संततिनिरोध (Birth Control) शब्द का अर्थ है संतान की उत्पत्ति को रोकना। किंतु अब इसका अर्थ कुछ विस्तृत हो गया है। संतानोत्पत्ति को रोकने के साथ संतान को इस क्रम से उत्पन्न करना कि उनमें कुछ वर्षों का, कम से कम दो वर्षों का, अंतर रहे, यह भी इस शब्द के अंतर्गत समझा जाता है, और बहुधा इस शब्द के स्थान पर 'परिवारनियोजन' शब्द का प्रयोग किया जाता है। संसार के सभी मातृकला तथा स्त्रीरोग विषयों के विद्वान् इसपर सहमत हैं कि संतान और माता दोनों के स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए दो बच्चों के जन्म में पाँच वर्ष का अंतर होना उचित है। दो वर्ष का तो न्यूनतम समय रखा गया है।

प्राचीन लेखों से पता चलता है कि उस समय भी इसका महत्व समझा जाता था और प्राय: प्रत्येक युग और जाति में संततिनिरोध का प्रयत्न किया गया था। इसके लिए ओषधियाँ, तंत्रमंत्र, तथा यांत्रिक साधनों से गर्भस्राव कराने की विधियों का भी प्रयोग किया जाता था। सबसे प्राचीन लेख इस संबंध में मिस्र देश के पैपिरस लेखों में (१८५० ई.पू. के लगभग) पाया जाता है। अरस्तू, हिप्पॉक्रटीज़ तथा सेफ़िसिस के सारेनस ने (सन् ९८-१३८) इस विषय की चर्चा की है। माल्थस ने सन् १७९८ में प्रकाशित अपनी जनसंख्या (पॉपुलेशन) संबंधी विख्यात पुस्तक में संततिनिरोध के प्राकृतिक उपायों का समर्थन किया है। उसके पश्चात् ही इंग्लैंड और अमरीका में कितने ही क्रांतिकारी लेखकों ने, विशेषकर फ्रांसिस प्लेस ने, सन् १८२२ में और रिचर्ड कारलाइल ने सन् १८२५ में इंग्लैंड में, और रॉबर्ट हेल ओवन ने सन् १८३१ में, अमरीका में इस संबंध में उग्र आंदोलन किया था। जनता में संततिनिरोध की आवश्यकता तथा उसके लाभ का जोरों से प्रचार किया। इंग्लैंड में सन् १८७७ में डॉक्टर ऐनी बेसेंट ब्रेडलॉ के मुकदमे से इस आंदोलन को विशेष प्रोत्साहन मिला। श्रीमती ऐनी बेसेंट और चार्ल्स ब्रैडलॉ कई वर्ष पूर्व से संततिनिरोध का जनता में प्रचार कर रहे थे। सन् १८७७ में उनपर जनता में डॉक्टर चार्ल्स नोल्टन की लिखी हुई 'फ्रूट्स ऑव फ़िलॉसोफ़ी' नामक पुस्तिका की प्रतियाँ बेचने का आरोप लगाया गया और सरकार की ओर से मुकदमा चला। इस मुकदमें से संततिनिरोध के उपायों का जनता में जितना प्रचार हुआ, उतना उससे पूर्व नहीं हुआ था। उसी के पश्चात् माल्थस लीग की स्थापना हुई, जिसने इस विषय संबंधी एक पत्रिका निकाली। इससे संततिनिरोध के उपायों का जनता में प्रचार किया गया। इसी प्रकार की संस्थाएँ फ्रांस, हॉलैंड, बेल्जियम तथा अन्य देशों में खुल गई। डॉक्टर मेरी स्टोप्स (इंग्लैंड) की अनेक पुस्तकों और लेखों द्वारा इस विषय के ज्ञान का बहुत प्रचार हुआ और सभी देशों में संततिनिग्रह की भावनाओं की जड़ जम गई। कई स्थानों में अन्वेषण केंद्र भी खोल दिए गए।

अमरीका में मिसेज़ मार्गेरेट सैंगर ने इस संबंध में बहुत बड़ा कार्य किया। बर्थ कंट्रोल का शब्द पहले इन्होंने ही प्रयोग किया (सन् १९१४-१५)। गरीब स्त्रियों और उनकी बहुत सी संतानों की दशा देखकर श्रीमती सैंगर का हृदय पिघल गया। उन स्त्रियों को न रहने का उपयुक्त स्थान था, न पर्याप्त भोजन ही मिलता था। बच्चों को भोजन तक का अभाव था, पहनने के वस्त्रों की कौन कहे। तो भी उनको संतान होती जाती थी। प्रत्येक प्रत्येक बच्चे के माने थे अधिक व्यय। इन सबका परिणाम था बच्चों की मृत्यु, क्योंकि चिकित्सा या सुश्रूषा का कोई साधन न था।

इस दारुण दयनीय दशा को देखकर श्रीमती सैंगर ने निश्चय कर लिया कि उन स्त्रियों के दु:ख को मिटाने का एकमात्र रास्ता उनकी संतानोत्पत्ति को घटाना था। सन् १९१६ में इन्होंने पहला क्लिनिक ब्रूम्सविल जिले में खोला, जिसको पुलिस ने अवैध बताकर बंद कर दिया और श्रीमती सैंगर जेलखाने में डाल दी गई। बहुत दिनों तक मुकदमा चला। किंतु अंत में अदालत ने इनको मुक्त कर दिया और पूर्व कार्य करने की आज्ञा दे दी। सन् १९२१ में इन्होंने न्यूयार्क में बर्थ कंट्रोल लीग की स्थापना की, जिसका इनको अध्यक्ष चुना गया। सन् १९२३ में इन्होंने एक अन्वेषण केंद्र भी खोला। इसके पश्चात् ''प्लैंड पेरेंटहुड फेडरेशन'' खोला गया, जिसकी अब तक लगभग ६०० शाखाएँ खुल चुकी हैं। भारत में आर्थिक कठिनाइयों के कारण शिक्षित समुदाय कुछ समय से संततिनिरोध की आवश्यकता अनुभव करने लगा है और स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् खाद्य के संकट के कारण भारत सरकार को जनता की संख्या को परिमित करने के लिए संततिनिरोध को सर्वप्रिय बनाने के उद्देश्य से विशेष आयोजन करना पड़ा है। भारत की जनसंख्या प्रति वर्ष ४५ लाख बढ़ जाती है। इस गति से अगले ५० वर्षों में यहाँ की जनसंख्या दुगनी हो जाएगी। इसी अनुपात में खाद्य उत्पत्ति का दुगना ही जाना असंभव है। अतएव सब देशनिवासियों को भोजन देने के लिए एकमात्र यही उपाय है कि जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के उपाय किए जाएँ। इसी उद्देश्य से सरकार ने संततिनिरोध के उपायों के प्रचार का प्रबंध किया है, और प्राय: सभी प्रदेशों के बड़े बड़े नगरों में ऐसे केंद्र खोले गए हैं, जहाँ से आवश्यक उपायों के ज्ञान का प्रसार किया जा सके तथा जनता को इसकी आवश्यकता समझाई जा सके।

वास्तव में यह प्रश्न इस समय भूमंडल के सभी देशों में व्याप्त है और सभी के सामने यही समस्या है। अतएव संततिनिरोध एक सर्वव्यापी आंदोलन हो गया है।

संततिनिरोध के उपाय

संततिनिरोध के जितने उपाय है उनका एक ही उद्देश्य है : पुरुष के शुक्राणु का स्त्री की अंडकोषिका से संयोग न होने देना, जिससे गर्भ की स्थापना न होने पाए। अतएव निम्नलिखित उपायों का प्रयोग किया जाता है :

(१)�������� पिधान (Sheath) - ये शिश्न के आकार के रबर के थैले होते हैं, जिनको मैथुन के पूर्व शिश्न पर चढ़ा लिया जाता है। अपूर्ण मैथुन के अतिरिक्त अन्य उपायों की अपेक्षा सबसे अधिक इसका प्रयोग किया जाता है। यद्यपि इस प्रयोग में बहुत कुछ सफलता मिलती है, किंतु इसकी अचूक विधि नहीं कहा जा सकता। मैथुनक्रिया में कभी कभी रबर फट जाता है। फिर कुछ लोग इसका प्रयोग करना पसंद नहीं करते। उनका कथन है कि पिधान के प्रयोग से मैथुन के समय की भावनाएँ नष्ट हो जाती हैं।

पिधान नया और मोटे रबर का होना चाहिए। केवल विश्वसनीय दूकानों से इसे लेना चाहिए। पिधान को प्रयोग करते समय उसमें कोई शुक्राणुनाशक वस्तु (जेली) भर देनी चाहिए। जिन पिधानों में आगे एक छोटी थैली सी बनी होती है, वे अधिक उपयुक्त होते हैं। स्खलन के पश्चात् वीर्य उस थेली में भर जाता है। थैली न होने से वीर्य पीछे को जाकर पिधान और शिश्न के बीच से निकलकर योनि में पहुँच सकता है।

(२)�������� अपूर्ण मैथुन (Coitus Interuptus) - इस विधि में मैथुन की क्रिया समाप्त होने के पहले ही लिंग को योनि से निकाल लिया जाता है और इसलिए वीर्यस्खलन योनि के बाहर होता है। यह कदाचित् सबसे प्राचीन और सबसे अधिक प्रयुक्त होनेवाली विधि है। यह विधि पुरुष और स्त्री दोनों के लिए हानिकारक है। बहुत बार इस क्रिया से दोनों को किसी प्रकार का मानस रोग हो जाता है।

(३)�������� शुक्राणुनाशक (Sermircidal) योग - ये प्राय: मरहम या जेली, योनिवर्ति (suppositories) या टिकिया होते हैं और इनमें कोई शुक्राणुनाशक रासायनिक पदार्थ मिला रहता है। इस प्रकार की वस्तु को विधान में भरकर प्रयोग करने से अधिक संतोषजनक परिणाम होते हैं। टिकिया को मैथुन से पूर्व योनि में प्रविष्ट कर दिया जाता है। उसमें झाग उठते हैं, जिनमें शुक्राणुनाशी पदार्थ मिला रहता है।

जेली राँगे की पिचकने वाली ट्यूबों में आती है, जिनके सिरे पर टोंटी लगी होती है। मैथुन से पूर्व टोंटी द्वारा जेली को योनि में ऊपर तक प्रविष्ट कर दिया जाता है। जेली शुक्राणुओं को रोक देती है अथवा नष्ट कर देती है, किंतु गर्भाशय के द्वार पर स्खलन होने से शुक्राणुओं के सीधे भीतर पहुँचने की संभावना रहती है। जिन स्त्रियों ने इस विधि का प्रयोग किया है उनमें से अधिक को सफलता हुई है। कुछ को नहीं हुई।

इसी प्रकार टिकिया को भी योनि में ऊपर तक, मैथुन से पूर्व, प्रविष्ट कर दिया जाता है। मैथुन के समय उसमें झाग उठते हैं, जिनमें मिला हुआ शुक्राणुनाशी रसायन शुक्राणुओं को नष्ट कर देता है, अथवा उनका स्तंभन हो जाता है। डायफ्रााम के साथ इन टिकियों का प्रयोग विश्वस्त गर्भनिरोधक विधि है।

(४)�������� मैथुनोत्तर योनिवस्ति (Douching) - मैथुन के पश्चात् तुरंत ही डूश से, या इसी क्रिया के लिए बनी हुई विशेष सिरिंज से योनिमार्ग का प्रक्षालन किया जाता है। प्रक्षालन के लिए साधारण जल, साबुन या जल में सिरका (१ चम्मच १० छटाँक जल में) मिलाकर प्रयोग किया जाता है। स्वयं जल शुक्राणुनाशी है।

इस विधि का बहुत प्रयोग किया जाता है, किंतु यह पूर्णतया विश्वसनीय नहीं है। इसके अतिरिक्त इसमें असुविधाएँ बहुत हैं, जैसे डूश के लिए एकांत स्थान की आवश्यकता, तुरंत उठकर डूश लेना, गरम जल का मिलना आदि और फिर भी अनिश्चित परिणाम। इन कारणों से इस विधि के प्रयोग की सलाह नहीं दी जाती।

(५)�������� अवरोधक टोपियाँ - ये रबर की बनी ऐसी टोपियाँ होती है जो योनिभाग में प्रविष्ट करने पर, ऊपर तक पहुँचकर, गर्भाशय के बहिद्वार और ग्रीवा पर ठीक उसी प्रकार बैठ जाती हैं जैसे सिर पर टोपी। इससे शुक्राणु गर्भाशय के भीतर प्रविष्ट नहीं हो पाते। ये टोपियाँ तीन प्रकार की होती हैं :

(क) डच टोपियाँ - ये रबर की बनी गुंबद के आकार की टोपियाँ होती है, जिनके किनारों किनारों के भीतर बारीक कमानी रहती है। इनका आकार ४५ से ९० मिलीमीटर व्यास तक होता है। ये योनिमार्ग में इस प्रकार लगाई जाती है कि वे गर्भाशयद्वार को पूर्णतया ढँक ले। इस कारण ये योनिमार्ग के लगभग अंत पर तिरछी स्थिति में लगाई जाती हैं। इनका पीछे की ओर का किनारा योनिमार्ग की पश्चिम भित्ति पर, गर्भाशयद्वार के पीछे रहता है। अगला किनारा अग्रभित्ति पर, भगास्यि के पीछे, योनिद्वार से १ या १।। इंच ऊपर रहता है। इस प्रकार यह पिछले किनारे से १ या १।। इंच नीचा रहता है। अतएव टोपी से न केवल गर्भाशय का बहिर्द्वार वरन् ग्रीवा भी ढँक जाती है।

लंबी स्त्रियों के लिए बड़े आकार की टोपी की आवश्यकता होती है। साधारणतया ५० से ६० मिलीमीटर आकर की टोपी अधिक स्त्रियों को उपयुक्त होती है। सबसे बड़े आकार की टोपी, जो ठीक बैठे, वही लगानी चाहिए।

इस टोपी की उपयोगिता योनिमार्ग के आकार और भित्तियों की दृढ़ता पर निर्भर है। योनि की भित्तियाँ ही टोपी को सँभाले रहती हैं। यदि वे ढीली है या गर्भाशयद्वार के सामने भगास्थि के पीछे की ओर, मूत्राशयभ्रंश आदि के कारण, पर्याप्त स्थान नहीं है, तो यह टोपी अपने स्थान में नहीं टिकेगी, या मैथुन के समय हट जाएगी।

(ख) ड्यूमा की टोपी - यह डच टोपी से छोटी और उथली होती है। इस कारण जब गर्भाशय की ग्रीवा लंबी या बड़े आकार की हो, तब उसपर यह टोपी ठीक नहीं बैठती। यदि ग्रीवा पीछे को मुड़ी हो, या सीधी हो, तो भी यह टोपी उपयुक्त नहीं है; मैथुन के समय वह हट सकती है। जिसमें मूत्राशयभ्रंश या गुदभ्रंश हो उनके लिए यह उपयुक्त है। इसको निकालना भी कठिन होता है। यह टोपी तीन आकारों में बनाई जाती है, जो बृहत्, मध्यम और लघु कहलाते हैं।

(ग) ग्रीवा की टोपी (Cervical cap) - ये टोपियाँ गर्भाशय की ग्रीवा पर बैठ जाती हैं। इस कारण ये योनिमार्ग की भित्ति पर आश्रित नहीं रहती। ये पाँच आकारों की बनाई जाती हैं, जिनके नंबर ०, , १, २ और ३ है। इस प्रकार की टोपी केवल उन स्त्रियों को प्रयुक्त करनी चाहिए जिनमें गर्भाशय की ग्रीवा बड़ी हो और ग्रीवा पर व्रण या शोथ के कोई चिन्ह न हों। इसमें सुगमता यह है कि इसको लगाना सहज है और गर्भाशय के भ्रंश की दशा में भी प्रयुक्त हो सकती है। इसमें दोष यह है कि यह मैथुन के समय हट सकती है। यदि गर्भाशय में, या ग्रीवा में, कुछ शोथ हुआ, तो उनका स्राव टोपी के भीतर ही रह जाता है जो हानिकारक है।

(घ) मध्यपट या डायफ्रााम - टोपियों के समान डायफ्रााम भी रबर, या प्लास्टिक का बना, तश्तरी सा होता है, जो योनिनलिका के ऊपर के छोर (अंत) पर, आर पार, लगा दिया जाता है, जिससे वह गर्भाशय के मुख को ढँकने के अतिरिक्त, उसके चारों ओर तक के क्षेत्र तक पहुँचने के मार्ग को भी बंद कर देता है। इसको मैथुन के पूर्व लगाया जाता है और मैथुन के आठ घंटे पश्चात् तक नहीं निकाला जाता। उसके पश्चात् निकालकर और साबुन और जल से स्वच्छ करके और पाउडर लगाकर, रख दिया जाता है। इसका फिर प्रयोग किया जा सकता है। इसके साथ किसी शुक्राणुनाशक जेली का प्रयोग करना चाहिए यह एक विश्वस्त विधि है, किंतु इसको लगाने में सावधानी आवश्यक है। ठीक प्रकार से न लगने पर वह निरर्थक हो जाएगा।

साधरण सिद्धांत - इन सब प्रकार की टोपियों के प्रयोग के सिद्धांत समान हैं। इनको लगाने की विधियों को सीखने की आवश्यकता होती है। सरकार की ओर से खुले हुए केंद्रों में यह शिक्षा प्राप्त की जा सकती है।

निश्चित सफलता की प्राप्ति के लिए एक से अधिक विधियों का एक साथ प्रयोग करना चाहिए। टोपियों के साथ शुक्राणुनाशक मरहम का प्रयोग किया जाए। टोपी लगाने के पूर्व उसके किनारे पर मरहम लगा दिया जाए तथा टोपी के भीतर भी भर दिया जाए। मैथुन से कुछ समय पूर्व, ऐसे मरहम से भरकर, टोपी को लगाया जाए और मैथुन के समय योनिवस्ति या किसी जेली को भी योनि में प्रविष्ट कर दिया जाए। इससे गर्भस्थापना की संभावना नहीं रहती।

टोपी को मैथुन के ८, १० घंटे पश्चात् तक लगाए रखना उचित है। १८ घंटे से अधिक समय तक टोपी न लगी रहनी चाहिए। टोपी को निकाल कर, साबुन से धोकर और सुखाकर तथा शरीर पर लगानेवाले सामान्य पाउडर को लगाकर, रख देना चाहिए।

अब टोपियों का स्थान डायफ्रााम और जेली अथवा टिकिया ने ले लिया है, जिनका प्रयोग अधिक सरल है।

(६)�������� निर्भय काल (Safe period) - यह पाया गया है कि अंडक्षरण (अंडकोषिका का अंडग्रंथि से निकलना) आर्तव के समय नहीं होता। किंतु आर्तवों के अंतर्काल में आर्तव के पश्चात् १४वें से २०वें दिन के बीच में होता है और अंडकौषिका २४ घंटे से अधिक संसेचन के योग्य नहीं रह पाती। शुक्राणु की संसेचन शक्ति भी तीन चार दिन में नष्ट हो जाती है। अतएव आर्तव के पूर्व का सप्ताह 'निर्भय काल' कहलाता है, जिसमें गर्भस्थापना का भय नहीं रहता। जिन लोगों को अन्य विधियों के उपयोग में कोई आपत्ति होती है, उनके लिए केवल यही विधि उपयुक्त है।

यह विधि केवल उन्हीं स्त्रियों में विश्वसनीय है जिनका आर्तवचक्र सदा एक समान २८ दिन का होता है। इस काल के घट बढ़ जाने से, अंडक्षरण के समय में भी घटाबढ़ी हो सकती है।

कुछ और विधियाँ भी काम में लाई जाती थीं। गर्भाशयांतर डूश, स्पंज का प्रयोग, वीर्य के इंजेक्शन (जिससे शरीर में शुक्राणुरोधी वस्तुएँ उत्पन्न हो जाएँ), अंड और अंडग्रंथि पर एक्स किरणों का डालना, जिससे अस्थायी बंध्यता उत्पन्न हो जाए, आदि विधियाँ, अब केवल ऐतिहासिक महत्व की बातें हैं।

(७)�������� स्त्री में अंडवाहिकाओं या फालोपिओ-नलिकाओं के तथा

पुरुष में शुक्रवाहिका नलिकाओं के छेदन और बंधन (क्रमश: Ligature of fallopian tubes and Vasectomy) से गर्भस्थापना की तनिक भी संभावना नहीं रहती। इस शल्यकर्म से शुक्राणु

और अंडकोषिका का संगम असंभव हो जाता है और फिर संतान होने की संभावना सदा के लिए मिट जाती है।

(८)�������� लूप - यह गर्भनिरोध की एक नई विधि है, जिसका आविष्कार कुछ वर्ष पूर्व हुआ है और तभी से इसका बहुत प्रयोग हो रहा है। यह प्लास्टिक की बनी एक नली होती है, जिसको उसी पर कुंडलित कर दिया जाता है। इसको एक डाक्टर द्वारा

स्त्री के गर्भाशय में प्रविष्ट कर दिया जाता है। यह पूर्णतया विश्वस्त विधि पाई गई है और संसार के सभी देशों की स्त्रियों द्वारा प्रयोग की जा रही है। लूप गर्भाशय में तब तक रखा रहता है, जब तक दंपति संतान नहीं उत्पन्न करना चाहें। यदि दंपति संतान के इच्छुक होते हैं, तो वे डाक्टर से लूप को निकलवा सकते हैं और स्त्री गर्भ धारण कर सकती है। लूप को गर्भाशय में रखने के लिए किसी ऑपरेशन की आवश्यकता नहीं होती। डाक्टर की लूप को गर्भाशय में रखने में कुछ ही मिनट लगते हैं। इससे मैथुन में कोई बाधा नहीं पड़ती है। कुछ स्त्रियों में अत्यल्प रक्तस्राव दो चार दिन तक हो सकता है अथवा लूप लगाने पर प्रथम आर्तव की अधिक मात्रा होती है, किंतु ये बातें स्वयं ही शीघ्र ठीक हो जाती है। सरकार की ओर से जो अनेक परिवार-नियोजन-केंद्र खोले गए हैं, उनमें नियुक्त डाक्टर लूप लगाने में विशेषतया शिक्षित होते हैं।

(९)�������� गर्भनिरोधक गोलियाँ - इन गोलियों का उपयोग गर्भनिरोध की अत्युत्तम विधि है। इन गोलियों का सभी देशों में प्रचुर उपयोग किया जा रहा है। इनका प्रभाव अंडग्रंथि से अंड के बाहर आने (अंडक्षरण) पर होती है। एक गोली नित्य प्रति खानी होती है। परिवार-नियोजन-केंद्र के डाक्टर से गोलियों का पैकट मिलता है, जिसमें २१ श्वेत और गुलाबी गोलियाँ होती हैं। २१ दिन तक एक श्वेत गोली प्रति दिन तक और उसके पश्चात ७ दिन तक गुलाबी गोली खानी होती है। गर्भ का निरोध करने के अतिरिक्त, इन गोलियों से मासिक के सामान्य दोष, मासिक में पीड़ा, मासिक का कम या समय से न होना, आदि भी दूर हो जाते हैं। सामान्यत: इन गोलियों से कोई कष्ट नहीं होता। कुछ स्त्रियों की सिर दर्द, आदि हो सकता है, किंतु वह शीघ्र ही जाता रहता है। जिन स्त्रियों को कैंसर, यकृत रोग, या रक्त संबंधी रोग हों, उनको ये गोलियाँ नहीं खानी चाहिए। मासिक के प्रारंभ से चार दिन के पश्चात्, पाँचवें दिन से गोलियाँ खानी प्रारंभ की जाएँ।

(१०)���� कुछ इंजेक्शन के योग भी तैयार किए गए हैं, किंतु वे अभी अन्वेषणगत ही हैं।

उपर्युक्त उपाय उन्हीं व्यक्तियों को करने चाहिए जिनके पहले ही से कई संतान हों।

सं.ग्रं. - मेरी स्टोप्स : प्लैंड पेरेंटहुड ऐंड कौट्रासेप्शन; प्लैंड पेरेटहुड फेडरेशन ऑव अमरीका की इस विषय पर प्रकाशित लेखमाला; मार्गेरेट सैगर : प्लैंड पेरेटहुड; डाक्टर सत्यवती : संततिनिरोध; शासन द्वारा प्रकाशित परिवारनियोजन संबंधी साहित्य। (मुकुंद स्वरूप वर्मा)