संधिपाद प्राणी (Arthropoda) सखंड (segmented) शरीर और उपांगों (appendages) वाले अकशेरुकी जंतुओं को कहते हैं। ये प्राणी प्राणिजगत् में सबसे बड़ा संघ (phylum) बनाते हैं। लगभग सात लाख संधिपादों का अब तक वर्णन हो चुका है, जो संसार के समस्त वर्णित जंतुओं का ४/५ वाँ भाग हैं। वितरण में इनसे अधिक विस्तृत वितरण किसी अन्य जंतुसमूह का नहीं है। ये प्राणी मीठे और खारे पानी में, भूमि के ऊपर और नीचे, ध्रुवों पर, मरुस्थलों, गरम सोतों तथा पर्र्वतों पर पाए जाते हैं। पृथ्वी का शायद ही कोई स्थान ऐसा बचा हो, जहाँ ये प्राणी न पाए जाते हों। केकड़े की एक जाति, एथुसिना एबिसिकोला (Ethusina abyssicola), १४ हजार फुट समुद्र की गहराई से तथा मकड़ी की एक किस्म २२ हजार फुट की ऊँचाई के हिमालय पर्वत से प्राप्त की गई है। एफिड्रिड (ephydrid) मक्खी का लार्वा कैलिफॉर्निया की पेट्रोलियम की खान तक में रहता हुआ पाया गया है।

माप - माप में ये प्राणी सूक्ष्म से सूक्ष्म और काफी बड़े तक हो सकते हैं। परजीवी माइट (mite), डेमोडेक्स (Demodex), १/२५० इंच लंबा होता है। इसके विपरीत जापानी केकड़ा मैक्रोकाइरा (Macrocheira) के उपांग के फैलाव का विस्तार ११ फुट तक हो सकता है।

बाह्य रचना - इस संघ के सभी प्राणी द्विपार्श्व सममिति (bilateral symmetry) वाले होते हैं। शरीर का प्रत्येक खंड ऊपर और नीचे काइटिन (chitin) के प्लेट से ढँका होता है। उपांगों के जोड़े या तो शरीर के सभी खंडों में, जैसे मिरियापोडा (Myriapoda) में, अथवा केवल कुछ मध्यस्थ खंडों में, जैसे कीटवर्ग (Insects) और कुछ ऐरेकनिडा (Arachnida) में, ही उपस्थित होते हैं। ये उपांग अनेक कार्यों, जैसे चलना, दौड़ना, तैरना, मिट्टी खोदना, शिकार पकड़ना आदि, के लिए प्रयुक्त होते हैं।

आहारनली - साधारणतया आहारनली को तीन मुख्य भागों में विभाजित करते हैं : मुखपथ (stomodaeum), मध्यांत्र (mesenteron) तथा गुदपथ (proctodaeum)। मुखपथ को ग्रसनी (pharynx), ग्रसिका (oesophagus), अन्नपुट (crop) और बहुधा गिजर्ड (gizzard) जैसे भागों में विभक्त किया जाता है। मध्यांत्र, जो पाचन और अवशोषण का मुख्य केंद्र है, अविभाजित होता है। गुद पथ को अग्र आत्र और पृष्ठ आंत्र में विभक्त किया जाता है। मध्यांत्र तथा गुदपथ के जोड़ पर बहुत सी महीन और लंबी मैलपीगी (malpighian) नलिकाएँ खुलती हैं, जो उत्सर्जक पदार्थ एकत्रित कर आहारनली के इस भाग मे विसर्जन हेतु पहुँचाती हैं।

परिसंचरण तंत्र - कशेरुकी जंतुओं से संधिपाद प्राणियों का परिसंचरण संस्थान इस विशेष बात में भिन्न है कि इनमें रुधिर, में डूबे रहते हैं। कुछ आद्य सदस्यों, जैसे पौरोपोडा (haemocoel) कहते हैं, बहता है। फलस्वरूप सभी अंग रुधिर में डूबे रहते हैं। कुछ आद्य, सदस्यों, जैसे पौरोपोडा (Pauropoda), में हृदय नहीं होता, परंतु अधिक विकसित सदस्यों में एक स्पंदमान, मांसल, पृष्ठीय (dorsal) नलिका होती है, जिसमे शरीर के प्रति खंड के लिए एक जोड़ा आस्य (ostia) होता है। इस संघ के कुछ सदस्यों, जैसे माइट (mite), में हृदय केवल कुछ ही शरीरखंडों तक जाता है, परंतु अन्य में व काफी दूर तक फैला होता है और बहुधा महाधमनी (aorta) तथा पृष्ठीय, मांसल, स्पंदमान, छिद्रयुक्त हृदय में विभक्त हो जाता है। काशेरुकी प्राणियों के प्रतिकूल संधिपादों के रुधिर साधारणतया रंगहीन होता है।

श्वसन तंत्र - संधिपाद प्राणियों का श्वसन या तो देहभित्ति द्वारा, अथवा कुछ विशेष अंगों द्वारा, होता है। ये अंग जलीय संधिपादों में गिल (gill) तथा स्थलीय में श्वासनलियों (trachea) के रूप में होते हैं। गिल शरीर या उपांगों के पट्टिकासदृश या शाखित उद्वर्ध (outgrowth) होते हैं तथा श्वासनलियाँ देहभित्ति की अंतर्वृद्धि (ingrowth) से बनती हैं, और बाहर श्वासरध्रों (spiracles) द्वारा खुलती हैं। हवा श्वासनलियों की असंख्य शाखाओं द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिकाओं तक पहुँच जाती हैं।

उत्सर्जन तंत्र - कुछ संधिपादों में नाइट्रोजनी उत्सर्जक पदार्थ क्रिस्टल के रूप में, शरीर में आजीवन एकत्रित रहते हैं, या निर्मोचन (moulting) के साथ निकल जाते हैं, परंतु अधिकांश में उत्सर्जन कुछ विशिष्ट अंगो द्वारा होता है।

तंत्रिका तंत्र - संधिपाद का तंत्रिका तंत्र ऐनेलिडा (Annelida) से व्युत्पन्न माना जाता है। यहाँ भी यह संस्थान प्रत्येक खंड में एक गुच्छिका (ganglion) और उन्हें मिलानेवाले दो तंत्रिका तंतुओं (nerve cords) से मिलकर बनता है। संधिपादों में शरीर खंडों के संयुक्तीकरण के कारण उनकी गुच्छिकाएँ भी युक्त हो गई हैं। अग्रिम तीन गुच्छिकाओं के युक्त होने से मस्तिष्क बनता है तथा कीटों में जहाँ शरीर खंडों के और अधिक संयुक्तीकरण से वक्ष एवं उदर बने हैं, वहाँ बहुधा उनकी गुच्छिकाएँ भी आपस में जुड़ गई हैं।

वर्गीकरण

संधिपाद संघ को दो उपसंघों में विभक्त कर सकते हैं : (१) उपसंघ कीलिसरेटा तथा (२) उपसंघ मैडिबुलेटा।

कीलिसरेटा (Chelicerata) - इस उपसंघ के प्राणियों के जबड़े कीलेट (Chelate) तथा द्वितीय शिरस्थ (cephalic) उपांगों द्वारा बनते हैं। प्रथम उपांग, या शृंगिका (antenna), अनुपस्थित होती हैं। उस उपसंघ को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है :

१.����� जाइफोसुरा (Xiphosura) - इस श्रेणी के प्राणी बृहत् समुद्री जंतु हैं, जिनमें सिर और वक्ष संयुक्त होकर शिरोवक्ष (cephalothorax) बनाते हैं, जो छह जोड़े उपांगों को धारण

करता है। उदर के अंत में एक लंबा कांटेदार पुच्छखंड होता है। इनमें श्वसनक्रिया पुस्तकगिलों (book gills) द्वारा होती है, जैसे किंग क्रैब में।

२.����� पिक्नोगोनिडा (Pycnogonida) - इस श्रेणी के प्राणी छोटे और औसत माप के समुद्री जंतु हैं, जिनमें शिरोवक्ष पंच-खंडित,

उदर सूक्ष्म (अति घटित), जननछिद्र जोड़ों में तथा श्वसन और उत्सर्जन अंग अनुपस्थित होते हैं, जैसे समुद्री मकड़ी (Pycnogonum) में।

३.����� ऐरेक्निडा (Arachnida) - सूक्ष्म से लेकर औसत माप के जंतु हैं जिनमें शिरोवक्ष चार जोड़े उपांग धारण करता है। श्वसन पुस्तक गिल (book lung) अथवा श्वासनली द्वारा होता है, जैसे विच्छू मकड़ी, किलनी आदि में।

मैडिवुलेटा (Mandibulata) - इस उपसंघ के प्राणियों के जबड़े मैडिकुलाकार (mandibulate) होते हैं तथा तृतीय शिरस्थ उपांगों द्वारा बनते हैं। प्रथम उपांग शृंगिका (antenna) बनाते हैं। इस उपसंध के निम्नलिखित दो खंड हैं :

खंड-अ - इसमें उपांग द्विशाखी (biramous), शृंगिका दो जोड़ी तथा श्वसन मुख्यत: गिल द्वारा (अर्थात् जलीय) होता है। इसके अंतर्गत केवल निम्नलिखित एक श्रेणी आती है :

श्रेणी क्रस्टेशिया (Crustacea) - इस श्रेणी के प्राणी छोटे से लेकर मध्य माप के जंतु होते हैं, जिसमें सिर और वक्ष युक्त होकर शिरोवक्ष बनाते हैं। कुछ सदस्य प्रौढ़ अवस्था में अपभ्रष्ट परजीवी (paresite) का रूप ले लेते हैं।

खंड-ब - इसमें उपांग अनाखित, शृंगिका एक जोड़ी तथा श्वसन मुख्यत श्वसननलिकाओं द्वारा होता है। इस खंड के निम्नलिखित तीन उपखड किए गए हैं :

१.����� प्रोगोनिएटा (Progoneata) - इस खंड के प्राणियों के जननछिद्र शरीर के अग्रिम तीसरे या चौथे खंड पर स्थित होते हैं। इस उपखंड को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है :

(१) डिप्लोपोडा (Diplopoda) - इस श्रेणी के प्राणी औसत से बड़ी माप के जंतु होते हैं, जैसे सहसंवाद, जिनमें शृंगिका लंबी और अशाखी (unbranched), धड़ के खंड दोहरे तथा दो जोड़े उपांग रहते हैं, पर हृदय और श्वासनलिका अनुपस्थित रहती है।

(२) पौरोपोडा (Pauropoda) - इस श्रेणी के प्राणी सूक्ष्म जंतु हैं, जैसे पोरोपस, जिनमें शृंगिका लघु तथा सशाख (branched), धड़खंड दोहरे तथा ९-१० जोड़े उपांग होते हैं, पर हृदय और श्वासनली अनुपस्थित होती है।

(३) सिंफाइला (Symphyla) - इस श्रेणी के प्राणी छोटे जंतु होते हैं। इनमें शृंगिका लंबी और तंतुरूप, धड़ में १२ या अधिक खंड, जिनमें साधारणतया १२ जोड़े उपांग होते हैं, तथा लूप (cerci) में रेशम ग्रंथि की नलिकाएँ उपस्थित होती हैं।

२.����� ओपिस्थोगोनिएटा (Opisthogoneata) - इस उपखंड के प्राणियों में जननछिद्र शरीर के पृष्ठभाग में, १४ खंडों के पीछे, तथा एक नखर (claw) होता है। इसके अंतर्गत केवल निम्नलिखित एक श्रेणी आती है :

काइलोपोडा (Chilopoda) - इस श्रेणी के प्राणी औसत से लेकर बड़े माप के संधिपाद होते हैं, जिनका शरीर केवल सिर और धड़ में विभक्त किया जा सकता है। धड़ कई खंडों से मिलकर बनता है ओर प्रत्येक खंड में केवल एक ही जोड़ा उपांग होता है। प्रथम जोड़ा उपांग से विषदंत (fang) बनता तथा लूम अनुपस्थित होते हैं, जैसे स्कोलापेंड्रा (Scolopendra) में।

३.����� हेटरोगोनिएटा (Heterogoneata) - इस उपखंड के प्राणियों में जननछिद्र ८, १०, १३ या १४ वें खंड पर तथा दो नखर

होते हैं। इसके अंतर्गत भी केवल निम्नलिखित एक ही श्रेणी है :

कीट (Insecta) - इस श्रेणी के प्राणी छोटे से, औसत माप के जंतु हैं। इनका शरीर तीन भागों में विभक्त होता है : सिर, वक्ष और उदर। वक्ष तीन जोड़े उपांग धारण करता है।

अतएव इन संधिपादों को षट्पाद भी कहते हैं। इस श्रेणी के सदस्य (जैसे टिड्डी), संख्या, अनुकूलनों, एवं विविधताओं में अन्य सभी संधिपाद श्रेणियों से अधिक विकसित होते हैं।

लुप्त और संबंधित समूह

लुप्त समूह - इन समूहों को अब केवल जीवाश्म (iossils) द्वारा ही जाना जाता है। इस समूह को निम्नलिखित दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है :

१.����� यूरिप्टरिडा (Eurypterida) - इस श्रेणी के प्राणी, ऐरेक्निडा संबंधी जंतु थे, जो साइलूरियन (Silurian) से लेकर कार्बनीकल्प (Carboniferous) में पाए जाते हैं। इनका शिरोवक्ष छोटा तथा धड़ १३ खंडों का होता था। अंतिम खंड को पुच्छखंड (telson) कहते हैं। छह जोड़े उपांगों में अंतिम जोड़ा पतवार के रूप में होता था, जिससे इनकी जलीय प्रकृति का पता चलता है, जैसे टेरीगोटस (Pterygotus)।

२.����� ट्राइलोबाइटा (Trilobita) - इस श्रेणी के प्राणी क्रस्टेशिया संबंधी संधिपाद थे, जो मुख्यत: कैंब्रियन (Cambrian)

और आर्डोविशन (Ordovician) युगों में पाए जाते थे। इनका शरीर तीन भागों में विभक्त होता था : अंखंडित ढालाकार सिर, खंडित धड़ तथा अखंडित पूंछ शरीर तीन भागों में विभक्त होता था : अखंडित ढालाकार सिर, खंडित धड़ तथा अखडित पूंछ (pygidium)। क्रस्टेशिया के विपरीत इनमें केवल एक ही जोड़ा शृंगिका होती थी तथा अन्य सभी उपांग द्विशाखी होते थे, जैसे कोनोसेफैलाइटिस (Conocephalitis)।

संबंधित समूह - इन समूहों के अंतर्गत ऐसे सदस्य आते हैं जिनको संधिपाद कहना विवादास्पद है, क्योंकि इनमें कुछ ऐसे गुण होते हैं जो अन्य किसी संधिपाद में नहीं मिलते। इस समूह को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है :

१.����� ओनिकोफीरा (Onichophora) - इस श्रेणी के प्राणी रेंगनेवाले जंतुओं की भाँति मुलायम शरीरवाले तथा अँधेरे और नम स्थानों में (जैसे वृक्ष की छाल, सड़ते तनों के कुंदों, या पत्थरों के नीचे) रहनेवाले जंतु होते हैं। यद्यपि इनके शरीर को सिर और धड़

में विभक्त कर सकते हैं, फिर भी सिर कुछ अनिश्चित सा होता है और केवल अपने तीन जोड़े उपांगो द्वारा ही पहचाना जा सकता है।

धड़ पर कई जोड़े अखंडित उपांग उपस्थित होते है। श्वसन श्वासनली द्वारा होता है, अत: श्वासरध्रं अन्य संधिपादों के प्रतिकूल छितरे होते हैं। अपने मिश्रित गुणों के कारण इन्हें ऐनेलिडा संघ और संधिपाद संघ के बीच जोड़नेवाली कड़ी माना जाता है, जैसे पेरिपेटस (Peripatus)।

२.����� टार्डिग्रेडा (Tardigrada) - इस श्रेणी के प्राणी अत्यंत सूक्ष्म (१ मिमी. लंबे) जंतु हैं, जो दलदल की काई, अथवा घरों की बंद नालियों की छतों, पर पाए जाते हैं। कुछ अलवण जल और कुछ समुद्र में भी मिलते हैं। शरीर अखंडित तथा रेंगनेवाले कीड़ों की भाँति मुलायम होता है। चार जोड़े अत्यंत छोटे ठूँठ जैसे नखरयुक्त

सपांग, अपनी स्थिति के कारण, इन सूक्ष्म जंतुओं को चौपाया जैसा रूप दे देते हैं। इससे इन्हें पानी का रीछ भी कहा जाता है, जैसे मैक्रोबायोटस (Macrobiotus)।

३.����� पेटास्टोमिडा (Pentastomida) - इस श्रेणी के प्राणी निकृष्ट परजीवी जंतु होते हैं, जो मांसाहारी जंतुओं (जैसे कुत्ते, भेड़िए, शेर आदि) के ध्राण स्थानों में पाए जाते हैं। शरीर कुछ

लंबाकार उपांगरहित होता है। मुख उपांगों में केवल दो जोड़े अंकुश उपस्थित होते हैं। हृदय, श्वासनली तथा ज्ञानेद्रियाँ अनुपस्थिति होती है, जैसे आर्मिलिफर (Armillifer) में। (कृष्णप्रसाद श्रीवास्तव)