संयुत्त निकाय सुत्तपिटक का तीसरा ग्रंथ है। २८८९ सुत्त इसके अंतर्गत हैं। यह पाँच वर्ग्गो (वर्गो) और ५६ संयुत्तों में विभक्त हैं। पाँच वग्गों में क्रमश: ११, १०, १३, १० और १२ संयुत्त संगृहीत है। इस निकाय में छोटे और बड़े सुत्तों का समावेश है। तदनुसार नामकरण की बात बताई गई है। लेकिन विषयवार सुत्तों के वर्गीकरण के अनुसार ग्रंथ के नामकरण की सार्थकता को समझना अधिक समीचीन है। अलग अलग संयुत्तों में सुत्तों के वर्गीकरण को मोटे रूप से चार सिद्धांतों के अनुसार समझ सकते हैं : १. धर्मपर्याय, २. भिन्न भिन्न योनियों के जीव, ३. श्रोता, और ४. उपदेशक।

१ पहला वर्गीकरण भगवान् की शिक्षाओं के सारभूत बोधिपक्षीय धर्मो के अनुसार हुआ है, यथा बोज्झग संयुत्त, बल संयुत्त इंद्रिय संयुत्त इत्यादि। २. दूसरा वर्गीकरण उनमें संगृहीत सुत्तों में निर्दिष्ट विभिन्न योनियों के जीवों के अनुसार हुआ है, यथा देवपुत्त संयुत्त, इत्यादि। ३. तीसरा वर्गीकरण संगृहीत उपदेशों के श्रोताओं के अनुसार हुआ है, यथा राहुल संयुक्त, वच्छगोत्त संयुत्त इत्यादि। ४. चौथा वर्गीकरण संगृहीत सुत्तों के उपदेशकों के अनुसार हुआ है, यथा सारिपुत्त संयुत्त, भिक्खुणी संयुत्त इत्यादि।

संयुत्त निकाय के अधिकांश सुत्त गद्य में हैं, देवता संयुत्त जैसे कतिपय संयुत्त पद्य ही में है और कुछ संयुत्त गद्य पद्य दोनों में है। एक एक संयुत्त में एक ही विषय संबंधी अनेक सुत्तों के समावेश के कारण इस निकाय में अन्य निकायों से भी अधिक पुनरुक्तियाँ है। इसमें देवता, गंधर्व, यक्ष इत्यादि मनुष्येतर जीवों का उल्लेख अधिक आया है।

अन्य निकायों की तरह इस निकाय के सुत्तों का भी महत्व धर्म और दर्शन संबंधी भगवान् की शिक्षाओं में है। लेकिन प्रकारांतर से उनमें तत्कालीन अन्य धर्माचायों के मतों और विचारों, सामाजिक अवस्था, राजनीति, भूगोल इत्यादि विषयों का भी उल्लेख है। यहाँ पर उन सब की चर्चा संभव नहीं। इसलिए प्रत्येक संयुत्त के मुख्य विषय का निर्देश मात्र करेंगे।

१.����� समाथक वग्ग,

१. देवता संयुत्त - देवताओं को दिए गए उपदेश। २. देवपुत्त संयुत्त - देवपुत्रों को दिए गए उपदेश। अट्ठकथा के अनुसार प्रकट देव देवता कहलाते हैं और अप्रकट देव देवपुत्र कहलाते हैं। ३. कोसल संयुत्त - प्रसनेजित् के विषय में है। इसमें प्रसेनजित् और अजातशत्रु के बीच हुई लड़ाई का भी उल्लेख है। ४. मार संयुत्त - भगवान् और शिष्यों की मारविजय इसका विषय है। बुद्धत्व के बाद भी मार भगवान् को विचलित करने के प्रयत्न में रहता है। ५. भिक्खुणी संयुत्त - वजिरा, उप्पलवग्गा आदि दस भिक्षुणियों की मारविजय और तत्संबंधी उनके उदान। ६. ब्रह्म संयुत्त - संहपति आदि ब्रह्मों को दिए गए उपदेश। देवदत्त के अनुयायी कोकालिय की दुर्गति का भी उल्लेख इसमें है। ७. ब्राह्मण संयुत्त - संहपति आदि ब्रह्मां को दिए गए उपदेश। देवदत्त के अनुयायी कोकिलिय की दुर्गति का भी उल्लेख इसमें है। ७. ब्राह्मण संयुत्त - ब्राह्मणों को दिए गए उपदेश। ८. वंगीस संयुत्त - प्रतिभावान् वंगीस द्वारा वासनाओं पर विजय। ९. वन संयुत्त - वनवासी भिक्षुओं को दिए गए उपदेश। १०. यक्ख संयुत्त - सूचिलोम आदि यक्षों को दिए गए उपदेश। तथागत की शिक्षाओं से वे भी विनीत बने। ११. सक्क संयुत्त - देवराज शक्र की सज्जनता का प्रशंसा। पुण्य के फलस्वरूप शक्रपद की प्राप्ति। देवासुर संग्राम की कथा।

२.����� निदानवग्ग

१. निदान सं. - प्रतीत्य समुत्पाद का विवरण। बारह कड़ियों के अनुसार अनुलोम क्रम से संसार की प्रवृत्ति और प्रतिलोम क्रम से उसकी निवृत्ति २. अभिसमय सं. - आर्यमार्ग की पहली अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को भी प्रमाद न करने की शिक्षा। ३. धातु सं. - अठारह धातुओं का विवरण। धातु शब्द का अन्य अर्थों में भी प्रयोग। ४. अनमतग्ग सं. - अनादि संसार का स्वभाव अनेक उपमाओं द्वारा। ५. कस्सप सं. - यथाप्राप्त भोजनादि प्रत्ययों से संतुष्ट महाकाश्यप के आदर्शमय जीवन की प्रशंसा। ६. लाभसक्कार सं. - लाभसत्कार के पीछे धार्मिक जीवन से पतन। ७. राहुल सं. - अपने पुत्र राहुल को बुद्ध द्वारा दिए गए उपदेश। ८. लक्खण सं. - प्रेतों की कथा। ९. ओपम्म सं. - इस संयुत्त के प्रत्येक सुत्त में उपमा है। इसमें विषयों के प्रलोभन में न पड़कर जागरूक रहने का उपदेश है। १०. भिक्खु सं. - सारिपुत्त, मोग्गल्लान आदि स्थविरों के उपदेश।

३.����� खंध वग्ग

१. खंध सं. - पाँच स्कंधों की अनित्यता, दु:खता और अनात्मता का विवेचन। इन तीन संस्कृत लक्षणों के बोध से ही वासनाओं का निरोध। २. राध सं. - राध के प्रश्नों को दिए गए भगवान् के उत्तर। ३. दिट्ठि सं. - मिथ्या मतवाद पाँच स्कंधों के अज्ञान पर ही आश्रित। ४. ओक्कंतिक सं. - आर्यभूमि में पहुँचने की प्रतिपदा। ५. इंद्रिय सं. - इंद्रियों के प्रादुर्भाव के साथ साथ दु:ख का भी प्रादुर्भाव। ६. किलेस सं. - चित्तमलों की उत्पत्ति का विवरण। ७. सारिपुत्त सं. - आनंद और सूचिमुखी परिव्राजिका को सारिपुत्र के उपदेश। ८. नाग सं. - चार प्रकार की नाग योनियाँ। १०. गंधव्व सं. - गंधर्व नामक देवताओं का वर्णन। १२. वच्छगोत्त सं. - पाँच स्कधों के स्वभाव को न जानने के कारण लोग मिथ्या मतवादों में उलझ जाते हैं। १३. झान सं. - ध्यानों का विवरण।

४.����� सलायतन वग्ग

१. सलायतन सं. - चक्षुरादि इंद्रियों की आसक्ति के निरोध से अहंभाव का निरोध। २. वेदना सं. - तीन प्रकार की वेदनाओं का विवरण। ३. मातुगाम सं. - स्त्रियों के विषय में, ४. जंबुखादक सं. - जंबु को सारिपुत्र का उपदेश। राग, द्वेष और मोह का निरोध ही निर्वाण। अष्टांगिक मार्ग से उसकी प्राप्ति। ५. सामंडक सं. - सामंडक परिव्राजक को सारिपुत्र का उपदेश। विषयावस्तु पूर्वसूत्र के समान। ६. मोग्गल्लान सं. - मौद्गल्यायन द्वारा रूप, अरूप और अनिमित्त समाधियों का विवरण। ७. चित्त सं. - चित्त गृहपति का उपदेश। तृष्णा ही बंधन है, न कि इंद्रिय या विषय। ८. गमणी सं. - भोगविलास और कायक्लेशों के दो अंतों को छोड़कर मध्यम मार्ग पर चलने का यह उपदेश कई ग्रामप्रमुखों को दिया गया था। ९. असंखत सं. - असंस्कृत निर्वाण की प्राप्ति का मार्ग। १०. अव्याकत सं. - अव्याकृत् अकथनीय वस्तुओ का निर्देश। (धर्मरत्न)