संख्यासिद्धांत को गाउस (Gauss) गणित की रानी कहता था। यह सिद्धांत मुख्यत: प्राकृतिक संख्याओं १,२,३....के गुण धर्मों का अध्ययन करता है। पूर्णता के विचार से इन संख्याओं में हम ऋण संख्याओं तथा शून्य को भी सम्मिलित कर लेते हैं। जब तक निश्चित रूप से न कहा जाए, तब तक संख्या से कोई प्राकृतिक संख्या, धन, या ऋण पूर्ण संख्या या शून्य समझना चाहिए।

अभाज्य (prime) तथा संयुक्त (composite) संख्याओं का भेद बतलाना ही प्राकृतिक संख्याओं का पहला वर्गीकरण है, जिसका उपानयन इनके अध्ययन में हुआ है।

उन संख्याओं को अभाज्य कहते हैं, जिनके धन विभाजक केवल दो ही होते हैं। संयुक्त संख्याओं के धन विभाजक दो से अधिक होते है। १ का विभाजक केवल एक ही है, अत १ न तो अभाजय संख्या है और न संयुक्त। अभाज्य संख्याओं को p से निरूपित किया जाता है।

अंकगणित के मूल प्रमेय (fundamental theorem) की प्रतिज्ञा के अनुसार, प्रत्येक पूर्ण संख्या (integer), जो एक से बड़ी है, या तो अभाज्य है, या अभाज्य संख्याओं के अद्वितीय गुणनफल के रूप में निरूपित हो सकती है। उन दो गुणनफलों की, जिनमें एक ही गुणनखंड भिन्न भिन्न क्रम में रखे गए हैं, सर्वसम (identical) कहते हैं, उदाहरणार्थ : ३६० = २. २. २. ३. ३. ५.। यह प्रमेय स्वयंसिद्ध सा प्रतीत हो सकता है, परंतु ऐसी बात नहीं है। इसको सिद्ध करने के लिए अनेक उपपत्तियाँ उपलब्ध हैं।

इस गणित की रानी के अनुपम गुणों में से एक गुण, जिसके कारण छोटे बड़े सभी प्रकार के गणितज्ञ इसकी ओर आकर्षित हुए हैं, यह है कि संख्या सिद्धांत के अनेक प्रश्न साधारण विद्यालयों के विद्यार्थियों की समझ में तो आ जाते हैं, परंतु हल करने में वे इतने सरल नहीं हैं।। उदाहणस्वरूप, गोल्डबैक (Goldbach) के अनुमान को लें, जिसके अनुसार प्रत्येक सम संख्या ६, दो अभाज्यों के योगफल के रूप में निरूपित की जा सकती है। इस अनुमान का सत्यापन तो बहुत अधिक हो गया है, परंतु अभी तक इसका सिद्ध करने में, या इसको असत्य करने में किसी गणितज्ञ को सफलता नहीं मिली है। इसके विपरीत एक ही उदाहरण इसको असत्य ठहराने के लिए पर्याप्त होगा, जब कि इसे पक्ष में लाखों उदाहरण इसकी सत्यता को सिद्ध ठहराने के लिए पर्यांप्त नहीं हो सकते। विनोग्रेडोव (Vinogradov) की विधि से हम इस अनुमान के निकट पहुंचते हैं। यह सिद्ध किया जा चुका है कि सब बड़ी विषम संख्याएँ तीन अभाज्यों के योगफल हैं।

यदि कोई संख्या यदृच्छया (at random) दी गई है, तो सामान्य: यह कहना संभव नहीं है कि वह संख्या अभाज्य है अथवा नहीं, जबकि किसी भी संयुक्त संख्या n का एक विभाजक अवश्य ही श्है। यदि n बड़ी संख्या है, तो इसकी जाँच में बहुत श्रम करना पड़ेगा। इस श्रम को कम करने की कई विधियाँ निकाली गई हैं, परंतु समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है।

सिद्धांतत: n एक अभाज्य संख्या है, यदि और केवल यदि n द्वारा (n -1)! + १ विभाज्य है। (उदाहरणत:, ६! + १. = ७२१, जो अभाज्य संख्या ७ से विभाज्य है तथा एक संयुक्त संख्या ६ द्वारा ५! + १ विभाज्य नहीं है)। यह विल्सन (Wilson) का प्रमेय है।

यूक्लिड (Euclid) ने एक बहुत ही सरल ढंग से यह सिद्ध किया है कि अभाज्यों की संख्या अनंत है। मान लिया कि अभाज्यों की संख्या सीमित है और ये संख्याएँ केवल २, ३, ५....,p हैं। निम्नलिखित संख्या पर विचार करें :

N = 2. 3. 5........p+1

N एक ऐसी संख्या है जो १ से बड़ी है और २, ३, ५...... p अभाज्यों में से किसी भी अभाज्य से विभाज्य नहीं है, तब यह संख्या N या तो अभाज्य होगी, या किसी ऐसी अभाज्य संख्या से विभाज्य है जो हमारे अभाज्यों की सूची में नहीं है। इससे सिद्ध होता हैं कि अभाज्यों की हमारी सूची अपूर्ण है और प्रमेय सत्य है।

यमल अभाज्य (Twin primes) - उन दो अभाज्यों को, जिनमें २ का अंतर होता है, यमल अभाज्य कहते हैं। इस प्रकार के यमल ३, ५; ७; ११, १३; १७, १९; २९, ३१......हैं। यह ज्ञात नहीं है कि यमल अभाज्यों की संख्या सीमित या असीमित है। यमल अभाज्यों के संबंध में एक दूसरी रुचिकर बात यह है कि यद्यपि सभी क्रमागत अभाज्यों के व्युत्क्रमों (reciprocals) से बनी हुई श्रेणी :

अपसारी (divergent) है, तथापि श्रेणी

जो यमल अभाज्यों के व्युत्क्रमों से बनी हैं, अभिसारी (convergent) है।

अभाज्य संख्या प्रमेय (Prime Number Theorem) - अभाज्यों का वितरण (distribution) बड़ा बेतुका है और kवें (k th) अभाज्य के लिए कोई सूत्र देना संभव नहीं है। यदि x बड़ी संख्या है, तो उन अभाज्यों की संख्या का आकलन (estimate) जो x है, दिया जा सकता है। यदि p (x) उन अभाज्यों की सख्या है जो x है, तो

यही अभाज्ज्य संख्या प्रमेय है। एरडॉस (Erdos) और सलबर्ग (Selberg) ने १९४९ ई. में इसकी प्रारंभिक उपपत्ति दी थी। हैडामार्ड (Hadamard) और डी ला वाली पॉशिन (de la' valle Paussin) ने इसकी वैश्लेषणिक उपपत्ति १८९६ ई. में ही दी थी।

ऑयलर का टोशेंट फलन (Euler's Totient Function) - दो संख्याओं १ a और b के महत्तम समापवर्तक (G. C. D.) को साधारणत: संकेत (a, b) द्वारा निरूपित करते हैं; उदाहरणस्वरूप (३६, २८) = ४। जब (a, b) = १, तो a और b को परस्पर अभाज्य कहते हैं। f (n) से हम उन संख्या निरूपित करते हैं जो n के प्रति अभाज्य हैं और n से बड़ी नहीं हैं। यह ऑयलर का टोशेंट फलन हैं। इस फलन का संख्या सिद्धांत में महत्वपूर्ण स्थान है।

f (1) = 1, f (2) = 1, f (3) = 2, f (4) = 2,....

और सामान्यत:

f (n) = n II (1-p-1)

p/n

जहाँ p/n से ज्ञात होता है कि गुणनफल में n के सभी अभाज्य विभाजक सम्मिलित हैं।

समशेषताएँ (Congruences) - दो पूर्ण संख्याओं a और b (धन, ऋण या शून्य) को मापांक m (modulo m) के प्रति समशेष (congruent) कहते हैं, जब m से a - b विभाज्य है। इसको हम लोग निम्नलिखित प्रकार से लिखते हैं :

a b (mod m)

व्यापकता को कुछ आघात पहुँचाए बिना, यह कहा जा सकता है कि m धनात्मक पूर्णांक है।

समशेषता के गुण धर्म समीकरणों के गुणधर्मों के समान हैं। यदि a b (mod m) और c d (mod m), तब a+c b+d (mod m) और ac bd (mod m)

यदि x का एक बहुपदीय फल f (x) हैं, जिसें x के गुणक पूर्णांक हैं और a b (mod m),तो f (a) f(b) (mod m), परंतु यदि ab ac (mod m), तो यह आवश्यक नहीं है कि b c (mod m), उदाहरणार्थ 1 6 (mod 4), परंतु १ और ३ समशेष नहीं हैं (mod 4) के प्रति।

ab ac (mod m) से जो उचित फल निकाला जा सकता है, वह केवल यही है कि । समशेषता की इस अंकन पद्धति (notation) का एक बड़ा लाभ यह है कि इसकी सहायता से संख्या सिद्धांत के बहुत से फलों को सुंदर ढंग से निरूपित किया जा सकता है।

संपूर्ण और लघुकृत अवशेषों का समुच्चय (Complete and Reduced Residue Sets) - समशेषता संबंध तुल्यता संबंध है। इसका अर्थ है कि निम्नाकित संबंध सत्य है :

(१) a a (mod m) ; (२) a b (mod m) का अर्थ b a (mod m) है।

(३) a b (mod m), b c (mod m) का अर्थ a c (mod m) है।

इसलिए समशेषता संबंध पूर्णाकों (integers) के समुच्चय को अतुल्यता के वर्गों में इस प्रकार बाँटता है कि एक वर्ग के प्रत्येक दो पूर्णांक मापक m के प्रति समशेष हैं और भिन्न भिन्न वर्गों के दो पूर्णांक मापक m के प्रति समशेष नहीं हैं। यदि m वर्गों में से प्रत्येक वर्ग से एक एक पूर्णांक लिया जाए, तो मापांक m के प्रति संपूर्ण अवशेषों का एक एक समुच्चय प्राप्त होगा। इस प्रकार -३, ३, २, १२, १४, २०, -६ मापांक ७ के प्रति संपूर्ण अवशेषों का समुच्चय है। मापांक m के प्रति सरलतम अवशेषी का समुच्चय (१) ०, १, २, ३... m-१ है और (२) निरपेक्ष लघुतम संपूर्ण अवशेषों का अमुच्चय निम्नांकित है :

0, 1, 2,...... (m-1)/2, जब m विषम है

तथा 0, 1, 2,.... (m-2)/2, जब m सम है

इसी प्रकार यदि m के प्रति अभाज्य पूर्णांकों का समुच्चय लिया जाए, तो वे f (m) तुल्यता के ऐसे वर्गों में बँट सकते हैं कि किसी एक वर्ग की प्रत्येक २ संख्याएँ मापांक m के प्रति समशेष होंगी और भिन्न भिन्न वर्गों की कोई २ संख्याएँ मापांक m के प्रति समशेष नहीं हैं। पहले की भाँति यदि प्रत्येक वर्ग से एक संख्या ली जाए, तो मापांक m के प्रति लघुकृत अवशेषों का एक समुच्चय प्राप्त होता है। m = 12 के लिए इस प्रकार का एक समुच्चय १, ५, ७, ११ है।

यह स्मरणीय है कि यदि मापांक m के संपूर्ण अवशेषों के समुच्चय अवयवों को m के सापेक्ष किसी अभाज्य संख्या r से गुण किया जाए, तो मापांक m के प्रति संपूर्ण अवशेषों का एक दूसरा समुच्चय प्राप्त होता है। इसी प्रकार यदि मापांक m के प्रति लघुकृत अवशेषों के समुच्चय के सभी अवयवों को m के सापेक्ष किसी अभाज्य संख्या m से गुणा किया जाए, तो मापांक m के प्रति लघुकृत अवशेषों का एक दूसरा वर्ग प्राप्त होगा। इससे निम्नांकित आयलर फेर्मा (Euler-Fermat) प्रमेय प्राप्त है :

rf(m) १ (mod m), यदि (r, m) =

कुछ संख्यासैद्धांतिक फलन (Some Number-theoretic Functions) - उन फलनों को जो चर के पूर्णांक मानों के किसी समुच्चय के लिए परिभाषित हैं, संख्यासैद्धांतिक फलन कहते हैं। इस प्रकार का एक फलन f (n) है, जिसकी परिभाषा पहले ही दी जा चुकी है। कुछ अन्य फलन निम्नांकित हैं :

(१) s (n) : प्राकृतिक संख्या n के विभाजकों का जोड़;

(२) d (n) : n के विभाजकों की संख्या।

यदि किसी संख्या n का निरूपण p1a1, p2a2, p3a3... pkak, है, जहाँ सभी p एक दूसरे से भिन्न अभाज्य हैं, तो

d (n) = (a1+1) (a2+1) (a3+1)......

(ak+1) = (a1+1)

और s (n)

श्(३) potp (n) (जिसको आधार p पर n का का पोटेंसी पढ़ते हैं) अभाज्य p का का महत्तम घात है, जो n को विभाजित करता है उदाहरणार्थ pot5 (300) = २ और potp (n !) = [n/p] + potp ([n/p] !), जब यहाँ, और आगे भी, (x) का अर्थ x में महत्तम पूर्णांक होता है । उदाहरणार्थ : (3.2) = ३।

एक दूसरा बहुत महत्वपूर्ण संख्या सैद्धांतिक फलन मोवियस (Moebius) फलन है, जो निम्नवत् परिभाषित होता हैं :

m (१) = १;

m (१) = ०, जब n का कोई विभाजक १ से बड़ा और वर्ग संख्या हो;

m (n) = (-१)r, जब n = p1 p2 p3... pr और सभी p एक दूसरे से भिन्न अभाज्य हैं।

यह स्मरणीय है कि n > 1 के लिए

श्(d) =

जहाँ संकेत d|n से प्रकट होता है कि जोड़ के सभी विभाजकों से होकर जाता है। उदाहरणार्थ मान लिया n = 12, कि तब,

(d) = m (1) +m (2) +m (3) +m (4) +m (6) +m (12) d|12

= 1 + (-1) + (-1) + 0 + 1 + 0 = 0

टोशेंट फलन (Totient function) के लिए इसी प्रकार का फल निम्नलिखित है :

(d) = n

विख्यात मोबियस व्युत्क्रम सूत्र (Moebius inversion formula) की प्रतिज्ञा के अनुसार

यदि F (n) = (d), तब f (n) = (d) F (n/d)

उदाहरणार्थ, चूँकि n = श् (d), इसलिए

f (n) = (d) n/d = n श्(d)/d

यहाँ पर ल्यूवील फलन (Liouville's function) l (n) का, जो निम्नलिखित संबंधों द्वारा परिभाषित है, वर्णन किया जा सकता है :

l (1) = १; l (pn) = l (n), जहाँ p एक अभाज्य है। पोल्या (Polya) ने अनुमान लगाया था कि

L (n) = (j), ० से बड़ा नहीं है, जब n >1

हाल ही में आर. शरमैन लीमैन (R. Sherman Lehman) ने इसको असत्य सिद्ध किया है। इन्होंने दिखा दिया है कि L (n) धनात्मक है, जब n = 90,62,00,000 ; 90,63,00,000 ; ९०; ६४, ७०,०००।

रैखिक समशेषता (Linear Congruence) - उन समशेषताओं को, जिनका रूप a x + b 0 श्(mod m) की तरह है, जहाँ a, b और m पूर्ण संख्याएँ हैं, रैखिक समशेषता कहते हैं। ऐसी समशेषताओं के हल हैं यदि, और केवल यदि, (a, m)। b (किसी समशेषता के मूल या हल के अस्तित्व का अर्थ है कि इस प्रकार की पूर्ण संख्याएँ (integers) x हैं, जो असमशेषता को संतुष्ट करती हैं )।

यदि किसी समशेषता का एक ही हल, मान लिया c है, तब मापांक m के प्रति c के समशेष सभी संख्याएँ भी इन समशेषता के हल हैं। इस प्रकार के सभी हल सर्वसम (identical) माने जाते हैं। मांपाक m के प्रति किसी समशेषता को हल करने के लिए x के केवल ०, १, २, ३...., m-1 मानों पर ही विचार करना चाहिए जब (a, m) / b, तब समशेषता का कोई हल नहीं होता अन्यथा इसके यथार्थत: (a, m) हल होते हैं।

इस स्थल पर इसका भी उल्लेख किया जा सकता है कि यदि f (x), x में एक बहुपदीय फलन है, जिसके सभी गुणक पूर्ण संख्याएँ हैं और जिसें x का k हैं, तो समशेषता f (x) ० (mod m) के हलों संख्या, जहाँ p अभाज्य है, k से अधिक नहीं हो सकती। यदि इस प्रकार की कोई ऐसी समशेषता है, जो x के k अधिक असमशेष मानों से संतुष्ट होती है, तो अवश्य ही यह एक सर्वसम समशेषता होगी, अर्थात् f (x) में x के सभी गुणक p से विभाज्य हैं। उदाहरणार्थ, समशेषता (x-1) (x-2) (x-3) (x-4) x4-1 (mod 5) एक ऐसी समशेषता है, जिसमें x का महत्तम घात ३ है, परंतु जो x के चार मानों १, २ ३, ४, से संतुष्ट होती है। अत: अवश्य ही यह एक सर्व समशेषता है। इसका सरलीकरण करने पर हमें ज्ञात होता है कि वास्तव में यह समशेषता निम्नलिखित प्रकार से लिखी जा सकती है : 10x3 - 35x2 + 50x - 25 0 (mod 5) इसका प्रत्येक गुणक ५ से विभाज्य है।

प्रथम n प्राकृतिक संख्याओं में से किन्हीं r संख्याओं के गुणनफलों के योगफलों को निरूपित करनेवाले फलन G (n, r) के गुणधर्मों तथा उनके व्यापीकरण का अध्ययन हंसराज गुप्त द्वारा कुछ विस्तारपूर्वक किया गया है, जिससे ऑयलर फेर्मा प्रमेय, विल्सन प्रमेय तथा इन्हीं के सदृश कुछ अन्य प्रमेंया का व्यापीकरण हो सकता है।

वर्ग अवशेष (Quadratic Residues) - रैखिक समशेषता के पश्चात् कोई भी व्यक्ति स्वभावत: वर्ग समशेषता पर विचार करना चाहेगा१ इस प्रकार की समशेषताएँ, जैसा अंतिम विश्लेषण (final analysis) से ज्ञात होता है, ऐसी समशेषताओं पर निर्भर हैं जिनका रूप निम्नलिखित है :

x2 n (mod p), एक अभाज्य है और (n , p) =

n के उन मानों को, जिनके लिए इस समशेषता के हल हैं, मापांक p के वर्ग अवशेष कहते हैं और n के उन मानों को, जिनके लिए इनका कोई हल नहीं है, मापांक p के वर्ग अनावशेष (Quadratic non-residues) कहते हैं। विषम अभाज्य p के लिए यथार्थत: (p-1)/2 वर्ग अवशेष और इतने ही वर्ग अनावशेष हैं।

मांपाक p के प्रति n के वर्ग अवशेष के लक्षण को दिखाने के लिए लज्हाँद्र (Legendre) ने एक संकेत (n/p) का उपानयन किया। परिभाषा के अनुसार (n/p) = १. जब p का वर्ग अवशेष n है और (n/p) = -१, जब p का वर्ग अनावशेष n है और (n/p) = ०, जब pn

आयलर ने सिद्ध किया कि (n/p) n (mod p)

गाउस ने बहुत अधिक व्यापक निकष (criterion) प्रदान किया, जिससे वर्गात्मक व्युत्क्रमता (quadratic reciprocity) का नियम प्राप्त होता है। इसके अनुसार यदि p और q दो विषम अभाज्य हैं, तब

(p/q) (q/p) = (-1)pq

जहाँ P = (p-1)/2 और Q = (q-1)/2। इस फल के पूरक के तौर पर हमको प्राप्त है :

(2/p) = (-1)R, जहाँ = (p2 -1)/8

आयलर के निकर्ष से यह फल निकलता है कि 4 k +1 के रूप के सभी अभाज्यों का वर्ग अवशेष -१ है और 4k -1 रूप के किसी भी अभाज्य का अवशेष -१ नहीं है। इसका अर्थ यह है कि ऐसी पूर्ण संख्याओं x का अस्तित्व है कि

x2 + 1 0 (mod p)

केवल उसी समय जब p का रूप 4 k + 1 का है। यहाँ पर यह स्मरणीय है कि केवल इसी प्रकार के अभाज्यों का ही निरूपण दो वर्गों के योग के रूप में, और वह भी एक अद्वितीय ढंग से, हो सकता है। उदाहरणार्थ,

२९ = +

वस्तुत: यदि कोई संख्या दो वर्गों के योग के रूप में दो या दो से अधिक भिन्न भिन्न विधियों से निरूपित की जा सकती हैं, तो वह संयुक्त संख्या है, परंतु इसका विलोम सत्य नहीं है। इसपर अधिक चर्चा हम लोगों को वर्ग रूपों (quadratic forms) जैसे मोहक विषय के अध्ययन की ओर खींच ले जाएगी।

पूर्वगम मूल और घातांक (Primitive Roots and Indices) - यदि (a, m) = १, तब एक ऐसे पूर्णांक k > 0 का अस्तित्व है कि

ak 1 (mod m), परंतु a और १ समशेष नहीं है (mod m) के प्रति, जब 0 < j < k । इस k को a मापांक m का क्रम (order) कहते हैं। हम लोग यह भी कहते हैं k मापांक से a संबद्ध है।

यदि किसी ऐसे पूर्ण संख्या g का, जो m के लिए अभाज्य है, इस प्रकार अस्तित्व है कि यह मापांक m के f (m) से संबद्ध है, तो g को m का पूर्वगत मूल (Primitive Root) कहते हैं। पूर्वगत मूलों का अस्तित्व सर्वदा नहीं रहता। १५ का कोई पूर्वगत मूल नहीं है। १५ से छोटी और इसके प्रति अभाज्य संख्याएँ केवल १, २, ४, ७, ८, ११, १३ और १४ हैं। ये क्रम से १, ४, २, ४, ४, २, ४ और २ मापांक १५ से संबद्ध हैं। इस प्रकार १५ के प्रति कोई ऐसी अभाज्य संख्या नहीं है जो f (१५) = ८ मापांक १५ से संबद्ध हो। ऐसी सख्याएँ जिनके पूर्वगत मूल हैं, निम्नांकित हैं :

n = 2, 4 pk, 2 pk ;

जहाँ p एक विषम आभाज्य है और k 1। इनमें से प्रत्येक के पूर्वगत मूलों की संख्या f {f (n)} है। उदाहरणार्थ, ७, ९, ९८, ३४३ के पूर्वगत मूल हैं।

यदि m का पूर्वगत मूल g है, तो संख्याएँ

g, g2, g3........gf (m)

मापांक m के लघुकृत अवशेषों का एक सुच्चय बनाती हैं। प्रत्येक n के लिए, जो -m के प्रति अभाज्य है, एक ऐसे अद्वितीय j f (m) का अस्तित्व है कि

gj n (mod m)

मापांक m के प्रति आधार g के n का घातांक यद्दी j है। हम लोग इसको निम्नललिखित प्रकार से लिखते हैं :

धातg n = j , {indg n = j}

यहाँ पर मापांक m लुप्त है। चूँकि

gj+f (m) gj n (mod m)

घातg n1 + घातg n2 घातg (n1 n2) {mod f (m)}। यह देखा जाएगा कि लघुगणक के नियमों के समान ही नियम घातांकों पर लागू हैं। यदि घातांको की सारणी दी हो, तो कुछ विशेष प्रकार की समशेषताएँ हल हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, निम्नलिखित समशेषता पर विचार करें।

x4 2 (mod 7)

अब ७ का पूर्वगत मूल ३ है और घातश् २। इसलिए घाताकों को लेकर

४ घात x 2 (mod 6)

यह एक रैखिक समशेषता है। इसको हल करने से

घात x = 2,5

अत: x 32, 35 (mod 7)

2, 5 (mod 7)

संख्याओं का बँटवारा (Partitions of Numbers) यह उन प्रकरणों में से एक है, जिनकी और पिछले ५० वर्षों में बहुत ध्यान दिया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य उन विधियों की संख्या प्राप्त करना है जिनसे एक दी हुई प्राकृतिक संख्या n दूसरी प्राकृतिक संख्याओं के योग के रूप में निरूपित की जा सकती है। योग के घटकों की संख्या प्रतिबंधित (restricted), या अप्रतिबंधित (unrestricted), हो सकती है। घटक स्वयं निर्दिष्ट (specified) या अनिर्दिष्ट हो सकते हैं। उदाहरण स्वरूप, ७ को लीजिए। योग के रूप में यह निम्नलिखित विभिन्न विधियों से व्यक्त किया जा सकता है (घटकों का क्रम विसंगत है) :

7; 6+1; 5+2; 4+3; 5+1+1; 4+2+1; 3+3+1; 3+2+2; 4+1+1+1; 3+2+2; 2+2+2+1; 3+1+1+1+1; 2+2+1+1+1; 2+1+1+1+1; 1+1+1+1+1+1+1

७ के ये १५ अप्रतिबंधित बँटवारे हैं। n के अप्रतिबंधित बँटवारे की संख्या को हम p (n) लिखते हैं और n को k घटकों के रूप में निरूपित करने की विधियाँ की संख्या को p (n, k) लिखते हैं। इस प्रकार

p ( 7, 1) = 1 ; p ( 7, 2) = 3 ; p ( 7, 3) = 4 ; p ( 7, 4) = 3 ; p ( 7, 5) = 2 ; p ( 7, 6) = 1; p ( 7, 7) = 1 और p (7) = 15.

औलक, चावला और गुप्त ने अनुमान किया कि पर्याप्त रूप से एक बड़ी संख्या n के लिए यथार्थत: एक ऐसी संख्या k है कि

p (n,1) <p (n,2) <...... <p (n, k-1) <p (n, k) >p (n, k+1) >....>p (n, n-2) > p (n, n-1)

जी. ज़ेंकरीज़ (G. Szekeres) ने ऐसे k के लिए एक सूत्र ज्ञात किया है, परंतु अभी तक इस अनुमान की व्यापकता की उत्पत्ति नहीं दी गई है।

प्रख्यात भारतीय गणितज्ञ रामानुजन ने n 200 के p(n) के मानों की सारणी का अध्ययन करते समय निम्नांकित अनुमान लगाया था :

यदि 24 n -1 0 (mod 5a 7b 11c), a, b, c, 0तक अवश्य ही p (n) 0 (mod 5a 7b 11c) यह अद्भुत अनुमान गलत निकल गया, क्योंकि जब गुप्त ने बँटवारे की सारणी को n = 300 तक बढ़ाया, तो देखा गया कि जब n = 243, तब

24n-1 0 (mod 73)

p (n) = 13397 83593 44888 0 (mod) 72,

परंतु ० समशेष नहीं है (mod 73) के प्रति

रामानुजन के अनुमान के गलत सिद्ध हो जाने पर डी. एच. लेहमर (D. H. Lehmer), वाटसन (Watsen) और अन्य जनों ने इसपर बहुत काम किया और अंत में जी. एन. वाटसन (G. N. Watson) और ए. ओ. एल्. आट्किन (A. O. L. Atkin) यह सिद्ध करने में सफल हो गए कि

यदि 24n-1 0 (mod 5a 7b 11c), a, b, c 0

तब p (n) 0 (mod 5a 7b 11c), जहाँ d = [(b+2)/2]

p (n) के लिए समशेषता के अनेक संबंध ज्ञात हो गए हैं परंतु अभी तक यह ज्ञात नहीं हुआ है कि n के किसी प्रकार के मान के लिए p (n) विषम है और किसके लिए सम है।

एच. राडेमाकर (H. Rademacher) ने p (n) के लिए एक अभिसारी (convergent) श्रेणी दी है। हार्डी और रामानुजन (Hardy and Ramanujan) ने एक अपसारी (divergent) श्रेणी दी थी, जिसके प्रथम कुछ पदों से p (n) का ऐसा निकटतम मान प्राप्त होता था जिससे p (n) का मान बड़ा नहीं हो सकता। इस प्रकार हार्डी-रामानुजन-श्रेणी के प्रथम ८ पदों से यह प्राप्त होता है कि

p (300) = 9,25308 29367 23602.0040

जिसका सही उत्तर से केवल .००४० का अंतर है।

वारिंग का प्रश्न (Waring's Problem) - वारिंग के आदर्श प्रमेय की प्रतिज्ञा के अनुसार प्रत्येक प्राकृतिक संख्या n का निरूपण अधिकतम १ पूर्ण संख्याओं के k वें घात के जोड़ के रूप में हो सकता है, जहाँ

1 = [(3/2)k)] + 2k - 2

एस. एस. पिल्लै (S. S. Pillai) तथा एल. ई. डिवसन (L. E. Dickson) ने इस प्रमेय को प्राय: सभी k के लिए सिद्ध कर दिया है।

अभाज्यों तथा १ के घातों से संबंधित प्रश्नों का अध्ययन गुप्त द्वारा किया गया है, परंतु निश्चित रूप से कुछ सिद्ध नहीं हो सका है। (हंसराज गुप्त)