संजीवनी विद्या संजीवनी या मृतसंजीवनी विद्या का उल्लेख आयुर्वेद और पुराणों में मिलता है। असुर पुरोहित शुक्राचार्य इस विद्या के बल पर मरे हुए दानवों को जीवित कर देते थे (आदि पर्व ७६/८), यह प्रसिद्ध है। ब्रह्मांड पुराण में 'मृतसंजीवनी विद्यां यो वेद मुनिदुर्लभाम्' कहकर इस तथ्य को पुष्ट किया गया है। आयुर्वेद में 'मृतसंजीवनी रस' प्रसिद्ध है - 'मृतसंजीवनी नाम रसोऽयं शंकरोदित, मृतसंजीवन एवं ब्राह्मणा कथित: पुरा' इत्यादि वाक्य इस प्रसंग में द्रष्टव्य है। मत्स्य पुराण २४९/६ से जाना जाता है कि उशना: (शुक्र) ने यह विद्या महेश्वर से सीखी थी। वस्तुत: भारत की यह विद्या (जो मृत वा मृतप्राय को पुन: संजीवित कर सकती है) अत्यंत प्राचीन है।

वायु पुराण ४९/३५ में कहा गया है कि द्रोण नामक पर्वत में अनेक बलकारक ओषधियाँ, विशल्यकरणी एवं मृतसंजीवनी औषधि, मिलती है। रामायण (युद्धकांड ५० २९-३२ दाक्षिणात्य पाठ) में भी ऐसा निर्देश मिलता है। यह द्रोण पर्वत क्षीरोद समुद्र के पास है। कोई कोई आधुनिक गवेषक इस समुद्र को कास्पियन सागर समझते हैं।श्श् (रामशंकर भट्टाचार्य)