सम्मिश्र संख्याएँ उस संख्या को सम्मिश्र संख्या (Complex Number) कहते हैं जिसमें �(-१) आता है। म२+४=० जैसे समीकरणों का कोई वास्तविक मूल नहीं होता। किंतु यदि हम मान लें कि �(-१) भी कोई संख्या है तो ऐसे समीकरणों के भी मूल निकल आते हैं। इस प्रकार के समीकरणों के हल करने से ही सम्मिश्र संख्याओं का आरंभ होता है।
य२+१=० के मूल (-१) को काल्पनिक संख्या कहते है। इसे हम ए से निरूपित करेंगे। यदि हम यह मान लें कि काल्पनिक संख्याएँ भी साधारण संख्याओं के नियमों का पालन करती हैं, तो उपरिलिखित समीकरण का मूल �(-४) = �(४) �(-१) = २ए। समस्त काल्पनिक संख्याओं में ए निहित रहता है, जैसे
�(-९) = �(९) � �(-१) = ३�(-१) = ३ए;
�(-७) = �(७) �(-१) = ए �(७);
�(-४८) �=�(१६�३) �(-१) = ४ए�(३)।
सम्मिश्र सख्याएँ - सबसे सार्धिक संख्याएँ क+ए ख के रूप की होती हैं, जिसमें क, ख दोनों वास्तविक संख्याएँ हैं और ए=�(-१)
उदाहरणत: २+३ए तथा ७+�(६३) ए सम्मिश्र संख्याएँ हैं।
स्पष्ट है कि प्रत्येक सम्मिश्र संख्या के दो भाग होते हैं : वास्तविक भाग और काल्पनिक भाग। ३+�(-४) में ३ वास्तविक भाग और �(-४), अर्थात् २ए, काल्पनिक भाग है।
�(-६३) + �(८४) = �(-१) � �९�७ + �(२१�४)
=३ए�७ + २�(२१)।
इस संख्या में २�(२१) वास्तविक भाग है और ३ए�७ काल्पनिक भाग।
दो वास्तविक संख्याओं में से हम यह बता सकते हैं कि कौन सी बड़ी है और कौन सी छोटी। दो काल्पनिक संख्याओं की तुलना भी की जा सकती है। यदि हम तुलना की कसौटी यह मानें कि वह संख्या बड़ी है जिसमें ए का गुणांक बड़ा है, तो स्पष्ट है कि �(-२४) और �(-३६) में दूसरी संख्या बड़ी है। किंतु किसी वास्तविक संख्या की किसी काल्पनिक संख्या से तुलना नहीं की जा सकती। �(२४) और �(-३६) में से हम नहीं बता सकते कि कौन सी संख्या बड़ी है और कौन सी छोटी, क्योंकि ये दोनों संख्याएँ भिन्न भिन्न प्रकार की हैं, ठीक उसी तरह जैसे यदि कोई यह पूछे कि ''एक पुस्तक और १०० रुपयों में से कौन बड़ा है और कौन छोटा'' तो हम कोई उत्तर नहीं दे सकते।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या दो सम्मिश्र संख्याओं की तुलना की जा सकती है। हमें आरंभ में ही यह नियम बनाना पड़ेगा कि दो सम्मिश्र संख्याएँ क+ए ख और ग+ए ध तभी बराबर मानी जाएँगी जब क=ग और ख=घ।
यदि हम यह याद रखें कि य२=१ तो सम्मिश्र संख्याओं के जोड़ और गुणा के नियम सरलता से निकल सकते हैं। उदाहरणत:
(क+ए ख) + (ग+ए घ) = क+ग+ए (ख+घ);
(क+ए ख) (ग+ए घ) = क ग-ख घ+ए (क घ+ख ग)।
इन नियमों की सहायता से हम यह सरलता से सिद्ध कर सकते हैं कि सम्मिश्र संख्याएँ बीजगणित के निम्नलिखित आधारभूत नियमों का पालन करती हैं :
साहचर्य नियम (Association law)
अ + (इ+उ) = (अ+इ) + उ,
अ (इउ) = (अइ) उ।
क्रमविनिमय नियम (Commutation law)
अ + इ = इ + अ,
अइ = इअ
वितरण नियम (Distribution law)
अ (इ+उ) = अइ+अउ।
उदाहरण के लिए हम क्रमविनिमय नियम का दूसरा खंड लेते हैं। मान लीजिए
अ = क+ए ख, इ = ग+ए ध।
तो अ इ = (क+ए ख) (ग+ए घ)
= (क ग-ख घ) +ए (क घ+ख ग),
और इ अ = (ग+ए घ) (क+ए ख)
= (ग क-घ ख) +ए (ग ख+घ क)
= (क ग-ख घ) +ए (क घ+ख ग) = अ इ।
हम किसी भी वास्तविक संख्या ट को इस प्रकार लिख सकते हैं : ट+०ए। इस प्रकार, समस्त वास्तविक संख्याएँ सम्मिश्र संख्याओं का ही विशिष्ट रूप बन जाती हैं; केवल उनके काल्पनिक भाग शून्य हैं।
ज्यामितीय निरूपण - वास्तविक संख्याओं को हम ऋतु रेखा के बिंदुओं से निरूपित करते हैं। सम्मिश्र संख्याओं को निरूपित करने के लिए दो अक्ष लिए जाते हैं, जो परस्पर लंब रहते हैं। संख्या के वास्तविक भाग को य अक्ष से और काल्पनिक भाग को र अक्ष से निरूपित करते हैं। इस पद्धति में, संख्या ३+४ए को उस बिंदु से निरूपित करेंगे जिसका भुज ३ हो और कोटि ४। अत: बिंदु (३, ४) संख्या ३+४ ए का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार के चित्र को गणितज्ञ आर्गैड के नाम पर आर्गैड रेखा कहते हैं। यह सरलता से सिद्ध किया जा सकता है कि इस प्रकार के ज्यामितीय निरूपण से सम्मिश्र संख्याओं द्वारा बीजगणित के आधारभूत नियमों के पालन में कोई असंगति नहीं आती।
सं.ग्रं. - डी.ई. स्मिथ : ए सोर्स बुक इन मैथेमैटिक्स (१९२९); एल.ई. डिक्सन : एलिमेंटरी थ्योरी ऑव इक्वेशन्स; जे.एल. कूलिज : दि ज्योमेट्री ऑव दि कॉम्प्लेक्स डोमेन। (ब्रज मोहन)