सड़कें (भारत की) एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचने के लिए भूपृष्ठ पर बनी रचना को पथ, मार्ग, रथ्या या सड़क कहा जाता है। भारत में प्राचीन काल से ही मार्गों का निर्माण होता रहा है। संसार के सबसे पुराने साहित्य वेदों से अश्व जुते हुए रथों का उल्लेख है, जो बनाए गए मार्गों पर तीव्र गति से चलते थे। रामायण और महाभारत में भी ऐसे रथों और मार्गनिर्माण की विधियों का वर्णन है। पाणिनि के विख्यात व्याकरण अष्टाध्यायी में अजपथ, हस्तिपथ और रथपथ का उल्लेख है तथा पाणिनि का समय निश्चित हो ईसा पूर्व पाँचवीं शती है। उस समय के मुख्य पथ, पाटलिपुत्र से गंधार तक उत्तर पथ, कोशांबी से प्रतिष्ठान तक दक्षिण पथ और विंध्यपर्वत को पार करते हुए पश्चिमी समुद्र के तटनगर भारुकच्छ तक पूर्व-पश्चिम पथ थे। इन मार्गों पर यात्रियों के सुख के लिए सब सुविधाएँ थी। भारत से बाहर विदेशों में यद्यपि ईसा से ३,००० वर्ष पूर्व तक सड़कों के होने के संकेत मिले हैं, पर यह निश्चित है कि ईसा से ५०० वर्ष पहले दो बड़ी सड़कें मेडिटरेनियन (भूमध्य) सागर को फारस की खाड़ी के ऊपरी सिरे से मिलाती थीं। लगभग २०० ईसवी तक रोमन साम्राज्य को चीन से मिलानेवाले रेशम और अन्य विलास के व्यापार के लिए सार्थवाह मार्ग थे। रोमन साम्राज्य की शक्ति बढ़ने पर यूरोप में पत्थर से पटी सड़कों का जाल फैल गया। भारत में भी इसी काल में मौर्यसाम्राज्य (ईसा पूर्व चौथी शती) और गुप्तकाल (ईसवी पाँचवीं शती तक) मार्गनिर्माण और उसके प्रबंध में बहुत विकास हुआ।

भारत के प्राचीन साहित्य में भी मार्ग के निर्माण की विधियों का वर्णन मिलता है। आचार्य चाणक्य (कौटिल्य) के अर्थशास्त्र में रथपथ, राजमार्ग, सैनिक स्थान, श्मशान आदि को जानेवाले मार्गों की चौड़ाई निश्चित की गई है और कहा है कि वे बीच में कछुए की पीठ की तरह उभरे हुए हैं। मानसार वास्तुशास्त्र में लिखा है कि सड़कों पर कंकड़ कूटी जाए और भवनों के द्वार राजमार्गों पर न खुलें, क्योंकि यह यातायात के लिए भयावह है। रथ, घोड़े, पैदल आदि के लिए पृथक् पथ हों और नगरों में चौराहों पर प्रकाश का प्रबंध हो। सड़कों पर कूड़ा करकट आदि फेंकना जुर्म माना जाता था।

मध्यकाल में सड़कें - सम्राट् हर्ष (आठवीं शताब्दी) के पश्चात केंद्रीय शासन शिथिल हो जाने से मार्गो की दशा बिगड़ने लगी और १२वीं शताब्दी में पठान शासन स्थापित होने पर सड़कों की दशा में फिर सुधार होने लगा। सड़कों के निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य बादशाह शेरशाह सूरी के अल्प राजकाल (१५४० से १५४५ ई. तक) में हुआ। उसने बगाल के सुनारगाँव से पंजाब में रोहतास तक पुराने उत्तर पथ का पुनरुद्धार किया। शेरशाह ने उत्तर पथ पर कंकड़ कुटवाए, पेड़ लगवाए, कुएँ खुदवाए और सराएँ बनवाई। आगरे से दक्षिण में बुरहानपुर तक और पश्चिम में चित्तौड़ और जोधपुर तक सड़कें बनवाई। शेरशाह के पश्चात् मुगल काल में अकबर और जहाँगीर ने भी सड़कों का सुधार जारी रखा। आगरे से लाहौर की सड़क पर कोस कोस पर मीनारें बनवाई, जो दूर से ही कोस के पूरा होने की सूचना देती थीं। अनेक बड़ी बड़ी सराएँ बनवाई, जिनमें से कुछ के खंडहर अब भी मौजूद हैं। १७५९ ईसवीं में राय चतुरमान कायथ की लिखी चहारगुलशन पुस्तक में २४ महान राजमार्गों का उल्लेख है, जिनमें मुख्य ये हैं :

(१)�� पटना-बनारस-दिल्ली-करनाल-लाहौर-पेशावर।

(२)�� दिल्ली-अजमेर-अहमदाबाद-सूरत।

(३)�� दिल्ली-आगरा-ग्वालियर-गोलकुंडा-बीजापुर।

(४)�� बीजापुर-औरंगाबाद-उज्जैन।

(५)�� लाहौर-श्रीनगर।

दक्षिण भारत में सातवाहन, चोल और चेर राजवंशों के शासनकाल में पूर्वी और पश्चिमी समुद्रतटों के पत्तनों को जानेवाली अनेक सड़कें बनवाई गई। चालुक्य राजाओं ने भी सड़कों का बहुत सुधार किया। दक्षिण के मुख्य मार्ग ये थे :

(१)�� पूना-औरंगाबाद-जाल्पा-विजयवाड़ा (पूर्वी समुद्रतट)।

(२)�� कालीकट रामेश्वरम्।

(३)�� पूना से समुद्री तट के साथ साथ दक्षिण तक।

सड़कों के रास्ते में पड़नेवाली नदियों पर नाव के पुल बनाए जाते थे, जो बरसात में तोड़ दिए जाते थे और यात्री एवं माल नाव से नदी पार जाते थे। छोटे छोटे नालों पर डाटदार ईटं या पत्थर के पुल होते थे, जिनमें से कई अब भी मौजूद हैं, जैसे जौनपुर, करनाल और दिल्ली में।

अंग्रेजी शासनकाल में मार्गनिर्माण - अठारहवीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के शिथिल पड़ जाने और केंद्रीय अनुशासन ढीला होने पर सड़कों की दशा बिगड़ने लगी। उसी शताब्दी में एक ओर तो तीन विदेशी शक्तियाँ, ब्रिटेन, फ्रांस और डच, आपस में भारत पर अधिकार जमाने के लिए बलप्रदर्शन कर रही थी और विविध प्रदेशीय शासक एक दूसरे से लड़ रहे थे, जिसके कारण केवल सैनिक महत्व की कुछ सड़कों की देखभाल के अतिरिक्त अन्य सड़कें बिगड़ी जा रही थीं। १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश राज के भारत में पैर जमाने पर, गवर्नर जनरल लार्ड बेंटिंक (१८२८-१८४३), ने सार्वजनिक मार्गनिर्माण की ओर ध्यान दिया। पहले पहल महान् उत्तर पथ, जिसे ग्रैंड ट्रंक रोड नाम दिया गया, सुधारा गया। कलकत्ते से दिल्ली तक की सड़क को सुधारकर उसपर कंकड़ कुटवाकर पक्का किया गया और जगह जगह नए पुल बनवाए गए। सन् १८३५ तक यह सड़क करनाल तक, जो दिल्ली से ७५ मील दूर लाहौर की ओर है, बन गई थी। आगरे में बंबई की सड़क पर भी काम आरंभ किया गया।

लार्ड डलहौजी (१८४८-१८५६ ई.) का शासनकाल सड़क निर्माण के लिए और भी अधिक महत्वपूर्ण रहा। उन्होंने कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए प्रत्येक सूबे में सार्वजनिक निर्माण विभाग स्थापित किया, जिसमें इंग्लैंड के प्रशिक्षित इंजीनियर नियुक्त किए गए। अंबाले से कालका-शिमला तथा तिब्बत तक सीधी सड़कें आरंभ की गई। लाहौर से पेशावर और खेबर दर्रे तक बिलकुल नई सड़क बनवाई गई, जिसपर पंजाब के चीफ इंजीनियर सर नेपियर और कर्नल एलैक्जैंडर टेलर का कार्य विशेष महत्वपूर्ण रहा।

सन् १८५७ में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कारण सड़क निर्माण का कार्य कुछ ढीला पड़ा, पर शीघ्र ही सारे भारत में मार्गनिर्माण का कार्य चालू हो गया।

रेल मार्ग से स्पर्धा - इस प्रकार मार्गो के निर्माण में तीव्र प्रगति हो रही थी कि सन् १८५२ में बंबई से कल्याण तक भाप के इंजन से खींची जानेवाली प्रथम रेलगाड़ी चली। सन् १८७५ तक सारे देश में रेल की पटरियों का जाल सा बिछ गया। इन रेल मार्गों पर बड़ी से बड़ी नदी और छोटे से छोटे नालों पर पुल बनाए गए। रेल गाड़ी की चाल भी तेज थी, घंटे में चालीस मील तक। इस लिए जिस जिस मार्ग के साथ रेल की पटरी बिछती गई, वहाँ लोगों ने सड़क की यात्रा छोड़कर रेल मार्ग को अपनाना आरंभ किया। उस समय तक सडक पर तेज चलनेवाला वाहन घोड़ागाड़ी ही थी, जिसकी चाल दस बारह मील प्रति घंटे से अधिक न थी और रास्ते में बिना पुलवाली नदी एवं नाले बाधा थे। माल भी रेलगाड़ी से ढोया जाने लगा। इसलिए जिन मार्गो पर रेल चलने लगी वहाँ सड़क का उपयोग घट गया। उनकी देखभाल से भी ध्यान हट गया और उनकी दशा बिगड़ने लगी।

उधर शासन में भी गवर्नर जनरल, लार्ड रिपन, ने स्थानीय निकायों को सबल बनाने की नीति अपनाई और कुछ महत्वपूर्ण मार्गो को छोड़कर, अन्य सड़कों की देखभाल और नई सड़कों का निर्माण जिला बोर्डों के हवाले कर दिया।

२०वीं शती का प्रथम चौथा भाग - २०वीं शती के प्रथम दशक में ही पेट्रोल से चलनेवाली मोटरगाड़ी का आविष्कार हुआ और उसका प्रयोग बढ़ने लगा। उसकी चाल रेलगाड़ी की तरह तेज थी और उसमें यात्रा सुखदायक भी थी। मोटरगाड़ी के भारत में पहुँचने पर, धीरे धीरे उसका प्रयोग बढ़ने लगा और यात्री बस और माल ढुलाई के ट्रक व्यवहार में आए। सन् १९१४ से १९१९ तक के प्रथम विश्वयुद्ध में सैनिक परिचालन के लिए सड़कों का महत्व समझा गया। इसलिए सन् १९१९ के पश्चात् भारत सरकार का ध्यान फिर सड़कों के सुधार की ओर गया और जनता ने भी मोटर गाड़ी चलाने के लिए अच्छे मार्गों की माँग की।

२०वीं शती का दूसरा चौथा भाग - उपर्युक्त माँग की चरम सीमा १९२७ ई. में भारतीय धारासभा के दोनों सदनों के उस प्रस्ताव के पारित हाने पर हुई जिसमें भारत में सड़क विकास के प्रश्न को जाँचकर रिपोर्ट तैयार कराने का निश्चय था। इस प्रस्ताव के अनुसार भारत सरकार ने श्री एम.आर. जयकर की अध्यक्षता में एक समिति की स्थापना की। इस समिति के सचिव श्री के.जी. मिचल नियुक्त किए गए, जो पंजाब सूबे में सड़कों के इंजीनियर थे और जिन्होंने उस सूबे की सड़कों के, सन् १९२१ के बाद के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया था।

इस समिति ने, जो जयकर, समिति कहलाई, एक वर्ष तक सारे देश में भ्रमण करके और जनता के प्रत्येक वर्ग के विचार का पता लगाकर नवंबर, १९२८ ई. में अपनी रिपोर्ट सरकार को दी। उन्होंने कहा कि अन्य देशों की तरह भारत में भी सड़कों का विकास प्रांतीय सरकारों की शक्ति के बाहर हुआ जा रहा है और वह राष्ट्रीय महत्व प्राप्त कर रहा है तथा वह कुछ सीमा तक केंद्रीय राजस्व पर भार हो सकता है। इस समिति की सिफारिशें सारांश में यह थी कि खेती की उपज की बेहतर बिक्री और ग्रामीण जनता के सामाजिक एवं राजनीतिक विकास के लिए, भारत में पूर्ण रूप से सड़क पद्धति का विकास वांछनीय है और, क्योंकि यह कार्य प्रांतीय सरकारों की शक्ति के बाहर है, सड़क विकास के विशिष्ट प्रयोजन के लिए मोटर स्पिरिट पर केंद्र का २ आने (साढ़े बारह पैसे) प्रति गैलन (साढ़े चार लीटर) अतिरिक्त कर लगाना चाहिए और प्राप्त धनराशि एक पृथक् सड़क विकास फंड में जमा कर देनी चाहिए। समिति ने यह भी विचार व्यक्त किया कि फंड में जमा रुपए की प्रत्येक वर्ष के अंत में पूर्ण व्यय नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि कई वर्षों तक के लिए सड़क कार्यकर की योजना बनाकर, उसकी पूर्ति की जरूरत पड़ेगी और इसके लिए निधि के चलते रहने का आश्वासन जरूरी है। इसके अतिरिक्त, प्रांतीय सरकारों के लाभ के लिए भाड़े पर चलनेवाली मोटर गाड़ियों पर कर लगने की स्वीकृति देने की भी सिफारिश की।

भारत सरकार ने समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और भारतीय धारासभा द्वारा स्वीकृत एक प्रस्ताव के आधार पर, १ मार्च, सन् १९३० को केंद्रीय सड़क निधि अस्तित्व में आई। वार्षिक राजस्व की निधि का २० प्रतिशत केंद्रीय आरक्षण के रूप में रखा जाता है। निधि के प्रशासन, सड़क अनुसंधान तथा प्रयोग, राज्यों में उपर्युक्त सड़क और पुल की योजनाओं, सीमांत राज्यों में अंतरराज्य सड़क और पुल के लिए भारत सरकार इस आरक्षण अंश से अनुदान देती है। शेष ८० प्रतिशत निधि राज्यों को उनके वास्तविक पेट्रोल उपयोग के आधार पर बाँट दी जाती है। सन् १९३१ में यह कर ढाई आना (१६ पैसे) कर दिया गया और वर्ष १९६३-६४ में इससे ४ करोड़ १० लाख रुपए की आय हुई थी और आरंभ से ३१ मार्च, सन् १९६४ तक कुल आय ७९ करोड ९२ लाख हुई थी।

सड़क का वर्ग

मूल लक्ष्य सारे भारत के लिए, मीलों में

सन् १९४७ में विभाजन के पश्चात् स्थिति, मीलों में

राष्ट्रीय मुख्य मार्ग

२५,०००

२०,७५०

राज्य मुख्य मार्ग

६५,०००

५३,९५०

जिला सड़केंश्

देहाती सड़कें

६०,०००

१,००,०००

४९,८००

८३,०००

१,२३,५००

कुल जोड़

४,००,०००

३,३१,०००

राष्ट्रीय मुख्य मार्गों के निर्माण और देखभाल का आर्थिक दायित्व केंद्रीय सरकार ने अपने ऊपर ले लिया, पर कार्य कराने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर रखी। चीफ इंजीनियरों की नागपुर कफ्रोंस ने मार्ग विज्ञान में अनुसंधान की आवश्यकता पर भी ध्यान दिलाया और उनकी सिफारिशों के अनुसार सन् १९५० में केंद्रीय वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद् ने 'केंद्रीय मार्ग अनुसंधान संस्थान' की स्थापना दिल्ली-मथुरा सड़क पर दी। इस संस्थान ने पिछले १६ वर्षों में मृत्तिका स्थिरीकरण कंक्रीट सड़क और लचीली डामर सड़क, मार्ग-यातायात-नियंत्रण आदि पर महत्वपूर्ण अनुसंधान किए हैं। लगभग प्रत्येक राज्य में मार्ग-अनुसंधानशाला स्थापित हो गई है और केंद्रीय अनुसंधानशाला इन सबके कार्यों का समन्वय करती है।

सन् १९३० में केंद्र में जिस केंद्रीय सलाहकार समिति की स्थापना की गई थी, उसका कार्य इतना बढ़ गया है कि अब परिवहन मंत्रालय में एक पृथक् सड़क पक्ष है, जिसमें एक मुख्य निदेशक और कई अन्य निदेशक सड़कों और पुलों के लिए हैं तथा उनके अधीन अनेक इंजीनियर हैं। इस विभाग का कार्य सब राज्यों को मार्ग और पुल निर्माण में सलाह देना और उनके संबंध में मानक स्थापित करना है।

बीस वर्षीय सड़क विकास योजना (सन् १९६१-१९८०) - नागपुर योजना का लक्ष्य दूसरी पंचवर्षीय योजना के अंत तक लगभग पूरा हो जाना था। इसलिए सन् १९५७ में संसद ने भारत की विकसित आर्थिक आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए अगले २५ वर्षों के लिए मार्ग-विकास-योजना बनाने के लिए परिवहन मंत्रालय को सुझाव दिया। इसलिए चीफ इंजीनियरों की कमेटी ने जनवरी, सन् १९५८ में हैदराबाद में एक कफ्रोंस करके, एक बीस वर्षीय योजना तैयार की, जो तीसरी पंचवर्षीय योजना के साथ आरंभ हो। इस योजना को बनाने में कमेटी ने निम्नलिखित उद्देश्य ध्यान में रखे :

१.����� प्रत्येक विकसित और कृषिक्षेत्र में कोई गाँव पक्की सड़क से चार मील से अधिक दूर न हो और अन्य सड़कों से डेढ़ मील दूर।

२.����� अर्धविकसित क्षेत्र में कोई गाँव पक्की सड़क से आठ मील से अधिक दूर न हो और अन्य सड़कों से तीन मील से अधिक दूर न हो।

३.����� अर्धविकसित क्षेत्र में कोई गाँव पक्की सड़क से १२ मील से अधिक दूर न हो और अन्य सड़क से पाँच मील से अधिक दूर न हो।

मुख्य मार्ग

लंबाई

राष्ट्रीय मुख्यमार्ग

३२,००० मील

राज्य मुख्यमार्ग

७०,००० मील

मुख्य जिला मार्ग

१,५०,००० मील

गौण जिला मार्ग

१,८०,००० मील

देहाती मार्ग

२,२५,००० मील

कुल योग

६,५७,००० मील

इस योजना में सारे देश में ६,५०,००० मील लंबी सड़कें पूर्ण करने का लक्ष्य रखा गया है और २० वर्षों में इस योजना पर ५,३०० करोड़ रूपया व्यय होने का अनुमान है। तब देश में प्रति १०० वर्ग मील क्षेत्र में ५२ मील लंबी सड़कें हो जाएँगी और इसमें ४० प्रतिशत लंबाई पक्की सड़कों की होगी। इनका विविध वर्गों में विभाजन इस प्रकार है :

देहाती मार्ग भी ऐसे स्तर के बनाए जाएँगे कि वे सब मौसमों में उपयोग के योग्य हों, अर्थात् ऊँचे बाँध हो और जल की निकासी का उचित प्रबंध हो। इन सब मार्गों पर सब बड़ी नदियों पर भी पुल बनाए जाएँगे।

तीसरी पंचवर्षीय योजना में सड़क निर्माण योजना बीस वर्षीय योजना के अनुसार रखी गई और मार्च, १९६६ ई. तक बनी सड़कों की लंबाई निम्नलिखित थी :

पक्की सड़कें कच्ची सड़कें कुल लंबाई किलोमीटर में

२,८५,००० ६,७८,००० ९,६३,०००

तीसरी योजना में सड़क निर्माण पर कुल ४५० करोड़ रुपया व्यय हुआ। चौथी योजना में ८५० करोड़ रुपया व्यय करने की योजना है। इतना विकास होने पर भी, भारत अन्य विकसित देशों से क्षेत्र और जनसंख्या के अनुपात के अनुसार बहुत पिछड़ा हुआ है, जैसा नीचे दी गई सारणी से स्पष्ट होता है :

विभिन्न देशों की सड़क की लंबाई, किलोमीटरों में, सन् १९६४ में

श्

१०० वर्ग

किलोमीटर में

एक लाख

जनसंख्या पर

देश

पक्की

सड़कें

कुल

सड़कें

पक्की

सड़कें

कुल

सड़कें

दक्षिण अफ्रीका संघ

७.४

२७.२

५३२

१,९३९

सीलोन (लंका)

२५.९

३१.१

१६०

१९३

भारत

८.०

२४.३

५५

१६७

पाकिस्तान

३.२

४.२

३२

४०

फिलिपीन

१४.३

१२.४

१४२

१८३

फ्रांस

१३६.१

२६१.४

१.५६६

२.९८५

पश्चिमी जर्मनी

१५२.१

१५२.१

६५६

६५६

यूनाइटेड किंगडम

(इंग्लैंड तथा स्कॉटलैंड)

१४०.०

१४०.०

६३५

६३५

कैनाडा

४.८

८.१

२,५१७

४,३०२

संयुक्त राज्य अमरीका

४६.३

९२.२

२,२८८

३,०७६

श्

सड़कों के निर्माण और देखभाल पर व्यय - सारे संसार में सड़कों के निर्माण और उनकी देखभाल पर सन् १९६० में १३,५०० करोड़ रुपया और सन् १९६५ में २०,००० करोड़ रुपया लगा। इसमें से युनाइटेड स्टेट्स ऑव अमरीका का भाग क्रमश: ८,४०० करोड़ और ९,९०० करोड़ था। पर भारत ने केवल क्रमश: ९१ और १५४ करोड़ रुपया व्यय किया, जबकि मोटर और पेट्रोल आदि पर लगे करों से ही उसकी आय क्रमश: १४५ और ३५२ करोड़ रुपया थी।

एशियाई महामार्ग - इकाफे (ECAFE), अर्थात् एशिया और सुदूरपूर्व के आर्थिक आयोग, ने उस पुराने महामार्ग का उद्धार और सुधार आरंभ किया है जिसपर ईसा के जन्म के बहुत पहले से एशिया के पश्चिमी किनारे के तुर्की साम्राज्य से पूर्वी किनारे वियतनाम तक ऊँटों और बैलों द्वारा सार्थवाह से व्यापार होता था। सन् १९६५ से इस मार्ग पर इकाफे ने, संबंधित राज्यों से, इस मार्ग के पुनरुद्धार का कार्य प्रारंभ कराया है। मानचित्र में (देखें फलक) इसको मोटी काली रेखा से दिखाया गया है। इस मार्ग की कुल लंबाई लगभग ५५,००० किलोमीटर होगी, जिसमें से ३३,००० किलोमीटर को प्राथमिकता दी गई है। भारत ने अपना भाग लगभग पूरा कर दिया है।

मोटर मार्ग - मोटरगाड़ियों को तीव्र गति से बिना किसी बाधा के चलने के लिए, पहले पहल जर्मनी में हिटलर ने इस शताब्दी के चौथे दशक में मोटर मार्ग का निर्माण कराया। इस मोटर मार्ग के आर पार जानेवाली सभी सड़कों, रेलों और नहरों के लिए सड़क के नीचे या ऊपर पुल बनाए गए, जिससे मोटर गाड़ी तीव्र गति से बिना किसी रुकावट और दुर्घटना के लगातार चल सके (देखें फलक, हि. वि. खंड ४.)। जर्मनी की देखादेखी अमरीका और यूरोप के अनेक देशों में ऐसे मोटर मार्ग बनाए जा रहे हैं। भारत में भी बंबई में पश्चिमी और पूर्वी मोटर मार्ग बनाए गए हैं, जो बंबई के पूर्वी और पश्चिमी उपनगरों को दूर रखते हुए, क्रमश: गुजरात और मध्य प्रदेश की ओर जाते हैं। कलकत्ता में दमदम हवाई अड्डे के लिए ऐसा ही मोटर मार्ग बना है और एक महामार्ग कलकत्ता से दुर्गांपुर को बनाया जा रहा है।

परिवहन - पश्चिमी देशों और भारत में भी जनता रेल की अपेक्षा सड़क परिवहन को अधिक पसंद करने लगी है। नीचे की तालिका से, पिछले १६ वर्षों के दिए आँकड़ों से, यह स्पष्ट होगा :

माल एवं यात्री यातायात, रेल और सड़क द्वारा, दस लाख के अंकों में

माल यातायात

यात्री यातायात

वर्ष

रेल

सड़क

रेल

सड़क

टन लदान

टन किमी.

टन किमी.

यात्री संख्या

यात्री किमी.

यात्री किमी.

१९५०-५१

९३.०

४४,११७

५,५००

१,२६४

६६,५१७

२३,१३३

१९५५-५६

११५.०

५९,५७६

८,९५०

१,२७५

६२,४००

६,१७७

१९६०-६१

१५९.२

८७,६८०

१७,३००

१,५९४

७७,६६५

४२,०००

१९६५-६६

२०५.०

१,५७,०००

३५,०००

२,०६०

९६,०००

८२,०००

मोटर गाड़ियों की संख्या में भी भारत अन्य विकसित देशों से बहुत पीछे है। ३१ मार्च, १९६५ को भारत में मोटर गाड़ियों की संख्या इस प्रकार थी :

मोटर साइकिल, १,७४,२३९; ऑटोरिक्शा, ११,९१०; जीप, ३९,६७६; प्राइवेट गाड़ी, ३,३०,०७९; टैक्सी, ३०,६८०; बसें, ६२,०१९ मालठेले, २,२०,३९३; अन्य ५२,७१७; कुल, ९,२७,७०३;

इस संख्या के अनुसार भारत में प्रति किलोमीटर एक ही मोटर गाड़ी होती है। इसकी तुलना में श्री लंका (सीलोन) में ७, युनाइटेड किंग्डम में २९, इटली में ४१, और अमरीका (युनाइटेड स्टेट्स) में १४९ हैं। इसलिए भारत में हर प्रकार की मोटरगाड़ियों का अधिक से अधिक बनाना अत्यंत आवश्यक है, जिससे वे माल और सवारियों की बढ़ती संख्या को ढो सकें।

सड़क दुर्घटनाएँ - सड़क विकास और सुधार तथा बढ़ती परिवहन की समस्या के साथ साथ बढ़ती हुई सड़क दुर्घटनाओं को दृष्टि से ओझल नहीं किया जा सकता। सड़क यातायात की दृष्टि के अनुसार ही मार्गों का उपयुक्त सुधार नहीं हुआ है। धीरे और तेज चलनेवाली गाड़ियाँ सड़क पर साथ साथ ही चलती हैं। सड़क दुर्घटनाओं के कारण प्राण खोनेवाले व्यक्तियों की संख्या १९५६ में २,७३४ से सन् १९६३ में ६,६५९ हो गई, और जख्मी होनेवालों की संख्या सन् १९५६ में २५,८८६ से सन् १९६३ में ४१,१२७ हो गई। विदेशों में किए हुए प्रयोगों से प्रमाणित हुआ है कि सड़कों की चौड़ाई बढ़ाने और उनके मोड़ों की गोलाइयों को सुधारने से दुर्घटनाओं में बहुत कमी हो जाता है। भारी यातायात के मार्गों पर धीरे और तेज चलनेवाली गाड़ियों के लिए पृथक् मार्ग बनाना भी अत्यंत आवश्यक है। सड़कों की सतह भी न फिसलनेवाली बननी चाहिए। यद्यपि भारत में मार्गों की लंबाई बढ़ रही है, तथापि ऊपर सुझाए सुधारों का करना भी आवश्यक है।

दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सड़क पर विविध संकेतपट लगाए जाते हैं। वे संकेतपट चार प्रकार के होते हैं : (१) चेतावनी संकेत, (२) निर्देशक संकेत, (३) नियामक संकेतों तथा (४) निर्माण और देखभाल संकेत। यदि यान चालक इन संकेतों का पूरी तरह से पालन करें, तो दुर्घटनाओं में बहुत कमी हो सकती है। अंतरराष्ट्रीय मार्ग सम्मेलन यह प्रयत्न कर रहा है कि इन संकेतों के अंतरराष्ट्रीय मानक स्थापित किए जाएँ, जिससे अंतरराष्ट्रीय यात्रियों को सुविधा रहे। भारत के लिए मानक संकेत इंडियन रोड कांग्रेस ने नियत कर दिए हैं जिनका सब प्रदेशों में व्यवहार होता है।

सं. ग्रं. - हिस्ट्री ऑव रोड डेवलपमेंट इन इंडिया, सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टिट्यूट दिल्ली; भारत में मार्गविकास का इतिहास, केंद्रीय मार्ग अनुसंधान संस्थान, दिल्ली; ब्रजमोहन लाल : भारत में राज्य-मार्ग-निर्माण की कथा, इंस्टिट्यूशन ऑव इंजीनियर्स (इंडिया) जरनल का हिंदी संस्करण, सितंबर १९५२; भारतीय मूल सड़क आँकड़े १९६४; डाक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल : पाणिनि कालीन भारतवर्ष; डा. मोतीचंद : सार्थवाह। (ब्रजमोहन लाल)