समीकरण सिद्धांत एक, अथवा अनेक, ज्ञात और अज्ञात संख्याओं की समता के कथन को समीकरण (Equation) कहते हैं। समीकरण अज्ञात राशियों के समस्त मानों के लिए सत्य नहीं होता। केवल कुछ निश्चित मानों के लिए ही सत्य होता है। जो समीकरण अज्ञात राशियों के समस्त मानों के लिए सत्य होता है, उसे सर्वसमिका (Identity) कहते हैं। उदाहरणत :

३ य += १०

यह संबंध य = १ ही के लिए सत्य है। अत: यह एक समीकरण है; किंतु संबंध

= = (य + र) (य - र)

और के समस्त मानों के लिए सत्य है। अत: यह एक सर्वसमिका है, जिसके लिए चिह्न प्रयोग किया जाता है।

समीकरणों का सबसे प्राचीन उल्लेख मिस्र के राइंड पपाइरस (Rhind papyrus) में मिलता है, जिसका रचनाकाल १६५० ई. पू. के लगभग है। यूनानियों ने भी समीकरणों का थोड़ा बहुत प्रयोग किया था। हिंदुओं ने इस दिशा में कुछ प्रगति दिखाई थी। वे अज्ञात राशि को 'यावत' कहते थे और उसे संकेतों से निरूपित करते थे। उन्होंने वर्ग समीकरणों को भी हल किया और अनिर्णीत समीकरणों के क्षेत्र में अद्भुत कार्य कर दिखाया; किंतु उन्होंने विषय के सिद्धांत के अमूर्त रूप का कोई विकास नहीं किया। इटलीवासियों ने इस दिशा में बहुत उन्नति की और तृतीय तथा चतुर्थ घात के सार्विक समीकरणों के हल निकाले। सन् १७७१ में लाग्रांज (Lagrange) ने सिद्धांत को और आगे बढ़ाया, किंतु उक्त सिद्धांत में तीव्र गति गाल्वा (Galois) की गवेषणाओं से ही आई।

प्रमुख समस्या - समीकरण सिद्धांत का संबंध निम्नलिखित प्रकार के बीजगणितीय समीकरण के गुणों से है :

फ (य) =o +--+-+...+-+ = o, जिसमें एक धन पूर्ण संख्या है, गुणांक दी हुई संख्याएँ हैं, जो वास्तविक अथवा काल्पनिक हो सकती हैं और कo o। इस समीकरण का घात है। पहली समस्या यह है कि यदि गुणांक ज्ञात हों, तो के ऐसे समस्त मान, जिन्हें मूल कहते हैं तथा जो समीकरण को संतुष्ट करते हों, ज्ञात करना। अगली समस्या यह पता चलाना है कि उक्त समीकरण के मूल किन प्रतिबंधों में गुणांकों के पदों में सांत संख्या की बीजगणितीय क्रियाओं (जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग, मूल निकालना) द्वारा व्यक्त किए जा सकते हैं। ऐसे हल को बीजगणितीय हल (Algebraic solution) कहते हैं। यदि गुणांक संख्यात्मक हों, तो मूलों का किसी भी सीमा तक निकटतम मान निकाला जा सकता है। यदि गुणांक संख्यात्मक न हों, तो हम प्रयत्न करते हैं कि गुणांकों का ऐसा सरलतम फलन (function) निकालें जो समीकरण को संतुष्ट कर दे। सन् १८२४ में आबेल (Abel) ने २२ वर्ष की अवस्था में यह प्राय: सिद्ध कर दिया था कि चौथे से ऊपर के घात के किसी समीकरण के मूलों का मूल चिह्नों (Radical signs) द्वारा व्यंजित करना असंभव है। आबेल की उपपत्ति में कुछ अशुद्धियाँ थीं, जिनका शोधन गाल्वा सिद्धांत ने कर दिया है; तथापि यह मानना पड़ेगा कि आबेल ही पहला व्यक्ति था जिसने यह सिद्ध कर दिया कि पंचघात समीकरण का हल बीजगणितीय विधियों से नहीं ज्ञात हो सकता। सर्वप्रथम सन् १८५८ में एरमीट (Hermite) ने सार्विक पंचघात समीकरण का हल दीर्घवृत्तीय फलनों (elliptic functions) द्वारा निकाला। आधुनिक समय में, जिसका आरंभ १८८० ई. में प्वैंकारे (Poincare) से होता है, सर्वें घात के सार्विक समीकरण का हल फुक्शी फलनों (Fuchsion functions) द्वारा निकाला गया है। आजकल के गवेषणा कार्य में इस समस्या के लिए प्रतिस्थापन समूहों (substitution groups), उच्च अंकगणित और सम्मिश्र चर (complex variable) के विशेष फलनों का प्रयोग किया जाता है।

मूलभूत प्रमेय - यह है कि सर्वे घात के किसी समीकरण के ठीक मूल ही होते हैं। इस प्रमेय को सबसे पहले कोशी (Cauchy) ने सिद्ध किया था, किंतु प्रथम संतोषजनक उपपत्ति १७९९ ई. में गाउस (Gauss) ने दी थी।

सममित फलन (Symmetric Function) - ये फलन बड़े महत्वपूर्ण होते हैं। किसी परिमेय (rational) फलन (,,....,) को य-ओं में तब सममित कहते हैं, जब वह इस प्रकार का हो कि य-ओं में से किन्हीं दो का हेरफेर करने से उसमें कोई परिवर्तन न हो। इस प्रकार + + एक सममित फलन है। (,,... का ज-वाँ प्रारंभिक (elementary) सममित फलन (जिसमें = १, २, ३,...) ऐसे समस्त संभव गुणनफलों का जोड़ होता है जिनमें से प्रत्येक में य-ओं में से विभिन्न चर चुने जाएँ। इस प्रकार, यदि = ३, तो प्रथम, द्वितीय, तृतीय प्रारंभिक सममित फलन क्रमश: ये होंगे :

+ + ; + + ;

स्पष्ट है कि प्रारंभिक सममित फलनों के अतिरिक्त अनगिनत सममित फलन और भी हो सकते हैं, जैसे = ३ के लिए श्एक सममित फलन है, किंतु इसे हम प्रारंभिक सममित फलनों के पदों में व्यक्त कर सकते हैं, क्योंकि

S = (S) -S

हम मूलों के प्रारंभिक सममित फलनों को गुणांकों के पदों में व्यक्त कर सकते हैं, जैसे यदि समीकरण

+ -+ -+... - + = o के मूल ,,,....हों तो

S =, S = ,....

मूलों का कोई भी सममित फलन गुणांकों के पदों में व्यक्त किया जा सकता है। मूलों के किसी सममित फलन में किसी मूल का जो उच्चतम घातांक होता है, उसे फलन का घात (order) कहते हैं। का घात ३ है और S का घात १ है। किसी सममित फलन में जो चरों का घात होता है, उसे फलन का भार (Weight) कहते हैं। श्का भार ४ है और S का भार ३ है।

वास्तविक समीकरणों के गुण - निम्नलिखित गुण सुगमता से सिद्ध किए जा सकते हैं। काल्पनिक मूल सदैव जोड़ों में रहते हैं। यदि घात विषम हो, तो समीकरण का कम से कम एक मूल वास्तविक होगा। (), का कोई वास्तविक संतत (continuous) फलन हो और () और (), जिनमें ट, ठ वास्तविक हों और विपरीत च्ह्रोिं के हों, तो वक्र = (), -अक्ष को ट ठ के बीच में विषम बार काटेगा। यदि श्मूलों में से मूल ऐसे हों जो सब के बराबर हों, तो को बहुकता (multiplicity) का मूल कहते हैं। रॉल (Rolle) ने सिद्ध किया है कि समीकरण () = o के दो क्रमागत (consecutive) वास्तविक मूलों के बीच में फ' () = o के वास्तविक मूलों की संख्या विषम होगी। यहाँ फलन का प्रथम अवकल गुणांक (differential coefficient) है। यदि () और फ'() का महत्तम समापवर्तक () हो, तो समीकरण () = o के एक मबहुकता का मूल समीकरण () = o का (+) बहुकता का मूल होगा। इस प्रमेय का विलोम भी सत्य होता है। इसकी सहायता से () = o के बहु मूल निकाले जा सकते हैं।

यदि गुणांक o, 1, 2,....सब वास्तविक हों, तो समीकरण को वास्तविक कहते हैं। यदि इनमें से कुछ या सब काल्पनिक हों, तो समीकरण काल्पनिक कहलाता है। यदि () = o काल्पनिक हो, तो उसका हल एक वास्तविक समीकरण के हल द्वारा निकाला जा सकता है, क्योंकि हम () को ब () + ए ब () के रूप में ढाल सकते हैं, जिसें और के गुणांक वास्तविक हों और = । तत्पश्चात् समीकरण (य) - () = o को उसके संयुग्मित (conjugate) समीकरण (य) - ए बऱ् (य) = o से गुणा करने पर एक वास्तविक समीकरण प्राप्त होगा, जिसके मूलों में () = o के समस्त मूल समाविष्ट होंगे।

फ (य) = o के ऋण मूल, फ (-य) = o के धन मूल ही हो होते हैं।

मूलों की स्थिति का निश्चन (Location of Roots) - किसी समीकरण के मूलों की प्रकृति जानने के लिए इस बात का पता चलाना पड़ता है कि उस समीकरण के कितने मूल वास्तविक हैं और कितने काल्पनिक। इसके लिए सबसे पहले मूलों का वियोजन (isolation) करना पड़ता है। मान लीजिए कि एक वास्तविक मूल है। यदि हम दो संख्याएँ क, ख, ऐसी उपलब्ध कर सकें जिनके बीच में स्थित हो और कोई अन्य मूल स्थित न हो, तो हम कहेंगे कि मूल वियोजित हो गया। देकार्त (Descartes) के नियम द्वारा अधिकांश स्थितियों में हमें वास्तविक मूलों की पूर्ण संख्या का पता चल जाता है। दिए हुए समीकरण में जितने अशून्य गुणांक हों, उनके चिन्ह उसी क्रम में लिख डालिए जिस क्रम में वे समीकरण में आते हैं। यदि कहीं + से - हो जाए, अथवा - से जाए, तो उसे हम चिह्न परिवर्तन कहते हैं। अब चिह्नपरिवर्तनों की संख्या गिन लीजिए। इस क्रम

+ + - - + -

में तीन परिवर्तन हैं। देकार्त का नियम बताता है कि समीकरण फ (य) = o में जितने चिन्ह परिवर्तन होंगे या तो उस समीकरण के उतने ही वास्तविक घनमूल होंगे, या यदि उससे कम हुए, तो उक्त अंतर की संख्या एक विषम संख्या होगी। यह तो रहा धन मूलों के संबंध में। ऋण मूलों की संख्या जानने के लिए यही नियम समीकरण फ (-य) = o पर लगाइए।

सन् १८२९ में स्टर्म (Sturm) और फूर्थे (Fourier) ने मूलों के विभाजन के लिए एक निश्चयात्मक विधि निकाली थी। फूर्यें का नियम सुविधाजनक तो अवश्य है, किंतु अधूरा है। स्टर्म का नियम मूलों का निश्चित रूप से पृथक्करण कर देता है, किंतु कार्यविधि श्रमसाध्य है।

स्टर्म की विधि - फ (य) के स्थान पर फ, () के स्थान पर ... लिखिए। और का महत्तम समापवर्तक निकालने की विधि से चलिए। मान लीजिए, पहले पग पर भजनफल और शेष आता है, तो

= +

को अगला भाजक मानने से पहिले उसका चिन्ह बदल दीजिए और - = लिखिए। इस प्रकार

= +

अब को से भाग दीजिए और शेष का चिह्न बदलकर उसे से निरूपित कीजिए। इसी प्रकार बढ़ते चलिए।

पहले पहल मान लीजिए कि = o के कोई दो मूल समान नहीं हैं। अंतिम चिन्ह परिवर्तित शेष एक अचर (constant) होगा। चिह्न परिवर्तित शेषों में और मिला देने से निम्नलिखित अनुक्रम (sequence) प्राप्त होगा :

फ, फ, फ, फ,....फ

इस अनुक्रम को () के स्टर्म फलनों का समुच्च्य [Set of Sturm functions for f (x)] कहते हैं।

अब मान लीजिए कि क, ख दो वास्तविक संख्याएँ हैं, जिनमें से कोई भी फ (य) = o का मूल नहीं है और क < ख। अब स्टर्म फलनों में =रखकर देखिए कि कितने चिह्न परिवर्तन होते हैं। इसी प्रकार = रखकर देखिए कि कितने च्ह्रि परिवर्तन होते हैं। इसी प्रकार = रखकर भी देखिए कि चिह्न परिवर्तनों की संख्या कितनी आती है। अपनी संख्या में से दूसरी संख्या को घटाइए। जितनी संख्या आए, फ (य) = o के उतने ही वास्तविक मूल और के बीच में स्थित होंगे।

यदि समीकरण के कुछ बहुमूल भी हों, तो ऐसे प्रत्येक मूल को गिनती के लिए केवल एक ही मूल मानिए। इस प्रकार यदि कोई मूल तीन बार आवृत होता है, तो उन तीनों मूलों का एक ही मूल माना जाएगा।

फूर्ये की विधि इससे सरल है। स्टर्म फलनों के स्थान पर फ, फ, फ....लिखिए, जिनमें , फ का वाँ अवकल गुणांक है। यदि कोई मूल बार आए, तो उसके अलग अलग मूल गिनिए। उपर्युक्त अनुक्रम में जितने चिह्न परिवर्तन होंगे, या तो उतने ही वास्तविक मूल और के बीच में स्थित होंगे, या यदि उससे कम हुए, तो दोनों का अंतर एक पूर्णांक होगा।

मूलों का परिकलन (Computation of Roots) - जब कोई मूल वियोजित हो चुकता है तब उसका परिकलन दशमलव रूप में हॉर्नर (Horner) की विधि (1819) द्वारा किया जा सकता है, जिसें एक एक करके दशमलव स्थान मिलते चले जाते हैं। उक्त विधि में क्रमश: मूल के पीछे पीछे चला जाता है। प्रत्येक पग पर मूलों की वास्तविक धन संख्याओं के उत्तरोत्तर जोड़ों में से छोटी संख्या को घटाते जाते हैं। मान लीजिए कि कोई वास्तविक मूल २०० और ३०० के बीच में स्थित है। एक समीकरण (य) = o ऐसा बनाइए जिसके मूल फ (य) = o के मूलों से क्रमश: २००, २०० कम हों। तब (य) = o का केवल एक मूल ० और १०० के बीच में स्थित होगा। उपर्र्युक्त दोनों विधियों में किसी विधि से यह पता चलाइए कि यह मूल किस दशक में स्थित है। मान लीजिए कि मूल ६० और ७० के बीच में स्थित है, तो इतना पता चल गया कि फ (य) = o का मूल २६० और २७० के बीच में स्थित होगा। अब एक समीकरण (य) = o ऐसा बनाइए जिसके मूल (य) = o के मूलों से ६०, ६० कम हों। मान लीजिए कि (य) = o का मूल ५ और ६ के बीच में स्थित है, तो अब इतना पता चल गया कि फ (य) = o का मूल २६५ और २६६ के बीच में स्थित होगा। इसी प्रथम (process) को बार बार दुहराइए। इस प्रकार किसी भी दशमलव स्थान तक मूल का मान निकाला जा सकता है।

एक विधि न्यूटन ने भी दी है। यह विधि ऐसे समीकरणों पर जो बीजगणितीय न हों लगाई जा सकती है। न्यूटन का ही दिया हुआ उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है। समीकरण

- २ य -=

का एक मूल २ और ३ के बीच में स्थित है। उसका मान निकालने के लिए के स्थान पर २ + रखें, जिसमें < १। और की उपेक्षा करने से, हमें = .१ प्राप्त होता है। अत: मूल का स्थूल मान २.१ हुुआ। अब समीकरण में के स्थान पर .१ + रखने से का निकटतम -०.००५४ प्राप्त होता है। इस प्रकार मूल का मान लगभग २.०९४६ प्राप्त हुआ। इसी प्रक्रम को बार बार करने से मूल का जितना चाहें उतना निकटतम मान प्राप्त किया जाता है। इस नियम का सिद्धांत यह है कि टेलर प्रसार (Taylor expension) में से केवल पहले दो पद ले लिए जाएँ, शेष की उपेक्षा की जाए। इस प्रकार, यदि निम्न सीमा व है, तो

फ (व + ट) = फ (व + ट फ) (व),

अर्थात् ट = -

द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ घात समीकरणों के बीजगणितीय हल - इस प्रक्रम में पहला काम तो यह किया जाता है कि समीकरण को एक दूसरे समीकरण में परिणत कर देते हैं, जिससे अज्ञात राशि के पदों की संख्या कम हो। विशेषकर, द्वितीय उच्चतम घातवाले पद को हटा दिया जाता है। समीकरण

o +1स...१ +.....+= o

में =+ रखने से - का गुणांक स ट कo + हो जाता है। अत: यदि = - /स कo लिया जाए, तो नए समीकरण में द्वितीय पद नहीं रहेगा। यदि - समीकरण को हल कर लिया जाए, तो मौलिक समीकरण के मूल निकल आएँगे। इस प्रकार, वर्ग समीकरण

क य + ख य += o

के लिए= - ख/२ क और- समीकरण होगा = ला, जिसमें ला = श्और = श्घन समीकरण

o +1 +2+ = o

के लिए = -1/३ o और स्थानापतन =-1/३ o से समीकरण

+ प र += o���������������������������� ()

प्राप्त होगा, जिसमें और फ, क - ओं के पदों में होंगे। यदि इस समीकरण के मूल , हों, तो के मान निकाले जा सकते हैं।

समीकरण () के मूल व्येटा (Vieta) ने निकाले थे। उसने =- प/३ ल स्थानापतन करके का वर्ग समीकरण + फ ल -/२७ = o प्राप्त किया था। आजकल कारडैन (Cardan) द्वारा किए गए संशोधित रूप का प्रयोग किया जाता है। यदि समस्त मूल वास्तविक हों, तो अलघुकरणीय दशा (Irreducible case) प्राप्त होती है और उपर्युक्त विधि अनुपयुक्त हो जाती है। ऐसी दशा में समीकरण () में = त ल रखकर, परिणामी समीकरण की तुलना

कोज्याक्ष =कोज्वा क्ष - ३कोज्या क्ष से की जाती है। इसप्रकार, प्राप्त होता है

= कोज्या क्ष, त = , कोज्या ३ क्ष = - अत: के तीन मान निकल आते हैं :

कोज्या क्ष, कोज्या (क्ष + १२०), कोज्या (क्ष + २४०)।

सार्विक चतुर्घात समीकरण + + श् + + = o का हल फर्रारी (Ferrari) ने निकाला था। इसके लिए उसने समीकरण के दोनों ओर (म य +) जोड़ दिया था और समीकरण के दाएँ पक्ष की तुलना

( + य/२ +)

से करके, का मान निकाला था। गुणांकों की तुलना और तत्पश्चात् का विलोपन (elimination) करने से, ठ के लिए एक घन समीकरण प्राप्त होता है। उक्त घन समीकरण को लघुकारक त्रिघाती (Reducing Cubic), अथवा विश्लेषक त्रिघाती (Resolvent Cubic) समीकरण कहते हैं और इसके मूल निकालने में और के मान प्राप्त होते हैं। इस प्रकार चतुर्घात समीकरण का हल दो वर्ग समीकणों के हल पर आश्रित होता है और चार मूल प्राप्त होते हैं।

त्रिघात और चतुर्घात समीकरणों का बहुत सा साहित्य उपलब्ध है, किंतु अब उसका विशेष मूल्य नहीं रह गया है। सन् १७७० से एक नया युग आरंभ हो गया, जब लाग्रांज (Langrange) ने यह उक्ति दी कि किसी बीजगणितीय समीकरण का मूल चिह्नों द्वारा हल एक अन्य समीकरण के, जिसे विश्लेषक कहते हैं, हल पर आश्रित किया जा सकता है। किंतु यह संभव है कि उक्त समीकरण को हल करना भी उतना ही कठिन हो जितना मौलिक समीकरण को हल करना। विश्लेषक के मूल मौलिक समीकरण के मूलों के परिमेय फलन होते हैं। उक्त गवेषण कार्य में आधुनिक गालवा सिद्धांत की नींव दिखाई पड़ती है, जिसमें प्रतिस्थापन समूहों (substitution groups) का प्रयोग किया जाता है। (शांति नारायण महादेवन)