सप्रू, सर तेजबहादुर जन्म ८ दिसंबर, १८७५ ई. को अलीगढ़ नगर में हुआ था। इनकी प्राथमिक शिक्षा आगरे में हुई और उन्होंने एम. ए. और एल-एल. बी. की उपाधियाँ इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त कीं। उन्होंने मुरादाबाद में वकालत शुरू की और लगभग दो वर्ष बाद १८९८ ई. में इलाहाबाद चले आए। यहाँ उन्होंने हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। उन्होंने १९०२ में प्रयाग विश्वविद्यालय से कानून की सर्वोच्च डिग्री एल-एल. डी. प्राप्त की और १९०६ में वे इलाहाबाद हाइकोर्ट के ऐडवोकेट बन गए। शीघ्र ही उनकी ख्याति प्रांत और देश के प्रमुख वकीलों में हो गई। उन्हें साहत्यिक, सामाजिक और राजनीतिक विषयों में रुचि थी। कुल काल तक उन्होंने उर्दू मासिक पत्र 'काश्मीरदर्पण' का संपादन भी किया।
१९१३ से १९१६ तक वे संयुक्त प्रांत की धारासभा के सदस्य और फिर केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा के भी सदस्य रहे। १९१८-१९१९ में वे फक्शंज कमेटी के सदस्य थे जिसके अध्यक्ष लार्ड साउथ बरो थे। १९१९ ई. में वे नरम दल के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य बनकर लंदन गए और लार्ड सेल्बोर्न की कमेटी के समक्ष गवाही दी।
वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के भी (१९०६ से १९१७ तक) सदस्य रहे। १९१३ में उन्होंने यू. पी. सोशल कफ्रोंस की और १९१५ में यू. पी. राजनीतिक कफ्रोंस की अध्यक्षता की। १९१८ से १९२० तक वे यू. पी. लिबरल लीग के अध्यक्ष रहे। १९१० से १९२० तक वे प्रयाग विश्वविद्यालय के फेलो थे। और हिंदू विश्वविद्यालय काशी को कोर्ट और सिनेट के भी कई साल तक सदस्य रहे। १९२० में वे भारत की केंद्रीय सरकार के 'ला मेंबर' नियुक्त हुए परंतु १९२३ में उस पद को त्यागकर वे पुन: इलाहाबाद आकर हाईकोर्ट में वकालत करने लगे।
१९२३ में उन्होंने लंदन में इंपीरियल कफ्रोंस में भारत का प्रतिनिधित्व किया और दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की समस्या पर एक भाषण ने उनकी ख्याति देशविदेश में फैला दी।
१९२३ में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें के. सी. एस. आई. की उपाधि से विभूषित किया। इसी वर्ष उन्होंने पूना में अखिल भारतीय लिबरल फेडरेशन की अध्यक्षता की। १९३४ में ब्रिटिश सम्राट् ने उन्हें अपनी प्रीवी काउंसिल का सदस्य बनाया। १९३५ के गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट के बनाने में उन्होंने विशेष योग दिया।
कांग्रेस के असहयोग आंदोलनों के समय उन्होंने अपने सहयोगी डा. एम. आर. जयकर के साथ संघर्ष को सुलझाने में बराबर प्रयत्न किया। १९३४-१९३५ में वे उत्तर प्रदेशीय अनएम्लायमेंट कमेटी के अध्यक्ष थे।
१९३९ में जब प्रांतों की कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफा दिया तब कांग्रेस और मुस्लिम लीग में समझौता कराने और निर्दलीय नेताओं की समिति द्वारा, जिसकी १९४१ में उन्होंने अध्यक्षता की, कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार में समझौता कराने का उन्होंने विशेष प्रयत्न किया।
१९४२ में और उसके पश्चात् भी भारत के स्वाधीनता आंदोलन में उन्होंने देश की आकांक्षाओं का सर्वदा प्रतिनिधित्व किया। भारत जब स्वाधीन हुआ तो वे अपनी ख्याति के शिखर पर थे। यदि उनका स्वास्थ्य ठीक रहता तो भारत के संविधान बनाने में उनका प्रमुख हाथ रहता।
२१ जनवरी, १९४९ को प्रयाग में उनका देहांत हुआ।
आंतरिक उदासीनता रखते हुए भी उनका बाह्य जीवन बड़ी शान और राजसी ठाठ से युक्त था। उनके अंतिम काल तक उनका प्रयाग का निवासस्थान १९, एलबर्ट रोड, साहित्यिकों तथा सामाजिक और राजनीतिक नेताओं का केंद्र बना रहा। (शिवनाथ काटजू)