संगीत गान मानव के लिए प्राय: उतना ही स्वाभाविक है जितना भाषण। कब से मनुष्य ने गाना प्रारंभ किया, यह बतलाना उतना ही कठिन है जितना कि कब से उसने बोलना प्रारंभ किया। परंतु बहुत काल बीत जाने के बाद उसके गान ने व्यवस्थित रूप धारण किया। जब स्वर और लय व्यवस्थित रूप धारण करते हैं तब एक कला का प्रादुर्भाव होता है और इस कला को संगीत, म्यूजिक या मौसीकी कहते हैं।

युद्ध, उत्सव और प्रार्थना या भजन के समय मानव गाने बजाने का उपयोग करता चला आया है। संसार में सभी जातियों में बाँसुरी इत्यादि फूँक के वाद्य (सुषिर), कुछ तार या ताँत के वाद्य (तत), कुछ चमड़े से मढ़े हुए वाद्य (अवनद्ध या आनद्ध), कुछ ठोंककर बजाने के वाद्य (घन) मिलते हैं।

ऐसा जान पड़ता है कि भारत में भरत के समय तक गान को पहले केवल गीत कहते थे। वाद्य में जहाँ गीत नहीं होता था, केवल दाड़ा, दिड़दिड़ जैसे शुष्क अक्षर होते थे, वहाँ उस निर्गीत या बहिर्गीत कहते थे और नृत्त अथवा नृत्य की एक अलग कला थी। किंतु धीरे धीरे गान, वाद्य और नृत्य तीनों का 'संगीत' में अंतर्भाव हो गया - ''गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगतमुच्यते''। भारत से बाहर अन्य देशों में केवल गीत और वाद्य को संगीत में गिनते हैं, नृत्य को एक भिन्न कला मानते हैं। भारत में भी नृत्य को संगीत में केवल इसलिए गिन लिया गया कि उसके साथ बराबर गीत या वाद्य अथवा दोनों रहते हैं। हम ऊपर कह चुके हैं कि स्वर और लय की कला को संगीत कहते हैं। स्वर और लय गीत और वाद्य दोनों में मिलते हैं, किंतु नृत्य में लय मात्र है, स्वर नहीं। हम संगीत के अंतर्गत केवल गीत और वाद्य की चर्चा करेंगे, क्योंकि संगीत केवल इसी अर्थ में अन्य देशों में भी व्यवहृत होता है।

भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता।

भारतीय संगीत का आदि रूप वेदों में मिलता है। वेद के काल के विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद है, किंतु उसका काल ईसा से लगभग २००० वर्ष पूर्व था - इसपर प्राय: सभी विद्वान् सहमत है। इसलिए भारतीय संगीत का इतिहास कम से कम ४००० वर्ष प्राचीन है।

वेदों में वाण, वीणा और कर्करि इत्यादि तत वाद्यों का उल्लेख मिलता है। अवनद्ध वाद्यों में दुदुंभि, गर्गर इत्यादि का, घनवाद्यों में आघाट या आघाटि और सुषिर वाद्यों में बाकुर, नाडी, तूणव, शंख इत्यादि का उल्लेख है। यजुर्वेद में ३०वें कांड के १९वें और २०वें मंत्र में कई वाद्य बजानेवालों का उल्लेख है जिससे प्रतीत होता है कि उस समय तक कई प्रकार के वाद्यवादन का व्यवसाय हो चला था।

संसार भर में सबसे प्राचीन संगीत सामवेद में मिलता है। उस समय ''स्वर'' को 'यम' कहते थे। साम का संगीत से इतना घनिष्ठ संबंध था कि साम को स्वर का पर्याय समझने लग गए थे। छांदोग्योपनिषद् में यह बात प्रश्नोत्तर के रूप में स्पष्ट की गई है। 'का साम्नो गतिरिति? स्वर इति होवाच' (छा. उ. १।८।४)। (प्रश्न 'साम की गति क्या है?' उत्तर 'स्वर'। साम का 'स्व' अपनापन 'स्वर' है। 'तस्य हैतस्य साम्नो य: स्वं वेद, भवति हास्य स्वं, तस्य स्वर एव स्वम्' (बृ. उ. १।३।२५) अर्थात् जो साम के स्वर को जानता है उसे 'स्व' प्राप्त होता है। साम का 'स्व' स्वर ही है।

वैदिक काल में तीन स्वरों का गान सामिक कहलाता था। 'सामिक' शब्द से ही जान पड़ता है कि पहले 'साम' तीन स्वरों से ही गाया जाता था। ये स्वर 'ग रे स' थे। धीरे धीरे गान चार, पाँच, छह और सात स्वरों के होने ले। छह और सात स्वरों के तो बहुत ही कम साम मिलते हैं। अधिक 'साम' तीन से पाँच स्वरों तक के मिलते हैं। साम के यमों (स्वरों) की जो संज्ञाएँ हैं उनसे उनकी प्राप्ति के क्रम का पता चलता है। जैसा हम कह चुके हैं, सामगायकों को स्पष्ट रूप से पहले 'ग रे स' इन तीन यमों (स्वरों) की प्राप्ति हुई। इनका नाम हुआ-प्रथम, द्वितीय, तृतीय। ये सब अवरोही क्रम में थे। इनके अनंतर नि की प्राप्ति हुई जिसका नाम चतुर्थ हुआ। अधिकतर साम इन्हीं चार स्वरों के मिलते हैं। इन चारों स्वरों के नाम संख्यात्मक शब्दों में है। इनके अनंतर जो स्वर मिले उनके नाम वर्णनात्मक शब्दों द्वारा व्यक्त किए गए हैं। इससे इस कल्पना की पुष्टि होती है कि इनकी प्राप्ति बाद में हुई। 'गांधार' से एक ऊँचे स्वर 'मध्यम' की भी प्राप्ति हुई जिसका नाम 'क्रुष्ट' (जोर से उच्चारित) पड़ा। निषाद से एक नीचे का स्वर जब प्राप्त हुआ तो उसका नाम 'मंद' (गंभीर) पड़ा। जब इससे भी नीचे के एक और स्वर को प्राप्ति हुई तो उसका नाम पड़ा 'अतिस्वार अथवा अतिस्वार्य'। इसका अर्थ है स्वरण (ध्वनन) करने की अंतिम सीमा।

संभाव्य स्वरों के नियत क्रम का जो समूह है वह संगीत में 'साम' कहलाता है। यूरोपीय संगीत में इसे 'स्केल' कहते हैं।

हम देख सकते हैं कि धीरे धीरे विकसित होकर साम का पूर्ण ग्राम इस प्रकार बना-

क्रुष्ट, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, मंद्र, अतिस्वार्थ। यह हम पहले ही कह चुके हैं कि साम का ग्राम अवरोही क्रम का था। नीचे हम सामग्रम और उनको आधुनिक संज्ञाओं को एक सारणी में देते हैं :

साम आधुनिक

क्रुष्ट मध्यम (म)

प्रथम गांधार (ग)

द्वितीय ऋषभ (रे)

तृतीय षड्ज (स)

चतुर्थ निषाद (नि)

मंद्र घैवत (ध)

अतिस्वार्य पंचम (प)

सामगान के प्राय: सात भाग होते हैं-हुंकार अथवा हिंकार, प्रस्ताव, आदि उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन। इसके मुख्य गायक को उद्गाता कहते हैं। उद्गाता के दो सहायक गायक होते हैं जिनको प्रस्तोता और प्रतिहर्ता कहते हैं। गान एक हिंकार अथवा हुंकार से प्रारंभ होता है जिसका उच्चार उद्गाता, प्रस्तोता और प्रतिहर्ता एक साथ करते हैं। उसके मुख्य भाग को उद्गाथ कहते हैं। इसे उद्गाता गाता है। इसके अनंतर एक भाग होता है जिसे प्रतिहार कहते हैं। इसे प्रतिहर्ता गाता है। इसके अनंतर जो भाग आता है उसे उपद्रव कहते हैं। इसे उद्गाता गाता है। निधन या अंतिम भाग को उद्गाता, प्रस्तोता और प्रतिहर्ता तीनों एक साथ मिलकर आते हैं। अंत में सब एक साथ मिलकर प्रणव अर्थात् ओंकार का सस्वर उच्चारण करते हैं।

सामगान की स्वरलिपि - सामगान की अपनी विशिष्ट स्वरलिपि (नोटेशन) है। लोगों में एक भ्रांत धारणा है कि भारतीय संगीत में स्वरलिपि नहीं थी और यह यूरोपीय संगीत का परिदान है। सभी वेदों के सस्वर पाठ के लिए उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के विशिष्ट च्ह्रि हैं किंतु सामवेद के गान के लिए ऋषियों ने एक पूरी स्वरलिपि तैयार कर ली थी। संसार भर में यह सबसे पुरानी स्वरलिपि तैयार कर ली थी। संसार भर में यह सबमें पुरानी स्वरलिपि है। सुमेर के गान की भी कुछ स्वरलिपि यत्रतत्र खुदी हुई मिलती है। किंतु उसका कोई साहित्य नहीं मिलता। अत: उसके विषय में विशिष्ट रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। किंतु साम के सारे मंत्र स्वरलिपि में लिखे मिलते हैं, इसलिए वे आज भी उसी रूप में गाए जा सकते हैं।

आजकल जितने भी सामगान के प्रकाशित ग्रंथ मिलते हैं उनकी स्वरलिपि संख्यात्मक है। किसी साम के पहले अक्षर पर लिखी हुई १ से ५ के भीतर की जो पहली संख्या होती है वह उस साम के आरंभक स्वर की सूचक होती है। ६ और ७ की संख्या आरंभ में कभी नहीं दी होती। इसलिए इनके स्वर आरंभक स्वर नहीं होते। हम यह देख चुके हैं कि सामग्राम अवरोही क्रम का था। अत: उसके स्वरों की सूचक संख्याएँ अवरोही क्रम में ही लेनी चाहिए।

प्राय: १ से ५ के अर्थात् मध्यम से निषाद के भीतर का कोई न कोई आरंभक स्वर अर्थात् षङ्ज स्वर होता है। संख्या के पास का 'र' अक्षर दीर्घत्व का द्योतक है। उदाहरणार्थ निम्नलिखित 'आज्यदोहम्' साम के स्वर इस प्रकार होंगे :

२ र २ र २ र २ र ४ र

हाउ हाउ हाउ । आ ज्य दो हम्।

सऽसश्श् सऽस सऽस । सऽ नि ऽप

मू२र र्धानं१र दाइ । वाश्श् र।

सऽ रे ऽ रे रे रे स ऽ नि रे रे

२ र ४ र २ रश्श् ४ र

ज्य दो हम्। ज्य दो हम्

सऽ नि ध ऽ स ऽश्श् नि ध ऽ

ति पृ थि व्या:

नि

इस साम में रे, स, नि, ध प - ये पाँच स्वर लगे हैं। संख्या के अनुसार भिन्न भिन्न सामों के आरंभक स्वर बदल जाते हैं। आरंभक स्वरों के बदल जाने से भिन्न भिन्न मूर्छनाएँ बनती हैं जो जाति और राग की जननी हैं। सामवेद के काव्य में स्वर, ग्राम और मूर्छना का विकास हो चुका था। सामवेद में ताल तो नहीं था, किंतु लय थी। स्वर, ग्राम, लय और मूर्छना सारे संगीत के आधार हैं। इसलिए सामवेद को संगीत का आधार मानते हैं।

प्रातिशाख्य और शिखा काल में स्वरों के नाम षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद हो गए। ग्राम का क्रम आराही हो गया : स्वर के तीनों स्थान मंद्र, मध्य और उत्तम (जिनका पीछे नाम पड़ा मंद्र, मध्य और तार) निर्धारित हो गए। ऋक्प्रातिशाख्य में उपर्युक्त तीनों स्थानों और सातों स्वरों के नाम मिलते हैं।

वाल्मीकि रामायण में भेरी, दुंदुभि, मृदंग, पटह, घट, पणव, डिंडिम, आडंवर, वीणा इत्यादि वाद्यों और जातिगायन का उल्लेख मिलता है। जाति राग का आदिरूप है। महाभारत में सप्त स्वरों और गांधार ग्राम का उल्लेख आता है। महाजनक जातक (लगभग २०० ई. पू.) में चार परम महाशब्दों का उल्लेख है। इन्हें राजा उपाधि रूप में विद्वान् को प्रदान करता था।

पुरनानूरू और पत्तुपाटटु (१००-२०० ई.) नामक तमिल ग्रंथों में अवनद्ध (चमड़े से मढ़े हुए) वाद्यों का बहुत महत्व दिया गया है। ऐसे वाद्य का विशिष्ट स्थान होता था जिसे 'मुरसुकट्टिल' कहते थे। तमिल के परिपादल (१००-२०० ई.) ग्रंथ में स्वरों और सात पालइ का उल्लेख है। 'पालइ' मूर्छना से मिलता है। उसमें 'याल' नामक तंत्री वाद्य का भी उल्लेख है। 'याल' के एक प्रकार में एक सहस्र तक तार होते थे।

दक्षिण के एक बौद्ध नाटक सिलप्पडिगारन् (३०० ई.) में भी कुछ संगीतविषयक बातों का समावेश है। इसमें वीणा, याल, बाँसुरी, पटह इत्यादि वाद्यों का जिक्र है। उस समय के प्रचलित रागों का भी इसमें उल्लेख है। उसी समय के 'तिवाकरम्' नामक एक जैन कोश में भी संगीत के विषय में कुछ जानकारी दी गई है। इसमें संपूर्ण षाडव और ओडव रागों का उल्लेख तथा है तथा श्रुतियों और सात स्वरों का भी वर्णन है।

कालिदास के नाटकों में संगीत की चर्चा इतस्तत: आई है। मालविकाग्निमित्र में तो संगीत में दो शिष्यों क पूरी प्रतियोगिता ही दिखलाई गई है।

भारतीय संगीत का जो सबसे प्राचीन ग्रंथ मिलता है वह है भरत का नाट्यशास्त्र। भरत के काल के विषय में विवाद है। यह एक संग्रह ग्रंथ है। इसलिए इसके काल का निर्णय करना और कठिन हो गया है। विद्वान् लाग इसका काल लगभग ई. पू. ५०० से ४०० ई. तक मानते हैं। नाट्यशास्त्र में श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्छना, जाति और ताल का विशद विवेचन किया गया है। भरत ने श्रुतियों का विचार स्वर की स्थापना के लिए किया है। उन्होंने ४ श्रुतियों के अंतराल पर षड्ज रखा है, उसके अनंतर ३ श्रुतियों के अंतराल पर ऋषभ, २ श्रुतियों के अंतराल पर गांधार, ४ श्रुतियों के अंतराल पर मध्यम, फिर ४ श्रुतियों के अंतराल पर पंचम, ३ श्रुतियों के अंतराल पर धैवत, और २ श्रुतियों के

अंतराल पर निपाद रखा है। इस प्रकार श्रुतियों की कुल संख्या २२ मानी है। भरत ने षड्जग्राम और मध्यमग्राम ऐसे दो ग्राम माने हैं। ऊपर जो श्रुतियों का अंतराल दिया है वह षड्ज ग्राम का है। यह ग्राम षड्ज से प्रारंभ होता है। इसलिए इसका षड्जग्राम नाम पड़ा। जो ग्राम मध्यम से प्रारंभ होता है उसका नाम है 'मध्यम ग्राम'। मध्यम ग्राम में मध्यम ग्राम में मध्यम चतु:श्रुति, पंचम त्रिश्रुति, धैवत चतुश्रुति, निषाद द्विश्रुति, षड्ज चतु:श्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, एवं गांधार द्विश्रुति होता है। गांधार ग्राम भरत को मान्य नहीं है।

मूर्छना का अर्थ है उभर या चमक। सात स्वरों के क्रमयुक्त प्रयोग की संज्ञा मूर्छना है (क्रमयुक्ता स्वरा: सप्त मूर्च्छनास्त्वभिसंज्ञिता: भरत, व.सं.अ. २८ पृ. ४३५)। भरत ने षड्ज और मध्यम दोनों ग्रामों में सात सात मूर्छनाएँ मानी हैं। मूर्छनाएँ 'जाति' गान का आधार थीं। विशिष्ट स्वर विशेष प्रकार के सन्निवेश में 'जाति' कहलाते थे। जिसमें ग्रह, अंश, तार, मंद्र, न्यास, अपन्यास, अल्पत्व, बहुत्व, षाडवत्व और औडुवत्व के नियमों द्वारा स्वरसन्निवेश किया जाता था, वह 'जाति' कहलाता था। जातिगान संगीत की बहुत विकसित अवस्था का सूचक है। भरत के समय में जातिगान परिपूर्ण अवस्था का सूचक है। भरत के समय में जातिगान परिपूर्ण अवस्था पर पहुँचा हुआ था। जाति ही राग की जननी है। भरत ने सात ग्रामराग भी गिनाए हैं और यह बतलाया है कि वे जाति से प्रादुर्भूत होते हैं।

नाट्यशास्त्र में चच्चत्पुट, चाचपुट अथवा चंचूपुट, षटपितापुत्र अथवा पंचपाणि, संपत्केष्टक, उद्बद्ध अथवा उद्घट तालों का उल्लेख है। ये क्रमश: ८, ६, १२, १२, और ६ मात्राओं के ताल थे।

मद्रास प्रदेश के कुडुमियमालइ स्थान में एक उत्कीर्ण लेख मिला है जो संभवत: ७वीं ई. शती का है। इसमें सात जातियों, सात स्वरों और कुछ श्रुतियों का तथा अंतर गांधार और काकलि निषाद का उल्लेख है। इससे यह सिद्ध होता है कि भारत में सातवीं शती तक संगीत की पर्याप्त उन्नति हो चुकी थी और उसके मुख्य विषय उत्तर से दक्षिण तक प्रसिद्ध और ग्राह्य हो चुके थे।

कुछ लोग नारदीय शिक्षा को भी ७वीं शती के आसपास का ग्रंथ मानते हैं। इस ग्रंथ के देखने से तो यही पता चलता है कि यह भरत के नाट्यशास्त्र से अधिक प्राचीन है। इसमें श्रुति, स्वर, ग्राम का उल्लेख तो है ही, वैदिक संगीत और गात्रवीणा का भी विशद वर्णन है। नाट्यशास्त्र में वैदिक संगीत का वर्णन नहीं है।

भरत के अनंतर मतंग ने संगीत पर बहुत प्रकाश डाला है। उनका काल लगभग ८५० ई. है। उनकी बृहद्देशी जाति और राग, गांधर्व और देशी संगीत के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। उन्होंने 'द्वादशस्वर मूर्च्छना' पद्धति चलाई, जिसका लगभग २०० वर्ष तक प्रभुत्व रहा। अभिनव गुप्त (लगभग १००० ई.) ने अपने ग्रंथ ''अभिनव भारती'' में द्वादश स्वर मूर्छनावाद का खंडन किया है।

११वीं शती में मिथिला के राजा नान्यदेव ने 'सरस्वती हृदयालंकार' ग्रंथ की रचना की। यह भरत के संगीत पर एक विस्तृत और सारगर्भ भाष्य है। इस ग्रंथ के अभी तक थोड़े से ही भाग मिले हैं।

पश्चिमी चालुक्यों के वंशज महाराज सोमेश्वर संगीत के प्रकांड विद्वान् थे। उन्होंने अपने 'अभिलषितार्थ चिंतामणि' के चौथे प्रकरण में एक हजार एक सौ सोलह श्लोक संगीत पर लिखे हैं। भिन्न प्रकार के प्रबंधों का उदाहरण इस ग्रंथ की विशेषता है। इनक राज्यकाल ११२७-११३४ ई. है।

सोमेश्वर के पुत्र प्रतापचक्रवर्ती हुए जिनका दूसरा नाम जगदेकमल्ल था। इनका राज्यकाल ११३४ से ११४३ ई. तक रहा। इन्होंने 'संगीत चूड़ामणि' नामक ग्रंथ की रचना की। यह बहुत प्रामाणिक ग्रंथ था। अब यह केवल खंडित रूप में मिलता है। बड़ोदा ओरिएंटल इंस्टिट्यूट ने इस खंडित ग्रंथ को १९५८ में प्रकाशित किया है। इसमें स्वर, प्रबंध, ताल और राग के प्रकरण दिए हुए हैं। ताल का वर्णन इसमें बहुत विस्तृत है।

चालुक्यवंशीय सौराष्ट्रनरेश महाराज हरिपाल संगीत के प्रसिद्ध विद्वान् थे। इनका काल ११७५ ई. है। इन्होंने 'संगीत सुधाकर' नामक ग्रंथ की रचना की है जो अभी तक अप्रकाशित है। इसमें लगभग ७० रागों का वर्णन है। इसमें नृत्य, वाद्य और गीत तीनों का प्रतिपादन हुआ है।

सोमराज देव ने ११८० में 'संगीतरत्नावली' की रचना की। इनका दूसरा नाम सोमभूपाल था। यह सम्राट् अजयपाल के वेत्रधर थे। इनके ग्रंथ में स्वर, ग्राम, प्रबंध, राग, ताल, सभी का विशद वर्णन है। इन्होंने एकतंत्री और आलापिनी वीणा के भी लक्षण दिए हैं।

१२वीं शती ई. में जयदेव ने 'गीतगोविंद' की रचना की। इनका जन्म बोलपुर के पास केंदुला ग्राम में हुआ था। जयदेव ने विभिन्न राग और तालों में प्रबंध लिखे हैं। उन्होंने मालव, गुर्जरी, वसंत, रामकरी, मालवगौड़, कर्णाट, देशाख्य, देशीवराडी, गोंडकरी, भैरवी, वराडी, विभास, इत्यादि रागों और रूपक, यति, एकताल, इत्यादि तालों का प्रयोग किया है। अपने प्रबंधों की उन्होंने स्वरलिपि नहीं दी है, अत: यह कहना कठिन है कि वह इन्हें किस प्रकार गाते थे। किंतु इतना स्पष्ट है कि १२वीं शती तक प्रबंध की गायनशैली ख्याति प्राप्त कर चुकी थी और कई राग और ताल लोकप्रिय हो गए थे।

पाल्कुरिकि सोमनाथ ने तेलगु में १२७० ई. में 'पंडिताराध्यचरितम्' नामक एक ग्रंथ लिखा। इसमें लगभग ३२ प्रकार की वीणाओं का उल्लेख है और मृंदग में समहस्त और वैशलम् इत्यादि की चर्चा है। इसके अतिरिक्त गमक, ठाय, नृत्य इत्यादि का भी इसमें विस्तृत वर्णन है।

भारतीय संगीत का 'नाट्यशास्त्र' के अंनतर सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ शाङ्र्गदेव का 'संगीतरत्नाकर' है। शाङ्र्गदेव के पूर्वज कश्मीर से आए थे और दक्षिण के यादववंश के देवगिरि के राजा के यहाँ नियुक्त हो गए। अत: शाङ्र्गदेव को उत्तर और दक्षिण दोनों की संगीतपद्धतियों के अध्ययन का सुअवसर प्राप्त हुआ और उन्होंने समस्त भारतीय संगीत का विस्तृत शास्त्र 'संगीतरत्नाकर' में दिया है। इसमें श्रुति, स्वर, ग्राम, जाति, राग, प्रबंध, नृत्य, ताल सभी पर प्रकाश डाला गया है। इसमें संदेह नहीं कि यह भारतीय संगीत का आकर ग्रंथ है। इसकी रचना १३वीं शती में हुई थी।

शाकंभरि के राजा हम्मीर ने लगभग १३०० ई. में 'शृंगारहार' की रचना की। इसमें भाषारागों और देशी रागों का वर्णन है। १२० ताल और एकतंत्री, नकुला, किन्नरी और आलापिनी इत्यादि वीणाओं की भी चर्चा है। जैन आचार्य पार्श्वदेव ने लगभग १३०० में 'संगीत-समय-सार' की रचना की, जिसमें उस समय के संगीत का बहुत ही विशद वर्णन है।

१४वीं और १५वीं शती में उत्तरी भारत के संगीत पर मुसलमानों के प्रभुत्व के कारण ईरानी संगीत का प्रभाव पड़ने लगा। सुल्तान अलाउद्दीन (१२९५-१३१६ ई.) के दरबार में अमीर खुसरों संगीत के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने कव्वाली मान का प्रचार किया। कहा जाता है, सितार वाद्य का भी निर्माण इन्हीं ने किया। किंतु ''सहतार'' वाद्य ईरान में पहले से वर्तमान था। हो सकता है, इसका कुछ रूपांतर करके उन्होंने इसे भारत में प्रोत्साहन दिया हो। कहा जाता है, तबला भी इन्हीं का निर्माण किया हुआ है। ख्याल गायकी का भी आरंभ इन्होंने किया। इन्होंने ईरानी धुनों का मिश्रण करके कुछ नए राग भी बनाए।

जौनपुर के सुलतान इब्राहीम शर्की (१४००-१४४० ई.) के समय मलिक सुलतान कड़ा (प्रयाग के समीप) के अधिपति थे। इनके पुत्र बहादुर मलिक संगीत के बहुत प्रेमी थे। इन्होंने प्राय: सभी संगीतग्रंथों को एकत्र किया और सारे भारत से संगीत के विद्वानों को आमंत्रित किया। उनको आदेश दिया कि सब ग्रंथों का अध्ययन करके एक ऐसे ग्रंथ की रचना करें जिसमें संगीत संबंधी मतभेदों का निर्णय हो। इन पंडितों ने बहुत कुछ विचार विमर्श के अनंतर एक ग्र्रंथ की रचना की जिसका नाम उन्होंने 'संगीतशिरोमणि' रखा। भारतीय संगीत के इतिहास में यह पहला प्रयत्न था जब विविध मतों पर विचार करके एक समन्वयात्मक ग्रंथ लिखा गया। इस दृष्टि से यह ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्यवश इस ग्रंथ के इस समय केवल प्रथम और चतुर्थ अध्याय ही प्राप्य है। यदि सपूर्ण ग्रंथ मिल जाए तो भारतीय संगीत पर बहुत बड़ा प्रकाश पड़ सकता है।

मेवाड़ के महाराणा कुंभ (१४३१-१४६९ ई.) जैसे वीर थे वैसे ही संगीत के भी बहुत प्रख्यात विद्वान् थे। यह भरत पद्धति से पूर्णतया परिचित थे। इन्होंने 'गीतगोविंद' पर रसिकप्रिया नाम की एक टीका लिखी और संगीत पर 'संगीतराज' नामक ग्रंथ की रचना की। यह ग्रंथ १६ सहस्र श्लोको में पूर्ण हुआ है और गीत, वाद्य, नृत्य सभी पर इसमें पूर्ण प्रकाश डाला गया है।

लोचन कवि ने रागतरंगिणी का प्रणयन संभवत: १५वीं शती में किया। इसमें रागों का वर्गीकरण बारह ठाठों में किया गया है। १५वीं शती में महाप्रभु चैतन्य के प्रभाव से बंगाल में भक्तिसंगीत का अधिक प्रचार हुआ और संकीर्तन बहुत ही लोकप्रिय हो गया।

ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर (१५वीं शती) ने ध्रुवपद शैली के गायन का विकास किया। संभवत: नायक बैजू इनके दरबार में थे। इन्होंने हिंदी में 'मानकुतूहल' नामक ग्रंथ की रचना की। संगीत पर हिंदी में कदाचित् यह पहला ग्रंथ है। इसमें उस समय के रागों पर पर्याप्त प्रकाश डाल गया है।

मुगल बादशाहों में अकबर (१५५६-१६०५ ई.) ने संगीत को सबसे अधिक प्रोत्साहन दिया। इस काल में वृंदावन में स्वामी हरिदास संगीत के बहुत ही प्रख्यात आचार्य थे। कहा जाता है, तानसेन ने संगीत में शिक्षा पाई थी। इन्होंने सैकड़ों ध्रुवपद और धमार की रचना की। सूरदास, नंददास, कुंभनदास, गोविंदस्वामी इत्यादि वैष्णव कवियों ने 'विष्णुपद' की रचना की जो मंदिरों में गाए जाते थे। ये छंद में आबद्ध थे, किंतु ध्रुवपद की शैली में गाए जाते थे।

तानसेन पहले रीवाँ के महाराज रामचंद्र बघेल के दरबार में थे। अकबर ने उन्हें वहाँ से बुलवाकर अपना दरबारी गायक नियुक्त किया। तानसेन की प्रचलित गानपद्धति का ज्ञान तो था ही, वह प्राचीन संगीत पद्धति से भी परिचित थे। इन्होंने दरबारी कानडा, मियाँ की तोड़ी, मियाँपल्लार इत्यादि रागों का निर्माण किया। वह अनुपम गायक थे। उनके वंशजों ने ध्रुवपद धमार की गायकी और वीणा और रवाव वादन को २०वीं शती तक जीवित रखा।

१६वीं शती में पुंडरीक विट्ठल संगीतशास्त्र के अच्छे विद्वान् हुए हैं। वह कर्णाट के शिवगंगा नामक गाँव में पैदा हुए थे किंतु उनका अधिक समय बीता खानदेश प्रांत के बुरहानपुर नगर में। जब अकबर ने खानदेश को १५९९ में जीत लिया तो संभवत: वह दिल्ली आए। वह उत्तर भारतीय और कर्णाटक संगीत दोनों के पंडित थे। उनके लेख से ऐसा जान पड़ता है कि बुरहान खाँ ने उन्हें दोनों के समन्वय का आदेश दिया था। उन्होंने षड्रागचंद्रोदय, रागमाला, रागमंजरी और नर्तननिर्णय नाम के चार ग्रंथ लिखे। उनके ग्रंथों में स्वयंभू स्वर का उल्लेख मिलता है।

कर्णाटक संगीत के विद्वान् रामामाला ने १५५० ई. के लगभग 'स्वरमेलकलानिधि' की रचना की। उन्होंने १९ मेलों में रागों का वर्गीकरण किया। उनके ग्रंथ में भी स्वयंभू स्वर का उल्लेख मिलता है।

१६०९ ई. में सोमनाथ ने रागविबोध लिखा। यह दक्षिण में संभवत: राजमुंद्री के पास के रहनेवाले थे। इन्होंने रुद्रवीणा, शुद्ध और मध्यम मेल वीणा का विस्तृत वर्णन दिया है। इन्होंने जनक और जन्य के आधार पर रागों का वर्गीकरण किया है।

तंजोर के राजा रघुनाथ ने अपने मंत्री गोविंद दीक्षित की सहायता से १६२० ई. में 'संगीतसुधा' का प्रणयन किया। उन्होंने पंद्रह मुख्य मेलों और पचास मुख्य रागों का विस्तृत वर्णन किया है। उन्होंने २६४ रागों का साधारण परिचय दिया है।

सन् १६३० ई. में व्यंकटमखी ने 'चतुर्दंडीप्रकाशिका' लिखी। यह तंजोर के राजा रघुनाथ के सुपुत्र विजयराघव के आश्रय में थे। यह गोविंद दीक्षित के सुपुत्र थे। इन्होंने ७२ मेलों में रागों का वर्गीकरण किया है, और शुद्ध तथा मध्यममेल वीणा का वर्णन किया है।

लगभग सन् १६३० ई. में दामोदर मिश्र ने 'संगीतदर्पण' लिखा जो उस समय के उत्तरी भरत के संगीत पर अच्छा प्रकाश डालता है। इन्होंने गीत, ताल और नृत्त तीनों का विस्तृत वर्णन किया है।

१७वीं शती में गोविंद ने 'संग्रहचूड़ामणि' लिखा। इसमें ७२ मेलकर्ता और वीणा का विस्तृत वर्णन है। गोविंद दक्षिण के निवासी थे। उन्होंने संभवत: १६८० और १७०० के बीच में उपर्युक्त ग्रंथ लिखा।

१७वीं शती में ही अहोबल ने 'संगीतपारिजात' नामक ग्रंथ लिखा। इस ग्रंथ का महत्व यह है कि इसमें वीणा के तार की लंबाई के द्वारा स्वरों के अंतराल समझाए गए हैं।

१८वीं शती में श्रीनिवास ने 'रागतत्वविबोध' लिखा। इन्होंने भी वीणा के तार द्वारा शुद्ध और विकृत स्वरों के स्थान बतलाए हैं। १७वीं-१८वीं शती के बीच भावभट्ट ने अनूपविलास, अनूप संगीतरत्नाकर और अनूपांकुश की रचना की। यह बीकानेर के महाराज अनूपसिंह (१६७४-१७०९ ई.) के दरबार के पंडित थे। इनके ग्रंथ उत्तर भारत के संगीत पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। अपने ग्रंथ में इन्होंने ध्रुवपद का भी उल्लेख किया है।

वैसे तो ख्याल की गायकी अमीर खुसरो से प्रारंभ हो गई थी, किंतु जौनपुर के शर्की राजाओं के समय में यह अधिक पनपी और मुहम्मद शाह (१७१९) के समय मेंश् पुष्पित हुई। इने दरबार में अदारंग और सदारंग दो प्रसिद्ध बीनकार और गायक थे। इन लोगों ने सबसे अधिक ख्याल गायकी को प्रोत्साहन दिया और सैकड़ों ख्यालों की विभिन्न रागों में रचना की।

१८वीं शती में तंजोर के मराठा राजा तुलजा जी ने 'संगीतसारामृतम्' की रचना की। यह संगीत के अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने २१ मेल माने हैं।

१८२३ ई. में पटना के मुहम्मद रज़ा ने 'नगमाते असफ़ी' की रचना की। इन्होंने मुख्य समानताओं के आधार पर रागों का वर्गीकरण किया है, और बिलाबल को शुद्ध ठाठ माना है।

जयपुर के महाराज प्रतापसिंह (१७७९-१८०४ ई.) ने देश भर के संगीत के विद्वानों को एकत्र किया। उन सबके परामर्श सेश् 'संगीतसार' नामक ग्रंथ रचा गया। इसमें भी बिलाबल शुद्ध ठाठ माना गया है।

१९वीं शती में दक्षिण में त्यागराज ने बहुत सी कृतियों और कीर्तनों की रचना की। इन्होंने अपनी रचनाओं में रागों की स्वरसंगतियों को बहुत सुंदर रीति से ग्रंथित किया है। मुत्तुस्वामी दीक्षित और श्याम शास्त्री उनके समकालीन थे। इन्होंने भी बहुत सी सुंदर कृतियों और कीर्तनों की रचना की।

१९वीं शती के अंतिम भाग में बंगाल के राजा शौरींद्र मोहन ठाकुर ने भारतीय संगीत को बहुत प्रोत्साहन दिया और 'यूनिवर्सल हिस्टरी आफ़ म्यूज़िक' नामक ग्रंथ लिखा।

२०वीं शती में पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने शास्त्रीय संगीत के प्रचार के लिए बहुत प्रयत्न किया और लगभग ३५-४० पुस्तकों में गीतों को स्वरलिपि में प्रकाशित किया।

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने संगीतशास्त्र पर 'हिंदुस्तानी संगीत पद्धति' नामक ग्रंथ चार भागों में प्रकाशित किया और ध्रुवपद, धमार, तथा ख्यात का संग्रह करके 'हिंदुस्तानी संगीत क्रमीक' नामक ग्रंथ के छह भाग प्रकाशित किए।

तत वाद्यों में भारत में इस समय मुख्यत: वीणा, सितार, इसराज और सरोद तथा सारंगी उपयोग में आ रहे हैं। सुषिर वाद्यों में बाँसुरी, अलगोजा, शहनाई, तूर या तुरही, सिंगी (शृंगी) और शंख, अवनद्ध या आनद्ध वाद्यों में मृदंग (पखावज), मर्दल (मादल या मादिलरा) हुडुक्क, दुंदुभि (नगाड़ा), ढोलक या ढोल, डमरू, डफ, खंजरी, तथा धन वाद्यों में कठताल, झाँझ, और मंजीरा प्रचलित हैं।

भारत से बाहर सबसे प्राचीन संगीत सुमेरु, बवेरू (बाबल या बैबिलोनिया), असुर (असीरिया) और सुर (सीरिया) का माना जाता है। उनका कोई साहित्य नहीं मिलता। मंदिरों और राजमहलों पर उद्धृत कुछ वाद्यों से ही उनके संगीत का अनुमान किया जा सकता है। उनके एक वाद्य बलग्गु या बलगु का उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वान् इसका अर्थ एक अवनद्ध वाद्य लगाते हैं और कुछ लोग धनुषाकार वीणा। एक तब्बलु वाद्य लगाते हैं और कुछ लोग धनुषाकार वीणा। एक तब्बलु वाद्य होता था जो आधुनिक डफ जैसा बना होता था। कुछ मंदिरों पर एक ऐसा उद्धृत तत वाद्य मिला है जिसमें पाँच से सात तार तक होते थे। एक गिगिद नामक बाँसुरी भी थी। बैबिलोनिया की कुछ चक्रिकाओं में कुछ शब्दों के साथ अ, इ, उ इत्यादि स्वर लगे हुए मिलते हैं जिससे कुछ विद्वान् यह अनुमान लगाते हैं कि यह एक प्रकार की स्वरलिपि थी। जिस प्रकार से वेद का सस्वर पाठ होता था उसी प्रकार बैबिलोनिया में भी होता था और 'अ' स्वरित का चिन्ह था, 'ए' विकृत स्वर का, 'इ' उदात्त का 'उ' अनुदात्त का। किंतु इस कल्पना के पोषक प्रमाण अभी नहीं मिले हैं।

चीन मे प्राय: पाँच स्वरों के ही गान मिलते हैं। सात स्वरों का उपयोग करनेवाले बहुत ही कम गान हैं। उनकी एक प्रकार की बहुत ही प्राचीन स्वरलिपि है। बौद्धों के पहुंचने पर यहाँ के संगीत पर कुछ भारतीय संगीत का भी प्रभाव पड़ा।

इब्रानी संगीत भी बहुत ही प्राचीन है। यहाँ के संगीत पर सुमेरु - बैबिलोनिया इत्यादि के संगीत का प्रभाव पड़ा। वे लोग मंदिरों में जो गान करते थे उसे समय या साम कहते थे। इनका प्रसिद्ध तत वाद्य होता था जिसको ये 'किन्नर' कहते थे।

मिस्र देश का संगीत भी बहुत ही प्राचीन है। इन लोगों का विश्वास था कि मानव में संगीत देवी आइसिस अथवा देव थाथ द्वारा आया है। इनका प्रसिद्ध तत वाद्य बीन या बिण्त कहलाता था। मिस्र देश के लोग स्वर को हर्ब कहते थे। इनके मंदिर संगीत के केंद्र बन गए थे। अफलातून, जो मिश्र देश में अध्ययन के लिए गया था, कहता है, वहाँ के मंदिरों में संगीत के नियम ऐसी पूर्णता से बरते जाते थे कि कोई गायक वादक उनके विपरीत नहीं जा सकता था। कहा जाता है कि कोई ३०० वर्ष ई.पू. मिस्र में लगभग ६०० वादकों का एक वाद्यवृंद था जिसमें ३०० तो केवल बीन बजानेवाले थे। इनके संगीत में कई प्रकार के तत, सुधिर, अवनद्ध और धन वाद्य थे। मिस्र से पाइथागोरस और अफलातून दोनों ने संगीत सीखा। यूनान के संगीत पर मिस्र के संगीत का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।

यूरोप में सबसे पहले यूनान में संगीत एक व्यवस्थित कला के रूप में विकसित हुआ। भरत की मूर्छनाओं की तरह यहाँ भी कुछ 'मोड़' बने जिससे अनेक प्रकार की 'धुने' बनती थी। यहाँ भी तत, सुषिर, अवनद्ध और धन वाद्य कई प्रकार के थे। यूरोप में पाइथागोरस पहला व्यक्ति हुआ है जिसने गणित के नियमों द्वारा स्वरों के स्थान को निर्धारित किया।

लगभग १६वीं शती से यूरोप में संगीत का एक नई दिशा में विकास हुआ। इसे स्वरसंहति (हार्मनी) कहते हैं। संहति में कई स्वरों का मधुर मेल होता है, जैसे स, ग, प (षड्ज, गांधार, पंचम) की संगति। इस प्रकार के एक से अधिक स्वरों के गुच्छे को 'संघात' (कार्ड) कहते हैं। एक संघात के सब स्वर एक साथ भिन्न भिन्न वाद्यों से निकलकर एक में मिलकर एक मधुर कलात्मक वातावरण की सृष्टि करते हैं। इसी के आधार पर यूरोप के आरकेष्ट्रा (वृंदवादन) का विकास हुआ है। स्वरसंहति एक विशिष्ट लक्षण है जिससे पाश्चात्य संगीत पूर्वीय संगीत से भिन्न हो जाता है।

सं.ग्रं. - नारदीय शिक्षा; रामकवि-भरतकोश; भातखंडे - 'ए शार्ट हिस्टारिकल सर्वे ऑफ द म्यूज़िक ऑव अपर इंडिया'। कुर्तसाख्स - 'ए शार्ट हिस्टरी ऑव वर्ल्ड म्यूज़िक'। (जयदेव सिंह)