सभा वैदिक युग की अनेक जनतांत्रिक संस्थाओं में सभा एक थी। सभा के साथ ही एक दूसरी संस्था थी, समिति, और अथर्ववेद (सातवाँ, १३.१) में उन दोनों को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि तत्कालीन वैदिक समाज को ये संस्थाएँ अपने विकसित रूप में प्राप्त हुई थीं। उसका तात्पर्य सभास्थल और सभा की बैठक, दोनों ही से था। अथर्ववेद के उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि सभा और समिति का अलग अलग अस्तित्व था। सभा में ब्राह्मणों, अभिजात लोगों ओर धनी मानी वर्ग के व्यक्तियों का जोर साधारण व्यक्तियों से संभवत: अधिक होता था। उसके सदस्यों को सुजात अर्थात् कुलीन कहा गया है (ऋग्वेद, सप्तम १.४)। मैत्रायणी संहिता (चर्तुथ ७.४) के एक संदर्भ से ज्ञात होता है कि सभा की सदस्यता स्त्रियों के लिए उन्मुक्त नहीं थी। कहा जा सकता है कि सामूहिक रूप में सभा का महत्व बहुत अधिक था। उसके सदस्यों को सभासद, अध्यक्ष को सभापति और द्वाररक्षक को सभापाल कहते थे। सभासदों की बड़ी प्रतिष्ठा होती थी, किंतु वह प्रतिष्ठा खोखली न थी और सभासदों की योग्यताएँ निश्चित थीं। एक बौद्ध जातक के अनुसार वह सभा सभा नहीं, जहाँ संत लोग न हों और वे संत नहीं जो धर्म का भाषण न करते हों। पुन: वे ही लोग संत कहलाने के अधिकारी थे, जो राग, द्वेष (अथवा दोष = पाप) और मोह को छोड़कर धर्म का भाषण करते हों-'न सा सभा यत्थ न संति संतो, न ते संतों ये न भणन्ति धम्मं। रागं च दोषं च पहाय मोहं धम्म भणन्ता व भवन्ति संते।' (जातक, फॉसबॉल का रोमन लिपि संस्करण, जिल्द ५, पृष्ठ ५०९)। सभासदों के लिए ये गुण अत्यंत अपेक्षित थे और कुछ हेर फेर के साथ वाल्मीकि रामायण (उत्तर कांड, ३.३३) तथा महाभारत में भी उन्हें गिनाया गया है, यथा-न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा:, न ते वृद्धा: ये न वदन्ति धर्मम्। नाऽसौ धर्मों यत्र न सत्यमस्ति, न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम।।' न्याय का इच्छुक व्यक्ति सभाचर और सभा से छूटा हुआ अभियुक्त दोषमुक्त, प्रसन्न और सानंद कहा गया है। न्याय वितरण के अतिरिक्त सभा में आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक प्रश्नों पर भी विचार होते थे। कभी कभी लोग वहाँ इकट्ठे होकर जुए के खेल द्वारा अपना मनोरंजन भी किया करते थे।

सभा का यह स्वरूप उत्तर वैदिककाल का अंत होते होते (६०० ई. पू.) समाप्त हो गया। राज्यों की सीमाएँ बढ़ीं और राजाओं के अधिकार विस्तृत होने लगे। उसी क्रम में सभा ने राजसभा अर्थात् राजा के दरबार का रूप धारण कर लिया। धीरे धीरे उसकी नियंत्रात्मक शक्ति जाती रही और साथ ही साथ उसे जनतंत्रात्मक स्वरूप का भी अंत हो गया। राजसभा में अब केवल राजपुरोहित, राज्याधिकारी, कुछ मंत्री और राजा अथवा राज्य के कुछ कृपापात्र मात्र बच रहे।

सं. ग्रं. - डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल : हिंदू राज्यतंत्र; डॉ. अ. स. अल्तेकर : प्राचीन भारतीय शासनपद्धति; डॉ. कीथ और डॉ. मैकडानेल : वैदिक इंडेक्स्, जिल्द २, पृष्ठ ४२६-४३१। (विश्वंभर शरण पाठक)