संख्या (नंबर, Number) ऐतिहासिक संबद्ध दृष्टिकोण से संख्या की विचारधारा प्राकृतिक संख्याओं १, २, ३,.... के अनुक्रम से है। सामान्यत: संख्या का अर्थ धनात्मक पूर्णांक, वास्तविक राशि या धनात्मक पूर्णांकों, या वास्तविक संख्याओं के विन्यास के अनेक अमूर्त, गणितीय व्यापकीकरणों में से एक से संयोजित तत्व है। इन व्यापकीकरणों में संमिश्र, अतिसंमिश्र (hypercomplex), परिमितातीत (transfinite), गणन (cardinal) एवं क्रमसूचक (ordinal) संख्याएँ समाविष्ट हैं।
संख्या की विचारधारा को सर्वप्रथम गति देनेवाले हिंदू ही थे, जिन्होंने उपर्युक्त अनुक्रम के आरंभ में ० (शून्य) को स्थान देकर, तत्संबंधी विचारों के प्रयोजनों में वृद्धि की। शून्य के समावेश के कारण अंकगणनाओं की पद्धति में काफी सरलता आ गई। हिंदुओं द्वारा आविष्कृत स्थैतिक पद्धति, जिसमें दशमलव बिंदु के बाईं ओर किसी अंक की स्थिति मूलांक (radix) का घात, अथवा आधार दस, निर्देशित करती है, अन्य प्राचीन पद्धतियों की अपेक्षा गुरुतर है। प्रयोग एवं सिद्धांत रूप में किसी पूर्णांक को २ की मापनी द्वारा व्यक्त करना बहुत सुगम है।
धनात्मक पूर्णांक - प्रागैतिहासिक काल में संख्या की विचारधारा समान समुदायों से प्रस्फुटित हुई। दो समुदाय समान कहे जाते हैं, यदि उनके तत्व एक एकैकी संवादिता द्वारा संबद्ध हों। किसी समुदाय की गणना संख्या उन समस्त समुदायों का कुलक है जो उसके समान हैं। उदाहरणार्थ समस्त युग्मों का कुलक संख्या २ का निरूपण करता है, समस्त त्रियों का कुलक संख्या ३ निर्दिष्ट करता है, इत्यादि। संख्या ० वह कुलक है जिसका सदस्य केवल मोध समुदाय है। अत: इस परिभाषा के द्वारा हम दो संख्याओं का योग और गुणन व्यक्त कर सकते हैं और योग के क्रमविनिमेय (commutative) एवं साहचर्य (associative) नियमों को सिद्ध कर सकते हैं : a + b = b + a और a + (b + c) = (a + b) + c। गुणन के क्रमविनिमेय, साहचर्य और वितरण (distributive) नियम भी सिद्ध किए जा सकते हैं, जैसे a � b = b � a, a � (b � c) = (a � b) � c और a � (b + c) = (a � b) + (a � c)।
ऋणात्मक पूर्णांक - ऋणात्मक गणना संख्याओं - १, -२, -३,.... के उपानयन के फलीभूत व्याकलन (subtraction) की क्रिया का निर्बाध उपयोग किया जा सकता है। यदि दो पूर्णांक a और b दिए हों, तो एक अन्य निश्चित पूर्णांक d ऐसा होगा कि a = b + d घटित हो, और हम d = a - b लिख सकते हैं।
पिनो (Peano) ने १९०० ई. के लगभग घनात्मक पूर्णांकों का समग्र अंकगणित पाँच स्वयंसिद्धियों (axioms) के समुदाय से विकसित किया है।
भाग
की कठिनाइयाँ दूर करने के लिए परिमेय (rational)
संख्याओं का समावेश किया गया है। ये संख्याएँ p/q
जैसी होती हैं, जिसमें p कोई पूर्णांक और
q कोई अन्य अशून्य पूर्णांक हैं। परिमेय संख्याओं
के समुदाय में योग, व्याकलन, गुणन और भाग क्रियाएँ संभव
हैं, किंतु किसी परिमेय संख्या का भिन्नात्मक घात सामान्यत:
संभव नहीं है। उदाहरण के लिए, श्परिमेय
संख्या
नहीं है। ज्यामितीय रूप में यदि हम एक द्विसमबाहु समकोणीय
त्रिभुज ABC ऐसा बनावें कि A
B = A C = 1 हो, तो (B C)२
= २ होगा।
श्जैसी
एक वास्तविक संख्या, जो परिमेय नहीं है, अपरिमेय (irrationnl)
कहलाती है। जॉर्ज कैंटर (1871 ई.)
ने अपरिमेय संख्याओं के सिद्धांत को विकसित किया है। वास्तविक
संख्याओं की, जिनमें परिमेय और अपरिमेय संख्याएँ दोनों समाविष्ट
हैं, परिमेय संख्याओं xn, yn
के अनंत अनुक्रमों x = (x1, x2, x3,...)
y = (y1, y2, y3,...)
द्वारा इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि xn,
yn, इस भाँति अभिसरित (converge)
होती हैं कि m और n
के अनंत की ओर बढ़ने पर । xm - xn।,
। ym - yn। शून्य की ओर अग्रसर
हों। हम x को अनुक्रम {x1, x2,
x3,...} की सीमा मानते हैं। दो संख्याऐं x
और y समान होंगी, यदि n
के अनंत रूप से बढ़ने पर । xn- yn।
शून्य की ओर अग्रसर हो।
डेडकिंड (१८७२ ई.) ने वास्तविक संख्याओं को परिमेय संख्याओं के दो वर्गों L और R की धारणा देकर व्यक्त किया है। प्रत्येक परिमेय सख्या या तो L वर्ग में आती है या R वर्ग में, और L का प्रत्येक सदस्य R के प्रत्येक सदस्य के समान, या उससे छोटा, होता है। परिमेय संख्याओं का इन दो वर्गों, L और R, में विभाजन डेडेकिंड (Dedekind) परिच्छेद कहलाता है और परिमेय संख्याओं का एक परिच्छेद, जिसमें दोनों वर्ग आते हों और लघुतर वर्ग में कोई महत्तम संख्या न हो, वास्तविक संख्या कहा जाता है। बर्ट्रैंड रसेल ने इस परिभाषा में कुछ परिवर्तन किया है, तदनुसार परिमेय संख्याओं की राशियों के क्रम में अवस्थित श्रेणी का एक खंड वास्तविक संख्या होगा। डेडेकिंड की परिभाषा कैंटर की परिभाषा के समतुल्य सिद्ध की जाती है।
इस
पद्धति द्वारा व्यक्त वास्तविक संख्याएँ योग, व्याकलन, गुणन और
भाग (शून्य द्वारा छोड़कर) की क्रियाओं के योग्य होती हैं। किंतु
यदि हम एक बीजीय समीकरण, यथा x2 = -1,
पर विचार करें तो ऐसी कोई वास्तविक संख्या x
का
अस्तित्व नहीं होगा जिसे लिए x2 = -1
हो। यदि हम i = श्को
एक काल्पनिक संख्या मान लें और योग तथा गुणन के नियमों
का पालन करें, तो हमें संमिश्र संख्याओं : a + i b = a +
की धारणा स्पष्ट
हो जाएगी। बीजगणित के मूलभूत प्रमेय द्वारा यह सिद्ध किया
जा सकता है कि वास्तविक अथवा संमिश्र गुणकों an, n � 1, an � o,
वाले प्रत्येक बीजीय समीकरण
a�o + a1 z + ... + an zn = 0..........(1)
की तुष्टि कम से कम एक संमिश्र संख्या Z = x + i y द्वारा होती है।
पूर्णांक गुणकोंवाले समीकरण (१) की तुष्टि जो संख्याएँ करती हैं, उन्हें बीजीय संख्याएँ कहते हैं। वास्तविक या संमिश्र संख्याएँ, जो बीजीय नहीं हैं, अबीजीय (transcendental) कहलाती हैं। उदाहरण के लिए, p = ३.१४...और e = २.७१८ अबीजीय संख्याएँ हैं। प्राय: समस्त वास्तविक संख्याएँ इस अर्थ में अबीजीय होती हैं कि यदि R अंतराल (0, 1) में अवस्थित परिमेय संख्याओं के कुलक को, A उसी अंतराल में अवस्थित बीजीय संख्याओं के कुलक I को उसी अंतराल में अवस्थित अपरिमेय संख्याओं के कुलक को और T उसी अंतराल में अवस्थित संख्याओं के कुलक को निरूपति करें, तो R C A और m (R) = कुलक R का मान = ०, m (A) = o, m (I) = 1 और m (T) = 1 होगा। ल्यूवील (Liouville) ने सिद्ध किया है कि n घात वाली वास्तविक बीजीय संख्या n से अधिक किसी वर्ण को उपनयनशील नहीं है। इस प्रमेय द्वारा हम सिद्ध कर सकते हैं कि संख्याएँ :
{ = 10-1! + 10-2! +10-3! +....,
अबीजीय हैं।
ज्यामितीय दृष्टिकोण से संमिश्र संख्याओं को समतल पर निरूपित कर सकते हैं; संख्या z = x + i y उस बिंदु द्वारा निरूपित होगी जिसके नियामक (x, y) हों। इस समतल को तब संमिश्र समतल कहते हैं।
संमिश्र संख्याओं को विस्तार देने पर चतुर्मिश्र संख्याएँ (Quarternions) प्राप्त होती हैं। इनका रूप a + bj + ck + dl जैसा होता है, जिसमें a, b, c, d, वास्तविक हैं। ऐसी दो संख्याओं का योग संमिश्र संख्याओं की भाँति व्यक्त किया जाता है, और गुणन की व्याख्या j2 = k2 = l2 = -1, jk = 1, kj = -1, kl = j, lk = -j, ly = k, jl = -k जैसे समीकरणों (जो i2 = -1 के व्यास रूप हैं) की सहायता से होती है। अतिसंमिश्र संख्याएँ भी इसी प्रकार व्यक्त की जा सकती हैं।
सं. ग्रं. - जी. एच. हार्डी : ए कोर्स इन प्योर मैथेमैटिक्स (१९३५); ई. लडाऊ : ग्रंडलागेन डर ऐनालसिस (१९३०); बी रसेल : इंट्रोडक्शन टु मैथेमैटिकल फिलॉसोफी (१९१०); जी. बर्कहौफ़ और एस. मैकलेन : ए सर्वे ऑव मॉडर्न ऐल्जेबरा (१९४०) ई. डब्ल्यू. हॉबसन : थ्योरी ऑव फंक्शंस ऑव ए रीयल वेरियेबिल, खंड १(१९२७)। (स्वरूपचंद्र मोहनलाल शाह)