सरस्वती कवींद्राचार्य ईसा की सत्रहवीं शताब्दी में भारत में जो श्रेष्ठ तथा दिग्गज आचार्य कवि हुए उनमें कवींद्राचार्य सरस्वती का नाम विशेष उल्लेखनीय है। वे मूलत: महाराष्ट्रांतर्गत गोदावरी नदी के तीरस्थ किसी नगर के निवासी थे। यह स्थान प्रतिष्ठान (संप्रति भैठण) कहा गया है। कवींद्राचार्य आश्वलायन शाखा के ऋग्वेदीय ब्राह्मण थे। बाल्यावस्था में उन्हें सांसारिक विषयों से विरक्ति हुई थी जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने बचपन ही में संन्यासाश्रम में प्रवेश किया। उन्होंने जीवन के प्रारंभिक दिनों में वेद वेदांग काव्यशास्त्र आदि का गंभीर अध्ययन किया था। उनके मूल नाम के संबंध में कोई प्रामाणिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होता।

सन् १६३२ ई. के आस पास वे सदा के लिए काशी में आकर बस गए। काशी में तत्कालीन पंडितों में उनका विशेष आदर था। वहाँ उनके पास एक उत्कृष्ट अनुपम पुस्तकालय था। उसमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, व्याकरण, न्याय, वेदांत, मीमांसा, वैशेषिक, ज्योतिष वैद्यक, मंत्र तंत्र, पुराण, काव्य, अलंकार, नाटक, शिल्प इत्यादि विविध विषयों के लगभग २२०० ग्रंथ थे। इस पुस्तकालय की पुस्तकों पर कवींद्राचार्य सरस्वती की छाप है। संप्रति ये पुस्तकें बनारस, पूना, बड़ौदा, बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, कलकत्ता आदि स्थानों पर बिखर गई हैं। काशी में अध्ययन करनेवाले अकिंचन छात्र इसका उपयोग करते थे।

कवींद्राचार्य सरस्वती संस्कृत तथा हिंदी के प्रकांड पंडित थे। विद्या की प्रत्येक शाखा में पारंगत थे और इसी के फलस्वरूप शाहजहाँ ने उन्हें 'सर्वविद्यानिधान' पदवी से विभूषित किया था। उनके संस्कृत ग्रंथों में कवींद्रकल्पद्रुम, जगद्विजयछंद, पदचंद्रिका, योगभास्कर, शतपथ ब्राह्मणभाष्य, ऋग्वेदभाष्य, तथा हिंदी ग्रंथों में कवींद्र कल्पलता, ज्ञानसार, समरसार आदि उल्लेखनीय हैं।

प्रकांड पंडित के अतिरिक्त कवींद्राचार्य सरस्वती हिंदुओं के सांस्कृतिक नेता के रूप में भी विशेष प्रसिद्ध हैं। मुगल सम्राट् शाहजहाँ के शासनकाल में काशी, प्रयाग आदि पवित्र स्थानों पर हिंदुओं से अत्यंत अमानुषिक रीति से यात्राकार वसूल किया जाता था। इस अन्यान्यमूलक एवं कष्टकारक यात्राकर को हटाने के लिए अनेक राजा महाराजाओं ने प्रयत्न किए परंतु सफलता नहीं मिली। अंत में काशी के पंडितों ने शाहजहाँ के पास एक प्रतिनिधिमंडल भेजा जिसका नेतृत्व कवींद्राचार्य सरस्वती को सौंपा गया। कवींद्राचार्य ने मुगल दरबार में यात्राकर से परेशान हिंदू जनता की दु:खगाथा का वर्णन ऐसे प्रभावकारी और करुणा शब्दों में किया कि उसे सुनकर दरबार के विदेशी राजदूत विस्मयचकित हुए और शाहजहाँ तथा दाराशिकोह की आँखों में आँसू छलक पड़े। उन्होंने तत्काल यात्रा-कर-मुक्ति की घोषणा कर कवींद्राचार्य का सम्मान किया।

यात्रा-कर-मुक्ति की घटना भारत के सांस्कृतिक इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण रही। अन्यायमूलक यात्राकर के हटने से सारा हिंदू समाज हर्षित हुआ अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए तत्कालीन पंडितों ने उनके लिए दो अभिनंदनग्रंथ समर्पित किए। संस्कृत ग्रंथ का नाम कवींद्रचंद्रोदय और हिंदी ग्रंथ का नाम है कवींद्रचंद्रिका। कवींद्राचार्य सरस्वती का स्वर्गवास अनुमानत: सन् १६९० ई. में हुआ था। (कृष्ण दिवाकर)