समाजवाद अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द 'सोशलिज्म' का हिंदी रूपांतर है। १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में और उन विचारों के समर्थन में किया जाता था जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को बदलना था और जो जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे।
समाजवाद शब्द का प्रयोग अनेक और कभी कभी परस्पर विरोधी प्रसंगों में किया जाता, जैसे समूहवाद अराजकतावाद, आदिकालीन कबायली साम्यवाद, सैन्य साम्यवाद, ईसाई समाजवाद, सहकारितावाद, आदि - यहाँ तक कि नात्सी दल का भी पूरा नाम राष्ट्रीय समाजवादी दल था। आदिकालीन साम्यवादी समाज में मनुष्य पारस्परिक सहयोग द्वारा आवश्यक चीजों की प्राप्ति, और प्रत्येक सदस्य के आवश्यकतानुसार उनका आपस में बँटवारा करते थे। परंतु यह साम्यवाद प्राकृतिक था; मनुष्य की सचेत कल्पना पर आधारित नहीं था। आरंभ के ईसाई पादरियों की रहन सहन का ढंग बहुत कुछ साम्यवादी था, वे एक साथ और समान रूप से रहते थे, परंतु उनकी आय का स्रोत धर्मावलंबियों का दान था और उनका आदर्श जनसाधारण के लिए नहीं, वरन् केवल पादरियों तक सीमित था। उनका उद्देश्य भी आध्यात्मिक था, भौतिक नहीं। यही बात मध्यकालीन ईसाई साम्यवाद के संबंध में भी सही है। पीरू (Peru) देश की प्राचीन इंका (Inka) सभ्यता को सैन्य साम्यवाद की संज्ञा दी जाती है, परंतु उसका आधार सैन्य संगठन था और वह व्यवस्था शासक वर्ग का हितसाधन करती थी। नगरपालिकाओं द्वारा लोकसेवाओं के साधनों को प्राप्त करना, अथवा देश की उन्नति के लिए आर्थिक योजनाओं के प्रयोग मात्र को समाजवाद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि इनके द्वारा पूँजीवाद को ठेस पहुँचे। नात्सी दल ने बैंकों का राष्ट्रीकरण किया था परंतु पूँजीवादी व्यवस्था अक्षुण्ण रही।
समाजवाद की परिभाषा करना कठिन है। यह सिद्धांत तथा आंदोलन, दोनों ही है, और यह विभिन्न ऐतिहासिक और स्थानीय परिस्थितियों में विभिन्न रूप धारण करता है। मूलत: यह वह आंदोलन है जो उत्पादन के मुख्य साधनों के समाजीकरण पर आधारित वर्गविहीन समाज स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है और जो मजदूर वर्ग को इसका मुख्य आधार बनाता है, क्योंकि क्योंकि वह इस वर्ग को शोषित वर्ग मानता है जिसका ऐतिहासिक कार्य वर्गव्यवस्था का अंत करना है।
समाजवाद के अनेक प्रकार हैं और उनकी विभिन्नता का आधार उनकी न्याय की कल्पना, राज्य के प्रति उनका रुख और लक्ष्य की प्राप्ति के साधन हैं।
यद्यपि समाजवादी आंदोलन और समाजवादी शब्द का प्रयोग उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से आरंभ हुआ तथापि ईसा से ६०० वर्ष पूर्व भी समाजवादी विचारों का वर्णन मिलता है, परंतु प्लेटो सर्व प्रथम दार्शनिक है जिसने इन विचारों को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया। वह न केवल संपत्ति के समान और सामूहिक प्रयोग के पक्ष में था वरन् व्यक्तिगत कौटुंबिक प्रथा का अंत कर स्त्रियों और बच्चों का भी समाजीकरण करना चाहता था। उसके साम्यवाद का आधार गुलाम प्रथा थी और वह केवल संकुचित शासक वर्ग तक सीमित था, अत: उसको अभिजाततंत्रीय समाजवाद कहा जाता है। मध्यकालीन विचारों में भी साम्य संबंधी धारणाएँ मिलती हैं, परंतु उस समय के विद्रोहों का आधार नैतिक और धार्मिक था।
आधुनिक काल के प्रथम चरण से विचारस्वातंत््रय के कारण धर्मनिरपेक्ष चिंतन आरंभ हुआ और इस काल में टामस मोर (Thomas More, यूटोपिया, १५१६) और कंपानैला (Campanella, 'सूर्यनगर' १६२३) जैसे विचारकों ने साम्य के आधार पर समाज की कल्पना की, परंतु औद्योगिक क्रांति के पूर्व आधुनिक समाजवादी विचारों के लिए भौतिक आधार - पूँजीवादी शोषण और सर्वहारा वर्ग - संभव नहीं था। औद्योगिक क्रांति के साथ विज्ञानों का विकास हुआ और प्राचीन मान्यताओं तथा धार्मिक अंधविश्वासों का ्ह्रास होने लगा। इन परिस्थितियों में आधुनिक समाजवादी चिंतन का उदय हुआ।
इस काल का प्रथम समाजवादी विचारक फ्रांस-निवासी बाबूफ़ (Babeuf, 1764-97) था। वह भूमि के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में था तथा अपने व्यय की प्राप्ति क्रांति द्वारा करना चाहता था। अठारहवीं शताब्दी के अंत और उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ के अन्य प्रमुख फ्रांसीसी समाजवादी विचारक साँ सीमों (Saint Simon 1760-1825) और फ़ोरिए (Fourier 1772-1837) हैं। साँ सीमों संपत्ति पर सामाजिक अधिकार स्थापित करना चाहता था परंतु वह सबको समान वरन् श्रम के अनुसार वेतन के पक्ष में था। फ़ोरिए के विचार साँ सीमों से मिलते जुलते हैं, परंतु वह सहकारी संगठनों की कल्पना भी करता है।
उपर्युक्त फ्रंासीसी समाजवादियों के विचारों से ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमरीका भी प्रभावित हुए। ब्रिटेन का तत्कालीन प्रमुख समाजवादी विचारक रॉबर्ट ऑवेन (Robert Owen, 1771-1858) था। वह स्वयं एक मजदूर और बाद में सफल पूँजीपति, समाजसुधारक, और मजदूर तथा सहकारी आंदोलनों का प्रवर्तक हुआ। उसका कथन था कि मनुष्य का स्वभाव परिस्थितियों से प्रभावित होता है। वह शिक्षा, प्रचार और समाज-सुधार द्वारा पूँजीवादी शोषण का अंत करना चाहता था। अपने विचारों के अनुसार उसने उपनिवेश स्थापित करने का प्रयत्न किया, परंतु असफल रहा; तथापि उसके विचारों का ब्रिटिश और संयुक्त राज्य अमरीका के मजदूर आंदोलनों पर गहरा प्रभाव पड़ा। ऑवेन की भाँति काबे (Cabet, 1781-1856) ने भी संयुक्त राज्य अमरीका में समाजवादी उपनिवेश स्थापित किए परंतु उसके प्रयत्न भी सफल न हो सके।
ऑवेन के बाद ब्रिटेन में मजदूरों के अंदर चार्टिस्ट, (Chartist) विचारधारा का प्रादुर्भाव हुआ। यह आंदोलन मताधिकार प्राप्त कर संसद् पर अधिकार स्थापित करना, और इस प्रकार राज्यशक्ति प्राप्त करने के बाद आर्थिक तथा सामाजिक सुधार करना चाहता था। आगे चलकर फेबियन तथा अन्य समाजवादियों ने इस संवैधानिक मार्ग का आश्रय लिया। परंतु फ्रांसीसी समाजवादी लुईज्लाँ (Louis Blonc, 1811-1882) क्रांतिकारी था। वह उद्योगों के समाजीकरण ही नहीं, मजदूरों के काम करने के अधिकार का भी समर्थक था। ''प्रत्येक अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्य करे और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार प्राप्ति हो'' उसने इस साम्यवादी विचार का प्रचार किया।
कार्ल मार्क्स (1818-83) के साथी एंगिल्स ने उपर्युक्त आधुनिक समाजवादी विचारों को काल्पनिक समाजवाद का नाम दिया। इन विचारों का आधार भौतिक और वैज्ञानिक नहीं, नैतिक था; इनके विचारक ध्येय की प्राप्ति के सुधारवादी साधनों में विश्वास करते थे; और भावी समाज की विस्तृत परंतु अवास्तविक कल्पना करते थे।
मार्क्स का वैज्ञानिक समाजवाद - मार्क्स को वैज्ञानिक समाजवाद का प्रणेता माना जाता है। मार्क्स जर्मन देश के एक राज्य का रहनेवाला था और जर्मनी १८७१ ई. के पूर्व राजनीतिक रूप से कई राज्यों में विभाजित, तथा आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ था। अत: यहाँ पर समाजवादी विचारों का प्रचार देर से हुआ। यद्यपि जोहान फिख्टे (Johaan Fichte, 1761-1815) के विचारों में समाजवाद की झलक है, परंतु जर्मनी का सर्वप्रथम और प्रमुख समाजवादी विचारक कार्ल मार्क्स ही माना जाता है। मार्क्स के विचारों पर हीगेल के आदर्शवाद, फोरवाक (Feuerbach) के भौतिकवाद, ब्रिटेन के शास्त्रीय अर्थशास्त्र, तथा फ्रांस की क्रांतिकारी राजनीति का प्रभाव है। मार्क्स ने अपने पूर्वगामी और समकालीन समाजवादी विचारों का समन्वय किया है। उसके अभिन्न मित्र और सहकारी एंगिल्स ने भी समाजवादी विचार प्रतिपादित किए हैं, परंतु उनमें अधिकांशत: मार्क्स के सिद्धांतों की व्याख्या है, अत: उसके लेख मार्क्सवाद के ही अंग माने जाते हैं।
मार्क्स के दर्शन को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical materialism) कहा जाता है। मार्क्स के लिए वास्तविकता विचार मात्र नहीं भौतिक सत्य है; विचार स्वयं पदार्थ का विकसित रूप है। उसका भौतिकवाद, विकासवान् है परंतु यह विकास द्वंद्वात्मक प्रकार से होता है। इस प्रकार मार्क्स हीगल के विचारवाद का विरोधी परंतु उसकी द्वंद्वात्मक प्रणाली को स्वीकार करता है।
मार्क्स के विचारों की दूसरी विशेषता उसका ऐतिहासिक भौतिकवाद (Historical materialism) है। कुछ लेखक इसको इतिहास की अर्थशास्त्रीय व्याख्या भी कहते हैं। मार्क्स ने सिद्ध किया कि सामाजिक परिवर्तनों का आधार उत्पादन के साधन और उससे प्रभावित उत्पादन संबंधों में परिवर्तन हैं। अपनी प्रतिभा के अनुसार मनुष्य सदैव की उत्पादन के साधनों में उन्नति करता है, परंतु एक स्थिति आती है जब इस कारण उत्पादन संबंधों पर भी असर पड़ने लगता है और उत्पादन के साधनों के स्वामी-शोषक-और इन साधनों का प्रयोग करनेवाला शोषित वर्ग में संघर्ष आरंभ हो जाता है। स्वामी पुरानी अवस्था को कायम रखकर शोषण का क्रम जारी रखना चाहता है, परंतु शोषित वर्ग का और समाज का हित नए उत्पादन संबंध स्थापित कर नए उत्पादन के साधनों का प्रयोग करने में होता है। अत: शोषक और शोषित के बीच वर्गसंघर्ष क्रांति का रूप धारण करता है और उसके द्वारा एक नए समाज का जन्म होता है। इसी प्रक्रिया द्वारा समाज आदिकालीन कबायली साम्यवाद, प्राचीन गुलामी, मध्यकालीन सामंतवाद और आधुनिक पूँजीवाद, इन अवस्थाओं से गुजरा है। अभी तक का इतिहास वर्गसंघर्ष का इतिहास है, आज भी पूँजीपति और सर्वहारा वर्ग के बीच यह संघर्ष है, जिसका अंत सर्वहारा क्रांति द्वारा समाजवाद की स्थापना से होगा। भावी साम्यवादी अवस्था इस समाजवादी समाज का ही एक श्रेष्ठ रूप होगी।
मार्क्स ने पूंजीवादी समाज का गूढ़ और विस्तृत विश्लेषण किया है। उसकी प्रमुख पुस्तक का नाम पूँजी (Capital) है। इस संबंध में उसके अर्घ (Value) और अतिरिक्त अर्घ (Surplus value) संबंधी सिद्धांत मुख्य हैं। उसका कहना है कि पूँजीवादी समाज की विशेषता अधिकांशत: पण्यों (Commodities) की पैदावार है, पूँजीपति अधिकतर चीजें बेचने के लिए बनाता है, अपने प्रयोग मात्र के लिए नहीं। पण्य वस्तुएँ अपने अर्घ के आधार पर खरीदी बेची जाती हैं। परंतु पूँजीवादी समाज में मजदूर की श्रमशक्ति भी पण्य बन जाती है और वह भी अपने अर्घ के आधार पर बेची जाती है। प्रत्येक चीज के अर्घ का आधार उसके अंदर प्रयुक्त सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम है जिसका मापदंड समय है। मजदूर अपनी श्रमशक्ति द्वारा पूँजीपति के लिए बहुत सामर्थ्य (पण्य) पैदा करता है, परंतु उसकी श्रमशक्ति का अर्घ बहुत कम होता है। इन दोनों का अंतर अतिरिक्त अर्घ है और यह अतिरिक्त अर्घ जिसका आधार मजदूर का श्रम है पूँजीवादी मुनाफे, सूद, कमीशन आदि का आधार है। सारांश यह कि पूँजी का स्रोत श्रमशोषण है। मार्क्स का यह विचार वर्गसंघर्ष को प्रोत्साहन देता है। पूँजीवाद की विशेषता है कि इसमें स्पर्धा होती है और बड़ा पूँजीपति छोटे पूँजीपति को परास्त कर उसका नाश कर देता है तथा उसकी पूँजी का स्वयं अधिकारी हो जाता है। वह अपनी पूँजी और उसके लाभ को भी फिर से उत्पादन के क्रम में लगा देता है। इस प्रकार पूँजी और पैदावार दोनों की वृद्धि होती है। परंतु क्योंकि इसके अनुपात में मजदूरी नहीं बढ़ती, अत: श्रमिक वर्ग इस पैदावार को खरीदने में असमर्थ होता है और इस कारण समय समय पर पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक संकटों की शिकार होती है जिसमें अतिरिक्त पैदावार और बेकारी तथा भुखमरी एक साथ पाई जाती है। इस अवस्था में पूँजीवादी समाज उत्पादनशक्तियों का पूर्ण रूप से प्रयोग करने में असमर्थ होता है। अत: पूँजीपति और सर्वहारा वर्ग के बीच वर्गसंघर्ष बढ़ता है और अंत में समाज के पास सर्वहारा क्रांति (Proletarian Revolution) तथा समाजवाद की स्थापना के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह जाता। सामाजिक पैमाने पर उत्पादन परंतु उसके ऊपर व्यक्तिगत स्वामित्व, मार्क्स के अनुसार यह पूँजीवादी व्यवस्था की असंगति है जिसे सामाजिक स्वामित्व की स्थापना कर समाजवाद दूर करता है।
राज्य के संबंध में मार्क्स की धारणा थी कि यह शोषक वर्ग का शासन का अथवा दमन का यंत्र है। अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए प्रत्येक शासकवर्ग इसका प्रयोग करता है। पूँजीवाद के भग्नावशेषों के अंत तथा समाजवादी व्यवस्था की जड़ों को मजबूत बनाने के लिए एक संक्रामक काल के लिए सर्वहारा वर्ग भी इस यंत्र का प्रयोग करेगा, अत: कुछ समय के लिए सर्वहारा तानाशाही की आवश्यकता होगी। परंतु पूँजीवादी राज्य मुट्ठी भर शासकवर्ग की बहुमत शोषित जनता के ऊपर तानाशाही है जब कि सर्वहारा का शासन बहुमत जनता की, केवल नगण्य अल्पमत के ऊपर, तानाशाही है। समाजवादियों का विश्वास है कि समाजवादी व्यवस्था उत्पादन की शक्तियों का पूरा पूरा प्रयोग करके पैदावार को इतना बढ़ाएगी कि समस्त जनता की सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाएंगी। कालांतर में मनुष्यों को काम करने की आदत पड़ जाएगी और वे पूँजीवादी समाज को भूलकर समाजवादी व्यवस्था के आदी हो जाएंगे। इस स्थिति में वर्गभेद, मिट जाएगा और शोषण की आवश्यकता न रह जाएगी, अत: शोषणयंत्रराज्य-भी अनवाश्यक हो जाएगा। समाजवाद की इस उच्च अवस्था को मार्क्स साम्यवाद कहता है। इस प्रकार का राज्यविहीन समाज अराजकतावादियों का भी आदर्श है।
मार्क्स ने अपने विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए अंतरराष्ट्रीय श्रमजीवी समाज (1864) की स्थापना की जिसकी सहायता से उसने अनेक देशों में क्रांतिकारी मजदूर आंदोलनों को प्रोत्साहित किया। मार्क्स अंतरराष्ट्रवादी था। उसका विचार था कि पूँजीवाद ही अंतरदेशीय संघर्ष और युद्धों की जड़ है, समाजवाद की स्थापना के बाद उनका अंत हो जाएगा और विश्व का सर्वहारा वर्ग परस्पर सहयोग तथा शांतिमय ढंग से रहेगा।
मार्क्स ने सन् १८४८ में अपने 'साम्यवादी घोषणापत्र' में जिस क्रांति की भविष्यवाणी की थी वह अंशत: सत्य हुई और उस वर्ष और उसके बाद कई वर्ष तक यूरोप में क्रांति की ज्वाला फैलती रही; परंतु जिस समाजवादी व्यवस्था की उसको आशा थी वह स्थापित न हो सकी, प्रत्युत क्रांतियाँ दबा दी गईं और पतन के स्थान में पूँजीवाद का विकास हुआ। फ्रांस और प्रशा के बीच युद्ध (1871) के समय पराजय के कारण पेरिस में प्रथम समाजवादी शासन (पेरिस कम्यून) स्थापित हुआ परंतु कुछ ही दिनों में उसको भी दबा दिया गया। पेरिस कम्यून की प्रतिक्रिया हुई और मजदूर आंदोलनों का दमन किया जाने लगा जिसके फलस्वरूप मार्क्स द्वारा स्थापित अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ भी तितर बितर हो गया। मजदूर आंदोलनों के सामने प्रश्न था कि वे समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांतिकारी मार्ग अपनाएँ अथवा सुधारवादी मार्ग ग्रहण करें। इन परिस्थितियों में कतिपय सुधारवादी विचारधाराओं का जन्म हुआ। इनमें ईसाई समाजवाद, फेबियसवाद और पुनरावृत्तिवाद मुख्य हैं।
ईसाई समाजवाद के मुख्य प्रचारक ब्रिटेन के जान मेलकम लुडलो (John Malcohm Luldow 1821-1911), फ्रांस के बिशप क्लाड फॉशे (Claude Fauchet) और जर्मनी के विक्टर आइमे ह्यूबर (Victor Aime Huber) हैं। पूँजीवादी शोषण द्वारा मजदूरों की दुर्दशा देखकर इन विचारकों ने इस व्यवस्था की आलोचना की और मजदूरों में सहकारी आंदोलन का प्रचार किया। उन्होंने उत्पादक तथा भोक्ता सहकारी समितियों की स्थापना भी की। ईसाई समाजवाद का प्रभाव ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के अतिरिक्त आस्ट्रिया तथा बेल्जियम में भी था।
फेबियसवाद - ब्रिटेन में फेबियन सोसायटी की स्थापना सन् १८८३-८४ ई. में हुई। रॉवर्ट ऑवेन तथा चार्टिस्ट आंदोलन के प्रभाव से यहाँ स्वतंत्र मजदूर आंदोलन की नींव पड़ चुकी थी, फेबियन सोसाइटी ने इस आंदोलन को दर्शन दिया। इस सभा का नाम फेबियस कंकटेटर फेबियन (Fabius Cunctater) के नाम से लिया गया है। फेबियस प्राचीन रोम का एक सेनानी था जिसने कार्थेंज के प्रसिद्ध सेनानायक हन्नीबल (Hannibal) के विरुद्ध संघर्ष में धैर्य से काम लिया और गुरीला नीति द्वारा उसको कई वर्षों में परास्त किया। इसी प्रकार फेबियन समाजवादियों का विचार है कि पूँजीवाद को केवल एक मुठभेड़ में क्रांतिकारी मार्ग द्वारा परास्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए पर्याप्त काल तक सोच विचार और तैयारी की आवश्यकता है। इनका तरीका विकास और सुधारवादी है। स्वतंत्र मजदूर दल की स्थापना के पूर्व ये ब्रिटेन के विभिन्न राजनीतिक दलों में प्रवेश कर अपना उद्देश्य पूरा करना चाहते थे। इनका मुख्य ध्येय चरम नैतिक संभावनाओं के अनुसार समाज का पुनर्निर्माण था। ये राज्य को वर्गशासन का यंत्र न मानकर एक सामाजिक यंत्र मानते हैं जिसके द्वारा समाजकल्याण और समाजवाद की स्थापना संभव है। इन विचारकों ने न केवल संसद् वरन् नगरपालिका और ग्रामीण क्षेत्रीय परिषदों द्वारा भी समाजवादी प्रयोगों का कार्यक्रम अपनाया। अत: इनके विचारों को लोकतंत्रीय, संसदीय, बैलट बक्स, चुंगी, विकास अथवा सुधारवादी समाजवाद की संज्ञा दी जाती है। इन विचारकों में प्रमुख सिडनी वेब (Sydney Webb), जाज बर्नाड शाँ, कोल (G. D. H. Cole), ऐनी बेसेंट (Anne Besant), ग्रहम वालस (Grahem Wallace) इत्यादि हैं। इन विचारकों पर ब्रिटिश परंपरा, उपयोगितावाद, राबर्ट ऑवेन, ईसाई समाजवाद, और चार्टिस्ट आंदोलन तथा जान स्टुआर्ट मिल के अर्थशास्त्रियों के विचारों का गहरा प्रभाव है।
जर्मनी का पुनरावृत्तिवाद - जर्मनी का पुनरावृत्तिवाद ब्रिटेन के फेबियसवाद तथा जर्मनी की परिवर्तित परिस्थतियों से प्रभावित हुआ था। जर्मनी और पूर्व यूरोपीय समाज का स्वरूप सामंतवादी तथा राज्य का प्रजातांत्रिक और निरंकुश था, अत: १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक यहाँ के समाजवादी विचार उग्र क्रांतिकारी तथा संगठन षड्यंत्रकारी थे। इन देशों पर मार्क्स के विचारों का प्रभाव था। परंतु १९वीं शताब्दी के अंत में जर्मनी में भी औद्योगिक उन्नति हुई और राज्य ने कुछ व्यक्तिगत तथा राजनीतिक अधिकार स्वीकार किए : फलत: मजदूरों का जीवनस्तर ऊँचा हुआ तथा उनके राजनीतिक दल - सामाजिक लोकतंत्रवादी पार्टी (Social democratic party) का प्रभाव, भी बढ़ा। उसके अनेक सदस्य संसद् के सदस्य बन गए। इस स्थिति में यह बल सिद्धांतत: मार्क्स के क्रांतिकारी मार्ग को स्वीकार करते हुए भी व्यवहार में सुधारवादी हो गया। एडुआर्ड बर्नस्टाइन (Eduard Bernstein 1850-1932) ने इस वास्तविकता के आधार पर मार्क्सवाद के संशोधन का प्रयत्न किया। बर्नस्टाइन सामाजिक लोतंत्रवादी पार्टी का प्रमुख दार्शनिक और एंगिल्स का निकट शिष्य था। वह ब्रिटेन में कई वर्ष तक निर्वासित रहा और वहाँ फेबियसवाद से प्रभावित हुआ।
मार्क्स का कथन था कि परस्पर प्रतियोगिता और आर्थिक संकटों के कारण पूँजीवादी तथा मध्यवर्ग संकुचित होता जाएगा और मजदूर वर्ग निर्धन, विस्तृत, संगठित तथा क्रांतिकारी बनता जाएगा जिससे शीघ्र ही समाजवाद की स्थापना संभव हो सकेगी। स्थिति इसके विपरीत थी, जिसको बर्नस्टाइन ने स्वीकार किया और इस आधार पर उसने क्रांतिकारी कार्यक्रम के स्थान में तात्कालिक समाजसुधार और समाजवाद की सफलता के लिए वर्गसंघर्ष के स्थान में श्रेणीसहयोग तथा संसदात्मक और संवैधानिक मार्ग पर जोर दिया। वह मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के स्थान पर नैतिक तथा अनार्थिक (non-economic) तत्वों के प्रभाव को भी स्वीकार करने लगा। बर्नस्टाइन के विचारों को पुनरावृत्तिवाद को नाम दिया गया। यद्यपि जर्मन मजदूर आंदोलन व्यवहार में सुधारवादी रहा तथापि कार्ल कौटस्की (Karl Kautsky 1854-1938) के नेतृत्व में उसने बर्नस्टाइन के संशोधनों का अस्वीकार करके मार्क्स के विचारों में विश्वास प्रकट किया।
समूहवाद बनाम अराजकतावाद - फेबियसवादी और पुनरावृत्तिवादी विचारक समाजवाद की स्थापना के लिए राज्य को आवश्यक समझते हैं। साम्यवादी विचारक भी संक्रमण काल के लिए ऐडम की शक्ति का प्रयोग करना चाहते हैं। अत: इनको समूहवादी (Collectivist) कहा जाता है। अराजकतावादी विचारक भी पूँजीवाद विरोधी और समाजवाद के समर्थक हैं परंतु वे राज्य, राजनीति और धर्म को शोषणव्यवस्था का समर्थक मानते हैं और आरंभ से ही इनका अंत कर देना चाहते हैं। अराजकतावाद जीवन और आचरण का एक सिद्धांत है जो शासनविहीन समाज की कल्पना करता है। यह समाज के ऐक्य की स्थापना शासन और कानून द्वारा नहीं, वरन् व्यक्ति तथा स्थानीय और व्यावसायिक समूहों के स्वतंत्र समझौतों द्वारा करना चाहता है। इस विचार के अनुसार उपर्युक्त समूहों द्वारा उत्पादन, वितरण आदि की अनेक मानव आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं।
अराजकता शब्द के फ्रांसीसी रूपांतर का प्रयोग पहली बार फ्रांसीसी क्रांति के समय (१७८९) उन क्रांतिकारियों के लिए किया गया था जो सामंतों की जमीन को जब्त करके किसानों में बाँटना और धनिकों की आय को सीमित करना चाहते थे। तत्पश्चात् सन् १८४० में फ्रांसीसी विचारक प्रुधों (Proudhon) ने अपनी पुस्तक ''संपत्ति क्या है?'' में इस शब्द का प्रयोग किया। सन् १८७१ के बाद जब अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ में फूट पड़ी तब मार्क्स के संघवादी विरोधियों को अराजकतावादी कहा गया। आए दिन की भाषा में आतंकवाद और अराजकतावाद पर्यायवाची शब्द हैं; परंतु वस्तुत: दार्शनिक अराजकतावादी केवल राजकीय दमन के विरुद्ध ही आतंक और क्रांतिकारी उपायों के पक्ष में हैं।
संसार का प्रथम अराजकतावादी विचारक चीनी दार्शनिक लाओ त्से (Lao Tse) माना जाता है। प्राचीन यूनान के विचारक अरिस्टीप्पस (Aristippus) और जीनो (Zeno) के दर्शन में भी इन विचारों का पुट है। ब्रिटेन का गोडविन (Godwin) और फ्रांसीसी प्रूधों राज्य और शासनसंस्थाओं-न्यायालय आदि का विरोध करते थे। प्रूधों के अनुसार संपत्ति चोरी का माल है। वह श्रम के आधार पर पण्य विनिमय, और लेनदेन में एक प्रतिशत सूद की दर के पक्ष में था। (दे. अराजकतावाद)
इस संबंध में रूस के तीन अराजकतावादियों के विचार महत्वपूर्ण हैं। बाकूनिन (Bakunin) क्रांतिकारी अराजकतावादी था, प्रिंस क्रॉपोटकिन (Kropotkin 1842-1921) वैज्ञानिक अराजकतावादी तथा लिआ टाल्सटाय (Leo Tolstoy) ईसाई अराजकतावादी। बाकूनिन राज्य को एक आवश्यक दुर्गुण और पिछड़ेपन का चिन्ह तथा संपत्ति और शोषण का पोषक मानता था। राज्य व्यक्ति की स्वाधीनता, उसकी प्रतिभा और क्रयशक्ति, उसके विवेक और नैतिकता को सीमित करता है। इस प्रकार अराजकतावाद व्यक्तिवाद की चरम सीमा है। बाकूनिन क्रांतिकारी मार्ग द्वारा राज्य और उसकी संस्थाओं पुलिस, जेल, न्यायालय आदि का अंत कर स्वतंत्र स्थानीय संस्थाओं की स्थापना के पक्ष में था। ये समुदाय पारस्परिक सहयोग के लिए अपना राष्ट्रीय संघ स्थापित कर सकते थे। रूसो और कांट (Kant) भी इसी प्रकार के स्वतंत्र समुदायों और संघों के समर्थक थे।
क्रॉपोटकिन ने वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा यह सिद्ध किया कि समाज का विकास स्वतंत्र सहयोग की ओर है। शिल्पिक उन्नति के कारण मनुष्य बहुत कम श्रम द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेगा और शेष समय स्वतंत्र जीवन व्यतीत करेगा। मनुष्य स्वभावत: सामाजिक, अत: सहयोगी प्राणी है। स्वतंत्रता और सहयोग की वृद्धि के साथ साथ राज्य की आवश्यकता कम हो जाएगी।
टाल्सटाय भी राज्य और व्यक्तिगत संपत्ति का विरोधी था, परंतु वह हिंसात्मक तथा क्रांतिकारी मार्ग का पोषक नहीं वरन् ईसाई और अंहिसात्मक तरीकों का समर्थक था। वह बुद्धिसंगत ईसाई था, अंधविश्वासी नहीं। गांधीजी के विचारों पर टाल्सटाय की गहरी छाप है।
अराजकतावादियों का विचार है कि मनुष्य स्वभाव से अच्छा है और यदि उसके ऊपर राज्य का नियंत्रण न रहे तो वह समाज में शांतिपूर्वक रह सकता है। राज्य के रहते हुए मनुष्य का बौद्धिक, नैतिक और रागात्मक विकास संभव नहीं। इनके अनुसार राजकीय समाजवाद (समूहवाद) नौकरशाहीवाद और राजकीय पूँजीवाद है। ये युद्ध और सैन्यवाद (militarisrn) के विरोधी और विकेंद्रीकरण के पक्ष में हैं।
अराजकतावाद से बुद्धिजीवी और मजदूर, दोनों ही प्रभावित हुए हैं। अनेक लेखक और दार्शनिकों ने स्वाधीनता संबंधी विचारों को स्वीकार किया है। इनमें जॉन स्टुआर्ट मिल, हरबर्ट स्पेंसर, हैरोल्ड लास्की, और बट्रेंड रसल के नाम मुख्य हैं। इस विचारधारा के बुद्धिजीवी समर्थक फ्रंास, स्पेन, इटली, रूस, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमरीका आदि अनेक देशों में पाए जाते थे, परंतु फ्रांस और ब्रिटेन के मजदूर आंदोलनों ने भी इन विचारों को संशोधित रूप में स्वीकार किया। इसके फ्रांसीसी स्वरूप का नाम सिंडिकवाद (Syndicalism) और ब्रिटिश का गिल्ड समाजवाद (Guild Socialism) है।
सिंडिकवाद और गिल्ड समाजवाद का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं के आरंभ में हुआ। उस समय तक मजदूरों का विश्वास फेबियस और पुनरावृत्तिवाद में कम होने लगा था। लोकतंत्र मजदूरों की समस्याएँ सुलझाने में असफल रहा, आर्थिक संकट विकट रूप धारण करने लगा और युद्ध की संभावना बढ़ने लगी। साथ ही मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई, उनका संगठन मजबूत हुआ और वे अपनी माँगों को पूरा कराने के लिए बड़े पैमाने पर हड़ताल करने लगे। इन परिस्थितियों में संसदात्मक और संवैधानिक तरीकों के स्थान में मजदूर वर्ग को सक्रिय विरोध के सिद्धांतों की आवश्यकता हुई। इस कमी को उपर्युक्त विचारधाराओं ने पूरा किया।
सिंडिकवाद तथा अन्य समाजवादियों की भाँति समाजवादी व्यवस्था के पक्ष में है परंतु अराजकतावादियों की तरह वह राज्य का अंत कर स्थानीय समुदायों के हाथ में सामाजिक नियंत्रण चाहता है। वह इस नियंत्रण को केवल उत्पादक वर्ग (मजदूर) तक ही सीमित रखना चाहता है। अराजकतावादियों की भाँति सिंडिकावादी भी राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय संघों के समर्थक और राज्य, राजनीतिक दल, युद्ध और सैन्यवाद के विरोधी हैं।
ध्येय की प्राप्ति का सिंडिकावादी मार्ग क्रांति है, परंतु इस क्रांति के लिए भी वह राजनीतिक दल को अनावश्यक समझता है क्योंकि इसके द्वारा मजदूरों की क्रांतिकारी इच्छा के कमजोर हो जाने का भय है। इसका हड़तालों में अटूट विश्वास है। सोरेल के अनुसार ईसाई पौराणिक पुनरुत्थान (Resurrection) की भाँति यह भी मजदूरों पर जादू का असर करती है और उनके अंदर ऐक्य और क्रांति की भावनाओं को प्रोत्साहन देती है। ये विचारक मशीनों की तोड़फोड़, बाइकाट, पूँजीपति की पैदावार को बदनाम करना, काम टालना आदि के पक्ष में भी हैं। अंत में एक आम हड़ताल द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था का अंत कर ये सिंडिकवादी समाज को स्थापना करना चाहते हैं।
इन विचारों से अनेक लातीनी (Latin) देश फ्रांस, इटली, स्पेन, मध्य और दक्षिण अमरीका प्रभावित हुए हैं। इनका असर संयुक्त राज्य अमरीका में भी था, परंतु वहाँ विकेंद्रीकरण पर जोर नहीं दिया गया क्योंकि उस देश में बड़े पैमाने के उद्योग एक वास्तविकता थे। रूसी विचारक प्रिंस क्रॉपोटकिन ने इससे प्रेरणा प्राप्त की और ब्रिटेन ने इसको संशोधित रूप में स्वीकार किया।
गिल्ड (संघ) समाजवाद - गिल्ड समाजवाद सिंडिकवाद की प्रतिलिपि मात्र नहीं, उसका ब्रिटिश परिस्थितियों में अभ्यनुकूलन (adaptation) है। गिल्ड समाजवाद के ऊपर स्वाधीनता की परंपरा और फेबियसवाद का भी प्रभाव है। इसका नाम यूरोप के मध्यकालीन व्यावसायिक संघ (गिल्ड) संगठनों से लिया गया है। उस समय से संघ आर्थिक और सामाजिक जीवन पर हावी थे और विभिन्न संघों के प्रतिनिधि नगरों का शासन चलाते थे। गिल्ड समाजवादी उपर्युक्त संघ व्यवस्था से प्रेरणा ग्रहण करते थे। वे राजनीतिक क्षेत्र और उद्योग धंधों में लोकतंत्रात्मक सिद्धांत और स्वायत्तशासन स्थापित करना चाहते थे। ये विचारक उद्योगों के राष्ट्रीयकरण मात्र से संतुष्ट नहीं क्योंकि इससे नौकरशाही का भय है परंतु वे राज्य का अंत भी नहीं करना चाहते। राज्य को अधिक लोकतंत्रात्मक और विकेंद्रित करने के बाद वे उसको देशरक्षा और भोक्ता (consumer) के हितसाधान के लिए रखना चाहते हैं। उनके अनुसार राजकीय संसद् में केवल क्षेत्रीय ही नहीं, व्यावसायिक प्रतिनिधित्व भी होना चाहिए। ये राज्य और उद्योगों पर मजदूरों का नियंत्रण चाहते हैं अत: सिंडिकवाद के निकट हैं परंतु राज्यविरोधी न होने के कारण इनका झुकाव समूहवाद की ओर भी है। ये असफलता के भय से क्रांतिकारी मार्ग को स्वीकार नहीं करते लेकिन केवल वैधानिक मार्ग को भी अपर्याप्त समझते हैं, और मजदूरों के सक्रिय आंदोलन, हड़ताल आदि का भी समर्थन करते हैं।
प्रथम महायुद्ध के पूर्व और उसके बीच में इस विचारधारा का प्रभाव बढ़ा। युद्ध के समय मजदूरों ने रक्षा-उद्योगों पर नियंत्रण की माँग की और उसके बाद मजदूर संघों ने स्वयं मकान बनाने के ठेके लिए, परंतु कुछ काल बाद सरकारी सहायता न मिलने पर ये प्रयोग असफल हुए। गिल्ड समाजवाद के प्रमुख समर्थकों में आर्थर पेंटी (Arther Penty), हाब्सन (Hobson), ऑरेंज (Orange) और कोल (Cole) के नाम उल्लेखनीय हैं। ब्रिटेन का मजदूर दल और मजदूर आंदोलन इस विचारधारा से विशेष प्रभावित हुए हैं।
साम्यवाद - प्रथम महायुद्ध के समाजवादी आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण घटना थी। एक ओर तो इसके आरंभ होते ही समाजवादी आंदोलन और उनका अंतरराष्ट्रीय संगठन प्राय: छिन्नभिन्न हो गया और दूसरी ओर इसके बीच रूस में बोल्शेविक (अक्टूबर-नंवबर १९१७) क्रांति हुई और संसार में प्रथम सफल समाजवादी राज्य की नींव पड़ी जिसका संसार के समाजवादी आंदोलन पर गहरा असर पड़ा। प्रथम महायुद्ध के पूर्व समाजवादी दलों का मत था कि पूंजीवादी व्यवस्था ही युद्धों के लिए उत्तरदायी है और यदि विश्वयुद्ध आरंभ हुआ तो प्रत्येक समाजवादी दल का कर्तव्य होगा कि वह अपनी पूँजीवादी सरकार की युद्धनीति का विरोध करे और गृहयुद्ध द्वारा समाजवाद की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हो। परंतु ज्यों ही युद्ध आरंभ हुआ, रूस और इटली के समाजवादी दलों को छोड़कर शेष सब दलों के बहुमत ने अपनी सरकारों की नीति का समर्थन किया। समाजवादियों के केवल एक नगण्य अल्पमत ने ही युद्ध का विरोध किया और आगे चलकर इनमें से कुछ लेनिन और उसके साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय संगठन के समर्थक बने। परंतु विभिन्न देशों के समाजवादी आंदोलनों की परस्पर विरोधी युद्धनीति के कारण उनका ऐक्य खत्म हो गया।
बोल्शेविक दल रूस के कई समाजवादी दलों में से एक था। १९१७ की विशेष परिस्थितियों में इसको सफलता प्राप्त हुई। रूसी समाजवाद की पार्श्वभूमि अन्य यूरोपीय समाजवादों की स्थिति से भिन्न थी। रूसी साम्राज्य यूरोप के अग्रणी देशों से उद्योग धंधों में पिछड़ा हुआ था, अत: यहाँ मजदूर वर्ग बहुसंख्यक और अधिक प्रभावशाली न हो सका। यहाँ लोकतंत्रात्मक शासन और व्यक्तिगत स्वाधीनताओं का भी अभाव था। रूसी बुद्धिजीवी और मध्यमवर्ग इनके लिए इच्छुक था पर जारशाही दमननीति के कारण इनकी प्राप्ति का संवैधानिक मार्ग अवरुद्धप्राय था। इन परिस्थितियों से प्रभावित वहाँ के प्रथम समाजवादी रूस के ग्रामीण कम्यून (समुदाय) को अपने विचारों का आधार मानते थे तथा क्रांतिकारी मार्ग द्वारा जारशाही का नाश लोकतंत्रवाद की सफलता के लिए प्रथम सोपान समझते थे। उन विचारकों में हर्जेन (Herzen), लावरोव (Lavrov), चर्नीशेव्सकी (Chernishevrzky) और बाकुनिन (Bakunin) मुख्य हैं। इनसे प्रभावित होकर अनेक बुद्धिजीवी क्रांति की ओर अग्रसर हुए। इस प्रकार नरोदनिक (Narodnik) जन आंदोलन की नींव पड़ी तथा नारोदन्या वोल्या (Narodnya Volya, जनेच्छा) संगठन बना। सन् १९०१ में इसका नाम सामाजिक क्रांतिकारी (Social Revolutionary Party) रखा गया। सन् १९१७ की बोल्शेविक क्रांति के समय तक यह रूस का सबसे बड़ा समाजवादी दल था, परंतु इसका प्रभावक्षेत्र अधिकांशत: ग्रामीण जनता थी। इसके वाम पक्ष ने बोल्शेविक क्रांति का समर्थन किया।
दूसरी समाजवादी विचारधारा, जिसमें बोल्शेविक दल भी सम्मिलित था, रूसी सामाजिक लोकतंत्रावादी मजदूरदल (Russian Social Democratic Labour Party, R. S. D. L. P.) के नाम से प्रसिद्ध है। इसका प्रभाव मुख्यत: नागरिक मजदूर वर्ग में था। रूस में उद्योग कम थे, परंतु बड़े पैमाने के थे और अपेक्षया अधिक मजदूरों को नौकर रखते थे। अत: इन मजदूरों में राजनीतिक चेतना और संगठन अधिक था। लोकतंत्र के अभाव में मजदूरों का संघर्ष करना कठिन था, इसलिए मजदूर वर्ग क्रांतिकारी प्रभाव में आ गया और जर्मनी जैसी परिस्थितियों के कारण यहाँ के अधिकांश मजदूर नेता भी मार्क्सवादी तथा जर्मनी के सामाजिक लोकतंत्रवादी दल से प्रभावित हुए। सन् १८९० के लगभग एक्सलरोड (Axelrod) और प्लेखानोव (Plekhanov) ने पीटर्सवर्ग (बाद में लेनिनग्राड) में प्रथम मजदूर समूह स्थापित किए जो आगे चलकर १८९८ में रूसी सामाजिक लोकतंत्रवादी मजदूर पार्टी के आधार बने।
रूसी सामाजिक लोकतंत्रवादी मजदूर पार्टी के नेता कट्टर मार्क्सवादी थे, अत: उन्होंने पुनरावृत्तिवाद को अस्वीकार किया और मार्क्सवाद को विकसित कर रूसी परिस्थितियों में लागू किया। मजदूरों की रहन सहन के स्तर में उन्नति हुई थी, इस सत्य को न मानना कठिन था, परंतु प्लेखानोव ने सिद्ध किया कि नई मशीनों के प्रयोग और मजदूरी में अपेक्षया वृद्धि न होने के कारण पूँजीवादी शोषण की दर बढ़ती जा रही है। बुखारिन (Bukharim) का तर्क था कि साम्राज्यवादी देश उपनिवेशों के शोषण द्वारा अपने श्रमजीवी वर्ग को संतुष्ट रख पाते हैं। ट्राटस्की आदि ने कहा कि पूँजीवादी का संकट सर्वव्यापी हो गया है और इस स्थिति में यह संभव है कि क्रांति पश्चिम यूरोप के अग्रणी देशों में न होकर अपेक्षाकृत पिछड़े देशों में, जहाँ सम्राज्यवादी कड़ी सबसे कमजोर है, वहाँ हो। कुछ विचारकों ने सर्वप्रथम समाजवादी क्रांति का स्थान रूस को बतलाया। ट्राटस्की और लेनिन का मत था कि समाजवादी क्रांति उसी समय सफल हो सकती है जब वह कई देशों में एक साथ फैले, स्थायी क्रांति के बिना केवल एक देश में समाजवाद की स्थापना कठिन है। बाद में लेनिन और स्टालिन ने इस सिद्धांत में संशोधन कर एकदेशीय समाजवाद के आधार पर सोवियत सत्ता का निर्माण किया। निकोलाई लेनिन ने उपर्युक्त विचारों का समन्वय करके बोल्शेविक दल का संगठन और अक्टूबर (नवंबर) क्रांति का नेतृत्व किया।
सन् १९०३ की लंदन कफ्रोंस में रूसी सामाजिक लोकतंत्रवादी मजदूर दल ने अपने समाजवादी आदर्श को स्पष्ट किया, परंतु इसी वर्ग दल के अंदर दो विचारधाराएँ सामने आईं और कालांतर में उन्होंने दो दलों का रूप धारण किया। इस कफ्रोंस में उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण, जमींदारी उन्मूलन, उपनिवेशों का आत्मनिर्माण का अधिकार, ध्येय की प्राप्ति का क्रांतिकारी मार्ग और क्रांति के बाद सर्वहारा की तानाशाही-इस नीति को स्वीकार किया गया, परंतु दल के संगठन के संबंध में नेताओं में मतभेद हो गया। प्रश्न था कि दल की सदस्यता केवल कार्यकर्ताओं तक सीमित हो अथवा आदर्शों को स्वीकार करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति उसका अधिकारी हो और क्या केंद्रीय समिति को दल की शाखाओं के भंग करने और उनके स्थान में नई शाखाओं की नियुक्ति करने का अधिकार हो? लेनिन एक फौजी अनुशासनवाले सुव्यवस्थित दल के पक्ष में था और कफ्रोंस में उसका बहुमत था, अत: इस धारा का नाम बोल्शेविक (बहुमत) पड़ा, और दूसरी धारा मेन्शेविक (अल्पमत) कहलाई। आगे चलकर इन दलों के बीच और भी मतभेद उपस्थित हुए। मेंशेविक दल पहले जारशाही का अंत का पूँजीवादी लोकतंत्रात्मक क्रांति करना चाहता था और इस क्रांति में वह पूँजीवादी दलों के वाम पक्ष से सहयोग करना चाहता था, परंतु १९०५ की क्रांति के बाद लेनिन उसके साथी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि समाजवादी क्रांति के भय के कारण पूंजीवाद प्रतिक्रियावादी हो गया है, अत: वह पूँजीवादी लोकतंत्रात्मक क्रांति का नेतृत्व करने में भी असमर्थ है। इसलिए इस क्रांति का नेतृत्व भी केवल सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है और इस क्रांति को सर्वहारा क्रांति के साथ मिलाकर जारशाही के बाद एकदम समाजवाद की स्थापना संभव है। क्रांति में किसानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए लेनिन सामंतवादी जमीन को किसानों में बाँटने के पक्ष में था, मेंशेविक उसका तुरंत समाजीकरण करना चाहते थे। बोल्शेविक दल ने प्रथम महायुद्ध का विरोध किया और समाजवाद की स्थापना के लिए गृहयुद्ध का नारा दिया। युद्ध से त्रस्त जनता और विशेषकर रूसी सैनिकों ने इस नीति का स्वागत किया, परंतु मेंशेविकों ने युद्ध का विरोध नहीं किया और फरवरी मार्च (१९१७) की क्रांति के बाद उन्होंने सरकार में शामिल होकर युद्ध जारी रखा। सन् १९१७ की अक्टूबर क्रांति में लेनिन के विचारों और बोलशेविक संगठन की विजय हुई।
सन् १८७१ की पेरिस कम्यून के बाद सन् १९१७ में प्रथम स्थायी समाजवादी राज्य-सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ की स्थापना हुई। इस राज्य में उत्पादन के साधनों-उद्योग धंधे, व्यापार, विनिमय, भूमि आदि-का राष्ट्रीयकरण किया गया और शोषक वर्ग की आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति का अंत कर दिया गया। देश के अंदर, आरंभ में किसान, मजदूर और सैनिकों के प्रतिनिधियों की मिलीजुली सोवियतों के हाथ में शासन था, परंतु सन् १९३६ के संविधान के अनुसार एक द्विसदनात्मक संसद् की स्थापना हुई। इसके ऊपरी सदन का चुनाव सोवियत देश के विभिन्न गणराज्यों द्वारा होता है तथा निम्न सदन के सदस्य क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा चुने जाते हैं। परंतु सोवियत देश एकदलीय राज्य हैं, वहाँ राजकीय शक्ति साम्यवादी दल के हाथ में है। किसी दूसरे दल को राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं।
अक्टूबर क्रांति के बाद बोल्शेविक दल ने अपना नाम साम्यवादी दल रखा और सन् १९१९ में उसने एक दूसरा साम्यवादी घोषणापत्र (प्रथम घोषणापत्र मार्क्स और एंगिल्स ने सन् १८४७-४८ में लिखा था) प्रकाशित किया जिसके आधार पर एक नए अंतरराष्ट्रीय आंदोलन-साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय-की स्थापना हुई, और उसकी सहायता से विभिन्न देशों में साम्यवाद का प्रचार आरंभ हुआ।
लेनिन के विचारों को साम्यवाद की संज्ञा दी जाती है, परंतु लेनिन के बाद जोसेफ स्टालिन (Joseph Stalin) माओत्सेतुंग (Mao Tse tung) निकीता ्ख्राश्चोव (Nikita Khrushchov) तथा विभिन्न देशों के साम्यवादी नेताओं ने इन विचारों की व्याख्या और उनका विकास किया है। ये सभी विचार साम्यवाद की कोटि में आते हैं। स्टालिन के विचारों में उसका उपनिवेशों को आत्मनिर्णय का अधिकार, नियोजित अर्थव्यवस्था अर्थात् पंचवर्षीय आदि योजनाएँ तथा सामूहिक और राजकीय स्वामित्व में खेती मुख्य हैं।
द्वितीय महायुद्ध के बीच और उसके बाद सोवियत सेनाओं की सफलता तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण संसार में समाजवाद (साम्यवाद सहित) का प्रभाव बढ़ा है। युद्ध का अंत होने तक न केवल पूर्वी यूरोप सोवियत प्रभावक्षेत्र बन गया, वरन् सन् १९४८ ई. तक इनमें से अधिकांश देशों में साम्यवादी राज्य स्थापित हो गए। एशिया में भी चीन जैसे विशाल देश में साम्यवाद सफल हुआ, और सोवियत तथा जनवादी चीनी गणराज्य के प्रभाव में उत्तरी एशिया और उत्तरी वियतनाम के शासन साम्यवादी प्रभाव में आ गए। साम्यवाद का असर सभी देशों में बढ़ा है। फ्रांस, इटली और हिंदएशिया जैसे देशों में शक्तिशाली साम्यवादी दल है। परंतु साम्यवाद के प्रसार ने उस आंदोलन के सामने कई सैद्धांतिक और व्यावहारिक कठिनाइयाँ उपस्थित की हैं-
(i) मार्क्सवाद लेनिनवाद की धारणा थी कि साम्यवादी स्थापना क्रांति द्वारा ही संभव है परंतु यूगोस्लाविया और अल्बानिया को छोड़ कर शेष पूर्वीय यूरोप में युद्धकाल में साम्यवादी दलों का अस्तित्व नहीं के बराबर था और बाद में भी चेकोस्लोवाकिया को छोड़ कदाचित् किसी भी देश में इनका बहुमत नहीं था। पूर्वी यूरोप और उत्तरी कोरिया में से अधिकांश देशों में साम्यवादी शासनों की स्थापना क्रांति द्वारा नहीं, सोवियत प्रभाव द्वारा हुई।
(ii) दूसरी समस्या साम्यवादी आंदोलन के नेतृत्व और साम्यवादी देशों के पारस्परिक संबंधों की थी। साम्यवादी विचारकों का साम्यवाद की विश्वव्यापकता में विश्वास है। जब तक साम्यवाद केवल एक देश तक सीमित था, साम्यवादी आंदोलन साधारणत: सोवियत नेतृत्व को स्वीकार करता रहा। उस समय भी माओ जैसे विचारकों का स्टालिन से मतभेद था परंतु अधिकांशत: साम्यवादी दल और नेता साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय के अनन्य भक्त थे। द्वितीय महायुद्ध के बाद यह एकता संभव न हो सकी।
साम्यवादी यूगोस्लाविया का शासक जोसिप ब्रोजोविट टीटो (Josip Brozovich Tito, 1892) और उसके अन्य साम्यवादी साथी सोवियत नेतृत्व को चुनौती देने में प्रथम थे। यूगोस्लाविया बहुत कुछ अपने प्रयत्नों से स्वतंत्र हुआ था अत: उसके अंदर स्वाभिमान की भावना थी। वह पूर्व यूरोप के अन्य साम्यवादी देशों की भाँति सोवियत प्रभाव से घिरा हुआ भी न था। यूगोस्लाव पक्ष का कहना था कि सोवियत सरकार उनकी औद्योगिक उन्नति में बाधक है तथा उनकी स्वतंत्रता को सीमित करती है। उनके ये लांछन बाद में सत्य सिद्ध हुए परंतु उस समय टीटोवाद को पुनरावृत्तिवाद, ट्राटस्कीवाद अथवा साम्राज्यवाद का पिट्ठू कहा गया। सिद्धांत के स्तर पर टीटोवाद ने राष्ट्रीय साम्यवाद्, शक्ति के विकेंद्रीकरण, किसानों द्वारा भूमि का निजी स्वामित्व, राज्य और नौकरशाही के स्थान में उद्योगों पर मजदूरों का नियंत्रण तथा साम्यवादी दल और देश के अंदर अपेक्षाकृत अधिक स्वाधीनता पर जोर दिया। टीटो के इन विचारों का प्रभाव पूर्वी यूरोप के अन्य साम्यवादी देशों पर भी पड़ा है।
साम्यवादी देशों के बीच समानता की माँग को स्वीकार करके ्ख्राुश्चोव ने टीटोवाद को अंशत: स्वीकार किया, परंतु साथ ही उसने लेनिन स्टालिनवाद में भी कई महत्वपूर्ण संशोधन किए हैं। लेनिन का विचार था कि जब तक साम्राज्यवाद का अंत नहीं होता संसार में युद्ध होते रहेंगे, परंतु ्ख्राुश्चोव के अनुसार इस समय प्रगति की शक्तियाँ इतनी मजबूत हैं कि विश्वयुद्ध को रोका जा सकता है और पूँजीवादी तथा समाजवादी व्यवस्थाओं के बीच शांतिमय सहअस्तित्व संभव है। वह यह भी कहता है कि इन परिस्थितियों में समाजवाद की स्थापना का केवल क्रांतिकारी मार्ग ही नहीं है, वरन् विभिन्न देशों में अलग अलग साम्यवादी दलों द्वारा विकासवादी और शांतिमय तरीकों से भी उसकी स्थापना संभव है। सोवियत साम्यवाद आर्थिक स्वावलंबन की नीति के स्थान पर अंतरराष्ट्रीय श्रमविभाजन की ओर बढ़ रहा है और राज्य के विघटन पर भी जोर नहीं देता।
अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद पर उपर्युक्त विचारपरिवर्तन का गहरा प्रभाव पड़ा है। टीटो के विद्रोह के बाद पूर्व यूरोप के अन्य साम्यवादी देशों ने भी सोवियत प्रभाव से स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया है। चीनी साम्यवादी ्ख्राुश्चोव के संशोधनों को अस्वीकार करते हैं और सोवियत तथा चीन के बीच सैद्धांतिक ही नहीं सैन्य संघर्ष भी विकट रूप धारण करता जा रहा है। संसार के लगभग सभी साम्यवादी दल सोवियत और चीनी विचारधाराओं के आधार पर विभक्त होते जा रहे हैं कुछ विचारक राष्ट्रीय साम्यवादी दलों की सैद्धांतिक और संगठनात्मक स्वतंत्रता पर भी जोर देते हैं। इस प्रकार साम्यवादी विचारों और आंदोलन की एकता और अंतरराष्ट्रीयता का ्ह्रास हो रहा है।
प्रथम महायुद्ध के बाद साम्यवाद की ही नहीं लोकतंत्रात्मक समाजवाद की भी प्रगति हुई है। दो महायुद्धों के बीच ब्रिटेन में अल्पकाल के लिए दो बार मजदूर सरकारें बनीं। प्रथम महायुद्ध के बाद जर्मनी और आस्ट्रिया में समाजवादी शासन स्थापित हुए; फ्रांस और स्पेन आदि देशों में समाजवादी दलों की शक्ति बढ़ी। परंतु शीघ्र ही इनकी प्रतिक्रिया भी आरंभ हुई। सन् १९२२ में बेनिटो मुसोलिनी ने इटली में फासिस्ट शासन स्थापित किया। फासिज्म मजदूर और समाजवादी आंदोलनों का शत्रु और युद्ध और साम्राज्यवाद का समर्थक है। वह पूँजीवादी व्यवस्था का अंत नहीं करता। नात्सीवाद के मूल सिद्धांत फासिज्म से मिलते जुलते हैं। इस विचारधारा का प्रचारक एडोल्फ हिटलर था। सन् १९२९ के आर्थिक संकट के बाद सन् १९३२ में जर्मनी में नात्सी शासन स्थापित हो गया और बाद में इस विचारधारा का प्रभाव स्पेन, आस्ट्रिया,चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड और फ्रांस आदि देशों में फैल गया।
द्वितीय महायुद्ध के बीच फासिस्ट विचारों का ्ह्रास तथा समाजवादी विचारों और आंदोलनों की प्रगति हुई है। पूर्वी यूरोप के साम्यवादी शासनों के अतिरिक्त पश्चिमी यूरोप में कुछ काल के लिए कई देशों में समाजवादी और साम्यवादी दलों के सहयोग से सम्मिलित शासन बने। यूरोप के कुछ अन्य देशों जैसे (ब्रिटेन, स्वीडन, नार्वें, फिनलैंड) तथा आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड आदि देशों में समय समय पर समाजवादी सरकारें बनती रही हैं। इस काल में एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमरीका के देशों में भी समाजवादी शासन स्थापित हो चुके हैं। इनमें चीन, बर्मा, हिंद एशिया, सिंगापुर, संयुक्त अरब गणराज्य, घाना, क्यूबा और इजरायल मुख्य हैं।
भारतीय समाजवाद - भारतवर्ष में आधुनिक काल के प्रथम प्रमुख समाजवादी महात्मा गांधी हैं, परंतु उनका समाजवाद एक विशेष प्रकार का है। गांधी जी के विचारों पर हिंदू, जैन, ईसाई आदि धर्म और रस्किन, टाल्सटाय और थोरो जैसे दार्शनिकों का प्रभाव स्पष्ट है। वे औद्योगीकरण के विरोधी थे क्योंकि वे उसको आर्थिक समानता, शोषण, बेकारी, राजनीतिक तानाशाही आदि का कारण समझते थे। मोक्षप्राप्ति के इच्छुक महात्मा गांधी इंद्रियों और इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर त्याग द्वारा एक प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता और समानता स्थापित करना चाहते थे। प्राचीन भारत के स्वतंत्र और स्वपर्याप्त ग्रामीण गणराज्य गांधी जी के आदर्श थे। नि:स्वार्थ सेवा, त्याग और आध्यात्मिक प्रवृत्ति - इनमें शोषक और शोषित के लिए कोई स्थान नहीं। यदि किसी के पास कोई संपत्ति है तो वह समाज की धरोहर मात्र है। ध्येय की प्राप्ति के लिए गांधी जी नैतिक साधनों - सत्य, अंहिसा, सत्याग्रह - पर जोर देते हैं हिंसात्मक क्रांति पर नहीं। गाँधी जी प्रेम द्वारा शत्रु का हृदयपरिवर्तन करना चाहते थे, हिंसा और द्वेष द्वारा उसका विनाश नहीं। गांधीवाद धार्मिक अराजकतावाद है। इस समय विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण गांधीवाद की व्याख्या और उसका प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने श्रम, भू, ग्राम, संपत्ति आदि के दान द्वारा अहिंसात्मक ढंग से समाजवादी व्यवस्था की स्थापना का प्रयत्न किया है।
भारतवर्ष में दूसरी प्रमुख समाजवादी विचारधारा मार्क्सवादी है। निरंकुश शासन बहुधा राज्यविरोधी, अराजकतावादी और क्रांतिकारी विचारों के पोषक होते हैं। भारतवर्ष में मार्क्सवाद के प्रमुख प्रचारक मानवेंद्रनाथ राय थे। बोल्शेविक क्रांति के बाद तुरंत ही आप साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय के संपर्क में आए और उसकी ओर से विदेश से ही भारत में साम्यवादी आंदोलन का निर्देशन करने लगे। साम्यवादी आंदोलन पूँजीवाद और उसकी उच्च्तम अवस्था साम्राज्यवाद को अपना प्रमुख शत्रु समझता है और उपनिवेशों के स्वाधीनता संग्रामों को प्रोत्साहित करके उसको कमजोर करना चाहता है।
औपनिवेशिक स्वाधीनता आंदोलन के संबंध में मानवेंद्रनाथ राय के अपने विचार थे। उनका मत था कि भावी समाजवादी क्रांति में औपनिवेशिक क्रांतियों का प्रमुख स्थान होगा। चीनी साम्यवादियों का भी आज यही मत है, परंतु सोवियत विचारकों ने इसको कभी स्वीकार नहीं किया। राय की यह भी धारणा थी कि औपनिवेशिक पूँजीवाद ने साम्राज्यशाही से गठबंधन कर लिया है अत: वह प्रतिक्रियावादी है और क्रांतिकारी दल उसके साथ संयुक्त मोर्चा नहीं बना सकते। यद्यपि साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय ने इस विचार को भी स्वीकार नहीं किया, तथापि भारतीय साम्यवादियों ने अधिकांशत: इस नीति का अनुसरण किया और बहुधा राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग रहे।
बोल्शेविक क्रांति के बाद शीघ्र ही भारत के बड़े नगरों में साम्यवादियों के स्वतंत्र संगठन बने, एक किसान मजदूर पार्टी की स्थापना हुई और सन् १९२४ तक एक अखिल भारतीय साम्यवादी दल का संगठन भी हुआ, परंतु यह दल शीघ्र ही अवैध घोषित कर दिया गया। इसके बाद सन् १९३६ से इसकी शक्ति बढ़ी और इस समय यह भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों में से है।
दूसरा समाजवादी दल कांग्रेस समाजवादी पार्टी थी। इसकी स्थापना सन् १९३४ में हुई। भारतीय समाजवादी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, आदि नेता प्रथम महायुद्ध के बाद से ही समाजवाद का प्रचार कर रहे थे। परंतु भद्र अवज्ञा आंदोलन (१९३०-३३) की असफलता और सन् १९२९ के आर्थिक संकट के समय पूँजीवादी देशों की दुर्गति तथा इन देशों में फासिजम की विजय और दूसरी ओर सोवियत देश की आर्थिक संकट से मुक्ति तथा उसकी सफलता, इन सब कारणों से अनेक राष्ट्रभक्त समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। इनमें जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्रदेव, मीनू मसानी, डा. राममनोहर लोहिया, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, यूसुफ मेहर अली, अच्युत पटवर्धन और अशोक मेहता उल्लेखनीय हैं। इनका उद्देश्य कांग्रेसी मंच द्वारा समाजवादी ढंग से स्वराज्यप्राप्ति और उसके बाद समाजवाद की स्थापना था।
स्वतंत्रता मिलने के बाद कांग्रेस राष्ट्रीय शक्तियों का संयुक्त मोर्चा न रहकर एक राजनीतिक दल बन गई, अत: अन्य स्वायत्त और संगठित दलों को कांग्रेस से निकलना पड़ा। इनमें कांग्रेस समाजवादी दल भी था। उसने कांग्रेस शब्द को अपने नाम से हटा दिया। बाद में आचार्य कृपालानी द्वारा संगठित कृषक मजदूर प्रजापार्टी इसमें मिल गई और इसका नाम प्रजा सोशलिस्ट पार्टी हो गया, परंतु डाक्टर राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी दल का एक अंग इससे अलग हो गया और उसने एक समाजवादी पार्टी बना ली। इस समय प्रजा सोशलिस्ट और सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनाई। किंतु संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के वाराणसी अधिवेशन (१९६५) में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने अलग होकर पुन: अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लिया। उसी समय अशोक मेहता के नेतृत्व में कुछ प्रजा सोशलिस्ट कार्यकर्ता कांग्रेस में शमिल हो गए हैं। द्वितीय महायुद्ध के बाद वह समाजवादी विचारधारा सोवियत तानाशाही का विरोध करती है तथा अपने को पाश्चात्य देशों के लोकतंत्रात्मक और विकासवादी समाजवाद के निकट पाती है।
समय समय पर समाजवादी विचारों को स्वीकार करनेवाले कई और दल भी भारत में रहे हैं। साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय से संबंध विच्छेद के बाद एम. एन. राय के समर्थक भारतीय साम्यवादी दल से अलग हो गए। भारतीय बोल्शेविक पार्टी, सुभाषचंद्र बोस का फार्वर्ड ब्लाक और क्रांतिकारी समाजवादी दल भी समाजवादी हैं। कुछ ऐसे समाजवादी दल भी हैं जिनका प्रभाव केवल कुछ क्षेत्रों तक सीमित रहा है जैसे महाराष्ट्र क्षेत्रों की किसान मजदूर पार्टी।
स्वराज्यप्राप्ति के बाद भारतीय कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से समाजवाद को स्वीकार किया है। उसके पूर्व वह समाजवादी और उसकी विरोधी सभी राष्ट्रीय विचारधाराओं का एक संयुक्त मोर्चा थी, परंतु उस समय भी वह समाजवादी विचारों से प्रभावित थी। एक प्रकार से उसने कराची प्रस्ताव (१९३१) में कल्याणकारी राज्य का आदर्श स्वीकार किया था, कांग्रेस मंत्रिमंडलों (१९३७) के बनने के बाद (सुभाषचंद्रबोस की अध्यक्षता में) एक योजना समिति की नियुक्ति की गई थी; और स्वराज्यप्राप्ति के बाद तुरंत ही वर्गविहीन समाज का विचार सामने आ गया। स्वराज्य के बाद यद्यपि संगठित समाजवादी दल कांग्रेस से अलग हो गए, तथापि उसके अंदर समाजवादी तत्व, विशेषकर उसके सर्वप्रमुख नेता जवाहरलाल नेहरू, प्रभावशील रहे, अत: कांग्रेस के आवढी अधिवेशन (१९५७) में 'समाजवादी ढंग का समाज' और भुवनेश्वर अधिवेशन (१९६४) में लोकतंत्रात्मक समाजवाद का लक्ष्य स्वीकार किया गया। उसका नियोजित अर्थव्यवस्था, समाजसुधार, कल्याण राज्य और लोकतंत्र में विश्वास है और उसकी परराष्ट्र की नीति पाश्चात्य तथा पूर्वी गुटों के शक्ति संघर्ष से अलग रहकर शांति की शक्तियों को मजबूत करने की है।
सं. ग्रं. - कार्लमार्क्स पूँजी (Capital);श् फ्रेडरिख़ एंगिल्स, एंटी ड्यूहरिंग (Anti Duhring); फेवियन निबंध (Fabian Essays); एच. डब्ल्यू लेडलर, (Social Economic Movement); ब्लाडिमिर ईलिच लेनिन, (Seclected works, जी. डी. एच. कोल, The Meaning of Marxism- गोपीनाथ घावन Political Pholosphy of Mahatma Gandhi.) (आ. रा.)