सम्राट् प्राचीन भारतीय नृपतंत्री राजाओं का एक पद था। वैदिक युग के उत्तरार्ध से प्रत्येक शक्तिशाली राज्य साम्राज्य पद पाने का प्रयत्न करने लगा। ऐतरेय ब्राह्मण (अष्टम, १४.२.३) में विभिन्न भारतीय क्षेत्रों में भिन्न भिन्न प्रकार के राज्यों का वर्णन आया है और कहा गया है कि प्राची दिशा के राजा सम्राट् पद के लिए अभिषिक्त होते थे। मगध में प्रथम भारतीय साम्राज्य का विकास इतिहास से भी ज्ञात है। आगे चलकर सम्राट् के लिए चक्रवर्ती, सार्वभौम और एकराट् आदि विरुदों का भी प्रयोग होने लगा। वास्तव में ये सभी शब्द उस शासक के बोधक होते थे, जिसे स्वयं पूर्ण प्रभुसत्तात्मक शक्ति प्राप्त हो और जो अपने से बड़े किसी दूसरे राजा की अधिसत्ता न स्वीकार करता हो। अमरकोश (क्षत्रिय वर्ग ८) में सम्राट् उसे कहा गया है जो राजसूय का कर्ता, अन्य राजाओं का नियंत्रक और मंडलेश्वर अर्थात् द्वादश राजमंडल का केंद्र (विजिगीषु) हो। कुछ काल बाद लिखी जानेवाली शुक्रनीति में (१.१८२ और आगे) अनेक प्रकार के शासकों का वर्गीकरण उनकी आय के आधार पर किया गया है। उस क्रम में सामंत, मांडलिक, राजा, महाराजा और स्वराट् से बड़ा सम्राट् होता था जिसकी आय १ से १० करोड़ कार्षापण के बीच होती। सम्राट् के ऊपर विराट् और सार्वभौम रखे गए हैं। परंतु सम्राट् पद और साम्राज्य का आधार आर्थिक था, यह स्वीकार्य नहीं प्रतीत होता। वास्तव में उसका आधार राजनीतिक शक्ति थी। राजशेखर ने काव्यमीमांसा में (गा. ओ. सीरीज, पृष्ठ ९२) सम्राट् उस विजेता को कहा है जो दक्षिण समुद्र से हिमालय तक की सारी भूमि का विजय कर ले। किंतु वहीं वह स्थल चक्रवर्ती क्षेत्र भी कहा गया है। स्पष्ट है कि सम्राट् और चक्रवर्ती पर्यायवाची पद के रूप में व्यवहृत होते थे। कई शताब्दियों पूर्व कौटिल्य ने भी आसेतु हिमालय क्षेत्र को चक्रवर्ती क्षेत्र माना था (अर्थ., नवम, १)। वायु (४५, ८०-८७) और मत्स्य (११३.९-१५) में भी साम्राज्य क्षेत्र का यही विस्तार मिलता है। किंतु यह आदर्श मात्र था, जिसे चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त विक्रमादित्य जैसे कुछ ही सम्राट् प्राप्त कर सके थे। गुप्तोत्तर के सम्राट् पदवीधारी अनेकानेक शासकों में भी कोई भी उस आदर्श को पूर्णत: नहीं प्राप्त कर सका। (विवेकानंद पांडेय)