संवैधानिक उपचार (Constitutional remedies) मनुष्य को विधिप्रदत्त अनेक अधिकार प्राप्त हैं। मनुष्य जाति, समय समय, उन अधिकारों के प्रवर्तन के लिये अनेक विधिक उपायों (legal rights) की उद्भावना करती आई है। हमारे देश में विधिक उपायों का स्थूल विभाजन दो श्रेणियों में किया जा सकता है � (१) संवैधिक (statutory) तथा (२) संवैधानिक (constitutional) उपचार। संवैधिक उपचार। (statutory remedies) संविधि द्वारा प्रदत्त होते हैं तथा संवैधानिक उपायों का उद्गमस्थल संविधान है। यहाँ हमारा विवेचन संवैधानिक उपायों तक सीमित है।
भारतीय संविधान का तृतीय खंड संविधान द्वारा शासित प्रत्येक व्यक्ति को कुछ अधिकार प्रदान करता है। राज्य को यह शक्ति प्राप्त है कि समाज के कल्याण के लिये वह (राज्य) इन अधिकारों के उपभोग का विनियमन (regulate) करे। इन संवैधानिक अधिकारों में से अनेक अधिकार अन्य लिखित संविधानवाले देशों द्वारा भी स्वीकृत हैं। पर हमारा संविधान इस विषय में अप्रतिम है क्योंकि इन अधिकारों के प्रवर्तन (enforcement) के उपाय भी उसमें स्पष्टतया निर्दिष्ट हैं। हमारे संविधान की धारा ३२ (१) यह उद्घोषण करती है कि संविधान के तृतीय खंड द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिये सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निर्धारित नियमानुसार याचिका प्रस्तुत की जा सकती है। इस प्रकार यह उपचार संविधान द्वारा प्रत्याभूत (guranted) है। उक्त धारा की ही उपधारा (२) सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार प्रदान करती है कि वह अधिकारों के प्रवर्तन के लिये बंदी प्रत्यक्षीकरण प्रादेश (writ of habeas corpus), परमादेश (mandamus), निषेधादेश (probibition), अधिकरपृच्छा प्रादेश (Quo warranto) तथा उत्प्रेधप्रादेश (certiorari) सहित किसी प्रकार का प्रादेश, निर्देश अथवा आदेश (writs, directions and orders) जारी कर सकता है। संविधान की धारा २२६ द्वारा राज्य के उच्च न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह निर्देश, आदेश तथा प्रादेश का निर्गम (issuing) केवल संविधानप्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिये ही नहीं, अपितु 'किसी अन्य उद्देश्य के लिये' भी कर सकता है।
इन उपचारों का उद्देश्य मनुष्य के विधिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये शीघ्रता तथा मितव्ययितापूर्ण उपाय प्रदान करना है जिससे से अधिकार विधायिका (legistature) तथा कार्यपालिका (executive) के हस्तक्षेप से मुक्त रहें।
संविधान की धारा ३२ तथा २२६ में उल्लिखित प्रादेशों तक ही सर्वोच्च न्यायलय तथा उच्च न्यायलय के उपचारात्मक अधिकार सीमित नहीं हैं, अपितु वे आवश्यकतानुसार कोई आदेश, निर्देश तथा प्रादेश भी जारी कर सकते हैं। इस प्रकार ये उपचारात्मक प्रतिबंध (remedial provisos) पर्याप्त व्यापक तथा असीमित हैं। ऐसा अवसर उपस्थित होने पर जबकि उक्त प्रादेश (writs) राज्य के अवैध कृत्य के विरुद्ध, व्यक्ति के अधिकारों के पुन: स्थापन (enforcement) में अक्षम हो, तब न्यायालय किसी अन्य आदेश प्रादेशादि की अवतारणा करने के लिये भी स्वतंत्र है। उपयुक्त मामलों में, यदि न्यायालय उचित समझे तो, वह घोषणाएँ करने के लिये भी स्वतंत्र है। सर्वोच्च न्यायालय भारतीय सीमा के अंतर्गत किसी भी अधिकारी के नाम आदेश, निर्देश अथवा प्रादेश जारी कर सकता है। उच्च न्यायालय के अधिकार उसकी क्षेत्रीय सीमा तक ही सीमित हैं।
उच्च न्यायालय द्वारा निर्गमित (issued) आदेश अथवा प्रादेश, संपिधानप्रदत्त मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये अथवा 'अन्य किसी उद्देश्य के लिये' जारी किए जाते हैं। 'अन्य किसी उद्देश्य के लिये' इस अंश की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इस शक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय 'अनय विधिक अधिकारों' के प्रवर्तन के लिये ही कर सकता है। अत: स्पष्ट है कि संवैधानिक तथा अन्य विधिक अधिकारों के प्रवर्तन के अतिरिक्त अन्य किसी अधिकार के प्रवर्तन के लिये उच्च न्यायालय संभवत: अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं करेगा। फलत: नैतिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता।
संविधान को धारा ३२ अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष, मूलभूत अधिकारों (fundamental rights) के उपभोग में बाधा प्रमाणित किए जाने के बाद न्यायालय अपनी शक्ति का प्रयोग करने के लिये बाध्य है, जबकि दूसरी ओर उच्च न्यायालय संविधान की धारा २२६ के अनुसार उसकी शक्ति उसके विवेक के अधीन है तथा कतिपय अवसरों पर उसका प्रयोग नहीं किया जाता। यदि कथित आपतितजन्य अवैध कार्य द्वारा याचिकादाता (petitioner) को कोई प्रत्यक्ष हानि न होती हो तो उच्च न्यायालय अपनी शक्ति का प्रयोग न करने के लिये भी स्वतंत्र है। इसी प्रकार यदि याचिकादाता के लिये अन्य उपयुक्त वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध है, यदि वह छलयुक्त भावना से (with unclean hands) न्यायालय में उपस्थित होता है अथवा यदि वह अनावश्यक प्रमाद का दोषी है, तो इन दशाओं में साधारणत: न्यायालय याचिकादाता को अनुतोष (relief) प्रदान करना अस्वीकार कर देगा। न्यायालय उन दशाओं में भी हस्तक्षेप करना अस्वीकार कर देगा जबकि वांछित हस्तक्षेप के परिणामहीन तथा अनावश्यक होने की संभावना हो। उन अवसरों की विस्तृत तालिका देना सर्वथा असंभव है जिन दशाओं में उच्च न्यायालय अपनी शक्ति का प्रयोग करना अस्वीकार कर सकता है। प्रत्येक मामले की परिस्थिति, प्रकृति उद्देश्य तथा शक्ति के विस्तारय को दृष्टिगत रखकर ही न्यायालय अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करेगा।
सामान्यत: मामले से प्रत्यक्ष रूप ते सम्बन्धित व्यक्ति ही सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालयों से उनकी शक्ति के प्रयोग की याचना कर सकता है किंतु यह नियम सर्वथा निरपवाद प्रतीत नहीं होता।
संविधानप्रदत्त मूलभूत अधिकारों के प्रवर्तन के लिये न्यायालय द्वारा जारी किए जानेवाले निर्देश, आदेश अथवा प्रादेश राज्य के नाम जारी किए जाते हैं। संविधान की धारा (१२) में राज्य की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि संसद तथा केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार एवं राज्य विधान मंडल, भारतीय सीमांतगत स्थित अथवा भारतीय शासन के अधीनस्थ कार्य करनेवाले सभी स्थानीय अथवा अन्य अधिकारीगण (इस व्याख्या के अनुसार) राज्य की परिधि में आते हैं। बंदी प्रत्यक्षीकरण (उच्च न्यायालय द्वारा) उस व्यक्ति विशेष के नाम भी जारी किया जा सकता है जिसकी अवैध हिरासत में कोई व्यक्ति बंदी हो। राष्ट्रपति तथा राज्यपाल के आधिकारिक कार्यों (official acts) के विरुद्ध कोई निर्देश, आदेश अथवा प्रादेश जारी नहीं किया जा सकता है जिसकी अवैध हिरासत में कोई व्यक्ति बंदी हो। राष्ट्रपति तथा राज्यपाल के आधिकारिक कार्यों (official acts) के विरुद्ध कोई निर्देश, आदेश अथवा प्रादेश जारी नहीं किया जा सकता। संविधान की धारा ३२९ (ब) के अनुसार भारतीय संसद् अथवा राज्य-विधान-मंडल के निर्वाचन से सम्बन्धित अधिकारी की चुनाव सम्बन्धी आज्ञाओं में उच्च न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इसी प्रकार संविधान की १२२ तथा २१२ वीं धाराओं के अनुसार संसद् तथा विधानमंडलों के विरुद्ध, उनकी आन्तरिक गतिविधियों के मार्ग में बाधा उपस्थित कर उनकी आंतरिक कार्यवाहियों की अनियमितता तथा वैधता अवैधता की जाँच के सम्बन्ध में कोई आदेश उच्च न्यायालय जारी नहीं कर सकता।
संविधान के अंतर्गत बनाए गए कानूनों द्वारा सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों की शक्तियों को सीमित नहीं किया जा सकता। न्यायालयों की शक्ति की समाप्ति अथवा उनमें न्यूनता केवल संविधान में संशोधन करने के पश्चात् ही की जा सकती है। अथवा संविधान की धारा ३५९ (१) के अनुसार राष्ट्रपति मूलभूत अधिकारों का न्यायालयों द्वारा प्रवर्तन स्थगित कर सकता है। सारांश यह कि युद्ध अथवा बाह्य आक्रमणकाल में या देश की अथवा देश के किसी भाग की सुरक्षा खतरे में डालनेवाले किसी गृहसंकट के समय मूलभूत अधिकारों का न्यायालय द्वारा प्रवर्तन स्थगित किया जा सकता है। पर ऐसे समय में भी उच्च न्यायालयों के अधिकार प्रवर्तन की शक्ति � मूलभूत अधिकारों के प्रवर्तन की शक्ति को छोड़कर � अक्षुण्ण रहती है।
इन प्रादेशों का नामकरण आंग्ल विधि पर आधारित है। उक्त प्रादेशों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है बंदी प्रत्यक्षीकरण प्रादेश (Writ of Habeas Corpus)। इसका वास्तविक अर्थ है 'बंदी को सशरीर न्यायालय में प्रस्तुत किया जाए'। यह प्रादेश किसी व्यक्तिविशेष अथवा कारागार की हिरासत में निरुद्ध (detained) बंदी के व्यक्तिस्वातंत््रय की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण अस्त्र है। इस प्रादेश द्वारा न्यायालय बंदी व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित किए जाने का आदेश देता है और उसके निरोध (detention) के कारणों की छानबीन करता है। यदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि बंदी का निरोध (detention) अवैध तथा अनौचित्यपूर्ण (unproper) है, तो उस दशा में उसे निर्मुक्त (free) कर दिया जाता है।
इस प्रादेश का उपयोग अंतरराष्ट्रीय प्रत्यर्पण (imternational extradition) की वैधता की जाँच, सशस्त्र सेना अथवा नौसेना द्वारा बंदी बनाए गए व्यक्तियों की निर्मुक्ति, विदेशियों के देश से निष्कासन या निर्वासन को रोकने, तथा कारागार अथवा व्यक्ति विशेष की हिरासत में अवैध रूप से निरुद्ध (detained) व्यक्ति की निर्मुक्ति के लिए होता है।
यह प्रादेश न्यायालय द्वारा आधिकारिक (as of right) रूप से जारी किया जाता है किंतु वह इसे प्रकृत्या जारी नहीं करता (not as of course)। प्रादेश के जारी किए जाने की स्वीकृति तभी प्रदान की जाती है जब कि प्रार्थी हलफनामे (affidevit) द्वारा संबलित याचिका में यह प्रदर्शित करे कि उसका निरोध अवैध तथा अनुचित है। याचिका स्वयं प्रार्थी द्वारा अथवा उससे संबंधित किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत की जा सकती है।
निरोध की वैधता की छानबीन बंदी के निरोधक (person detaining) द्वारा न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए जाने की तिथि को की जाती है।
परमादेश (mandamus) का अर्थ है 'हमारा आदेश है।' आंग्लदेश में परमादेश न्यायालय के क्वींस बेंच डिवीजन द्वारा किसी अधिकारी, निगम अथवा नीचे की अदालतों के नाम जारी किया जाता है। इसमें इस बात की स्पष्ट आज्ञा होती है कि 'प्रादेश में निर्दिष्ट कार्य का यथोचित संपादन किया जाए क्योंकि वही उसका (अधिकारी, निगम का न्यायालय का) नियतकर्म अथवा कर्तव्य है।'
प्रादेश में निर्दिष्ट आज्ञा किसी कार्य के लिए जाने अथवा उससे विरत होने से संबद्ध होती है। यह प्रादेश एक सामान्य वैधिक कर्तव्य के प्रवर्तन (enforcement) के लिए जारी किया जाता है, और इसका प्रयोग प्रसंविदाजन्य कर्तव्यों (contractual obligations) के प्रवर्तन के लिए नहीं होता। इसका प्रयोग वहाँ भी नहीं किया जाता जहाँ इष्ट कार्य किसी अधिकारी के विवेक (discretion) पर निर्भर होता है। किंतु उस अवस्था में जब विवेकाधिकार किसी कर्तव्य के साथ संलग्न हो, न्यायालय उसके संपादन के लिए आदेश दे सकता है। किंबहुना, यदि अधिकारीविशेष अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते समय किन्हीं अनावश्यक विषयों पर ध्यान देता है अथव आवश्यक वस्तुओं पर ध्यान नहीं देता तो इन दशाओं में न्यायालय उक्त अधिकारी के आदेश को रद्द करते हुए उस विषय पर पुनर्विचार करने का आदेश दे सकता है। परमादेश उस अवस्था में भी जारी किया जाता है जब कोई अधिकारी अपनी कार्यसीमा का अतिक्रमण अथवा अपने अधिकारों का दुरुपयोग करता है।
यह प्रादेश न तो प्रकृत्या जारी किया जाता है और न आधिकारिक रूप से ही (neither as of right nor as of course)। यह उसी अवस्था में जारी किया जाता है जब वैध अधिकारों से युक्त व्यक्ति हलफनामे द्वारा संबलित याचिका में इसके जारी किए जाने के लिए उपयुक्त कारण सिद्ध करे। यह प्रादेश उस अवस्था में जारी नहीं किया जाता जब याचिकादाता के समक्ष कोई अन्य उपयुक्त तथा वैकल्पिक मार्ग हो। याचिकादाता के लिए यह भी प्रदर्शित करना आवश्यक है कि याचिका प्रस्तुत करने के पूर्व उसने उपयुक्त अधिकारी के समक्ष अपना दावा प्रस्तुत कर अनुरोप के लिए प्रार्थना की थी तथा वह दावा या तो अस्वीकार कर दिया गया अथवा पर्याप्त समय व्यतीत हो जाने के बाद भी उसकी कोई सुनवाई नहीं हुई। इस नियम के पालन पर न्यायालय, उस अवस्था में विशेष बल नहीं देगा यदि वह समझे कि संबंधित अधिकारी से की गई अनुतोष (relief) की माँग का निष्फल होना अवश्यभावी है।
निषेधादेश (Prohileition) निम्नतर न्यायालयों, न्यायाधिकरणों अथवा न्यायिक कल्प अधिकारियों (quasi judicial authorities) के नाम जारी कर उन्हें अपनी अधिकारसीमा के उल्लंघन से विरत होने अथवा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (rules of natural justice) की अवहेलना न करने का आदेश दिया जाता है। उदाहरणस्वरूप, इस प्रादेश द्वारा किसी न्यायाधीश को उस वाद विशेष की सुनवाई से विरत रहने का आदेश दिया जा सकता है जिसमें न्यायाधीश का व्यक्तिगत स्वार्थ संलग्न हो। निषेधादेश उस अवस्था में भी जारी किया जा सकता है जब याचिकादाता के समक्ष वैकल्पिक मार्ग होते हुए भी न्यायाधीश द्वारा किया गया सीमोल्लंघन स्पष्ट हो।
अधिकारपृच्छा प्रादेश (writ of quo warrants), सार्वजनिक अधिकारी के पद पर आसीन व्यक्ति के नाम जारी कर उससे यह प्रश्न किया जाता है कि किन प्रमाणों के द्वारा वह उक्त पद पर आसीन रहने के अधिकार का समर्थन करता है, और किन प्रमाणों के आधार पर यह निश्चित किया जाए कि उस पद पर आसीन रहने का वास्तविक अधिकार उसे प्राप्त है।
यह प्रादेश प्रकृत्या जारी नहीं किया जाता। इसे जारी करने के पूर्व न्यायालय याचिकादाता के चरित्र और लक्ष्य की जाँच भी कर सकता है।
उत्प्रेषणादेश (Certiorari) निषेधादेश की ही भाँति एक अत्यंत प्राचीन प्रादेश है जिसके द्वारा आग्ल न्यायालय का 'क्वींस बेंच डिवीजन' न्यायाधिकरणों तथा कल्प न्यायधिकरणों की कार्यवाहियों को नियंत्रित किया करता था। इस विचित्र नामकरण का रहस्य यह है कि इसके लैटिन प्रारूप के लिए यह आवश्यक था कि अन्वेषणीय कार्यवाहियों को सम्राज्ञी के समक्ष प्रस्तुत किए जाने के पूर्व उनका 'क्वींस बेंच डिवीजन द्वारा' प्रमाणीकरण हो जाए।
उत्प्रेषणादेश तभी जारी किए जाते हैं जब कि न्यायाधिकरण, अथवा कल्प न्यायाधिकारण के आदेश उनकी शक्तिसीमा का अतिक्रमण करते हों, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की अवहेलना करते हों अथवा विधान के किसी ऐसे भ्रम से दूषित हों जो उनमें (आदेशों में) स्पष्ट दिखाई पड़ते हों (apparent on the face of the rceord)।
अद्यावधि किसी ऐसी निभ्रम परीक्षणविधि की उद्भावना नहीं की जा सकी है जिसके द्वारा हम कल्प न्यायिक कार्यवाही तथा प्रशासनिक कार्यवाही के बीच कोई विभाजक रेखा खींच सकें। केवल कल्प न्यायिक कार्यवाहियों से उत्पन्न आदेशों के विरुद्ध ही उल्प्रेषणादेश जारी किया जा सकता है, इसीलिए विभाजन की आवश्यकता उपस्थित हुई है। स्थल आधार पर कहा जा सकता है कि जब एक वर्गविशेष के व्यक्तियों को यह वैध शक्ति प्रदान की जाती है कि वे न्यायिक कर्तव्यों का पालन करते हुए व्यक्तिविशेष के अधिकारों का निर्णय करेंगे, उस दशा में उनको कार्यवाही कल्पन्यायिक होगी (quasi judicial)। इसके विपरीत यदि किसी अधिकारी के निर्णय का मूल्यांकन उसकी नीति के आधार पर किया जाता है, उस दशा में वह कार्यवाही सामान्यत: प्रशासनिक कही जाएगी किंतु संबंधित अधिकारी यदि साक्षी द्वारा संवलित प्रज्ञप्ति (proposal) तथा आपत्ति (objection) के ही आधार पर किसी निर्णय पर पहुँचता है उस दशा में यह आवश्यक है कि अधिकारी न्यायिक पद्धति का अवलंबन करे। इस प्रकार की कार्यवाही अंशत: कल्प-न्यायिक होगी, भले ही अंतिम निर्णय प्रशासनिक कहा जाए। कोई कार्यवाही कल्प-न्यायिक (quasi judicial) है या नहीं, इसका निर्णय अंततोगत्वा तीन बातों पर निर्भर होता है (१) वाद की प्रकृति, (२) संविधि, (३) अनुविध्यात्मक अधिकारी (statutary authority) के प्राधिकार तथा कार्यपद्धति एवं तत्सबंधी अधिकारी के प्रतिष्ठापन से संबद्ध अन्य नियम।
उत्प्रेषण प्रादेश, किसी अधिकारी द्वारा दिए गए उस आदेश को ध्वस्त (quash) करने के लिए जारी किया जाता है जब कि अधिकारी का बाद विषय में व्यक्तिगत स्वार्थ हो, अथवा बाद विषय के पक्ष या विपक्ष के प्रति उसके मस्तिष्क में पूर्वाग्रह विद्यमान हो। केवल न्याय का होना ही पर्याप्त नहीं है अपितु आवश्यक है कि यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो कि न्याय किया गया। जब कोई आदेश, किसी अधिकारी द्वारा, दूसरे पक्ष को सुनवाई का अवसर दिए बिना ही पारित कर दिया जाता है उस अवस्था में भी उत्प्रेषणादेश जारी किया जाता है।
उत्प्रेषण प्रादेश उस निर्णय को ध्वस्त करने के लिए भी जारी किया जाता है जिसका दोष उसमें प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। ''प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने'' (menifest on the face of the record) की कोई निश्चित व्याख्या संभव नहीं किंतु इतना तो निश्चित है कि इस कथन की आड़ में न्यायालय अपील न्यायालयवत् आचरण नहीं करेगा।
जो निर्णय साक्षी द्वारा संबलित नहीं है, वे भी इस आदेश द्वारा ध्वस्त किए जा सकते हैं।
जहाँ न्यायिक अथवा कल्पन्याधिक (Judicial or quasijudicial) अधिकारी, सीमाविषयक तथा किसी दोषपूर्ण धारणा पर अपनी सीमा का बलात् अतिक्रमण कर कोई निर्णय देता है, वहाँ न्यायालय तद्विषयक तथ्यों की उपस्थिति की छानबीन भी कर सकता है। अन्य साधारण दशाओं में न्यायालय साक्षी द्वारा संबलित निष्कर्षों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। प्रकारांतर से उल्लिखित साक्षी को न्यायालय उसी दशा में स्वीकृत करेगा जब यह सिद्ध होगा कि ध्वस्त निर्णय कपट द्वारा प्राप्त (obtained by fraud) था अथवा ऐसा करते हुए अधिकारसीमा का अतिक्रमण किया गया।
यह आदेश प्रकृत्वा नहीं किंतु आधिकारिक रूप से जारी किया जाता है और न्याय की पूर्ति के लिए (exdebito justitiae), कार्यसीमा का अतिक्रमण अथवा प्राकृतिक न्यायपद्धति की अवहेलना से पीड़ित पक्ष की याचिका पर जारी किया जाता है। (सुरेंद्र नाथ द्विवेदी)