समस्थानिक (Isotopes) एक तत्व के विभिन्न भारवाले परमाणुओं को समस्थानिक कहते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में डाल्टन ने अपने परमाणुवाद में यह सिद्धांत स्थापित किया था कि विभिन्न तत्वों के परमाणु भार भिन्न भिन्न होते हैं परंतु एक तत्व के सारे परमाणुओं का भार समान होता है। बहुत समय तक वैज्ञानिक इसको सत्य मानते रहे; परंतु रेडियोऐक्टिवता की खोज के पश्चात् यह ज्ञात हुआ कि इस क्रिया द्वारा एक ही तत्व के विभिन्न भार के परमाणु उपस्थित हो सकते हैं। रेडियोऐक्टिवता के अनुसंधानों के फलस्वरूप रेडियोऐक्टिव विस्थापन नियम (radioactive displacement law) निकला। इसके अनुसार यदि एक रेडियोऐक्टिव परमाणु से एक ऐल्फा कण (a-particle) मुक्त हो, तो आवर्त सारणी में वह तत्व दो स्थान पीछे (कम) हो जाएगा। यदि उससे एक छोटा कण (b-particle) मुक्त हो, तो परमाणु एक स्थान आगे (अधिक) हो जाएगा, इससे यह निष्कर्ष निकला कि यदि किसी परमाणु से एक ऐल्फ़ा कण मुक्त हो और क्रमश: दो बीटा कण मुक्त हों, तो वह परमाणु आवर्त सारणी में फिर अपने स्थान पर आ जाएगा, यद्यपि उसका भार चार मात्रा से कम होगा। ऐसे परमाणुओं के लिये प्रसिद्ध अंग्रेज भौतिकी विज्ञानी, सॉडी ने समस्थानिक (lsotope) शब्द का १९१३ ई. में प्रयोग दिया। उसने सर्वप्रथम यह कहा कि इस प्रकार रेडियोऐक्टिवता के द्वारा समस्थानिक के रासायनिक एवं स्पेक्ट्रमी (spectral) गुण समान होंगे। रासायनिक क्रियाओं द्वारा ऐसे परमाणुओं को अलग करना संभव नहीं है। सॉडी के सिद्धांत के अनुसार यूरेनियम अयस्क द्वारा प्राप्त सीसे का परमाणुभार सामान्य सीसे के भार से भिन्न होना चाहिए। सॉडी के सारे वक्तव्य वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा सत्य सिद्ध हुए। अन्य वैज्ञानिकों ने समस्थानिकों के प्रमाण प्राप्त किए। सन् १९०६ में बोल्टवुड ने यूरेनियम रूपातंरण (transformation) द्वारा उत्पन्न आयोनियम की खोज की जिसके रासायनिक गुण थोरियम तत्व के अनुरूप थे। इस प्रकार रेडियोऐक्टिव तत्वों के प्रयोगों में एक ही तत्व के भिन्न भिन्न भारवाले परमाणु मिले, जिन्हें किसी रासायनिक क्रिया द्वारा पृथक् नहीं किया जा सकता था, परंतु रासायनिक क्रिया द्वारा यह नहीं ज्ञात हो सकता था कि स्थायी तत्वों में समस्थानिक हैं या नहीं। यह केवल ऐसे भौतिक प्रयोग द्वारा जाना जा सकता था जिससे पृथक् परमाणुओं का भार सूक्ष्मता से ज्ञात हो सके।

टॉमसन ने धन किरणों (positive rays) के अनुसंधानों द्वारा सर्वप्रथम यह ज्ञात किया कि स्थायी तत्वों में भी समस्थानिक रहते हैं। टॉमसन ने अपनी परवलय (parabola) विधि द्वारा निऑन (Ne) गैस का विश्लेषण किया। इस विधि में किसी भी कण के आवेश और संहति का अनुपात (e/m) निकाला जा सकता था। अनुसंधानों से ज्ञात हुआ कि सामान्य निऑन गैस दो समस्थानिकों का सम्मिश्रण है, जिनमें से एक का परमाणुभार २० और दूसरे का २२ है इनका सम्मिश्रण इस अनुपात में था कि सामान्य निऑन का परमाणुभार २०.१८ निकलता था। तत्पश्चात् अत्यंत सम्यक् प्रयोगों से प्रमाणित हुआ कि निऑन में २१ परमाणुभार का एक अन्य समस्थानिक भी अत्यंत सूक्ष्म मात्रा में सम्मिश्रित रहता है। इसी समय ऐस्टन ने संहति, या द्रव्यमान, स्पेक्ट्रमलेखी (mass spectrograph) का निर्माण किया (देखें स्पेक्ट्रमी संहति), जिसके द्वारा समस्थानिक सरलता से पृथक् किए जा सके थे और उनके भार का अनुमान अत्यंत सूक्ष्मता से ज्ञात हो सकता था। अपने इस नए उपकरण द्वारा ऐस्टन ने ज्ञात किया कि अधिकतर तत्व एक से अधिक समस्थानिक के सम्मिश्रण हैं। इसके पश्चात् डेंप्टर तथा अन्य वैज्ञानिकों ने अधिक उपयोगी द्रव्यमान स्पेक्ट्रमलेखी बनाए, जिनके प्रयोगों द्वारा प्राकृतिक तत्वों के लगभग ३०० से अधिक समस्थानिक ज्ञात हो चुके हैं। केवल निम्नलिखित २२ तत्वों का एक ही समस्थानिक प्राप्त है :

बेरिलियम (Bc9), फ्लुओरीन (F19), सोडियम (Na23), ऐलुमिनियम (Al27), फॉस्फोरस (P31), स्कैंडियम (Sc46), मैंगनीज़ (Mn55), कोबाल्ट (Co59), आर्सेनिक (As75), इट्रियम (Y39), नायोवियम (Nb23), रोडियम (Rh103), आयोडीन (I127), सीजियम (Cs133), लेथेंनम (La139), प्रेज़ियाडिमियम (Pr141), टबिंयम (Tb159), होल्मियम (Ho165), टैंटेलम (Ta181), स्वर्ण (An197) और बिस्मथ (Bi209)।

सन् १९३४ में फ्रेड्रिक ज़होलियो एवं आइरीन क्यूरी ने कुछ हल्के तत्वों पर ऐल्फा कणों द्वारा आक्रमण के प्रयोग किए, जिनके द्वारा स्थिर तत्वों के भी रेडियोऐक्टिव समस्थानिक बनाए गए। अब हमें यह ज्ञात है कि सारे तत्वों के रेडियोऐक्टिव समस्थानिक बन सकते हैं। इस क्रिया के लिए स्थिर तत्वों पर विभिन्न कणों के आक्रमण किए जाते हैं, जिनमें ऐल्फ कण (He4), ड्यू ट्रान (D2), प्रोटान (H1) और न्यूट्रान (ho) मुख्य हैं। कभी कभी गामा विकिरण द्वारा भी यह क्रिया संभव हुई है। अब तक ५०० से अधिक रेडियोऐक्टिव समस्थानिक बनाए जा चुके हैं, जिनसे अनेक प्रकार के विकिरण मुक्त होते हैं, जैसे इलेक्ट्रॉन (e-), पॉजिट्रॉन (e+), गामा विकरण (g) और ऐल्फ़ा कण (a or He4)। कुछ समस्थानिक के - इलेक्ट्रॉन प्रग्रहण (K-electron capture) क्रिया द्वारा भी रूपांतरित होते देख गए हैं। इनके अर्ध जीवन (half life) की अवधियों में बहुत असमानता दिखाई देती है (१०१० वर्ष से १०- सेंकड तक)।

समस्थानिकों की खोज के साथ परमाणु की संरचना पर भी प्रकाश पड़ा। हमें अब यह ज्ञात है कि परमाणु के मध्य में एक नाभिक (nucleus) स्थित है, जिसमें परमाणु का अधिकांश भार रहता है और उनके चारों ओर इलेक्ट्रॉन परिक्रमा करते हैं। नाभिक संरचना के आधुनिक सिद्धांत के अनुसार उसमें दो प्रकार के मूलभूत कण स्थित रहते हैं, न्यूट्रॉन ओर प्रोटॉन। नाभिक में उपस्थित प्रोटॉनों की संख्या से ही तत्व की परमाणुसंख्या (atomic number) नियत होती है, जिससे यह निष्कर्ष निकला कि एक तत्व के समस्त परमाणु के नाभिकों में उपस्थित प्रोटॉनों की संख्या समान होगी, जैसे हाइड्रोजन नाभिक में १ प्रोटॉन, हीलियम नाभिक में २ प्रोटॉन और यूरेनियम नाभिक में ९२ प्रोटॉन हैं। इसके अतिरिक्त, नाभिक में उपस्थित प्रोटॉन एवं न्यूट्रॉन की संख्या का योग, उसकी द्रव्यमान संख्या (mass number) होगी। इस प्रकार किसी एक तत्व के दो समस्थानिकों के नाभिकों में प्रोट्रॉनों की संख्या तो समान होगी, परंतु न्यूट्रॉनों की संख्या विभिन्न होगी, यथा लीथियम-७ के नाभिक में ३ प्रोटॉन होंगे। यह ध्यान देने योग्य बात है कि इस लीथियम के दोनों नाभिकों में तीन ही इलेक्ट्रॉन नाभिक की परिक्रमा करेंगे, क्योंकि समस्थानिकों की बाह्य संरचना एक सी होती है।

कभी कभी ऐसा भी संभव हो सकता है कि दो विभिन्न तत्वों के नाभिकों में उपस्थित प्रोटॉन और न्यूट्रॉन का योग समान हो, यद्यपि दोनों कणों की व्यक्तिगत संख्याएँ समान, हों। बोरॉन के १० द्रव्यमानवाले समस्थानिक (B1e) में ५ प्रोटॉन और ५ न्यूट्रान होंगे और बेरिलियम के १० द्रव्यमान समस्थानिक (Be10) में ४ प्रोटॉन और ६ न्यूट्रॉन होंगे। ऐसे परमाणुओं को समभारिक (Isobars) कहते हैं।

द्रव्यमान स्पेक्ट्रमलेखी (mass spectrograph) द्वारा किए गए सम्यक् अनुसंधानों से ज्ञात हुआ कि तत्वों के किसी परमाणु का द्रव्यमान उसमें उपस्थित प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रानों के सम्मिलित द्रव्यमान के बराबर न होकर, उससे कम होता है। इसका कारण यह है कि नाभिक में उपस्थित प्रोटॉन और न्यूट्रॉन इतनी निकटतम अवस्था में रहते हैं कि उनकी मात्रा के कुछ भाग का क्षय हो जाता है। किसी नाभिक में उपस्थित कणों के परिकलित भार और उसके प्रयोगात्मक भार के अंतर को आइंसटाइन के सापेक्षवाद (theory of relativity) के अनुसार ऊर्जा में परिणत कर सकते हैं और प्राप्त ऊर्जा को नाभिक की बंधन ऊर्जा (binding energy) कहेंगे। इसे नाभिक में उपस्थित कणों (प्रोटॉन और न्यूट्रॉन) की संख्या से भाग देने पर, प्रति कण की बंधन ऊर्जा प्राप्त होगी। यह ध्यान देने योग्य बात है कि यह मात्रा स्थिर न होकर, प्रत्येक तत्व के साथ बदलती रहती है। आवर्त सारणी के मध्य में स्थित तत्वों में यह सबसे अधिक और आरंभ तथा अंत के तत्वों में कम रहती है। उच्च बंधन ऊर्जा तत्व की स्थिरता का सूचक है। इसी नियम के अनुसार यूरेनियम खंडित होकर और हाइड्रोजन संगलित होकर अधिक स्थिरता को प्राप्त होते हैं।

समस्थानिकों की रचना पर विचार करने से हमें ज्ञात हुआ कि विषम परमाणु संख्या के तत्वों के स्थिर समस्थानिकों की संख्या कम होती है। पृथ्वी की सतह पर उनकी मात्रा भी कम ज्ञात होती है। इसके विपरीत सम परमाणु संख्या के तत्वों के अधिक स्थिर सम स्थानिक प्राप्त हैं। लगभग समस्त स्थिर समस्थानिकों के नाभिकों में न्यूट्रॉनों की सम संख्या होती है।

अभी तक समस्थानिकों के द्रव्यमान की गणना भौतिक प्रतिमान द्वारा होती थी, जिसमें ऑक्सीजन के १६ परमाणुभारवाले समस्थानिक को १६.०००० माना गया। यह प्रतिपादन रासायनिक प्रतिमान से भिन्न था। रासायनिक प्रतिमान द्वारा प्राप्त परमाणुभार भौतिक प्रतिमान से कुछ भिन्न थे। १९६२ ई. में दोनों प्रतिमानों के स्थान पर एक अन्य प्रतिमान स्थापित किया गया है, जो भौतिक तथा रासायनिक दोनों क्रियाओं में उपयोगी है। इसके अनुसार कार्बन के १२ द्रव्यमान संख्यावाले समस्थानिक का भार १२.०००० माना गया, जिसके फलस्वरूप प्रोट्रॉन का भार १.००७५९५, न्यूट्रान का भार १.००८९८२, ड्यूट्रान का भार २.०१४१८ और ट्राइटॉन (ट्राइटियम का नाभिक) का भार ३.०१६५० मान्य है।

एक तत्व के समस्थानिकों के अनेक भौतिक गुणों में भिन्नता रहती है। स्पेक्ट्रमी (Spectral) गुणों में यह भिन्नता देखी जा सकती है। पट्ट स्पेक्ट्रम के अध्ययन द्वारा समस्थानिकों की उपस्थिति सरलता से ज्ञात हो जाती है और इनके द्वारा अनेक प्रयोगों में द्रव्यमान स्पेक्ट्रमलेखी (mass spectrograph) अनुसंधानों से प्राप्त परिणामों की पुष्टि हुई है।

समस्थानिकों का पृथक्करण -श् समस्थानिकों को रासायनिक विधि द्वारा पृथक नहीं किया जा सकता। इस कार्य के लिए भौतिक गुणों की भिन्नता का सहारा लेना पड़ता है। द्रव्यमानस्पेक्ट्रममापी में समस्थानिकों का पूर्णतया पृथक्करण संभव है और सर्वप्रथम इसी विधि से यूरेनियम के समस्थानिक पृथक् किए गए थे, परंतु इस विधि द्वारा प्राप्त समस्थानिकों की मात्रा बहुत न्यून और शिथिलता से प्राप्त होती है।

इसके अतिरिक्त समस्थानिकों को पृथक् करने की अन्य विधियाँ भी प्रयुक्त हुई हैं। एक विधि के अनुसार किसी तत्व के वाष्प, अथवा उसके वाष्प यौगिक, कासरध्रं (porous) पदार्थ द्वारा मुक्त विसरण (free diffusion) कर, उसे समस्थानिकों में पृथक् करते हैं। वाष्प की विसरण गति उसके भार के वर्गमूल के विलोमानुपाती (inversely proportional) होती है। इस कारण मिश्रित समस्थानिक वाष्प के समुचित आयतन का सरध्रं पदार्थ द्वारा विसरण करने पर, विसरित वाष्प में हलके समस्थानिक का और बचे वाष्प में भारी समस्थानिक का प्रतिशत बढ़ जाएगा। इस क्रिया को अनेक बार दोहराने से समस्थानिकों के प्रतिशत में बहुत अंतर आ सकता है। एक दूसरी विधि द्वारा न्यून दबाव पर द्रव सतह के ऊपर वाष्पीकरण द्वारा समस्थानिकों के संघटन में अंतर आ जाता है। इनके अतिरिक्त आसवन (distillation), विद्युत् अपघटन (electrolysis), अपकेंद्रन (centrifugation) तथा विनिमयी अभिक्रिया (exchange reaction) द्वारा भी समस्थानिक पृथक् किए जाते हैं। इनकी क्रियाएँ अधिकतर गोपनीय रखी गई हैं।

यह आश्चर्यजनक बात है कि पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर पाए जानेवाले किसी भी तत्व का समस्थानिक प्रतिशत समान रहता है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रारंभिक काल में हर तत्व का निर्माण या तो एक स्थान पर हुआ, या इस विधि से हुआ कि उसका हर स्थान पर समस्थानिक संघटन स्थिर हो गया। (रमेश चंद्र कपूर)