संपत्ति के प्रति अपराध बल प्रयोग आदि के विरुद्ध व्यक्तिगत अधिकारों के संरक्षण हेतु संपत्ति विषयक अपराधों को वैधानिक स्वरूप प्रदान किया गया है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद ३१, व्यक्तिगत संपत्ति विषयक स्वत्व या आधिपत्य (Possession) को संरक्षण प्रदान करता है। समाजवादी राज्य में, जहाँ व्यक्तिगत संपत्ति न्यूनतम होती है, इस प्रकार के अपराध निश्चयात्मक रूप से कम होते हैं। सामान्यत: संपत्ति सबंधी अपराध संपत्ति के तीन स्वरूपों के अनुसार तीन श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं, यथा - (अ) चल संपत्ति के प्रति किए गए अपराध, (ब) अचल सपत्ति के प्रति किए गए अपराध, (स) अमूर्त संपत्ति के प्रति किए गए अपराध। इनका क्रमश: विश्लेषण नीचे किया जा रहा है :

(अ) चल संपत्ति के प्रति अपराध (धारा ३७८-४४०)।

वह वस्तु जिसके प्रति कोई व्यक्ति आधिपत्य (Possession), उपभोग अथवा निर्वर्तन का अधिकार रखता है, संपत्ति कहलाती है। भूमि अथवा भूमि से संलग्न कोई वस्तु या किसी ऐसी वस्तु से स्थायी तौर पर बँधी हुई वस्तु को, जो भूमि से संलग्न हो, छोड़कर सभी प्रकार की मूर्त संपत्ति चल संपत्ति के अंतर्गत आती है। खड़ी फसल या वृक्ष भी (भूमि से अलग होने पर) चल संपत्ति हो जाते हैं।

चल संपत्ति से संबंधित आठ प्रकार के अपराध किए जा सकते हैं यथा - (१) चोरी, (२) अपकर्षण, (३) लूट और डकैती, (४) संपत्ति का आपराधिक दुर्विनियोग, (५) आपराधिक विश्वासघात, (६) चोरी की संपत्ति प्राप्त कर रख लेना, (७) धोखा या छल, (८) आरिष्ट या शरारत।

१.����� चोरी - यह विशिष्ट अपराध अति प्राचीन काल से विश्वविदित है। चोरी के चार प्रमुख तत्व है (धारा ३७८) प्रथम, चल संपत्ति प्राप्त करने के लिए बेईमानी का इरादा। संपत्ति का कुछ आर्थिक मूल्य भी होना चाहिए। द्वितीय, इसका अन्य के आधिपत्य या अधिकार से प्राप्त किया जाना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में संपत्ति किसी व्यक्ति के आधिपत्य में होनी चाहिए। त्यक्त वस्तु या पशु चोरी का विषय नहीं हो सकता, जैसे श्राद्ध हेतु छोड़ा गया साँड़। आधिपत्य का स्वत्व दीवनी और फौजदारी दोनों कानूनों से संरक्षित है। यह उसी व्यक्ति में निहित होता है जिसका भौतिक या वास्तविक आधिपत्य होता है, चाहे वह कब्जा वैध हो अथवा अवैध। तृतीय, व्यक्ति के आधिपत्य से किसी वस्तु का लिया जाना उसकी इच्छा के बिना हो, जैसे किसी व्यक्ति द्वारा रेलवे स्टेशन के संरक्षणगृह से बिना शुल्क दिए हुए अपना ही सामान ले जाना चोरी के अंतर्गत आएगा। चतुर्थ, प्राप्त करने की इच्छा से वस्तु का हटाया या ले जाया जाना आवश्यक है। निम्न दशाओं में चोरी का अपराध गुरुतर हो जाता है - (१) उस स्थान के संदर्भ में, जहाँ यह किया जाता है, यथा भवन, तंबू या जलयान में की हुई चोरी (धारा ३८०)। (२) उस व्यक्ति के संदर्भ में जो चोरी का कृत्य करता है, यथा लिपिक या सेवक द्वारा की गई चोरी (धारा ३८१)। (३) चोरी करने के संदर्भ में खतरनाक तैयारी, यथा जान लेने या ऐसे ही अन्य कार्य की तैयारी (धारा ३८२)। इस प्रकार के सभी दृष्टांतों में सामान्य से अधिक सजा दी जाती है।

२.����� अपकर्षण या एक्सटार्शन, (धारा ३८३-३८९) - अपकर्षण का अपराध आंग्ल विधि में अज्ञात है, जहाँ इसका स्थान चोरी और लूट के अपराधों के मध्य में है। जब कोई संपत्ति ऐसे व्यक्ति की स्वीकृति से प्राप्त की जाती है जो अपने लिए या अपने किसी प्रिय व्यक्ति के लिए खतरा या क्षति पहुँचने की आशंका से स्वीकृति देता है, तो यह कार्य संपत्ति का अपकर्षण या बलपूर्वक ग्रहण (एक्सटार्शन) कहलाता है। इस अपराध के लिए दो तत्व आवश्यक हैं : (१) साशय अभित्रास तथा २-संपत्ति परिदान के लिए उत्प्रेरित करना। भय लौकिक अथवा पारलौकिक क्षति का हो सकता है तथा वह एक व्यक्ति को पहुँचाई जा सकती है और संपत्ति किसी दूसरे द्वारा ग्रहण की जा सकती है। तीन दशाओं में अपकर्षण का प्रयास भी, यद्यपि वह सफल न हुआ हो, दंडनीय है। वे निम्नलिखित हैं -

(१) जहाँ पर व्यक्ति को क्षति पहुँचाने का भय तो दिखाया जाता है परंतु जहाँ संपत्ति के उत्प्रेरित परिदान का प्रयास असफल होता है (धारा ३८५) या (२) जहाँ पर अपकर्षण हेतु किसी व्यक्ति को मृत्यु या गंभीर चोट के भय में डाला जाता है, या (३) जहाँ पर अपराध का आरोप लगाने का भय दिखाया जाता है। (धारा ३८९)। दी हुई धमकी की गंभीरता के अनुसार अपकर्षण का अपराध गुरुतर हो जाता है ; यथा - (१) मृत्यु या गंभीर चोट पहुँचाने की धमकी (धारा ३८६) या (२) अपराध का अभियोग लगाने की धमकी (धारा ३८८)। दोनों अवस्थाओं में अधिक सजा दी जाती है।

३.����� लूट और डकैती (धारा ३९०-४०२) - लूट, चोरी और हिंसा या बलप्रयोग का सम्मिश्रण या तात्कालिक हिंसा का भय या अपकर्षण व तात्कालिक हिंसा का भय है। जहाँ पाँच या पाँच से अधिक व्यक्ति लूट करते है वहाँ ऐसा अपराध डकैती कहलाता है। वास्तव में ये दोनों अपराध चोरी या अपकर्षण के ही गुरुतर स्वरूप हैं। अतएव इस अपराध में चोरी या अपकर्षण (एक्सटाशंन) के सभी तत्व अवश्य विद्यमान होने चाहिए। लूट के अधिकतर अपराध आंशिक रूप से चोरी या अपकर्षण पर आघृत हो सकते हैं। उदाहरणार्थ हरि विमला को पकड़कर जान लेने की धमकी देता है, जब तक वह अपनी संपत्ति दे नहीं देती ओर अपने आभूषण उतारना प्रारंभ नहीं कर देती। विमला हरि से प्राणदान की भिक्षा माँगती है और खुद आभूषण दे देती है। ध्यान देने योग्य बातें ये हैं कि चोरी पर आघृत लूट चल सपत्ति से ही सबंध रखती है। और क्षति का भय अथवा वास्तविक क्षति चोरी के पूर्व या चोरी किए जान के समय या चोरी की संपत्ति ले जाते समय पहुँचाई जा सकती है। इस प्रकार यदि चोरी की संपत्ति बीच में छोड़ दी जाती है और चोर पकड़े जाने से बचने के लिए चोट पहुँचाता हे तो वह चोरी और चोट पहुँचाने का ही अपराधी है, लूट का नहीं।

लूट का अपराध गुरुतर हो जाता है यदि (१) लूट करते समय चोट पहुँचाई जाती है (धारा ३९४); या (२) घातक हथियार से जान लेता या गंभीर चोट पहुँचाता है अथवा पहुँचाने की चेष्टा करता है, या (३) जब यह अपराध घातक हथियार से लैस होकर किया जाता है (धारा ३९८)। डकैती का अपराध बहुत ही गंभर या संगीन है। इसलिए यह सभी अवस्थाओं में दंडनीय होता है। प्रथम, मंत्रणा की स्थिति में अर्थात् जब कुछ व्यक्ति डकैती करने के उद्देश्य से एकत्र होते हैं (धारा ४०२); द्वितीय, तैयारी की अवस्था में अर्थात् जब व्यक्ति डकैती करने के लिए तैयारी करते हैं (धारा ३९९); तृतीय, डकैती करने का प्रयास करते हैं (धारा ३९८) डकैती का अपराध गुरुतर हो जाता है जब डकैती में शामिल किसी एक के द्वारा हत्या कर दी जाती है (धारा ३९६) या जब यह घातक हथियारों से सज्जित होकर की जाती है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि डकैती में शामिल हर व्यक्ति का दायित्व उसके दूसरे साथियों के समान ही होता है। इस प्रकार यदि डाकुओं के गिरोह के किसी सदस्य द्वारा लूटी हुई संपत्ति ले जाते समय किसी की हत्या की जाती है तो अन्य सभी सदस्य समान रूप से उसके लिए उत्तरदायी होंगे।

४.����� संपत्ति का आपराधिक दुरुपयोग (धारा ४०३-४०४) - यह एक प्रकार का नया अपराध है जो चोरी के अपराध का ही एक अंग है। भारतीय विधि में यह अपराध चोरी और नागरिक अपकृति (सिविल रांग) के बीच का समझा जाता है। इसमें संपत्ति का आदान पहले ईमानदानी से होता है लेकिन उसका अपने पास रखे रहना या उसे अपने उपयोग में ले आना बेईमानी का कार्य होता है। इस प्रकार यदि अ, ब को भेजा गया पार्सल भूल से प्राप्त कर लेता है, तो इस तरह की प्राप्ति आपराधिक नहीं है किंतु यदि तदुपरांत यह पोस्ट आफिस को या उस व्यक्ति को वापस नहीं कर दिया जाता जिसे नाम वह भेजा गया था बल्कि वह स्वयं रख लेता है, तब यह आपराधिक दुर्विनियोग है। खोई हुई वस्तु को प्राप्त करनेवाले को उसके स्वामी का पता लगाने के लिए युक्तियुक्त साधनों का उपयोग करना चाहिए और उसका सूचना देनी चाहिए तथा संपत्ति को उचित समय तक अपने पास रखना चाहिए जिससे उसका स्वामी उसकी माँग कर सके। यदि वह सद्भावनापूर्वक यह विश्वास करता है कि वह वास्तविक स्वामी का पता नहीं लगा सकता और उसे अपने उपयोग में ले आता है तो वह उत्तरदायी नहीं है। आपराधिक दुर्विनियोग के साधारण मामले धारा ४०३ के अंतर्गत दंडनीय हैं। यदि मृतक की संपत्ति का दुर्विनियोग उसका लिपिक या सेवक करता है तो अपराध गुरुतर हो जाता है और अपराधी कठिन दंड पाता है (धारा ४०४)।

५.����� आपराधिक न्यास भंग या अमानत में खयानत (धारा ४०१-४०९) - अमानत में खयानत एक व्यक्ति द्वारा उस संपत्ति का आपराधिक दुर्विनियोग है जो उसकी अमानत में रखी गई हो। इस अपराध के दो प्रमुख तत्व हैं - (१) संपत्ति पर न्यास या अधिष्ठान तथा (२) इसका बेईमानीपूर्वक भंग या दुर्विनियोग, परिवर्तन या उपयोग। 'न्यास' (ट्रस्ट) शब्द का प्रयोग यहाँ विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में नहीं किया गया है बल्कि उस व्यापक करार के अर्थ में किया गया है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति संपत्ति का व्यवहार करने के लिए अधिकृत किया गया हो। इस प्रकार, यदि एक सुनार जिसे सोना कंकण बनाने के लिए दिया गया है उसमें ताँबा मिला देता है तो वह इस अपराध का अपराधी है।

बेईमानी का मंशा इस अपराध का सार है और यही मुख्य तत्व है। अनुचित लाभ अथवा अनुचित क्षति वास्तव में हुई हो, यह महत्वहीन है। अमानत में खयानत का अपराध गुरुतर हो जाता है, यदि वह जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा किया जाता है, जैसे (१) सामान ले जानेवाले व्यक्ति (वाहक), गोदाम के रक्षक तथा इसी प्रकार के अन्य व्यक्ति द्वारा (धारा ४०७), या (२) लिपिक अथवा लोकसेवक द्वारा (धारा ४०८), या साहूकार व्यापारी अभिकर्ता (दलाल) या न्यायवादी द्वारा (धारा ४०९)। इस प्रकार के सभी मामलों में अधिक सजा दी जाती है।

६.����� चोरी की संपत्ति प्राप्त करना (धारा ४१०-४१४) - वह संपत्ति जिसका स्वामित्व चोरी, अपकर्षण, लूट, आपराधिक दुर्विनियोग और आपराधिक न्यासभंग से प्राप्त किया जाता है, चोरी की संपत्ति मानी जाती है। लेकिन आंग्ल विधि के विपरीत छल से प्राप्त संपत्ति, चोरी की संपत्ति नहीं है। यह अनावश्यक है कि हस्तांतरण या आपराधिक न्यासभंग या आपराधिक दुर्विनियोग भारत में हुआ है अथवा भारत के बाहर। लेकिन यदि इस प्रकार की संपत्ति बाद में इसके वास्तविक स्वामी के पास पहुँच जाती है तो वह चोरी की संपत्ति नहीं रह जाती। यदि वह रूपांतरित हो जाती है या उसमें परिवर्तन हो जाता है जिससे उसका वास्तविक स्वरूप समाप्त हो गया हो तो वह भी चोरी की संपत्ति नहीं रह जाती। बेईमानी से चोरी की संपत्ति प्राप्त करना ही अपराध है तथा दंडनीय है (धारा ४११)।

इस अपराध के तीन तत्व हैं : (१) कि संपत्ति चोरी की संपत्ति हो, (२) कि यह बेईमानी (बदनीयती) से प्राप्त की हुई हो या रख ली गई हुई हो और (३) यह कि अपराधी यह जानता था और उसके लिए यह विश्वास करने का कारण हो कि यह चोरी की संपत्ति है।

यह अपराध गुरुतर हो जाता है यदि (१) डकैती द्वारा प्राप्त संपत्ति लेकर रख ली गई हो (धारा ४१२), या (२) यदि वह व्यक्ति आदतन चोरी की संपत्ति का व्यापार करता हो (धारा ४२३), या (३) यदि वह संपत्ति को छिपाने, बेचने आदि या लेकर भागने में स्वेच्छा से सहायक रहा हो (धारा ४१४)।

७.����� छल (धारा ४१४-४२०) - आज के व्यापारिक तथा औद्योगिक संसार में यह अपराध चोरी की तुलना में अधिक प्रचलित हो गया है। इसके तत्व ये हैं - (१) किसी व्यक्ति को धोखा दिया गया हो (२) जिसके परिणामस्वरूप क्षतिग्रस्त व्यक्ति उत्प्रेरित किया जाता है कि वह अपनी संपत्ति किसी व्यक्ति के हाथ सौंप दे या वह स्वीकार कर ले कि धोखा देने वाला व्यक्ति उसकी संपत्ति अपने कब्जे में रख ले या वह कोई ऐसा काम करने से रुक जाए जिससे उससे क्षति पहुँच सकती हो (धारा ४४ में स्पष्टीकृत)। याद रखना चाहिए कि केवल धोखा देना कोई अपराध नहीं है जब तक कि यह छलित व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक, ख्याति संबंधी या सांपत्तिक क्षति पहुँचाने के इरादे से न किया गया हो। जिस व्यक्ति को धोखा दिया गया हो उसका कोई व्यक्तिविशेष होना आवश्यक नहीं है जिससे झूठा बहाना या कथन किया गया हो। धोखा और उत्प्रेरण या प्रलोभन का होना संपत्ति हस्तांतरण के पूर्व या किसी कार्य को करने या न करने से विरत होने के पूर्व आवश्यक है। प्रतिरूपण या धोखा देने का कार्य शब्दों द्वारा ही हो, यह आवश्यक नहीं है। यह क्रियाकलाप तथा चरित् से भी हो सकता है। उदाहरणत: अ एक साहुकार ब से अपने बकाया रुपयों की माँग करता है। ब बकाया रुपया दे देता है और इस विश्वास में रह जाता है कि ज्योंही पूर्ण बकाया वह अदा कर देगा अ उसे देय धन का प्रतिज्ञापत्र (बांड) वापस कर देगा। अ धन मिल जाने के बाद भी वह बांड वापस नहीं करता। इस तरह अ ने ब के साथ छल किया।

साधारण छल या धोखा देना धारा ४१७ के अंतर्गत दंडनीय है। जहाँ संपत्ति का परिदान हो या मूल्यवान प्रतिभूति नष्ट कर दी गई हो, वहाँ अपराध गुरुतर हो जाता है। इसी प्रकार उस व्यक्ति को भी दंड दिया जाता है जो उस व्यक्ति के प्रति छल करता है जिसका हित संरक्षित रखने के लिये वह कर्तव्यत: बाध्य हो (धारा ४१८)।

प्रतिरूपण या छद्मपरिचय या अपराध तब माना जाता है, जब कोई व्यक्ति अपने को अन्य व्यक्ति बतलाकर छल करता है या जब वह जान बूझकर एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के रूप में प्रकट करता है या यह जाहिर करता है कि वह या अन्य व्यक्ति वह व्यक्ति है जो वास्तव में वह नहीं है (धारा ४१६), चाहे वह व्यक्ति, जिसका प्रतिरूपण किया गया हो, वास्तविक व्यक्ति हो या काल्पनिक। प्रतिरूपण द्वारा छल धारा ४१९ के अंतर्गत दंडनीय है।

८.����� आरिष्ट (mischief, शरारत, धारा ४२५-४४०) - आरिष्ट का अपराध, आंग्ल विधि के सपत्ति को दोषपूर्ण क्षति पहुँचाने के अनुरूप है। जब किसी की चल संपत्ति को हानि पहुँचाई जाती है या उसे विनष्ट किया जाता है, इस आशय से कि उस संपत्ति को दोषपूर्ण हानि या नुकसान पहुँचे या संपत्ति के रूप में हानिकारक परिवर्तन किया जाता है, तब आरिष्ट का अपराध गठित होता है। आरिष्ट ऐसी संपत्ति का किया जा सकता है जो उस कार्य को करनेवाले व्यक्ति की ही हो, या उस व्यक्ति की तथा अन्य व्यक्तियों की संयुक्त रूप से हो, जैसे अ और ब संयुक्त रूप से एक घोड़े के स्वामी हैं। अ, ब को अनुचित रूप से हानि पहुँचाने के आशय से घोड़े को गोली मार देता है। अ ने आरिष्ट का अपराध किया।

आरिष्ट का अपराध चल और अचल दोनों प्रकार की संपत्तियों के प्रति किया जा सकता है। यहाँ संपत्ति का अभिप्राय मूर्त (व्यक्त) संपत्ति से है जो परिवर्तित या विनष्ट हो सकती है किंतु सुखाधिकार 'ईजमेंट' इसके अंतर्गत नहीं आता। प्रतिवादी एक परनाले का मालिक है जिससे वादी को अपना गंदा पानी बहाने का सुखाधिकार प्राप्त है। प्रतिवादी परनाला तोड़ देता है तो वह आरिष्ट का दोषी नहीं है।

यह ध्यान देने योग्य है कि जब अपराधी के ऊपर चोरी, लूट, अपकर्षण, आपराधिक दुर्विनियोग या छल के गुरुतर अपराध लगाए गए हों तो आरिष्ट का अपराध लगाए जाने की कम ही गुंजाइश रहती है। इस प्रकार यदि कोई भेड़ चुराता है तो उसके ऊपर, यदि वह भेड़ को गोश्त के रूप में परिवर्तित कर चुका है, आरिष्ट का अपराध नहीं लगाया जा सकता। जहाँ अपना अधिकार जानते हुए सच्चाई के साथ दीवाल गिरा दी जाती है तो यह अपराध नहीं गठित होता, क्योंकि मंशा (आशय) इस अपराध का मुख्य तत्व है और सच्ची भावना से अधिकार प्रकट करना अनुचित आशय से पृथक् वस्तु है।

आरिष्ट का अपराध गुरुतर हो जाता है - (१) क्षति पहुँचाई हुई संपत्ति के स्वरूप के अनुसार, यथा (१०) (दस रुपए) या इससे कम मूल्य के जानवर (धारा ४२७), या बड़े जानवर, जैसे हाथी, गाय इत्यादि जो ५० (पचास रुपए) से अधिक मूल्य के हो धारा (४२८-४२९); (२) सार्वजनिक संपत्ति के महत्व की दृष्टि से, जैसे पेय जल के जलाशय, सार्वजनिक पुल, नदी आदि को क्षति पहुँचाना (धारा ४३१), या सार्वजनिक जलनिस्सारण में बाधा (धारा ४३२); (३) किए गए कार्य के खतरनाक स्वरूप के अनुसार, यथा अग्नि या विस्फोटक द्वारा कृषिजन्य या ऐसी ही अन्य संपत्ति को क्षति पहुँचाना (धारा ४३५); (४) कार्य के महत्व के अनुसार, यथा प्रकाशस्तंभ आदि (धारा ४३३), या भूमि के सीमाचिन्ह को नष्ट करना (धारा ४३४); (५) हानि पहुँचाने हेतु उपयोग में लाए गए पदार्थ के अनुसार (धा. ४३७ व ४३८); या (६) खतरनाक तैयारी के अनुसार, जैसे चोरी या दुर्विनियोग करने के आशय से जलयान को भूमि पर या किनारे से लगाना (धारा ४३९) या मार डालने अथवा चोट पहुँचाने के लिए की गई तैयारी के पश्चात् आरिष्ट करना (धारा ४४०)।

(व) अचल संपत्ति के प्रति किए गए अपराध

अचल संपत्ति के प्रति होनेवाले अपराध चार प्रकार के हैं - (१) आपराधिक अनधिप्रवेश (अतिचार), (२) गृह अनधिप्रवेश, (३) प्रच्छन्न गृह अनधिप्रदेश, और (४) गृहभेदन (सेंध मारना)।

१.����� आपराधिक अनधिप्रवेश (धारा ४४१-४४३) - अनधिप्रवेश या अतिचार का अर्थ है अन्य की संपत्ति में अनधिकार प्रवेश, जो सिविल या क्रिमिनल दोनों तरह का हो सकता है। अनधिप्रवेश का अपराध निम्न विधिविरुद्ध कार्यों से होता है - (१) उस भूमि पर, जो दूसरे के कब्जे में है, प्रवेश करना; या (२) इस प्रकार की जमीन पर बने रहना; या (३) उसपर कोई मुख्य ध्येय रखने का आयोजन करना। वह प्रवेश अवैध है जो विधि द्वारा प्रमाणित न हो, यद्यपि यह शांतिपूर्ण हो सकता है। अपने अधिकार में ईमानदारीपूर्वक विश्वास, यद्यपि वह गलत ही क्यों न हो, अपराध-मुक्ति का एक आधार है। लेकिन इस प्रकार का अनधिप्रवेश नागरिक अनधिप्रवेश होगा, जो क्षतिपूर्ति का नागरिक दायित्व उत्पन्न करेगा। वह अनधिप्रवेश है जो घोषित किसी एक अपराध के आशयों से युक्त है, यद्यपि प्रवेश विधिसंमत हो सकता है।

विधिविरुद्ध प्रवेश या दूसरे के कब्जे की संपत्ति या भूमि पर विधिपूर्वक प्रवेश करके विधिविरुद्ध रूप से इस आशय से बना रहना कि (१) कोई अपराध किया जाए या (२) वहाँ किसी व्यक्ति को संत्रस्त्र या अपमानित अथवा किसी तरह परेशान करना, आपराधिक अनधिप्रवेश है। प्रवेश का अपराध व्यक्तिगत होता है। इस प्रकार यदि कोई नौकर दूसरे के आधिपत्य की भूमि पर विधिविरुद्ध प्रवेश करता है और उसे जोतता है तो उसका स्वामी आपराधिक अनधिप्रवेश का अपराधी नहीं हो सकता। हाँ, इस अपराध के निमित्त प्रोत्साहित करने के लिए वह उत्तरदायी हो सकता है। संपत्ति प्रोत्साहित करने के लिए वह उत्तरदायी हो सकता है। संपत्ति शब्द व्यापक है जिसके अंतर्गत नौका या यान (कार) भी आते हैं, लेकिन इनका दूसरे के आधिपत्य में होना आवश्यक है। यह सार्वजनिक संपत्ति या स्थान न हो। क्रिमिनल ला सर्वदा आधिपत्य की रक्षा करता है तथा उसका स्वामित्व से कोई संबंध नहीं होता। यदि कोई जमींदार बलपूर्वक अपनी उस संपत्ति अथवा भूमि पर, जिसपर काश्तकार का आधिपत्य है, प्रवेश करता है तो यह आपराधिक अनधि प्रवेश है। आधिपत्य का तात्पर्य यहाँ वास्तविक आधिपत्य से है, न कि कानूनी आधिपत्य से। आपराधिक अनधिप्रवेश का बाद आधिपत्यधारी ही प्रस्तुत कर सकता है।

२.����� गृह में अनधिप्रवेश - (धारा ४४२-४५२) किसी भवन, तंबू या जलयान में जो मानवनिवास के रूप में प्रयुक्त हो या किसी भवन में जो पूजास्थान के रूप में संपत्ति की अधिरक्षा के स्थान के रूप में उपयोग में आता है, आपराधिक अनधिप्रवेश गृह अनधिप्रवेश है। आपराधिक अनधिप्रवेश करनेवाले व्यक्ति के शरीर का यदि कोई भाग भी भवन आदि में घुसता है तो गृह अनधिप्रवेश का अपराध गठित हो जाता है। जिस अभिप्राय से यह अपराध किया जाए, उसके अनुसार वह गुरुतर हो जाता है (धारा ४५३, ४५६-४५३, ४४४)।

३.����� प्रच्छन्न गृह अनधिप्रवेश - सावधानी बरतने के साथ, गृहस्वामी आदि से छिपाकर, यदि गृह अनधिप्रवेश किया जाता है तो यह प्रच्छन्न गृह अनिधप्रवेश कहलाता है। यह अपराध परिस्थितियों के अनुसार गुरुतर हो जाता है (धारा ४४४, ४५६)।

४.����� गृहभेदन (धारा ४४५, ४५७, ४६२) - गृहभेदन में व्यक्ति इन छह तरीकों में सं किसी द्वारा प्रवेश करता या बाहर निकलता है : (१) ऐसे रास्ते से जिसे स्वयं अभियुक्त ने बनाया है; या (२) ऐसे रास्ते से जो मानव प्रवेश के इरादे से न बनाया गया हो, जैसे खिड़की या रोशनदान द्वारा; या (३) ऐसे रास्ते से जो अभियुक्त द्वारा खोला गया है; या (४) दरवाजे का ताला, ताली से खोलकर, या (५) दरवाजे पर के व्यक्ति पर हमला करके; या (६) ऐसे रास्ते से जिसे अभियुक्त ने खोल दिया है।

यह अपराध उद्देश्य और अभिप्राय के अनुसार गुरुतर होता है और अधिक दंड द्वारा दंडनीय होता है (धारा ४५६-४६२)।

-अमूर्त संपति के प्रति किए गए अपराध।

अमूर्त संपत्ति के प्रति किए गए अपराध दो तरह के होते हैं (१) दस्तावेजों से संबंधित (२) संपत्तिचिन्हों या व्यापारचिन्हों से संबंधित।

१.����� दस्तावेजों से संबंधित अपराध (धारा ४६३-४७७) - दस्तावेजों के प्रति किए गए अपराधों में सबसे महत्वपूर्ण कूटरचना या जालसाजी है। यह सबसे बड़ा अपराध है जिसे अनपढ़ व्यक्ति नहीं कर सकता। लेखनकला के आविष्कार के साथ साथ इस अपराध का आरंभ हुआ। धोखा देने के आशय से मिथ्या दस्तावेज की रचना, कूटरचना (जालसाजी) है। यह अपराध करने के लिए दो तत्व आवश्यक हैं : अ. मिथ्या दस्तावेज रचना, ब. निम्नलिखित पाँच आशयों में से किन्हीं आशय से, (१) जनता या किसी व्यक्ति को हानि पहुँचाने के लिए, (२) किसी हक या दावे के समर्थन के लिए, या (३) किसी व्यक्ति से कोई संपत्ति छुड़ाने के लिए या (४) कोई अभिव्यक्त तथा विवक्षित संविदा करवाने के लिए या (५) कोई कपट या छल करने के लिए। दूसरे शब्दों में कूट रचना कपटपूर्ण बेईमानी के इस आशय से होनी चाहिए कि किसी को हानि पहुँचाई जाए या स्वयं को अवैधानिक रूप से लाभ पहुँचाया जाए। केल मिथ्या दस्तावेज की रचना स्वयं में कोई अपराध नहीं है, जब तक कि यह न सिद्ध हो जाए कि उपर्युक्त पाँच आशयों में से कोई एक या एक से अधिक विद्यमान हैं। जालसाजी धारा ४६५ के अंतर्गत दंडनीय है।

जालसादी अर्थात् कूट रचना का अपराध कूटरचित दस्तावेज की प्रकृति के अनुरूप (धारा ४६६-४६७), या कूटरचना के उद्देश्य के अनुसार, यथा छल करने (४६८) या किसी को बदनाम करने (धारा ४६९) से गुरुतर होता है। कूटरचित दस्तावेज का, अथवा यह जानते हुए या यह विश्वास करने का कारण रहते हुए कि यह कूटरचित है, उपयोग धारा ४१७ के अंतर्गत दंडनीय है।

कूटरचना या जालसाजी सभी दशाओं में दंडनीय है। इस प्रकार छल करने के इरादे से कूटरचित मुहर का बनाना या पास में रखना, कूटरचित प्लेट का रखना या बनाना इत्यादि (धारा ४६७, ४७२, ४७३) या मूल्यवान प्रतिभूति आदि यह जानते हुए रखना कि यह कूटरचित है (धारा ४७४), या दस्तावेज को प्रामाणिक बनाने के लिए उपयोग में लाए जानेवाले साधन या चिन्ह में जालसाजी करना या कपटपूर्वक दस्तावेज को निरस्त या रद्द करना अथवा उसका विनष्टीकरण इत्यादि (धारा ४७७) दंडनीय है। नियुक्त कर्मचारी द्वारा धोखा देने के लिए लेखाओं का मिथ्याकरण भी दंडनीय है (धारा ४७७ अ)। इसके लिए संपत्तिहरण आवश्यक नहीं है। सहकारी संघ के पदाधिकारियों ने तत्संबंधी एकाउंट (लेखा) में मिथ्या अंक भर दिए, यद्यपि उसमें किसी की कोई हानि नहीं हुई किंतु वे दोषी ठहराए गए।

२.����� व्यापार या संपत्तिचिन्हों के प्रति अपराध (धारा ४७८-४८९) - व्यापारचिन्ह एक संकेत है, जैसे कोई चित्र, लेबुल (चिप्पी) या ऊपर लिखे गए शब्द इत्यादि, जो एक व्यापारी के माल को दूसरे व्यापारी के उसी प्रकार के माल से भेद करने के लिए प्रयुक्त होता है जब कि संपत्तिचिन्ह वह चिन्ह है जो यह घोषित करता है एक चल संपत्ति का किसी विशिष्ट व्यक्ति से संबंध है। आंग्ल विधि में इस प्रकार का कोई भेद नहीं है। व्यापारचिन्ह संबंधी अधिनियम ५, सन् १९४०, व्यापारचिन्हों का पंजीकरण एवं उनकी रक्षा हेतु अन्य, प्रभावकारी संरक्षण प्रदान करता है। साधारणतया व्यापारचिन्ह का उल्लंघन फौजदारी की अपेक्षा दीवानी अपराध ही है। लेकिन चूँकि दीवानी कार्यवाही में अधिक समय व व्यय लग सकता है, अत: कानून ने व्यापारी के संरक्षण हेतु, मामले को फौजदारी न्यायालयों में ले जाने का अधिकार प्रदान किया है ताकि शीघ्र निपटारा किया जा सके। ऐसे मामलों में जहाँ क्षतिग्रस्त पक्ष अपराध घटित होने के तीन साल के अंदर अथवा पता चलने के एक साल के अंदर, जो भी पहले समाप्त हो, वाद प्रस्तुत करता है तो फौजदारी न्यायालय में उसपर विचार किया जा सकता है। यदि समय के अंदर ऐसा करने में व्यापारी असफल होता है तो उसे राहत पाने के लिए दीवानी न्यायालय की शरण जाना पड़ेगा।

मिथ्या व्यापारचिन्ह या संपत्ति चिन्ह का उपयोग करना (धारा ४८०-४८१), या व्यापारचिन्ह या संपत्तिचिन्ह की नकल करना (धारा ४८३-४७४), इस प्रकार के नकली चिन्हों के तैयार करने के किसी उपकरण आदि को पास में रखना (धारा ४८५), या नकली व्यापारचिन्ह या संपत्तिचिन्ह से चिन्हित माल का विक्रय या बिक्री अथवा व्यापार हेतु उसपर कब्जा रखना, उसका बनाना (धारा ४८६), या किसी लोकसेवक को मिथ्या चिन्ह से धोखा देना (धारा ४७७, ४८८), या किसी संपत्तिचिन्ह को हटाना, उसे विरूपित करना या विनष्ट करना (धारा ४८९) भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय है। (रामचंद्र निगम)