संसद् (पार्लमेंट) संसद् अंग्रेजी के पार्लमेंट शब्द का हिंदी रूपांतर है। पार्लमेंट का शाब्दिक अर्थ होता है बातचीत या वादविवाद अथवा वह संस्था या सभा जहाँ सार्वजनिक विषयों पर वादविवाद करके निर्णय किया जाए; परंतु लगभग ७०० वर्षों से यह शब्द एक विशेष अर्थ में रूढ़ हो गया है, अर्थात् प्रधानतया वह ब्रिटेन के विधानमंडल का नाम बन गया है। जिन देशों ने ब्रिटेन की शासनपद्धति का अनुसरण किया है, उनके विधानमंडलों को भी सामान्यत: पार्लमेंट या संसद् ही कहा जाता है। इस प्रकार फ्रांस, स्वीडन, नारवे आदि के विधानमंडलों को भी पार्लमेंट कहते हैं। भारतीय गंणतंत्र का संविधान भी अधिकांश में ब्रिटिश प्रणाली ही का है, अत: यहाँ के सर्वोच्च संघीय विधानमंडल को भी पार्लमेंट या संसद् की संज्ञा दी गई है। संसदीय शासन का मूलभूत लक्षण है कार्यपालिका का विधानमंडल के प्रति उत्तरदायित्व, तथा कार्यपालिका के प्रमुख अंग, अर्थात् मंत्रिमंडल में संसद् के सदस्यों ही का सम्मिलित होना। जिन देशों में कार्यपालिका विधानमंडल से स्वतंत्र और अलग होती है, जैसे संयुक्त राज्य अमरीका में, वहाँ के विधानमंडल को संसद् या पार्लमेंट न कहकर कांग्रेस, असेंबली, सभा या किसी ऐसे ही अन्य नाम से सूचित किया जाता है।
विकास - ब्रिटिश पार्लमेंट या संसद् के विकास का लगभग १००० वर्षों का शृंखलाबद्ध इतिहास है, परंतु भारतीय संसद् अपेक्षाकृत नवीन संस्था है। यों तो वैदिक काल में भी ''सभा'' और ''समिति'' नामक राजकीय संस्थाओं का उल्लेख मिलता है जो उस समय के राज्यों में आजकल की संसद् ही से मिलते जुलते कुछ काम करती थीं, और रामायण तथा महाभारतकाल में पौर और जानपद नामक सभाओं की चर्चा मिलती है जो डाक्टर काशीप्रसाद जायसवाल सरीखे विद्वानों के मतानुसार आजकल की संसदों की भाँति ही कार्य करती थीं, परंतु भारतीय इतिहास के प्राचीन युग के उपरांत इस प्रकार की सभाओं के विकास की शृंखला टूट सी जाती है। मध्यकालीन भारत में राज्य के स्तर पर इस प्रकार की सभाओं का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। फिर तो अंग्रेजी राज्य की स्थापना के बाद से ही भारत के केंद्रीय और प्रांतीय विधानमंडलों का विकास प्रारंभ होता है जिसकी परिणति स्वतंत्रताप्राप्ति के उपरांत वर्तमान भारतीय संसद् की स्थापना में हुई।
इस विकास के मुख्य मुख्य सोपानों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है। १७७३ ई. का रेगुलेटिंग ऐक्ट ब्रिटिश सरकर का ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय शासन का नियमन करने का प्रथम प्रयत्न था। इसके द्वारा बंगाल के गवर्नर को कंपनी के अधिकारगत भारतीय भूभागों का गवर्नर जनरल बना दिया गया और उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की एक समिति स्थापित की गई। गवर्नर जनरल और इस समिति को बंगाल प्रेसीडेंसी के लिए कानून बनाने का भी अधिकार दिया गया। पर इन कानूनों को 'रेगुलेशन' या नियम कहा जाता था। बंबई और मद्रास के गवर्नरों के साथ भी इसी प्रकार की समितियाँ जुड़ी थीं, और उन भूभागों के लिए कानून या रेगुलेशन उन्हीं के द्वारा बनाए जाते थे। ब्रिटिश कालीन भारत में इस प्रकार विधानमंडलों और विधेयन का प्रथम सूत्रपात हुआ। वास्तव में गवर्नर जनरल और उसकी काउंसिल अथवा गवर्नरों और उनकी काउंसिलों को विधानमंडल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनके मुख्य कार्य कार्यपालिका संबंधी था, परंतु उन्हें 'रेगुलेशन' अर्थात् कानून की ही भाँति के नियम बनाने का अधिकार था, और बाद के पृथक् विधानमंडल उन्ही से विकसित हुए। अत: वर्तमान भारतीय विधानमंडलों का बीज उन्हीं में निहित था, ऐसा मानना पड़ता है।
पिट के इंडिया ऐक्ट (१७८४) के द्वारा गवर्नर जनरल की काउंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई। १७९३ और १८१३ ई. के चार्टर ऐक्ट द्वारा इस व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, परंतु १८३३ ई. का चार्टर ऐक्ट भारतीय विधानमंडल के विकास में दो कारणों से महत्वपूर्ण है। प्रथम स्थान में, इस ऐक्ट के अंतर्गत गवर्नर जनरल की समिति में एक चतुर्थ सदस्य विधि सदस्य ('ला मेंबर') जोड़ दिया गया जो इसकी बैठकों में कानून बनाने के समय ही भाग लेता था। इस प्रकार कार्यपालिका से विधानमंडल की पृथकता का प्रारंभ हुआ। दूसरे, मद्रास और बंबई प्रांतों से कानून बनाने का अधिकार छीन लिया गया और गवर्नर जनरल तथा उसकी काउंसिल को समस्त ब्रिटिश भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार मिला। इस प्रकार एक अखिल भारतीय विधानमंडल की नींव पड़ी। १८५३ के चार्टर ऐक्ट द्वारा कानून के निर्माण के लिए गवर्नर जनरल की काउंसिल में छह और सदस्य जोड़ दिए गए, और इस प्रकार १२ सदस्यों की एक विधानपरिषद् के आकार प्रकार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इंडियन काउंसिल ऐक्ट १८६१ के द्वारा इस समिति में तीन महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। प्रथम तो १८५३ की १२ सदस्योंवाली विधानपरिषद् सरकारी कर्मचारियों से बनी होने पर भी ब्रिटिश पार्लमेंट की ही भाँति शासन का नियंत्रण करने का दावा करने लगी थी। अत: अब यह नियम बना दिया गया कि यह परिषद् विधिनिर्माण के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य न कर सके। दूसरे, १८५७ के 'सिपाही विद्रोह' से यह स्पष्ट हो गया था कि सरकारी अफसरों से बनी परिषद् से सरकार को जनता के विचारों तथा गतिविधि का पता नहीं चल सकता। अत: अब विधानपरिषद् में ६ से १२ तक और सदस्य जोड़ दिए जाने की व्यवस्था की गई जिनमें से आधे गैर सरकारी भारतीय भी हो सकते थे। इस प्रकार विधानपरिषद् में भारतीयों के प्रवेश का सूत्रपात हुआ। इसी काल में देश में राष्ट्रीय आंदोलन प्रारंभ हुआ और १८८५ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। उसने अपने प्रथम अधिवेशन में ही विधानपरिषदों के विस्तार और सुधार की माँग की। फलस्वरूप इंडियन काउंसिल ऐक्ट १८९२ बनाया गया। केंद्रीय विधानपरिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर १० से १६ तक कर दी गई जिनमें कम से कम १० का गैर सरकारी होना आवश्यक था। ये सदस्य कलकत्ता चेंबर ऑव कामर्स और प्रांतीय परिषदों के गैर सरकारी सदस्यों के परामर्श से गवर्नर जनरल द्वारा नामांकित किए जाते थे। यों एक प्रकार के अप्रत्यक्ष चुनाव का प्रारंभ हुआ। विधानपरिषदों की शक्तियों में भी वृद्धि हुई और उन्हें आयव्ययक पर बहस करने और सरकार से प्रश्न पूछने के अधिकार मिले।
विधानपरिषदों के विकास में अगला सोपान तथाकथित मिंटो मालें सुधान अथवा इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट १९०९ के रूप में आया। इसकी मुख्य बातें चार थीं। प्रथम, केंद्रीय विधानपरिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या १६ से बढ़ाकर ६० कर दी गई, परंतु बहुमत इसमें सरकारी सदस्यों का ही रखा गया। दूसरे, गैर सरकारी सदस्यों का नामांकन के बदले चुनाव होने लगा। यह चुनाव बहुत ही सीमित मताधिकार के आधार पर जमींदारों, व्यापारमंडलों, भारतीय व्यापारियों तथा नगरपालिकाओं और स्थानीय बोर्डो जैसी स्थानिक संस्थाओं द्वारा होता था। तीसरे, मुसलमानों को पृथक् सांप्रदायिक निर्वाचन का अधिकार दिया गया। चौथे, परिषदों की शक्तियों में वृद्धि की गई। अब उन्हें वार्षिक आयव्ययक पर न केवल बहस करने, किंतु प्रस्ताव पारित करने का भी अधिकार मिला। सार्वजनिक महत्व के अन्य प्रस्ताव भी प्रस्तुत किए जा सकते थे और प्रश्नों के अतिरिक्त पूरक प्रश्न भी पूछे जा सकते थे।
विधानमंडलों में अगला परिवर्तन गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐकट १९१९ के द्वारा हुआ। इसके द्वारा केंद्रीय विधानमंडल द्विसदनीय बना दिया गया जिनमें सदन का नाम विधान सभा (लेजिस्लेटिव असेंबली) और ऊपरी सदन का नाम राज्यपरिषद् (काउंसिल ऑव स्टेट) रखा गया। विधानसभा में १४४ और राज्यपरिषद् में ६० सदस्य थे, तथा दोनों सदनों में गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत रखा गया। मताधिकार मुख्यत: संपत्ति के आधार पर रखा गया, परंतु उसका विस्तार बहुत सीमित था। मुसलमानों का पृथक् सांप्रदायिक निर्वाचन बना रहा। केंद्रीय विधानमंडल की शक्तियों में भी वृद्धि हुई, परंतु फिर भी वे सीमित रहीं, विशेषकर वित्तीय मामलों में। आयव्ययक का लगभग ८० प्रतिशत विधान मंडल के अधिकारक्षेत्र से बाहर था और शेष में भी यदि विधानमंडल कटौती करे तो गवर्नर जनरल उसे पूर्ववत् पारित कर सकता था। विधिनिर्माण में दोनों सदनों के अधिकार बराबर थे, परंतु वित्तीय विधेयक विधानसभा ही में प्रस्तुत किए जा सकते थे। सरकार विधानमंडल के किसी भी सदन के प्रति उत्तरदायी नहीं थी।
गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट १९३५ के अंतर्गत केंद्रीय विधानमंडल को संघीय रूप देने की व्यवस्था की गई। दोनों सदनों के नाम वही रहे अर्थात् राज्यपरिषद् और विधानसभा सदन। राज्य सभा में २६० सदस्य रखे गए जिनमें १५६ ब्रिटिश भारत के और १०४ देशी राज्यों के सदस्य होते थे। विधानसभा में ३७५ सदस्यों की व्यवस्था थी जिनमें से २५० ब्रिटिश भारत और १२५ राज्यों से आने को थे। राज्यों के प्रतिनिधि निर्वाचित होने को थे, परतु संघयोजना कार्यान्वित न की जा सकी। अत: केंद्रीय विधानमंडल पूर्ववत् ही बना रहा। परंतु उसकी शक्तियों में अब यह अंतर हो गया कि उसका विधि-निर्माण का अधिकार संघीय और समवर्ती सूची में दिए हुए विषयों पर ही रहा और प्रांतीय सूची के विषय पूर्णतया प्रांतीय विधानमंडलों के अधिकार में आ गए।
केंद्रीय विधानमंडल की यही व्यवस्था स्वतंत्रताप्राप्ति तक बनी रही। १९४६ में कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार ३८९ सदस्यों की संविधानपरिषद् बनाई गई जिसमें २९६ प्रतिनिधि ब्रिटिश भारत के और ९३ देशी राज्यों के थे। भारतीय स्वातंत््रय अधिनियम १९४७ के बाद, पाकिस्तान की स्थापना के कारण इसमें पाकिस्तानी भागों के सदस्य अलग होकर लगभग ३०० सदस्य रह गए। संविधान परिषद् का मुख्य कार्य तो स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण था, परंतु नए संविधान के बनकर कार्यान्वित का निर्माण था, परंतु नए संविधान के बनकर कार्यान्वित होने तक वही केंद्रीय विधानमंडल का भी कार्य करती थी। नया संविधान २६ जनवरी, १९५० को लागू किया गया और तब से संविधान परिषद् के स्थान पर वर्तमान भारतीय संसद् विधानमंडल का कार्य करने लगी।
भारतीय संसद् की रचना और संगठन - भारतीय संसद् राष्ट्रपति और दो सदनों, राज्यसभा और लोकसभा, से मिलकर बनी है। राष्ट्रपति इनमें से किसी भी सदन का सदस्य नहीं है, तो भी वह संसद् का अविभाज्य अंग है और उसकी कार्यवाही के संबंध में कई महत्वपूर्ण कार्य करता है।
राज्यसभा
रचना - राज्यसभा संसद् का ऊपरी अथवा द्वितीय सदन है। उसमें अधिकतम २५० सदस्य हो सकते हैं जिनमें १२ को राष्ट्रपति नामांकित करता है और शेष का संघगत राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा एकल संक्रमणीय मतपद्धति के अनुसार चुनाव होता है। इस समय (१९६३) राज्यों से आए सदस्यों की संख्या २२३ है और वह विभिन्न राज्यों और केंद्रीय भागों में यों बटी है - आंध्रप्रदेश १८, असम ७, बिहार २२, गुजरात ११, केरल ९, मध्यप्रदेश १६, मद्रास १७, महाराष्ट्र १९, मैसूर १२, उड़ीसा १०, पंलाब ११, राजस्थान १०, उत्तर प्रदेश ३४, पश्चिमी बंगाल १६, जम्मू और कश्मीर ४, दिल्ली ३, हिमाचल प्रदेश २, मणिपुर १, त्रिपुरा १। राष्ट्रपति के द्वारा नामांकित १२, सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला, समाजसेवा आदि विषयों के विशेषज्ञ और अनुभवी व्यक्ति होते हैं। राज्यसभा के वर्तमान सदस्यों की कुल संख्या इस प्रकार २३५ है।
अवधि - राज्य सभा स्थायी सदन है। उसका विघटन नहीं होता, परंतु उसके १/३ सदस्य प्रति दूसरे वर्ष अवकाश ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार सदस्यों की पद अवधि साधारणतया ६ वर्षों की होती है।
सदस्यों की योग्यताएँ - सदस्यों की योग्यताएँ या अर्हताएँ हैं भारत का नागरिक होना, कम से कम ३० वर्ष की उम्र और संसद् द्वारा पारित कानून से नियत अन्य योग्यताएँ। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम १९५१ के अनुसार राज्यसभा के किसी सदस्य के लिए अपने राज्य के किसी संसदीय निर्वाचनक्षेत्र का सदस्य होना आवश्यक है। राज्यसभा के सदस्यों के लिए निम्नलिखित अयोग्यताएँ हैं - केंद्रीय अथवा राज्यों की सरकारों के किसी ऐसे लाभदायक पद पर होना, जिसके विषय में संसद् के कानून द्वारा छूट नहीं दी गई है, अथवा विकृत मस्तिष्क का होना, दिवालिया होना, विदेशी होना, या संसद् के किसी कानून के अंतर्गत अयोग्य होना।
अध्यक्ष और उपाध्यक्ष - भारत का उपराष्ट्रपति राज्सभा का पदेन अध्यक्ष होता है। एक उपाध्यक्ष भी होता है जिसे राज्यसभा अपने सदस्यों में सं निर्वाचित करती है। अध्यक्ष 'उपराष्ट्रपति' सदन का पारिभाषिक अर्थ में सदस्य नहीं है। किसी प्रश्न के दोनों पक्षों में समान मत होने पर ही वह ग्रंथिनिवारण के लिए अपना मत दे सकता है अन्यथा नहीं। सभा की बैठकों में अध्यक्ष के वही अधिकार हैं जो साधारणतया ऐसे अध्यक्षों के होते हैं जैसे सदस्यों को बोलने का अवसर देना, प्रक्रिया संबंधी प्रश्नों का निर्णय आदि।
गणपूर्ति - राज्यसभा की गणपूर्ति संख्या समस्त सदस्यों की संख्या का १/१० है।
विधायिनी शक्तियाँ - राज्य सभा की शक्तियाँ विधायिनी, वित्तीय, संवैधानिक, प्रशासकीय तथा विविध हैं। विधायिनी शक्तियाँ ये हैं कि राज्यसभा में वित्तीय विधेयक के अतिरिक्त कोई भी अन्य विधेयक प्रस्तुत किया जा सकता है, और बिना दोनों सदनों की सम्मति के कोई भी विधेयक कानून नहीं बन सकता। यदि दोनों सदनों में किसी विधेयक पर मतभेद हो तो राष्ट्रपति उनकी संयुक्त बैठक बुला सकता है, और उसमें जो कुछ बहुमत से निर्णय हो जाए वही दोनों सदनों का निर्णय माना जाता है। परंतु राज्यसभा के सदस्यों की संख्या लोकसभा की आधी है। अत: संयुक्त बैठकों में साधारणतया लोकसभा ही की विजय होती है।
वित्तीय शक्तियाँ - वित्तीय विधेयक केवल लोकसभा में प्रारंभ हो सकते हैं। वहाँ पारित होने पर वे राज्यसभा के पास केवल उसके सुझावों के लिए भेजे जाते हैं और ये सुझाव १४ दिन के अंदर ही देना आवश्यक है। ये सुझाव लोकसभा चाहे माने चाहे न माने। सुझाव न भी आए तो १४ दिन के उपरांत वित्तीय विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता है। इस प्रकार वित्तीय मामलों में राज्यसभा नितांत शक्तिहीन है।
संवैधानिक शक्तियाँ - संविधान के संशोधन में भी राज्यसभा का भाग होता है। संशोधन विधेयक का राज्यसभा के कुल सदस्यों के बहुमत और उपस्थित सदस्यों के २/३ बहुमत से पारित होना आवश्यक है। पर यहाँ भी दोनों सदनों में मतभेद होने पर संयुक्त बैठक में साधारण विधेयक की भाँति ही निर्णय होता है।
प्रशासकीय शक्तियाँ - प्रशासकीय विषयों में मंत्रिमंडल राज्यसभा के प्रति उत्तरदायी नहीं, परंतु कुछ मंत्री इस सदन में से भी नियुक्त होते हैं। अन्य मंत्री या उनके प्रतिनिधि भी समय समय पर इसके समक्ष उपस्थित होते हैं। राज्यसभा को उनसे प्रश्न पूछने या किसी भी बात का स्पष्टीकरण माँगने का अधिकार है।
विविध शक्तियाँ - इसकी विविध शक्तियों में तीन उल्लेखनीय हैं। प्रथम तो यह सभा राष्ट्रपति के निर्वाचन तथा उसके विरुद्ध महाभियोग की जाँच तथा निर्णय में लोकसभा के समान ही भाग लेती है। उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधिशों की पदच्युति में भी उसका वही भाग है। दूसरे, २/३ बहुमत से पारित प्रस्ताव द्वारा वह संसद् को राज्यसूची के किसी विषय पर विधिनिर्माण करने अथवा नई अखिल भारतीय सेवाएँ स्थापित करने का अधिकार दे सकती है। तीसरे राष्ट्रपति द्वारा की गई संकटकालीन घोषणाओं की स्वीकृति या उनकी अवधि बढ़ाने के लिए लोकसभा की ही भाँति राज्यसभा की भी सम्मति आवश्यक है। यदि लोकसभा का विघटन हो चुका हो, तो एकमात्र राज्यसभा ही की संमति से काम चल जाता है।
सारांश यह है कि राज्यसभा कोई शक्तिशाली द्वितीय सदन नहीं, परंतु कुछ ऊपर लिखे कार्य उसी के द्वारा संपन्न होते हैं। अत: उसे महत्वहीन नहीं कह सकते।
लोकसभा
रचना - लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या ५२० तक हो सकती है जिनमें अधिक से अधिक ५०० सदस्य राज्यों के निर्वाचित प्रतिनिधि हो सकते हैं और २० केंद्रीय भूभागों के निर्वाचित या नामांकित प्रतिनिधि। लोकसभा कके सदस्यों की वर्तमान संख्या (१९६३ में) ५०५ है जिनमें ४८८ राज्यों के प्रतिनिधि हैं, १५ केंद्रीय भूभागों के और दो ऐंग्लो इंडियन लोगों के जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किया गया है। राज्यों के प्रतिनिधियों की संख्या है : आंध्र प्रदेश ४३, असम १३ (जिनमें १ राष्ट्रपति द्वारा अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातियों के प्रतिनिधि के रूप में नामांकित है), बिहार ५३, गुजरात २२, जम्मू और कश्मीर ६, उड़ीसा २०, पंजाब २२, राजस्थान २२, उत्तरप्रदेश ८६ और पश्चिमी बंगाल ३६। केंद्रीय भूभागों के प्रतिनिधियों की संख्या इस प्रकार है : दिल्ली ५, हिमाचल प्रदेश ४, मणिपुर २, त्रिपुरा २, अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह १, लक्ष्य द्वीप, मिनीकाय और अमीनदिवी १।
निर्वाचनक्षेत्रों का परिसीमन - निर्वाचनक्षेत्रों का परिसीमन एक परिसीमन आयोग की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रपति के आदेश द्वारा होता है। प्रत्येक जनगणना के उपरांत निर्वाचनक्षेत्रों में आवश्यक परिवर्तन संशोधन किए जाते हैं। अधिकांश संसदीय निर्वाचनक्षेत्र एक सदस्यीय हैं, परंतु अनुसूचित जातियों आदि के लिए स्थान सुरक्षित करने के अभिप्राय से कुछ निर्वाचनक्षेत्र द्विसदस्यीय या बहुसदस्यीय भी रखे जाते हैं।
मताधिकार तथा सदस्यों की योग्यताएँ - लोकसभा के सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है। प्रत्येक नागरिक, जिसकी उम्र २१ वर्ष से कम न हो और किसी निर्वाचनक्षेत्र में कम से कम १८० दिन रह चुका हो, उस क्षेत्र के मतदाताओं की सूची में अपना पंजीयन करा सकता है परंतु उसका अयोग्यताओं से मुक्त होना आवश्यक है। विदेशी, पागल या अपराधी होना, या चुनाव में भ्रष्टाचार के लिए दंडित होना, अथवा निर्वाचनक्षेत्र में १८० दिन से कम का निवासी होना आदि मतदाताओं के लिए अयोग्यताएँ हैं। धर्म, जाति, या लिंग के आधार पर कोई मताधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
लोकसभा की सदस्यता के लिए भारत का नागरिक होना और कम से कम की उम्र का होना आवश्यक है; साथ ही उसे अयोग्यताओं से मुक्त होना चाहिए। अयोग्यताएँ ये हैं : (क) भारत या किसी राज्य सरकार के किसी लाभ के पद पर होना, यदि संसद् ने कानून द्वारा उस पद को अयोग्यता से मुक्त न कर दिया हो। मंत्री, उपमंत्री, संसदीय सचिव, राजकीय मंत्री आदि के पद इस प्रकार मुक्त हैं; (ख) पागल या दिवालिया होना; (ग) जनप्रतिनिधित्व नियम १९५० के अंतर्गत संसद् ने कुछ और भी अयोग्यताएँ निश्चित कर दी हैं। वे हैं - किसी न्यायालय द्वारा निर्वाचन संबंधी अपराध या भ्रष्टाचार के लिए दंडित होना, किसी अन्य अपराध के लिए दो वर्ष या अधिक समय के लिए कारावास का दंड पाना, सरकारी नौकरी से भ्रष्टाचार या देशद्रोह के लिए पदच्युत किया जाना, किसी सरकारी या अर्धसरकारी निगम का निदेशक या प्रबंधक होना, किसी सरकारी ठेके, लोककर्म या नौकरी में कोई स्वार्थ होना आदि। इन सब बातों के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति लोकसभा और राज्यसभा, अथवा लोकसभा और किसी राज्य के विधानमंडल का एक ही साथ सदस्य नहीं हो सकता।
निर्वाचन आयोग - संसद् और राज्यों के विधानमंडलों के निर्वाचन के संचालन के लिए एक निर्वाचन आयोग है जिसमें राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक मुख्य आयुक्त होता है और आवश्यक संख्या में अन्य आयुक्त। आयुक्तों की स्थिति सर्वथा स्वतंत्र बना दी गई है जिससे वे निष्पक्षता के साथ काम कर सकें। निर्वाचन आयोग के चार प्रकार के कार्य हैं अर्थात् १. संसद् और राज्यों के विधानमंडलों के चुनाव के लिए मतदाताओं की सूची तैयार करना, २. निर्वाचनों का संचालन और अधीक्षण, ३. निर्वाचन विवादों के निर्णय के लिए निर्वाचन अधिकरणों को नियुक्त करना, और ४. निर्वाचन के उपरांत किसी सदस्य की अयोग्यता का प्रश्न उठे तो उसका निर्णय करना।
निर्वाचन विवाद - जैसा ऊपर कहा गया है, लोकसभा की सदस्यता के निर्वाचन विवादों का निर्णय निर्वाचन आयोग द्वारा होता है। प्रत्येक विवाद के निर्णय के लिए एक पृथक् अधिकरण बनाया जाता है।
लोकसभा की अवधि - लोकसभा की अवधि साधारणतया ५ वर्षों की होती है, परंतु राष्ट्रपति उससे पहले भी किसी समय उसका विघटन कर सकता है। संकटकालीन घोषणाकाल में लोकसभा की अवधि एक एक वर्ष करके कितनी ही बार बढ़ाई जा सकती है, परंतु यह कार्य संसद् की विधि ही के द्वारा हो सकता है, और घोषणाकाल की समाप्ति के छह महीनों के अंदर ही विघटन होना आवश्यक है।
लोकसभा के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष आदि - लोकसभा के अध्यक्ष का चुनाव सदस्यों द्वारा होता है। प्रत्येक नई लोकसभा नए सिरे से अपना अध्यक्ष चुनती है। वह समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित अविश्वास प्रस्ताव द्वारा अध्यक्ष को हटा भी सकती है। उसे संसद् द्वारा नियत वेतन तथा भत्ता मिलता है। उपाध्यक्ष भी अध्यक्ष ही की भाँति चुना या हटाया जा सकता है। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष उसका आसन ग्रहण करता है। इनके अतिरिक्त, संसद् के प्रारंभ ही में अध्यक्ष, लोकसभा के सदस्यों में से छह सभापतियों को नामांकित कर देता है और यदि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनों अनुपस्थित हों तो इनमें से कोई अध्यक्षता करता है।
भारत में ब्रिटेन की भाँति के निर्दलीय अध्यक्ष की परंपरा नहीं स्थापित हो सकी है। यहाँ का लोककसभा का अध्यक्ष अभी तक बहुमत दल का ही सदस्य रहा है। अध्यक्ष निर्वाचित होने पर भी वह अपने दल की सदस्यता नहीं छोड़ता। निर्वाचन के अवसर पर उसका चुनाव भी निर्विरोध नहीं होता, जैसा कि ब्रिटेन में कामंस सभा के स्पीकर का होता है। तो भी, व्यवहार में, लोकसभा के अध्यक्ष साधारणतया निष्पक्ष रूप से ही काम करते रहे हैं। संविधान का झुकाव भी उसकी निष्पक्षता की ही ओर है, क्योंकि उसे ग्रंथि निवारण के लिए ही मतदान का अधिकार है, साधारण मत देने का नहीं। इसके अतिरिक्त उसका वेतन संचितनिधि पर आरोपित व्ययों से है जिसपर संसद् का मतदान द्वारा निर्णय नहीं लिया जाता है। इस सब का अभिप्राय यही है कि अध्यक्ष किसी प्रकार के विवाद में न पड़े।
अध्यक्ष की मुख्य शक्तियाँ हैं - सभा की बैठकों की अध्यक्षता करना, सदस्यों को बोलने का अवसर देना, प्रक्रिया संबंधी प्रश्नों का निर्णय करना, सदन में व्यवस्था तथा वादविवाद में प्रासंगिकता बनाए रखना, गड़बड़ी करनेवाले सदस्यों को दंड देना, प्रस्तुत प्रश्नों पर सदस्यों का मत लेना तथा परिणाम घोषित करना आदि। वह यह भी निर्णय करता है कि कोई विधेयक वित्तीय है या नहीं। संसद् की प्रक्रिया के नियम (१९५०) उसे अनेक प्रकार की अन्य शक्तियाँ भी देते हैं। सदन के कार्य का क्रम उसके परामर्श से निश्चित्त होता है। प्रश्नों और स्थगन प्रस्तावों को वह पूछे या प्रस्तुत किए जाने से रोक सकता है। राष्ट्रपति और लोकसभा के बीच पत्रव्यवहार आदि उसी के माध्यम से होता है।
गणपूर्ति - लोकसभा की बैठकों के लिए गणपूर्ति कुल सदस्यों की संख्या के दशमांश से होती है।
लोकसभा के कार्य - विधिनिर्माण के विषय में लोकसभा प्रबल सदन है और वित्तीय मामलों में तो एकमात्र उसी का अधिकार है। मंत्रिमंडल लोकसभा ही के प्रति उत्तरदायी है और औपचारिक दृष्टि से लोकसभा जब चाहे तभी अविश्वास प्रस्ताव द्वारा उसे अपदस्थ कर सकती है। अपनी इस तथा वित्तीय शक्ति द्वारा लोकसभा समस्त संघीय शासन का नियंत्रण कर सकती है। जनता के प्रत्यक्ष रीति से चुने प्रतिनिधियों से बनी होने के कारण वह राज्य तथा संसद् का सबसे शक्तिशाली अंग है। वास्तव में व्यावहारिक अर्थ में वही संसद् है।
संसद् की कार्यवाही
संसद् के सत्र - संसद के सत्र राष्ट्रपति द्वारा बुलाए जाते हैं, परंतु किन्हीं दो सत्रों के बीच में छह महीने से कम का ही अंतर होना चाहिए। साधारणतया वर्ष में संसद् के दो सत्र होते हैं, एक जनवरी से मार्च या अप्रैल तक और दूसरा सितंबर से नबंवर या दिसंबर तक आवश्यक हो तो जुलाई से अगस्त या सितंबर तक ग्रीष्म सत्र भी बुलाया जा सकता है।
स्थगन, विसर्जन और विघटन - प्रत्येक दिन की बैठक से दूसरे दिन की बैठक तक काम बंद करने को स्थगन कहते हैं और यह स्थगन अध्यक्ष करता है। सत्र के अंत के विराम को विसर्जन तथा पाँच वर्षों की अवधि पूरी होने या दूसरे कारण से लोकसभा को भंग कर देने को विघटन कहते हैं विघटन के उपरांत पुन: निर्वाचन होता है। विसर्जन और विघटन राष्ट्रपति के आदेश द्वारा होता है।
दैनिक कार्यक्रम - निर्वाचन के उपरांत नई संसद् के सदस्य सदस्यता की शपथ लेते और सदस्यसूची में अपने हस्ताक्षर करते हैं। तत्पश्चात् लोकसभा के अध्यक्ष का चुनाव होता है। फिर नियत तिथि तथा समय पर दोनों सदनों के सदस्य राष्ट्रपति के भाषण के लिए एकत्र होते हैं। इस भाषण में देश को स्थिति, विदेशी संबंध, शासन की नीति तथा वर्तमान सत्र में होनेवाले कार्यों का संक्षिप्त विवरण रहता है। इसके उपरांत दूसरे दिन राष्ट्रपति को धन्यवाद का प्रस्ताव प्रस्तुत होता है और पर्याप्त वादविवाद के उपरांत वह पारित होता है। यदि वह पारित न हो सके तो यह मंत्रिमंडल में अविश्वास का सूचक है।
प्रत्येक दिन की बैठक का पहला घंटा प्रश्न पूछने का है। शासन के प्रत्येक मंत्री या उपमंत्री से उसके विभाग के संबंध का कोई भी प्रश्न पूछा जा सकता है। उत्तर पर्याप्त न हो तो पूरक प्रश्न भी पूछे जाते हैं। प्रश्न के घंटे के बाद कोई भी सदस्य किसी आवश्यक सार्वजनिक महत्व के विषय पर वादविवाद के लिए कार्यस्थगन का प्रस्ताव उपस्थित कर सकता है। उसके उपरांत कार्यक्रम के अनुसार अन्य प्रस्ताव, विधेयक, वक्तव्य या अन्य कार्य प्रारंभ किए जाते हैं। सदनों का अधिकांश समय विधेयकों के पारित करने में ही लगता है, परंतु यदा कदा शासन के नीति संबंधी वक्तव्य या किसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर वादविवाद भी होते हैं।
अधिकांश कार्य सरकारी ही होता है जैसे मंत्रियों द्वारा प्रस्तुत विधेयक, प्रस्ताव, या अन्य कार्य, परंतु प्रति सत्र में कुछ दिन गैर सरकारी कार्य के लिए भी नियत कर दिए जाते हैं जिनमें साधारण सदस्यों द्वारा प्रस्तुत विधेयकों या प्रस्तावों पर विचार होता है।
संसद् के विशेषाधिकार तथा विमुक्तियाँ - संसद् में कही गई किसी बात के लिए किसी सदस्य पर अभियोग नहीं चलाया जा सकता। सत्रावधि में और उसके ४० दिन पूर्व और ४० दिन उपरांत तक किसी दीवानी मामले में सदस्य को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। सदस्यों को जूरी बनने या गवाही देने को बाध्य नहीं किया जा सकता।
सदस्यों के विशेषाधिकार के अतिरिक्त संसद् के भी विशेषाधिकार तथा विमुक्तियाँ हैं। जब तक संसद् अन्यथा निर्णय न करे, ये अधिकार वही है जो ब्रिटिश कामंस सभा के हैं। इनमें के मुख्य मुख्य अधिकार हैं प्रकाशन की स्वतंत्रता, अपनी बैठकों से बाहरी लोगों को निकाल बाहर करने का अधिकार, अपने आंतरिक मामलों एवं कार्यवाही के निर्णय करने का अधिकार और इन बातों से न्यायालयों के हस्तक्षेप से नियुक्ति (सिवाय अपराध के मामलों में), संसद् में दुर्व्यवहार करनेवालों को दंड देने का अधिकार और अपने विशेषाधिकारों या विमुक्तियों को भंग करनेवालों को उसी प्रकार दंड देने का अधिकार जैसे न्यायालय अपने अपमान के लिए दंड देते हैं। ये दंड सदस्यों को भी दिए जाते हैं और बाहरी लोगों को भी, और तीन प्रकार के हैं अर्थात् अध्यक्ष द्वारा डाँट फटकार अथवा बलपूर्वक सदन के समक्ष लाकर फिर डॉट फटकार, अथवा कैद। कैद के दंड को यदि पहले ही समाप्ति न हो चुकी हो, तो सत्रावसान पर समाप्ति हो जाती है।
संसदीय विशेषाधिकारों का अतिक्रमण हुआ है या नहीं, इसके निर्णय के लिए संसद् के १५ सदस्यों की एक विशेषाधिकार समिति है।
सदस्यों के वेतन और भत्ते - १९५४ के एक कानून द्वारा संसद् सदस्यों को ४०० रुपया मासिक वेतन, और २१ रुपया प्रतिदिन भत्ता मिलता है। भत्ता उन्हीं दिनों का मिलता है जब वे सरकारी कार्य के लिए दिल्ली में रहे। इसके अतिरिक्त उन्हें रेलयात्रा का प्रथम श्रेणी का पास भी मिलता है जिससे वे देश में कहीं भी यात्रा कर सकें।
संसद् और न्यायालय - न्यायालयों के विचाराधीन किसी विषय पर संसद् में वादविवाद नहीं किया जा सकता और न संसद् किसी न्यायाधीश के कार्य की आलोचना कर सकती है, सिवाय उस दशा के जब किसी न्यायाधीश को पदच्युत करने का प्रश्न उसके सामने हो। न्यायालय भी संसद् की किसी कार्यवाही को नियमविरुद्धता के आधार पर दोषयुक्त नहीं ठहरा सकते, और न अध्यक्ष आदि के किसी निर्णय पर आपत्ति कर सकते हैं।
संसद् की भाषा - पार्लमेंट की कार्यवाही की दो भाषाएँ हैं, हिंदी और अंग्रेजी। अंग्रेजी का प्रयोग प्रथम १५ वर्षों के लिए ही रखा गया था, परंतु संविधान के १९६३ के एक संशोधन द्वारा उसकी अवधि अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दी गई है। यदि कोई इन दोनों भाषाओं से अनभिज्ञ हो तो सदन के अध्यक्ष उसे अपनी मातृभाषा में बोलने की अनुमति दे सकते हैं। विधेयकों, कानूनों, नियमों आदि की भाषा भी हिंदी और अंग्रेजी ही है।
संसद् की समितियाँ - संसद् के सदन आकार में बड़े होने के कारण उनमें किसी विषय की विस्तृत छानबीन नहीं हो सकती। सभी सदस्य सभी विषयों का ज्ञान अथवा उनमें रुचि भी नहीं रखते। अत: कार्यसंचालन की सुविधा के लिए प्रत्येक संसद् में बहुत सी अपेक्षाकृत छोडी छोटी समितियाँ होती हैं। भारतीय संसद् की निम्नलिखित ११ समितियाँ हैं -
१. कार्यवाही परामर्श समिति - लोकसभा का अध्यक्ष इसका अध्यक्ष होता है। यह सदन के कार्यक्रम को निश्चित करने में परामर्श देती है। यह सदन के कार्यक्रम को निश्चित करने में परामर्श देती है। २. गैर सरकारी सदस्यों के विधेयकों और प्रस्ताववाली समिति - इसका कार्य गैर सरकारी विधेयकों और प्रस्तावों की विभिन्न दृष्टिकोणों से जाँच करके यह परामर्श देना है कि उनमें से कौन कौन सदन के सामने प्रस्तुत किए जाएँ। ३. विधेयकों पर प्रवर समितियाँ - विधेयक के प्रस्तुत होने के उपरांत विस्तृत जाँच के लिए वे बहुधा किसी प्रवर समिति के पास भेज दिए जाते हैं। प्रवर समिति का कार्य विधेयक की जाँच करके उचित संशोधनों के सुझावों के साथ प्रतिवेदन या रिपोर्ट देना है। ४. आवेदनपत्र समिति - इसका कार्य संसद् के पास आए आवेदनपत्रों पर विचार करके संसद् को परामर्श देना है। ५. अनुमान समिति - यह केवल लोकसभा की समिति है। इसका अध्यक्ष कोई गैर सरकारी सदस्य होता है। इसके कार्य चार प्रकार के है अर्थात् (क) मितव्ययिता, संगठन और शासनदक्षता के विषय में सुझाव देना, (ख) दक्षता और मितव्ययिता के लिए वर्तमान शासननीति का विकल्प अर्थात् उसी उद्देश्य की साधिका किसी अन्य नीति को बतलाना, (ग) धन का वितरण नीति के अनुसार उचित रीति से हुआ है या नही, इसकी जाँच करना, और (घ) यह सुझाव देना कि आय व्यय के अनुमान किस रूप में संसद् के समक्ष प्रस्तुत किए जाएँ। इन उद्देश्यों से यह समिति प्रतिवर्ष तीन या चार विभागों के आय-व्यय के संबंध में दिए अनुमनों की जाँच करके रिपोर्ट देती है। इसका कार्य आयव्ययक पारित होने के बाद भी चलता रहता है। ६. सार्वजनिक लेखा समिति - इसका कार्य सरकारी व्यय की जाँच कर यह बतलाना है कि प्रत्येक व्यय संसद् द्वारा पारित आयव्ययक के अनुसार उचित रूप से हुआ है या नहीं। यह समिति अपना कार्य नियंत्रक और मुख्य लेखापरीक्षक की सहायता से करती है और विभागीय कर्मचारियों को भी बुलाकर व्यय के औचित्य के विषय में पूछताछ करती है। इसकी रिपोर्ट लोकसभा के समक्ष जाती है और वहाँ उसपर वादविवाद होता है। ७. विशेषाधिकार समिति - यदि कभी संसद् के विशेषाधिकार के भंग होने का कोई प्रश्न उठे, तो उसकी जाँच करना इस समिति का काम है। ८. प्रदत्त विधेयन समिति - इस समिति का कार्य यह जाँच करना है कि संसद् के कानूनों द्वारा मंत्रियों या विभागीय कर्मचारियों को दिए हुए नियम, उपनियम आदि बनाने के अधिकार का उचित ढंग और उचित सीमा के भीतर प्रयोग हो रहा है या नहीं। कोई मंत्री इस समिति का सदस्य नहीं हो सकता। ९. शासकीय आश्वासन समिति - इस समिति का काम यह जाँच करते रहना है कि मंत्रियों द्वारा दिए हुए आश्वासन किस मात्रा में पूरे किए गए हैं। १०. सदस्यों की अनुपस्थिति विषयक समिति - यह संसद् सदस्यों के छुट्टी के लिए दिए हुए आवेदनपत्रों पर विचार करती है और यह भी निर्णय करती है कि यदि कोई सदस्य बिना छुट्टी लिए ६० या अधिक दिन अनुपस्थित रहे, तो उसे क्षमा कर दिया जाए या उसका स्थान रिक्त घोषित कर दिया जाए। ११. नियम समिति - इसका काम यह है कि कार्यवाही के नियमों में समय समय पर परिवर्तन या संशोधन की आवश्यकता हो तो उसका सुझाव देती रहे।
संसद् के कार्य
संसद् के कार्य मुख्यत: तीन प्रकार के हैं अर्थात् १. विधिनिर्माण, २. वित्तीय कार्य अर्थात् सरकारी व्यय राशियों की स्वीकृति तथा कर लगाना आदि, और ३. प्रश्नों, प्रस्तावों, वादविवाद, तथा अविश्वास प्रस्ताव आदि के द्वारा शासन का नियंत्रण।
विधिनिर्माण की प्रक्रिया तथा संसद् की विधिनिर्माण की शक्तियाँ - संसद् संघ और समवर्ती सूची के सभी विषयों पर विधिनिर्माण कर सकती है और कुछ परिस्थितियों में राज्यसूची के विषयों पर भी। संकटकालीन घोषणा के समय के अतिरिक्त संसद् का कोई भी विधान मूल अधिकारों के विरुद्ध न होना चाहिए और न संविधान की अन्य किसी धारा के विरुद्ध। अत: यह स्पष्ट है कि भारतीय संसद् ब्रिटिश पार्लमेंट की भाँति संप्रभुत्व संपन्न नहीं है। उसकी शक्तियाँ बृहत् होते हुए भी असीम नहीं है।
विधिनिर्माण प्रक्रिया के सात सोपान - विधिनिर्माण के लिए पहले उसका प्रारूप तेयार किया जाता है जिसे विधेयक कहते हैं। विधेयक की संसद् में प्रगति के सात सोपान है।
प्रथम सोपान है विधेयक का संसद् के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जाना और उसका प्रथम वाचन। वित्तीय और कुछ अन्य प्रकार के विधेयक बिना राष्ट्रपति की पूर्वानुमति के प्रस्तुत नहीं किए जा सकते और वित्तीय विधेयक केवल लोकसभा में प्रस्तुत होते हैं। विधेयक को प्रस्तुत करते समय सर्वप्रथम सदन की अनुमति माँगी जाती है, जो साधारणतया मिल जाती है। इसके उपरांत प्रस्तुतकर्ता विधेयक का शीर्षक पढ़ देता है और आवश्यक हो तो उसकी मुख्य बातों पर एक छोटा भाषण भी करता है। यही प्रथम वाचन कहलाता है और इसके बाद विधेयक भारत के गजट के प्रकाशित कर दिया जाता है।
दूसरा सोपान है द्वितीय वाचन। नियत तिथि को प्रस्तुतकर्ता प्रस्ताव करता है कि विधेयक को एक प्रवर समिति के पास भेज दिया जाए। इसके अतिरिक्त वह यह भी प्रस्ताव कर सकता है कि विधेयक पर तुरंत विचार किया जाए, अथवा उसे जनमत जानने के लिए प्रसारित किया जाए। परंतु अधिकांश विधेयक प्रवर समिति ही के पास भेजे जाते हैं। इस प्रस्ताव के उपरांत विधेयक के सिद्धांतों पर वादविवाद होता है और निर्णय किया जाता है कि विधेयक कहाँ भेजा जाए। यह द्वितीय वाचन है।
तीसरा है समिति सोपान। प्रवर समिति विधेयक पर विस्तृत विचार करके आवश्यक संशोधनों का सुझाव देते हुए एक प्रतिवेदन तैयार करके सदन के पास भेज देती है।
अगला और चौथा प्रतिवेदन सोपान है। अब सदन विधेयक पर प्रवर समिति के दिए हुए संशोधनों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक अनुच्छेद पर विचार करता है। कोई भी सदस्य किसी अनुच्छेद या खंड पर स्वयं अपने भी संशोधन प्रस्तुत कर सकता है। प्रत्येक अनुच्छेद और उसके संशोधनों पर वादविवाद के बाद उसपर मत लिए जाते हैं और बहुमत अनुकूल होने पर वह अनुच्छेद पारित हो जाता है। इसी प्रकार सभी अनुच्छेदों के पारित हो जाने पर प्रतिवेदन सोपान समाप्त हो जाता है।
पाँचवाँ सोपान है तृतीय वाचन। इसमें विधेयक पर, जैसा वह प्रतिवेदन सोपान से पारित होकर आया है, पुन: सदन का मत लिया जाता है। इस समय आवश्यक शाब्दिक संशोधन ही किए जा सकते हैं, कोई विषय संबंधी महत्वपूर्ण संशोधन नहीं। तृतीय वाचन में पारित हो जाने के उपरांत विधेयक उस सदन द्वारा पारित समझा जाता है और अध्यक्ष के इस आशय के प्रमाणपत्र के साथ दूसरे सदन में भेज दिया जाता है।
छठा सोपान है उसका द्वितीय सदन में पारित होना। वहाँ भी ऊपर लिखी प्रक्रिया दुहराई जाती है अर्थात् प्रथम, द्वितीय वाचन, समिति और प्रतिवेदन सोपान, एवं तृतीय वाचन आदि होते हैं। यदि वह उसी रूप में पारित हो गया तो ठीक है, अन्यथा जैसा ऊपर कहा जा चुका है, दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में पारित विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित माना जाता है।
सातवें और अंतिम सोपान में विधेयक राष्ट्रपति के पास उसकी स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और स्वीकृति मिल जाने पर विधि या कानून बन जाता है। यदि राष्ट्रपति चाहे तो स्वीकृति न देकर विधेयक को पुनर्विचार के लिए भेज दे। उस दशा में यदि पुनर्विचार करके दोनों सदन विधेयक को पून: पारित कर दें तो राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है।
वित्तीय विधेयक - ऊपर साधारण विधेयकों के पारित होने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। वित्तीय विधेयकों की प्रक्रिया इससे भिन्न होती है। वित्तीय विधेयक वे विधेयक हैं जिनमें कर लगाने, ऋण लेने, व्यय के लिए धन की स्वीकृत लेने, लेखापरीक्षण आदि की व्यवस्था हो। किसी विधेयक के वित्तीय होने या न होने के विषय में लोकसभा के अध्यक्ष का निर्णय ही अंतिम माना जाता है।
संसदीय वित्त व्यवस्था का मूल सिद्धांत यह है कि संसद् (मुख्यत: लोकसभा) की विधि द्वारा दी हुई सम्मति के बिना न तो एक पाई व्यय ही की जा सकती है ओर न एक पाई का भी कर लगाया या ऋण लिया जा सकता है। दूसरा सिद्धांत यह है कि राष्ट्रपति अर्थात् शासन ही की माँग पर संसद् व्यय स्वीकृत करती या कर लगा सकती है। गैर सरकारी सदस्य व्यय या करों में कमी का प्रस्ताव कर सकते हैं, परंतु नया या अधिक व्यय करने, अथवा नया या अधिक कर लगाने का प्रस्ताव नहीं कर सकते। तीसरा सिद्धांत यह है कि समस्त सरकारी धनराशि, चाहे वह करों से हो या ऋण या किसी अन्य सूत्रों से, भारत की संचितनिधि नामक कोष ही में जमा हो, और समस्त व्यय भी उसी से किए जाएँ। आकस्मिक व्ययों के लिए १५ करोड़ रुपयों की एक आकस्मिक निधि या फंड की भी व्यवस्था है। चौथा सिद्धांत यह है कि जनमा की प्रतिनिधि लोकसभा का ही वित्तीय मामलों में स्वामित्व है और इस कारण राज्यसभा के वित्तीय अधिकार नाममात्र के है और राष्ट्रपति भी वित्तीय विधेयकों पर स्वीकृति देने से इनकार नहीं कर सकता।
यों तो छोटे मोटे अनेक वित्तीय विधेयक लोकसभा के सामने आते रहते हैं, पर प्रति वर्ष का प्रधान वित्तीय विधेयक आयव्ययक या बजट होता है। आयव्ययक के दो भाग होते हैं जिसमें प्रथम भाग में वर्ष में होनेवाले सभी विभागों के व्ययों का अनुमान रहता है और दूसरे में आय का अनुमान। भारत में दो बजट प्रस्तुत किए जाते हैं एक रेलों का बजट और दूसरा सामान्य बजट। संविधान में 'बजट' शब्द के बदले 'वार्षिक वित्तीय विवरण' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
बजट को वित्तमंत्री लोकसभा में एक भाषण के साथ प्रस्तुत करता है। इस भाषण को बजट भाषण कहा जाता है। बजट संबंधी प्रक्रिया के पाँच सोपान हैं, अर्थात् १. लोकसभा में प्रस्तुत किया जाना, २. उसपर सामान्य वादविवाद, ३. विभिन्न माँगों पर मतदान, ४. माँगों को व्यय विधेयक में एकत्र करके उसे पारित करना, और, ५. राजस्व विधेयक का पारित होना।
सामान्य वादविवाद के लिए लगभग तीन दिन का समय दिया जाता है और इसमें बजट की मूल नीति पर बहस होती है। इसके उपरांत लोकसभा विभिन्न माँगों की पूर्ति के लिए धनराशियों का मतदान द्वारा निर्णय करती है। साधारणतया प्रत्येक मंत्रालय के व्यय का अनुमान एक अथवा कई माँगों के रूप में प्रस्तुत होता है। प्रतिरक्षा मंत्रालय का व्यय छह माँगों के रूप में रखा जाता है। सामान्य बजट में कुल १०९ माँगें और रेल्वे बजट में २३ माँगें होती हैं। लोकसभा को सामान्य बजट की कुल माँगों का निपटारा २६ दिन में करना पड़ता है। अरबों की धनराशि का व्यय इन्हीं २६ दिनों में स्वीकृत हो जाता है। यह स्पष्ट ही है कि इन परिस्थितियों में कोई विस्तृत या गहरा विचार नहीं हो सकता। जब कोई मंत्री अपने विभाग की किसी माँग को प्रस्तुत करता है तो साधारणतया कोई सदस्य एक रुपया या सौ रुपये की कटौती का प्रस्ताव करता है। इस प्रस्ताव पर जो वादविवाद होता है उसमें वह सदस्य और उसके समर्थक संबंधित विभागया उपविभाग के शासन की आलोचना करते हैं। मंत्री के स्पष्टीकरण या सुधार के आश्वासन के बाद साधारणतया कटौती प्रस्ताव हटा दिया जाता है, या न भी हटाया जाए तो मंत्रिमंडल का सदन में बहुमत होने के कारण वह गिर जाता है। वास्तव में कटौती प्रस्तावों का उद्देश्य मितव्ययिता न होकर शासन की त्रुटियों की आलोचना करना होता है। मितव्ययिता की दृष्टि से बजट पर पूरा और विस्तृत विचार उसके प्रस्तुत होने के पूर्व ही वित्त मंत्रालय कर लेता है।
व्यय के अनुमान का एक बड़ा भाग संचित निधि पर आरोपित व्ययों का है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति, लोकसभा के अध्यक्ष और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों और नियंत्रक और महालेखा परीक्षक आदि के वेतन, राष्ट्रीय ऋण के व्याज और चुकता करने के व्यय, कुछ प्रकार की अवकाशवृत्तियाँ और कुछ अन्य व्यय, संचित निधि पर आरोपित व्यय हैं। इनपर वादविवाद हो सकता है, पर इनको मतदान द्वारा पारित नहीं किया जाता।
जब सब माँगों का निपटारा हो चुकता है तो उन्हें एक व्यय विधेयक में एकत्र किया जाता है। और यह अन्य विधेयकों की भाँति ही लोकसभा में पारित किया जाता है। यह पारित होना अधिकतर औपचारिक मात्र है। इसमें संशोधन आदि नहीं किए जाते। पारित हो जाने के उपरांत लोकसभा का अध्यक्ष प्रमाणित करता है कि यह विधेयक वित्तीय विधेयक है और फिर वह राज्यसभा के पास भेज दिया जाता है।
राज्यसभा बजट या किसी भी वित्तीय विधेयक पर वादविवाद कर सकती और अपने सुझाव मात्र दे सकती है। लोकसभा उन्हें मानने को बाध्य नहीं है। सुझाव यदि १४ दिन में न आएँ, या आएँ तो उनपर लोकसभा के निर्णयों के साथ विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता है। वित्तीय विधेयक पर राष्ट्रपति को स्वीकृति देनी ही पड़ती है।
व्यय विधेयक के पारित हो जाने के बाद लोकसभा एक राजस्व विधेयक पारित करती है। यह बजट का आय संबंधी भाग है और इसमें अगले वर्ष लगाए जानेवाले करों का विवरण रहता है। प्रत्येक कर प्रति वर्ष नहीं लगाना पड़ता परंतु आयकर की भाँति के कई कर प्रतिवर्ष नए सिरे से लगाने पड़ते हैं। राजस्व विधेयक के पारित होने की भी वही प्रक्रिया है जो ऊपर व्यय विधेयक के विषय में बतला आए हैं।
अग्रिम अनुदान - नया वित्तीय वर्ष भारत में पहली अप्रैल को आरंभ हो जाता है। यह आवश्यक नहीं कि बजट उस समय तक पारित हो जाए, परंतु व्यय तो तुरंत ही प्रारंभ हो जाता है। पहली अप्रैल और बजट पारित होने की तिथि की बीच की अवधि में व्यय चलाने के लिए लोकसभा शासन को पर्याप्त धन अग्रिम अनुदान के रूप में दे देती है। बजट पारित हो जाने पर यह अग्रिम अनुदान के रूप में दे देती है। बजट पारित हो जाने पर यह अग्रिम अनुदान के रूप में दे देती है। बजट पारित हो जाने पर यह अग्रिम अनुदान स्वीकृत व्ययराशियों में से काट लिया जाता है। कभी कभी ऐसे व्यय भी आ पड़ते हैं जिनका ठीक अनुमान पहले से नहीं लगाया जा सकता, जैसे किसी आसन्न युद्ध का व्यय। इसके लिए लोकसभा एक धनराशि स्वीकृत कर देती है कि उसमें से आवश्यक व्यय होता रहे। इसे प्रत्ययानुदान कहते हैं। लोकसभा विशेष अनुदान भी किसी ऐसे कार्य के लिए दे सकती है जो सामान्य बजट के साधारणतया चालू व्ययों में नहीं आता। किसी भी सेवा या कार्य के लिए बजट में किया हुआ व्यय यदि अपर्याप्त सिद्ध हो तो उसके लिए लोकसभा से पूरक अनुदान माँगना पड़ता है।
भारत की आकस्मिक निधि - यदि ऊपर लिखी रीतियों से काम न चलकर कोई आकस्मिक व्यय की आवश्यकता आ पड़े तो उसे पूरा करने के लिए १५ करोड़ रुपयों की आकस्मिक निधि नाम का अलग कोष है जो राष्ट्रपति के हाथों में रखा गया है। इसमें से राष्ट्रपति आवश्यकता होने पर शासन को धन दे सकता है।
नियंत्रक और महालेखापरीक्षक - संचित निधि में से कोई व्यय संसद् के कानून के विरुद्ध न हो सके, इसपर दृष्टि रखने के लिए नियंत्रक और महालेखापरीक्षक नामक एक उच्च कर्मचारी होता है। इसकी नियुक्ति राष्ट्रपति करता है, परंतु संसद् के दोनों सदनों में पारित प्रस्ताव के बिना वह हटाया नहीं जा सकता। उसका वेतन संचित निधि पर आरोपित व्यय है और उसके कार्यकाल में घटाया नहीं जा सकता। ये व्यवस्थाएँ उसे शासन के दबाव से मुक्त रखने के लिए की गई हैं जिससे वह सर्वथा स्वतंत्र और निष्पक्ष रीति से काम कर सके। वास्तव में नियंत्रक या महालेखापरीक्षक वित्तीय मामलों में संसद् का जागरूक प्रहरी है। वह सरकारी हिसाब किताब की जाँच कराके यह देखता रहता है कि बजट के प्रतिकूल अथवा अनुचित रूप से कोई व्यय न हो। यदि हो तो वह अपने वार्षिक लेखापरीक्षण के प्रतिवेदन में उसे लिख देता है और सार्वजनिक लेखासमिति तथा संसद् शासन से उसका जबाव माँगते हैं कि ऐसा क्यों हुआ। अनुमान समिति शासनव्यय की विभिन्न माँगों में मितव्ययिता का सुझाव देती रहती है।
संसद् का शासन पर नियंत्रण
भारतीय संघ के शासन का संचालन केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा होता है जो अपने कार्यों के लिए लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। इस उत्तरदायित्व को कार्यान्वित करने का चरम और अंतिम साधन है अविश्वास प्रस्ताव। लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाने पर मंत्रिमंडल को या तो तुरंत पदत्याग करना पड़ता है अथवा राष्ट्रपति से लोकसभा का विघटन कराके नया निर्वाचन कराना पड़ता है। परंतु अविश्वास प्रस्ताव शासन के विरुद्ध लोकसभा का अंतिम अस्त्र है। राज्यसभा को उस अस्त्र के प्रयोग का अधिकार नहीं। अत: शासन पर दिन-प्रति-दिन के नियंत्रण के लिए संसद् के पास कुछ अन्य और लघुतर साधन भी है जो दोनों सदनों के लिए उपलब्ध है। ये साधन हैं प्रश्न, प्रस्ताव और वादविवाद।
प्रश्न - दोनों सदनों में दैनिक बैठक का पहला घंटा प्रश्न पूछने के लिए नियत होता है। विभिन्न मंत्रालयों से संबंध रखनेवाले प्रश्नों को पूछने के लिए सप्ताह के भिन्न भिन्न दिन नियत हैं। हर प्रश्न की पूर्वसूचना (साधारणतया दो दिन की) देनी पड़ती है। प्रश्न संबंधी कुछ नियम हैं और प्रश्न यदि उनके विरुद्ध हो, तो अध्यक्ष उसे पूछने की अनुमति नहीं देता। प्रश्नों के उत्तर संबंधित विभाग के कर्मचारियों द्वारा तैयार किए जाते हैं और मंत्री या उनके स्थानापन्न प्रतिनिधि उन उत्तरों को सदन में पढ़ देते हैं। यदि उत्तर स्पष्ट या संतोषजनक न हो तो प्रश्नकर्ता या कोई भी सदस्य पूरक प्रश्न भी पूछ सकता है। इनका उत्तर मंत्रियों को बिना पूर्व तैयारी के देना पड़ता है और इसमें उनकी प्रत्युत्पन्नमति की परीक्षा होती है।
मंत्री कभी कभी प्रश्नों का उत्तर देने से इस आधार पर इनकार भी करते हैं कि उत्तर देना सार्वजनिक हित के विरुद्ध होगा। प्रश्नों का प्रकट अभिप्राय सूचना प्राप्त करना होता है, परंतु वास्तविक अभिप्राय होता है शासन की पोल खोलना या उसकी भूलों या अत्याचारों को संसद् के सामने प्रकाश में लाना। शासन की कोई भी बात ऐसी नहीं जिसपर प्रश्न न पूछे जा सकें और उने पूछे जाने की संभावना मंत्रियों और शासन कर्मचारियों को सदैव सतर्क और भयभीत रखती है। इस प्रकार प्रश्नों के द्वारा शासन पर संसद् का महत्वपूर्ण अंकुश रहता है।
प्रस्ताव - प्रस्ताव प्रश्नों से दो बातों में भिन्न होते हैं। प्रथम तो, वे प्रश्नों की भाँति नित्य प्रति नहीं प्रस्तुत किए जाते। अनेक प्रस्तावों में से जिनको प्राथमिकता प्राप्त हो जाती है वे ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं। दूसरे, प्रस्तावों का उद्देश्य सूचना प्राप्त करने का न होकर शासन से कुछ करने की सिफारिश करना होता है। प्रस्तावों के लिए प्रश्नों की अपेक्षा अधिक लंबी पूर्वसूचना की आवश्यकता होती है। यदि शासन किसी प्रस्ताव का विरोध करे तो उसके पारित होने की संभावना नहीं रहती। पारित होने पर भी शासन उसके अनुसार कार्य करने को बाध्य नहीं।
सदन के स्थगन का प्रस्ताव अन्य प्रस्तावों से अलग ही होता है। यह तभी प्रस्तुत किया जाता है जब सार्वजनिक महत्व की कोई हाल में हुई घटना पर सदन या शासन का ध्यान आकर्षित करना हो। न्यायालयों के विचाराधीन किसी विषय पर ऐसे प्रस्ताव प्रस्तुत नहीं किए जा सकते। यदि स्थगन प्रस्ताव के पक्ष में ४० सदस्य खड़े हों, तो अध्यक्ष उसपर वादविवाद के लिए समय नियत कर देता है। यदि वादविवाद के उपरांत वह पारित हो जाए तो यह मंत्रिमंडल में अविश्वास का सूचक है। अत: मंत्रिमंडल उसे पारित न होने देने की चेष्टा करता है। या तो कुछ आश्वासन देकर वह प्रस्ताव को हटवा देता है, या वादविवाद ही में इतना समय लगा देता है कि उसपर मतदान का अवसर ही नहीं आ पाता। आवश्यक हो तो मंत्रिमंडल सदन में अपने बहुमत के बल से उसे गिरा भी दे सकता है।
वादविवाद - यों तो संसद् में प्रस्ताव, विधेयक आदि किसी न किसी विषय पर सदैव ही वादविवाद चला करता है, परंतु वादविवाद का एक विशिष्ट या पारिभाषिक अर्थ भी है और वह है किसी महत्वपूर्ण सरकारी नीति पर लंबी और सांगोपांग बहस। ऐसे वादविवादों का प्रबंध कभी मंत्रिमंडल स्वयं करता है और कभी विरोधी दल के अनुरोध पर। इस प्रकार के वादविवाद दोनों ही सदनों में होते हैं। इनका महत्व यह है कि वे शासन को अपनी नीतियों का स्पष्टीकरण करने तथा उसपर पुनर्विचार करने को बाध्य करते हैं। इससे विरोधी दल को भी सरकारी नीति की त्रुटियाँ बतलाने तथा अपने सुझाव देने का अवसर मिलता है।
संसद् और राजनीतिक दल
संसदीय शासनप्रणाली के संचालन के लिए राजनीतिक दल अनिवार्य माने जाते हैं। वे ही मतदाताओं को संगठित करते, उन्हें राजनीतिक शिक्षा देते, निर्वाचनों के लिए अभ्यर्थी खड़े करते, चुनाव लड़ते और बहुमत प्राप्त होने पर मंत्रिमंडल बनाकर शासन का संचालन करते, अन्यथा विरोध में रहकर शासन की आलोचना करते और उसे पथभ्रष्ट होने से रोकते हैं।
भारत में संगठित राजनीतिक दलों का प्रादुर्भाव १८८५ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से होता है, परंतु १९१९ के सुधारों तक मताधिकार सीमित एवं निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम होने के कारण कांग्रेस का कार्य अधिकतर संसदीय न होकर विघान मंडलों के बाहर होता था। संसदीय दलपद्धति का प्रारंभ वास्तव मे १९२४ से होता है जब कांग्रेस ने पं. मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में स्वराज्य दल का संगठन किया। उस समय स्वराज्य दल और अन्य सभी राष्ट्रवादी दल सम्मिलित रूप से विरोधी दल का ही काम करते थे, क्योंकि शासन ब्रिटिश कर्मचारियों के हाथ में था जो न तो किसी प्रकार से विधानमंडल के प्रति और न देश की जनता के प्रति ही उत्तरदायी थे। स्वतंत्रता के पूर्व कांग्रेस के अतिरिक्ति कुछ अन्य दल भी थे, जैसे मुस्लिम लीग जिसकी स्थापना १९०६ में हुई, हिंदू महासभा जिसकी स्थापना मुस्लिम लीग के विरोध में कुछ समय बाद हुई, और उदार दल जो पहले कांग्रेस का ही एक भाग था, परंतु महात्मा गाँधी के भारतीय राजनीति में आने के उपरांत १९२० में उससे अलग हो गया। इनके अतिरिक्त सांप्रदायिक अथवा आर्थिक स्वार्थो के आधार पर भी जमींदारों, व्यापारियों हरिजनों आदि के भी कई दल समय समय पर बनते बिगड़ते रहे, परंतु इनका कोई स्थायी महत्व न था।
स्वतंत्रता के बाद दलों की संख्या एवं विविधता में पर्याप्त वृद्धि हुई। १९६२ के चुनावों में निर्वाचन आयोग ने पाँच दलों को अखिल भारतीय दलों के रूप में मान्यता दी। ये हैं कांग्रेस, साम्यवादी दल, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और स्वतंत्र दल।
स्वतंत्रता के समय से ही अर्थात् गत १६ वर्षों से काँग्रेस का ही लोकसभा तथा राज्यसभा में बहूमत रहा। अन्य दल अपेक्षाकृत बहुत निर्बल रहे हैं। १९६२ के निर्वाचन के बाद लोकसभा के ४८९ निर्वाचित सदस्यों में कांग्रेस के ३५५, साम्यवादियों के २९, प्रजा सोशिलिस्ट दल के १२, जनसंघ के १४, और स्वतंत्र दल के १८ सदस्य थे। शेष ५९ निर्दलीय सदस्य थे।
संसद् और मंत्रिमंडल - संसदीय पद्धति में राष्ट्रपति बहुमत दल के नेता को ही प्रधान मंत्री नियुक्त करता है और प्रधान मंत्री के परामर्श से ही अन्य मंत्रियों की नियुक्ति होती है। प्रत्येक मंत्री एक या अधिक शासनविभागों का अध्यक्ष होता है और इस प्रकार मंत्रिमंडल ही समस्त शासन का संचालन करता है। प्रत्येक मंत्री संसद् के किसी न किसी सदन का सदस्य होता है। बिना सदस्य हुए कोई व्यक्ति छह महीने से अधिक मंत्रिपद पर नहीं रह सकता।
भारतीय संविधान के ७५वें अनुच्छेद के अनुसार मंत्रिमंडल सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। इसका अर्थ यह है कि लोकसभा जब चाहे अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा मंत्रिमंडल को पदच्युत कर सकती है, परंतु वस्तुस्थिति इसके सर्वथा विपरीत है। अपने प्रचंड बहुमत के कारण मंत्रिमंडल लोकसभा का नेतृत्व करता और उससे अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करवा लेता है। इसके कई कारण है। प्रथम स्थान में बहुमत दल के सदस्य दलीय अनुशासन के कारण मंत्रिमंडल का विरोध नहीं कर सकते और न किसी प्रश्न पर उसके विरुद्ध मत दे सकते हैं। यदि वे मंत्रिमंडल के विरुद्ध जाएँ तो उन्हें दल से निकाल दिया जाएगा और अगले चुनाव में उन्हें दलीय टिकट तथा समर्थन प्राप्त न होगा। आजकल वयस्क मताधिकार के कारण निर्वाचन इतना बड़ा और खर्चीला हो गया है कि जब तक कोई बहुत ही साधनसंपन्न न हो, स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़कर जीत नहीं सकता। इसलिए बहुमत दल के सदस्य मंत्रिमंडल की नीति से मतभेद रखते हुए भी उसके विरोध में मत नहीं दे पाते। दूसरे, मंत्रिमंडल राष्ट्रपति से अनुरोध करके लोकसभा का किसी भी समय विघटन करवा सकता है, विशेषकर उस दशा में जब उसके विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित हो गया हो। लोकसभा के सदस्य, चाहे वे सत्तारूढ़ दल के हों, चाहे विरोधी दल के, असमय विघटन से डरते हैं, क्योंकि पुन: निर्वचन की झंझटें उठानी पड़ती हैं और कोई नहीं जानता कि उसमें कौन चुना जा सके और कौन रह जाए। तीसरे, मंत्रिमंडल ही संसद् के समय का स्वामी है। सरकारी कार्य को सदैव प्राथमिकता मिलती है। गैर सरकारी कार्य का पहले तो समय ही मिलना कठिन रहता है और यदि मिल भी जाए तो बिना मंत्रिमंडल की सहायता के उसका सफल होना लगभग असंभव है। चौथे, आजकल संसद् के समने आनेवाले बहुतेरे मामले पेचीदा और कठिन होते हैं। मुद्रा, विनिमय, वित्त, सस्वास्थ्य, व्यापार, उद्योग आदि की समस्याएँ साधारण सदस्यों की समझ में बहुधा आती ही नहीं। मंत्री लाग विशेषज्ञ सरकारी कर्मचारियों की सहायता से उनका निर्णय करते हैं और ये निर्णय साधारण सदस्यों को ज्यों के त्यों मान लेने पड़ते हैं। उनमें मीनमेख निकालना उनके वश की बात नहीं।
जो हो, इसका यह अर्थ न समझना चाहिए कि संसद् नितांत अशक्त है। जब तब ऐसे प्रश्न आते हैं जब मंत्रिमंडल को लोकसभा की इच्छा के सामने झुकना पड़ता है। ब्रिटेन और भारत दोनों में इस प्रकार के उदाहरण मिलेंगे। भारत के कुछ उदाहरण है हिंदू कोड विधेयक में परिवर्तन, श्री कृष्ण मेनन का प्रतिरक्षा मंत्री के पद से हटाया जाना, अनिवार्य बचत योजना और स्वर्णनियंत्रण के नियमों में परिवर्तन आदि। यह बात उस समय होती है जब संसद् सदस्य किसी विषय में सबल लोकमत को व्यक्त कर रहे हों। आज मंत्रिमंडल पर वास्तविक अंकुश लोकमत का है और संसद् का गौण रूप से।
विरोधी दल - विरोधी दल संसदीय शासन का आवश्यक अंग माना जाता है। इसी कारण, ब्रिटेन में १९३७ ई. से विरोधी दल के नेता को प्रधान मंत्री ही की भाँति वेतन मिलता है, और जैसे शासन को सम्राज्ञी का शासन कहा जाता है उसी भाँति विरोधी दल भी सम्राज्ञी का ही विरोधी दल कहलाता है।
विरोधी दल का कार्य है सत्तारूढ़ दल के कार्यों की निरंतर आलोचना करके उसे सतर्क रखना तथा सत्ता का दुरुपयोग करने से रोकना और यदि सत्तारूढ़ दल अपने कार्यों के कारण जनता का विश्वास खो बैठे तो उसके स्थान पर दूसरा मंत्रिमंडल बनाना। विरोधी दल ही वह माध्यम है जिसके द्वारा जनता एक मंत्रिमंडल को निर्वाचन द्वारा अपदस्थ करके अपनी पसंद का दूसरा मंत्रिमंडल प्राप्त कर सकती है। विरोधी दल का न होना प्रजातंत्र के लिए खतरे की घंटी है।
परंतु विरोधी दल का कार्य शासन का अकारण विरोध करना नहीं है। वास्तव में राष्ट्रीय महत्व की बातों, जैसे देश की सुरक्षा में उसका शासनारूढ़ दल से मतैक्य होना आवश्यक है। उचित बातों में उसे सत्तारूढ़ दल से सहयोग करना उतना ही आवश्यक है जितना अनुचित बातों में विरोध। यदि विरोधी दल औचित्य अनौचित्य का बिना विचार किए सर्वदा ही करता रहे तो उसे अनुत्तरदायी समझा जाता है।
विरोधी दल के प्रभावशाली रूप से काम करने के लिए यह आवश्यक है कि वह अशक्त न हो और संसद् में उसकी संख्या सत्तारूढ़ दल की अपेक्षा बहुत कम न हो। यदि विरोधी दल बहुत अशक्त हो और उसके चुनावों में विजयी होकर सत्तारूढ़ होने की संभावना ही न रहे, तो वह अनुत्तरदायी होकर अनर्गल आलोचना और तोड़फोड़ में लग जाता है। भारत में विरोधी दलों की कुछ ऐसी ही दशा है। संसद् में कांग्रेस का ७० प्रतिशत से ऊपर बहुमत रहा है और विरोधी दल एक न होकर अनेक हैं और उनकी नीतियाँ इतनी भिन्न है कि वे कारगर रूप से संयुक्त मोर्चा नहीं बना सकते।
दलों का संसदीय संगठन - सत्तारूढ़ दल का प्रधान संसदीय संगठन मंत्रिमंडल होता है। उसका नेता प्रधान मंत्री होता है। प्रत्येक विरोधी दल का भी एक नेता होता है जा दल के कुछ अन्य मुख्य सदस्यों के साथ 'छाया मंत्रिमंडल' बनाता है। प्रत्येक दल के एक या एक से अधिक 'सचेतक' होते हैं, जिनका काम दल के नेताओं के आदेशों को सदस्यों तक पहुंचाना, उन्हें सदन में मतदान के समय उपस्थित रखना, और क्या करना या नहीं करना है, इसका निर्देश देते रहना है। सत्तारूढ़ कांग्रेस दल के मुख्य सचेतक को मंत्रिपद प्राप्त है, संसदीय मामलों का मंत्री। केंद्रीय कांग्रेस विधायक दल के प्रधान मंत्री के अतिरिक्त, जो लोकसभा का नेता होता है, दो उपनेता, दो सचिव, और एक कोषाध्यक्ष भी होते हैं।
संसद् से बाहर प्रत्येक दल का एक देशव्यापी संगठन भी होता है जो दल का प्रधान कार्य, धनसंचय, तथा चुनाव लड़ने आदि का कार्य भी करता है। (महादेव प्रसाद शर्मा)