज़ो रंजक ऐजो मूलक पर (-N = N-) विखंडित होकर, पैरा-ऐमिनो-बेंजीन सल्फ़ोनेमाइड बनाते हैं और वास्तव में प्रांटोसिल या इसी प्रकार के ऐजो रंजकों की संक्रमण नाशन किया इसी यौगिक, पैरा-ऐमिनो-बेंजीन सल्फ़ोनेमाइड, ही के कारण है। इस विचारधारा की शीघ्र ही पुष्टि हुई। इंग्लैंड तथा अमरीका में भी इस प्रकार के प्रयोग हुए और वही फल प्राप्त हुए। इनके फलस्वरूप इस बात की पुष्टि हुई कि स्ट्रेप्टोकॉकस संक्रमण में सल्फ़ोनेमाइड का प्रयोग हो सकता है। कुछ समय बाद यह पता चला कि न्युमोनिया में इसका उपयोग नहीं हो सकता, पर मैनिंजाइटिस तथा बच्चा पैदा होने के पश्चात् के संक्रमणों में यह बहुत उपयोगी है।

इसके पश्चात् वैज्ञानिकों का ध्यान इस ओर गया कि सल्फ़ोनेमाइड मूलक (-SO2NH�2) के हाइड्रोजन परमाणुओं के स्थान पर अन्य यौगिकों के मूल प्रतिस्थापित करने से अन्य यौगिक, जो कुछ विशेष संक्रमणों में लाभप्रद हैं प्राप्त हो सकते हैं इस प्रकार ए. जे. इविंस (A. J. Ewins) तथा एम. ए. फिलिप्स (M. A. Phillips) ने सल्फा-पिरिडीन बनाया, जो न्युमोनिया के संक्रमण के लिए विशिष्ट था। सन् १९३६ तथा सन् १९४३ के बीच में इस प्रकार के अनेक यौगिकों का संश्लेषण हुआ और इनमें से कई अत्यंत लाभप्रद सिद्ध हुए। द्वितीय विश्वयुद्ध में सैनिकों में इनका उपयोग बहुत हुआ, जिसके फलस्वरूप अनेक जाने बचाई जा सकीं। प्रत्येक सिपाही के पास सल्फ़ोनेमाइड पाउडर तथा गोलियाँ रहती थीं। तथा इनके उपयोग की विधि बता दी जाती थी, ताकि घायल होने पर वह स्वयं इनका प्रयोग कर सकें।

इस वर्ग के कुछ यौगिकों के रचनासूत्र तथा उनके नाम

सल्फाग्वेनिडीन

(पेचिश के लिए)

इनकी क्रिया विधि (mode of action) के संबंध में यह स्पष्ट है कि ये औषधियाँ जीवाणुओं को नष्ट नहीं करतीं वरन् उनकी वृद्धि को रोक देती हैं। इस प्रकार यह जीवाणुओं को मार सकनेवाली जीवाणुनाश्शक (bactericidal) औषधियों से भिन्न हैं।

इस वर्ग की औषधियों का मनुष्य पर कुछ विषैला प्रभाव भी पड़ता है और कुछ लोग इनके लिए बहुत ही संवेदी (sensitive) होते हैं, अत: बिना चिकित्सक की सलाह के इनका प्रयोग करना उचित नहीं है। इनसे उलटी, चक्कर, मानसिक संभ्रांति आदि लक्षण प्रकट होने लगते हैं। कभी कभी रक्ताल्पता (anaemia), पेशाब में रुकावट, गुर्दे में कुछ शोथ आदि भी हो जाते हैं। कभी कभी चिकित्सक इन ओषधियों के साथ कुछ अन्य औषधियां मिलाकर देते हैं, जिससे ऊपर लिखी व्याधियाँ न उत्पन्न होने पाएँ। वर्तमान चिकित्सा विज्ञान में सल्फा दवाओं का स्थान प्रतिजैविक पदार्थों (antibiotics) से किसी प्रकार कम नहीं है। (रा. दा. ति.)