संधिशोथ (Arthritis) संधियों में जब सूजन हो जाती है तब उसे संधिशोथ कहते हैं। संधिशोथ दो प्रकार के होते हैं : (१) तीव्र संक्रामक (acute infective) संधिशोथ, (२) जीर्ण संक्रामक (chronic infective) संधिशोथ।
(१) तीव्र संक्रामक संधिशोथ - किसी भी तीव्र संक्रमण के समय यह शोथ हो सकता है। निम्नलिखित प्रकार के संक्रामक संधिशोथ अधिक व्यापक हैं : (क) तीव्र आमवातिक (rheumatic) ज्वर, (ख) तीव्र स्ट्रेप्टोकॉकेल (streptococcal) संधिशोथ, (ग) तीव्र स्टैफिलोकॉकेल (staphylococcal) संधिशोथ, (घ) गॉनोकॉकेल (gonococcal) संधिशोथ, (ङ) लोहित ज्वर (scarlet fever), प्रवाहिका (dysentry) अथवा टाइफाइड युक्त संधिशोथ तथा (च) सीरमरोग (serum sickness)।
जीर्ण संक्रामक संधिशोथ - यह शोथ प्राय: शरीर के अनेक अंगों पर होता है। पाइरिया (pyorrhoca), जीर्ण उंडुक शोथ (appendicitis), जीर्ण पित्ताशय शोथ (cholecystitis), जीर्ण वायुकोटर शोथ (sinusitis), जीर्ण टांसिल शोथ (tonsillitis), जीर्ण ग्रसनी शोथ (pharyngitis) इत्यादि।
संधिशोथ में रोगी को आक्रांत संधि में असह्य पीड़ा होती है, नाड़ी की गति तीव्र हो जाती है, ज्वर होता है, वेगानुसार संधिशूल में भी परिवर्तन होता रहता है। रोगी इसको उग्रावस्था में एक ही आसन पर स्थित रहता है, स्थानपरिवर्तन तथा आक्रांत भाग को छूने में भी बहुत कष्ट का अनुभव होता है। यदि सामयिक उपचार न हुआ, तो रोगी खंज लुंज होकर रह जाता है। संधिशोथ प्राय: उन व्यक्तियों में अधिक होता है जिनमें रोगरोधी क्षमता बहुत कम होती है। स्त्री पुरुष दोनों को ही समान रूप से यह रोग आक्रांत करता है।
उपचार - संधिशोथ के कारणों को दूर करने तथा संधि की स्थानीय अवस्था ठीक करने के लिए चिकित्सा की जाती है। इनके अतिरिक्त रोगी के लिए पूर्ण शारीरिक और मानसिक विश्राम, पौष्टिक आहार का सेवन, धूप सेवन, हलकी मालिश तथा भौतिक चिकित्सा करना अत्यंत आवश्यक है। (प्रिय कुमार चौबेै.)