समाजशास्त्र के अर्थ, प्रकृति तथा विषयक्षेत्र के संबंध में समाजशास्त्रियों में कभी मतैक्य नहीं रहा। जबकि एक ओर समाजशास्त्र को 'समाज का वैज्ञानिक अध्ययन' कहकर एक लचीली परिभाषा प्रदान की गई है तो दूसरी ओर उसे 'सामाजिक क्रिया की व्यवस्थाओं तथा उनके अंत:संबंधों का अध्ययन' मानकर एक जटिल संभावनाओं से युक्त परिभाषा में बाँधने का प्रयत्न भी किया गया है। पूर्ववर्ती समाजशास्त्रियों में दुर्केम या हौबहाउस ने समाजशास्त्र को एक शीर्षस्थ संश्लिष्ट सामाजिक विज्ञान की भाँति विकसित करने का प्रयास किया तो ज़िमेल या फियरकांत ने उसे सीमित किंतु शुद्ध तात्विक सामाजिक विज्ञान के रूप में देखा। परवर्ती समाजशास्त्रियों में सोरोकिन या मूर जबकि उच्चस्तरीय समन्वयात्मक अथवा सकल मानवजाति के विश्वात्मक समाजशास्त्र की बात करते हैं तो पार्संस सामाजिक क्रिया द्वारा गठित सामाजिक व्यवस्थाओं के अंत:संबंधों के सूक्ष्म विश्लेषण पर आधारित सिद्धांतों के रूप में समाजशास्त्र का विकसित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। इसी कारण समाजशास्त्र के विषय में अपनी धारणा के अनुसार प्रत्येक प्रमुख समाजशास्त्री ने समाजशास्त्र के विषयक्षेत्र का भी निर्धारण किया है तथा अन्य सामाजिक विज्ञानों से भिन्नता स्थापित करनेवाली उसकी विशिष्ट प्रकृति की रूपरेखाएँ प्रस्तुत की हैं। अतएव समाजशास्त्र की प्रकृति संबंधी स्थापनाओं की विविधताओं के कारण समाजशास्त्र की परिभाषा तथा विषयक्षेत्र के निर्धारण की दिशा में कोई अंतिम, सर्वमान्य तथा सर्वग्राही दृष्टिकोण उपस्थित करना संभव नहीं है। समाजशास्त्र की मूलभूत सैद्धांतिक तथा विधिशास्त्रीय समस्याओं संबंधी विचारमंथन की तीव्रता में कभी कमी नहीं आई। इस स्थिति के बावजूद समाज के अध्ययन से संबंधित अन्य समाजविज्ञानों से समाजशास्त्र की भिन्नता और विशिष्टता को स्पष्टतया इंगित किया जा सकता है।
अन्य सामाजिक विज्ञानों की तुलना में समाजशास्त्र की यह विशिष्टता है कि वह सामाजिक जीवन का अध्ययन एक समष्टि के रूप में करता है। वह समाज के किसी एक पक्ष या संस्था मात्र पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं करता। वह सामाजिक जीवन को एक पूर्णत्व के रूप में देखता है। अर्थशास्त्र, राजशास्त्र, या विधिशास्त्र जैसे सामाजिक विज्ञानों का दृष्टिबिंदु प्रधानतया समाज के किसी पहलू में ही केंद्रित रहा है। किंतु समाजशास्त्र समाज के विभिन्न पहलुओं तथा उनके अंत:संबंधों के स्वरूपों, प्रकारों तथा प्रतिफलों के अध्ययन में संलग्न होता है। समाजशास्त्रीय दृष्टि के अंतर्गत समाज के विभिन्न संस्थात्मक पक्ष अन्योन्याश्रित रूप से अंत:संबंधित हैं। विभिन्न सामाजिक संस्थाओं तथा उनके अंत:संबंधों की समग्रता पर समाजशास्त्र जोर देता है। अत: समाजशास्त्र समाज का अध्ययन एक समग्र संरचना के रूप में करता है। किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सामाजिक संरचना के इस अध्ययन में समाजशास्त्र समाज के विभिन्न संस्थात्मक पहलुओं के विशिष्ट अध्ययन को महत्त्व नहीं देता। विशेषीकृत अध्ययन तो समाजशास्त्र के लिए अनिवार्य है ही। इसी आधार पर समाजशास्त्र की अनेक शाखाएँ - यथा परिवार का समाजशास्त्र, आर्थिक जीवन का समाजशास्त्र, धर्म का समाजशास्त्र, राजनीतिक समाजशास्त्र - विकसित हुई हैं। बेवर जैसे समाजशास्त्रियों ने धर्म राजनीति अर्थव्यवस्था आदि सामाजिक संस्थाओं का अध्ययन कर उनके विश्लेषण की आवश्यकता सिद्ध की है। किंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि समाजशास्त्र के अंतर्गत ऐसे विशेषीकृत अध्ययनों को एकांकी एवं असंबद्ध संस्थाओं का विवेचन मात्र न मानकर उन्हें सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक संदर्भों में स्थित सामाजिक रचनाओं के अंगों के रूप में देखा जाता है।
समाजशास्त्र के स्वरूप को समझने के लिए इतना ही कहना यथेष्ट नहीं है कि वह समाज को एक समग्र संरचना के रूप में देखता है। वह इस संरचना के क्रियावान् पक्ष का अथवा उसे गतिशीलता प्रदान करनेवाली प्रक्रियाओं का तथा उसमें परिवर्तन लानेवाले तत्वों का भी अध्ययन करता है। समाजशास्त्र में सामाजिक प्रक्रियाओं के अध्ययन पर बल दिया जाना स्वाभाविक है क्योंकि ये ही प्रक्रियाएँ सरंचना के गतिदायक तत्व हैं। समाजशास्त्रियों का एक प्रमुख वर्ग, जिसका नेतृत्व जर्मन समाजशास्त्रियों ने किया है, इन प्रक्रियाओं के अध्ययन को ही समाजशास्त्र का प्रधान लक्ष्य मानता है। स्तरीकरण, संघर्ष, सहयोग, श्रेष्ठता, अधीनता आदि प्रक्रियाओं का अध्ययन कोई दूसरा सामाजिक विज्ञान नहीं करता। समाजशास्त्र की कुछ प्रमुख शाखाएँ भी इसी आधार पर विकसित हुई हैं, जैसे, स्तरीकरण, का समाजशास्त्र, चरिष्णुता का समाजशास्त्र, संघर्ष का समाजशास्त्र, आदि।
इस प्रकार समाजशास्त्र समाजरूपी समय संरचना का एक विशिष्ट प्रकार के व्यापक दृष्टिकोण से अध्ययन तथा विश्लेषण करता है। वह समाज का इस दृष्टि से अध्ययन करता है कि जटिलताओं के होते हुए और उसके सदस्यों की जन्ममृत्यु के आवागमन क्रम के बावजूद उसमें व्यवस्था किस प्रकार कायम रहती है तथा कौन सी प्रक्रियाएँ इस व्यवस्था की निरंतरता को कायम रखती हैं; समाज के सदस्यों के व्यवहार तथा उनकी क्रियाओं का स्वरूप क्या होता है और इन क्रियाओं के विभिन्न पुंजों में संगठित होने की प्रवृत्ति के नियम क्या हैं, समाज की व्यस्था कब और कैसे विभिन्न मात्राओं में संकटग्रस्त होती है, और सर्वोपरि, किस रूप तथा दिशा में किन कारकों से प्रभावित होकर यह व्यवस्था परिवर्तित होती है। अत: समाजशास्त्र की दृष्टि में समाज केवल एक स्थिर संरचनामात्र नहीं है वरन् विभिन्न प्रक्रियाओं के गत्यात्मक संबंधों की व्यवस्था भी है और ऐसी व्यवस्था जो कालप्रवाह में रहती हैं, चिर नवीन स्थितियों से गुजरती जाती है। उपर्युक्त दृष्टि से समाजशास्त्र जहाँ एक ओर समाजव्यवस्था के आधारभूत तत्वों तथा प्रक्रियाओं का अध्ययन करनेवाला, सामाजिक विज्ञान है, वहाँ दूसरी ओर वह उस व्यवस्था के परिवर्तन के रूपों, प्रतिमानों और कारकों की व्याख्या करनेवाला सामाजिक विज्ञान भी है।
विश्लेषण तथा अध्ययन की दृष्टि से समाजशास्त्र का विषयक्षेत्र अनेक स्तरों में बँटा हुआ है। अब तक के समाजशास्त्रीय विश्लेषण में लघुतम तथा सरलतम स्तर समाज के सदस्यों की एकांकी सामाजिक क्रियाओं का स्तर है। इसके बाद का अगला स्तर सामाजिक क्रियाओं के व्यवस्थित सपुंजन से निर्मित सामाजिक संबंधों का स्तर है। इस स्तर से ऊपर अधिक व्यापक तथा जटिल स्तर सामाजिक संबंधों के संगठन से बनी सामाजिक संस्थाओं का स्तर है। तदुपरांत विभिन्न सामाजिक संस्थाओं की अंत:संबंधि संरचना के पूर्णत्व के रूप में समाजरूपी व्यवस्था का स्तर अपने दीर्घ तथा जटिल रूप में देखा जाता है। अंत में देश तथा काल की सीमाओं से आबद्ध विश्व की सभी समाज व्यवस्थाओं की समष्टि समाजशास्त्रीय विश्लेषण का सबसे दीर्घकाय तथा जटिलतम स्तर है। इन सभी स्तरों के विश्लेषण के दौरान समाजशास्त्री उनकी अन्योन्याश्रित एकात्मक प्रकृति को कभी नजरअंदाज नहीं करता। साथ ही वह इन स्तरों के पूर्णत्व को किसी अनेक मंजिलोंवाली मीनार या स्थिर इमारती ढाँचे की भाँति भी नहीं देखता। इस प्रकार का स्तरात्मक विभाजन तो विश्लेषणात्मक सुविधा के हेतु किया जाता है, न कि वास्तुकलाशास्त्र की संरचनात्मक अवधारणा की भाँति। समझने के लिए यह कहा जा सकता है कि समाज नदी की धारा की भाँति है। नदी का जो पानी किसी एक क्षण किसी तट को छूता है, वह दूसरे क्षण वहाँ नहीं रहता किंतु साथ ही नदी के इस क्षण के जल के अंश को अगले क्षण के जल के अंश से अलग भी करना कठिन है। यदि ऐसा किया जा सकता है तो वह नदी कहाँ रह जाएगा, वह तो स्थिर जल रह जाएगा। जल का अंश, क्षण तथा तट का भेद हमारे समझने के लिए है, वरना नदी तो एक पूर्ण वस्तु है - प्रवहमान पूर्ण वस्तु। इसी भाँति यह कहा जा सकता है कि समाज भी एक पूर्ण वस्तु या पूर्णत्व है, प्रवहमान पूर्णत्व। इस सत्य को ध्यान में रखते हुए ही समाजशास्त्र का बहुस्तरीय तथा बहुमुखी विश्लेषण सार्थकता तथा विशिष्टता प्राप्त करता है।
समाजशास्त्र ने अपने पिछले एक शताब्दी से अधिक के इतिहास में नि:संदेह यथेष्ट प्रगति की है। जैसे जैसे कोई ज्ञान या विज्ञान प्रगति करता है उसके अंतर्गत व्यापकता, गहनता तथा सूक्ष्मता बढ़ते हुए विशेषीकरण के रूप में प्रकट होती है। विषय के अंदर नई शाखाएँ तथा उपशाखाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। समाजशास्त्र भी ज्ञान के विकास के इस सामान्य नियम से बाहर नहीं है और उसकी भी अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ बनती तथा पनपती हैं। आज समाजशास्त्र की शाखाओं तथा उपशाखाओं की सूची काफी लंबी हो चुकी है। सुविधा की दृष्टि से उनको निम्न मुख्य वर्गों में रखा सकता है : (१) सैद्धांतिक समाजशास्त्रीय विश्लेषण - इसके अंतर्गत समाजशास्त्र की सैद्धांतिक, अवधारणात्मक तथा पद्धतिशास्त्रीय पक्षों से संबंधित शाखाएँ आती हैं; (२) संस्थाओं का समाजशास्त्र विश्लेषण - इसके अंतर्गत पारिवारिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक आदि प्रत्येक संस्था से संबंधित समाजशास्त्र की विशिष्ट शाखाएँ सम्मिलित हैं; (३) सामाजिक प्रक्रियाओं का विश्लेषण - इस वर्ग में विभिन्नीकरण, स्तरीकरण, चरिष्णुता, सहयोग, संघर्ष, समाजीकरण, परिवर्तन आदि प्रक्रियाओं से संबंधित समाजशास्त्र की शाखाएँ सम्मिलित हैं; (४) सामाजिक जीवन के विभिन्न स्तरों का विश्लेषण - इसके अंतर्गत सामाजिक क्रिया, सामाजिक संबंध, व्यक्तित्व, समूह, समिति, तथा समुदाय आदि सामाजिक जीवन की प्रमुख इकाइयों का अध्ययन करनेवाली शाखाएँ आती हैं; (५) सांस्कृतिक तत्वों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण - इसमें मूल्यों, ज्ञान विज्ञान, भाषा एवं प्रतीकों, कला आदि का विश्लेषण करनेवाली शाखाएँ सम्मिलित हैं; तथा (६) सामाजिक विचलन तथा विघटन का विश्लेषण-इसमें वैयक्तिक विघटन, संस्थात्मक एवं सामूहिक विघटन, सांस्कृतिक अपराधशास्त्र आदि शाखाएँ सम्मिलित हैं।
समाजशास्त्र की प्रमुख शाखाओं के उपर्युक्त वर्गीकरण से आज समाजशास्त्र के क्षेत्र तथा प्रगति का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह संभव है कि भविष्य में इनमें से कुछ शाखाएँ इतनी विकसित हो जाएँ कि वह समाजशास्त्र से बाहर निकलकर स्वतंत्र शास्त्र का रूप ग्रहण करने लगें। यह भी संभव है कि कुछ नई शाखाएँ उत्पन्न हो जाएँ तथा कुछ पुरानी शाखाएँ महत्वहीन होकर अन्य शाखाओं में विलीन हो जाएँ।
अपनी उत्पत्ति की सामाजिक सुधार तथा पुनर्निर्माणवाली पृष्ठभूमि के कारण आधुनिक समाजशास्त्र की व्यावहारिक उपादेयता की चर्चा प्रारंभ से ही होती रही है। समाजशास्त्र के उत्थान तथा विकास में अन्य बातों के अलावा इस धारणा का भी महत्व रहा है कि वह समाज का ऐसा विज्ञान बने, जिसकी उपलब्धियों का व्यावहारिक लाभ उठाया जा सके। स्वयं कौंत ने समाजशास्त्र को सामाजिक पुनर्निर्माण के संदर्भ में विशेष महत्व दिया था। समाजशास्त्र की प्रकृति तथा उसकी अब तक की प्रगति को देखते हुए यह दावा करना एकदम गलत है कि वह सामाजिक समस्याओं के निराकरण में उसी प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है जिस प्रकार अनेक व्यावहारिक समस्याओं के समाधान के लिए प्राकृतिक या जैवकीय विज्ञानों का प्रयोग किया जाता है। समाजशास्त्री न तो समाज का डाक्टर बन सकता है और न इंजीनियर। किंतु सामाजिक समस्याओं को समझने तथा सुलझाने में तथा सामाजिक नियोजन के सिलसिले में समाजशास्त्र निस्संदेह बहुत सहायक हो सकता है। आधुनिक औद्योगिक समाजों में सामाजिक पुनर्रचना के कार्यक्रमों के निर्माण, संगठन तथा कार्यान्वयन में समाजशास्त्र की उपयोगिता बढ़ती जा रही है और समाजशास्त्र के तेजी से होनेवाले प्रसार का यह एक प्रमुख कारण है। परिवार, शिक्षा, चिकित्सा तथा स्वास्थ्य, प्रशासकीय प्रशिक्षण, जनसंख्या-नियोजन, नगर-नियोजन, ग्रामीण पुनर्निर्माण, अंतरराष्ट्रीय सहयोग आदि अनेक क्षेत्र से संबंधित मामलों में समाजशास्त्रियों से मूल्यवान सहायता ली जा रही है। वास्तव में समाजशास्त्र का ज्ञान समस्याओं का विश्लेषण गहराई में करता है तथा उनको व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष में रखकर निदान की दिशाएँ इंगित करता है। स्थितियों को विभिन्न अंत:संबंधित तथा अन्योन्याश्रित कारकों के संदर्भ में देखना समाजशास्त्र की बुनियादी विशेषता है। इसी कारण वह ऊपर से सरल तथा एकांगी दिखनेवाली समस्याओं का निदान करने में तथा उनसे निस्तार की दिशाएँ ढूँढने में, अन्य सामाजिक विज्ञानों की अपेक्षा, अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। आधुनिक बृहदाकार तथा परिवर्तनशील जटिल समाजव्यवस्थाओं तथा उनसे संबंधित समस्याओं का, समाजशास्त्रीय दृष्टि से, विश्लेषण करना अधिकाधिक आवश्यक होता जा रहा है। सामाजिक नियोजन तथा सामाजिक नीतिनिर्धारण के मामलों में समाजशास्त्र का बढ़ता हुआ महत्व इस बात का द्योतक है कि इस दिशा में समाजशास्त्र की उपादेयता निरंतर बढ़ती जाएगी।
समाजशास्त्र वर्तमान युग में तेजी के साथ वैचारिक एवं बौद्धिक जगत् में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता जा रहा है। आधुनिक समाजव्यवस्थाओं तथा उनमें स्थित व्यक्तियों का संबंधित विशिष्ट सांस्कृतिक संदर्भों में विश्लेषण करने तथा उनको समग्र रूप में समझने में समाजशास्त्र मनुष्य की सहायता करता है इससे मनुष्य की दृष्टि सीमित, एकांगी और मूढ़ाग्रही होने से बच जाती है। आज के युग में जटिल वास्तविकताओं को समझने और बढ़ते हुए तनावों को घटाने में ऐसे संतुलित और पुष्ट दृष्टिकोण का विकास और प्रसार आवश्यक भी है। समाशास्त्रीय दृष्टिकोण हमको अपने चारों ओर की बातों को समझने और परखने के लिए एक वैचारिक कसौटी प्रदान करता है। उसकी सहायता से यथास्थितिवादी और क्रांतिकारी अतिवादी दृष्टिकोणों से ऊपर उठकर चीजों को देखा जा सकता है। इस सबके अलावा आधुनिक समाजशास्त्र की यह भी विशेषता है कि वह समकालीन स्थिति का स्पष्टतम आभास कराता है। समकालीनत्व की संवेदनशील अनुभूति तथा परख दोनों में समाजशास्त्र विशेषकर सहायक होता है। वास्तव में यह बीसवीं सदी के पेचीदा मानवसमाज में रहनेवाले मनुष्यों को आवश्यक दृष्टि देनेवाला तथा उनके लिए अपेक्षित बौद्धिक धरातल निर्मित करनेवाला विज्ञान है और इसके विकास की संभावनाओं का क्षेत्र आश्चर्यजनक रूप से विस्तृत है।
सं. ग्रं. - लियोनार्ड ब्रूम ऐंड फिलिप सेल्जनिक : सोशिआलाजी ए टेक्स्ट विथ एडाप्टेड रीडिंग्ज, न्यूयार्क, १९५५; आर्नल्ड ग्रीन : सोशिआलाजी ऐन ऐनेलसिस ऑव लाइफ इन मॉडर्न सोसायटी, मैकग्राहिल, न्यूयार्क, १९५६; डॉन मार्टिन डेल : नेचर ऐंड टाइप्स ऑव सोशिआलोजिकल थियरी, रटलेज ऐंड केगन पॉल, लंदन, १९४९; अलेक्स इंकेलेस : ह्वाट इज सोशिआलोजी, प्रिंटिस हाल, एंगलउड क्रिप्स, १९६४; टी. ब. बोट्टोमोर : सोशिआलॉजी, जार्ज ऐलेन ऐंड अनविन, लंदन, १९६२; टेलकट पार्संस तथा अन्य (सं.) : थियोरीज ऑव सोसायटी (दो खंड) दफरी प्रेस, ग्लेनको, १९६१; मर्टन ब्रूम ऐंड काट्रेल (सं.) : सोशिआलॉजी टु डे : प्राबलम्स ऐंड प्रसपेक्टस बेसिक बुक्स, न्यूयार्क, १९५९। (रमेश चंद्र तिवारी)