आर्यसमाज भारतवर्ष की आधुनिक काल की प्रगतिशील सुधार संस्थाओं में आर्यसमाज का विशेष स्थान है। आर्यसमाज की स्थापना १० अप्रैल, १८७५ ई. (चैत्र शुक्ल ५, १९३२ वि.) को स्वामी दयानंद सरस्वती (जन्म सं. १८८१ वि., टंकारा, गुजरात; देहावसान सं. १९४० वि. कार्तिक अमावस्या, अजमेर, राजस्थान) द्वारा बंबई में हुई थी। इस समय भारतवर्ष में तथा ब्रह्मदेश, थाईलैंड, मलाया, अफ्रीका, पश्चिमी द्वीपसमूह (ट्रिनिडाड) आदि में लगभग ३,००० समाज हैं जहां इसके सदस्यों की संख्या ५० लाख से अधिक है। आर्यसमाज का कार्यक्षेत्र सार्वभौमिक है, क्योंकि इसके संस्थापक और कार्यकर्ताओं का प्रस्तावित उद्देश्य यह है कि विश्व भर में बिना जन्म, जाति, देश या रंग की अपेक्षा के वैदिक धर्म का प्रचार किया जाए।

आर्यसमाज की स्थापना का विचार इस प्रकार आरंभ हुआ था : बालक मूलशंकर ने घर छोड़, संन्यास ग्रहण कर स्वामी दयानंद सरस्वती के नाम से सत्य की खोज करना आरंभ किया और प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानंद से मथुरा में व्याकरण और वैदिक शास्त्रों का अध्ययन शुरू किया। अपने अध्ययन और अनुसंधान से उन्होंने देखा कि प्रचलित हिंदू धर्म प्राय: सनातन वैदिक धर्म से अनेक सिद्धांतों में बहुत भिन्न हो गया है मनुष्य जाति का कल्याण इसी में है कि वर्तमान पौराणिक धर्म को त्याग कर प्राचीन वेदों की शिक्षा का प्रसार किया जाय। गुरु विरजानंद के आदेश पर स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज की स्थापना इसी उद्देश्य से की थी।

सन् १८८३ ई. तक स्वामी दयानंद ने समस्त भारतवर्ष की विस्तृत यात्रा कर अनेक मुख्य नगरों में आर्यसमाज स्थापित किए और अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित कीं-सत्यार्थप्रकाश, संस्कारविधि, ऋग्वेदभाष्यभूमिका, ऋग्वेदभाष्य (७वें मंडल तक), यजुर्वेदभाष्य तथा अन्य कतिपय छोटे ग्रंथ। स्वामी दयानंद की मृत्यु के पश्चात् आर्यसमाज ने शिक्षा का प्रचार और समाजसुधार में बड़ी लगन से कार्य किया है। इस संस्था द्वारा स्थापित स्कूलों, कालेजों, गुरुकुलों, संस्कृत पाठशालाओं तथा कन्यापाठशालाओं, विधवाश्रमों, अनाथालयों का उत्तरी भारत तथा अन्य प्रदेशों में जाल सा बिछा हुआ है। इन कार्यों में आर्यसमाज को समस्त शिष्ट जनता की सहानुभूति प्राप्त है।

प्रचलित हिंदू धर्म से आर्यसमाज के सिद्धांतों में निम्नलिखित मुख्य अंतर हैं : आर्यसमाज केवल वेदों के मंत्रभाग को ही ईश्वर और स्वत:-प्रमाण मानता है तथा ब्रह्मण, उपनिषद् आदि को मनुष्यकृत तथा परत:-प्रमाण; राम, कृष्ण आदि को ईश्वर का अवतार न मानकर महापुरुष मानता है; मूर्तिपूजा को अवैदिक तथा पाप गिनता है; जन्म से जातिभेद नहीं मानता; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णों का मनुष्य अपने गुण, कर्म और स्वभावानुसार वैदिक धर्म को ग्रहण कर सकता है और उसी वर्ण में गिना जा सकता है; स्त्रियों को विवाह आदि सामाजिक विषयों के समान अधिकार देता है और स्त्रियों तथा दलित जातियों के उद्धार के लिए प्रयत्नशील रहता है। आर्यसमाज के समस्त विधान की आधरशिला निम्नलिखित दस नियम हैं :

(१) सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।

(२) ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है तथा उसी की उपासना करने योग्य है।

(३) वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है; वेद पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना अब आर्यों का परमधर्म है।

(४) सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।

(५) सब काम धर्मानुसार, अर्थात् सत्य और असत्य का विचार कर करना चाहिए।

(६) संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

(७) सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य बर्तना चाहिए।

(८) अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।

(९) प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिए, अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।

(१०) सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी नियमपालन में परतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र रहें। (गं.प्र.उ.)