श्वसनतंत्र के रोग (Diseases of Respiratory System) श्वसन तंत्र के रोगों में कुछ लक्षण तथा च्ह्रि, अकेले अथवा एक दूसरे के साथ, प्रकट होते हैं। ये इस प्रकार हैं : (१) कासा या खाँसी, (२) कफोत्सारण, (३) फुप्फुसी रुधिरस्राव, (४) वक्ष में पीड़ा तथा (५) श्वासकृच्छता अथवा मंदश्वसन। इनके लाक्षणिक स्वरूप का जितनी शीघ्रता से अभिज्ञान किया जाए, निदान तथा चिकित्सा एवं रोग की साध्यासाध्यत में सुगमता होती है।
यदि शुष्क कास दीर्घकालिक स्वरूप का हो, तो इससे राजयक्ष्मा, या क्षय, अथवा फुप्फुस के कैंसर की आशंका की जा सकती है। इसी प्रकार घरघराहट युक्त कास श्वसन-मार्ग-संकीर्णक रोगों का सूचक होता है, यथा श्वास या दमा, श्वासमार्ग में स्थित वाह्यागत द्रव्य, श्वसनपथ की स्व्राणता तथा श्वसन-नली-शोथ आदि। अर्बुद की स्थिति के कारण कंठ के स्वरयंत्र पर दबाव पड़ने से धातु ध्वनिकास होने लगता है। एन्यूरिज़्म (aneurysm), स्वररज्जु (vocal cord) के रोग, कर्णगूथ, अलिजिह्वा वृद्धि (uvula) एवं टॉन्सिल शोथ (tonsillitis) आदि रोगों में भी, विशेष: बालकों में, कास एक प्रधान लक्षण होता है। इसी प्रकार विशिष्ट लाक्षणिक स्वरूप का कफोत्सारण भी फुप्फुस के किसी विशिष्ट रोग का सूचक होता है। न्यूमोकोकसजन्य न्यूमोनिया (pneumococal pneumonia) में मोरचे के रंग का कफ (बलगम) आता है। फ्रीडलैंडर की (Friedlander's) न्यूमोनिया में कफ अत्यंत चिपचिपा होता है। फुप्फुस विद्रधि एवं श्वासनालस्फीत (bronchiectasis) में दुर्गंधित कफ आता है और फुप्फुसांतर्गत रक्ताधिक्य में झागदार एवं रक्तरंजित बलगम निकलता है।
फुप्फुस से रुधिरस्राव प्राय: निम्न विकृतियां में होता है : श्वासनाल स्फीत, फुप्फुसी राजयक्ष्मा, फुप्फुसी कैंसर, विद्रधि, फंगस एव परजीवी रोग (prasitic diseases)। इसके अतिरिक्त कतिपय हृद्रोग, फ्रीडलैंडर दंडाणु न्यूमोनिया, कतिपय रक्तरोग, फुप्फुसी रुधिरवाहिनियों में रुधिर का थक्का बनने से, स्कर्वी रोग तथा फुप्फुस का आधातज क्षत होने पर भी रुधिरस्राव हो सकता है। रुधिरस्रावी विकृतियों में प्राय: रुधिरमिश्रत या रुधिररंजित कफ आता है।
उरोवेदना (छाती में दर्द) प्राय: फुप्फुसावरणशोथ (pleurisy) के कारण होती है (देखें फुप्फुसावरण शोथ), जो मुख्यत: राजयक्ष्मा तथा न्युमोनिया आदि औपसर्गिक रोगों में पाया जाता है। यह वेदना तीव्र तथा चुभने की तरह होती है, जो प्राय: वक्ष के सम्मुख या पार्श्विक भाग में होती है तथा श्वसन के साथ और भी उग्र अनुभूत होती है। मध्यपट (diaphragm) को ढँकनेवाले फुप्फुसावरण की विकृति में पीड़ा वक्षस्थल में न हो कर स्कंध, ग्रीवापार्श्व या कभी कभी उदर में ज्ञात होती है। उदरपीड़ा कभी कभी उंडुकशोथ (appendicitis) की पीड़ा के अनुरूप मालूम पड़ती है। कभी कभी शुष्क फुप्फुसावरण शोथ के पश्चात् फुप्फुसावरण्अंतराल (फुप्फुसावरण के भित्तीयश् (parietal) तथा आशयिक, या विसरल, पर्तों के बीच के अवकाश) में सीरसी द्रव या पूय एकत्रित होकर, वक्षशोथ (hydrothorax) तथा पूययोरस (पागोथोरैक्स एंपायमा) की स्थिति उत्पन्न होती है। कैंसर की स्थिति में उपर्युक्त द्रव रक्तरंजित होता है। उरोवेदना कभी कभी हृदय, महाधमनी एवं पित्ताशय के रोगों में तथा पर्शुकाओं के आघातज क्षत एवं पर्शुकांतर तंत्रिकाशूल में भी पाई जाती है।
मंदश्वसन, या द्रुतश्वसन, शरीर में अपर्याप्त ऑक्सीजन का द्योतक होता है। कभी कभी यह साधारण होने से प्राय: आयास की स्थिति में ही, यथा आरंभिक वातस्फीति (emphysema) रोग में, प्रकट रूप से ज्ञात होता है। किंतु फुप्फुसगत रक्ताधिक्य, हृत्पात् एवं कंठ (larynx) तथा श्वासनली (trachea) में बाह्यागत, या अर्वुद अथवा शोथजन्य, अवरोध की स्थिति, डिप्थीरिया रोग में मंद या द्रुत श्वसन उग्र और स्थायी स्वरूप का होता है, और स्थिति के गंभीर एवं भयावह होने का सूचक होता है। श्वासनली श्वसनीशीथ, न्युमोनिया, दमा, फुप्फुसी रक्ताधिक्य, सूत्रणरोग (fibrosis), राजयक्ष्मा, अनिष्टकारी धूम एवं धूलिकण के सूँधने से और फुप्फुस एवं उरोभित्ति के बीच वायु, रक्तपूय या अन्य द्रव का संचय होने पर भी श्वसनहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसके तीव्र एवं उग्रस्वरूप होने पर प्राय: ओठों एवं नखों पर रक्तिमा के स्थान में नीलिमा होती है। न्यूनाधिक श्वसनहीनता फुप्फुसगत सभी औपसर्गिक रोगों में पाई जाती है। कभी कभी श्वसनपथ के पार्श्ववर्ती अंगों की विकृतियों से जब श्वासपथ पर दबव पड़ता है, तब भी न्यूनाधिक श्वसनहीनता का उपद्रव लक्षित होता है।
श्वसनतंत्र के रोगों की उत्पत्ति मुख्यत: निम्न कारणों से होती है : विकारी उपसर्ग, विजातीय कणों एवं अनिष्टकारी धूम्घ्राााणन, फुप्फुसी रुधिर परिसंचरण, की विकृति, ऐलर्जी एवं श्वसनपथ में अवरोधोत्पादक बाह्य द्रव्यों का प्रवेश।
प्रतिश्याय या जुकाम यद्यपि सामान्यत: साधारण रोग है, तथापि कभी कभी उपेक्षा के कारण यह अन्य गंभीर रोगों की उत्पत्ति तथा श्वसनतंत्र के अन्य आनुषंगिक उपसर्गों में सहायक बन जाता है। जल में बहुत देर तक तैरने या डुबकी मारने से तथा दंतविद्रधि से विकारी जीवाणुओं का संक्रमण उपनासा कोटरों में हो सकता है। स्वरोच्चारण के मिथ्यायोग तथा अतियोग से, अत्यधिक ऐलकोहल एवं धूमपान से तथा ऊर्ध्वश्वसनपथ के उपसर्ग के संसर्ग से स्वरभंगयुक्त कंठशोथ (laryngitis) हो जाता है। फुप्फुसी के कतिपय अन्य संक्रामक रोगों, यथा राजयक्ष्मा, फिरंग आदि, में भी उपद्रवस्वरूप कंठशोथ हो जाता है। स्वरयंत्रघर्घर रिकेटी शिशुओं में पाया जाता है।
तरुण या उग्रश्वासनली शोथ (acute bronchitis) कभी कभी साधारण जुकाम के परिणामस्वरूप होता है। कभी नासाग्रसनीमार्ग तथा श्वसनी में इन्फ्ल्यूएंजा के विषाणु, या अन्य विकारी जीवाणुओं, की उपस्थिति भी इसकी जनक होती है। बालकों तथा दुर्बल व्यक्तियों में श्वासनलीशोथ ही बढ़कर न्युमोनिया का रूप ले लेता है। कभी कभी कुकरखाँसी, टाइफाइड तथा टाइफस ज्वर, विषाणुज न्युमोनिया तथा कवकसंक्रमण भी श्वासनलीशोथ से प्रारंभ होते हैं। दीर्घकालिक श्वासनलीशोथ (chronic bronchitis) फुप्फुस के अन्य गंभीर एवं दीर्घकालिक स्वभाव की विकृतियों के उपद्रव स्वरूप होता है (देखें श्वासनलीशोथ)।
इनफ्ल्यूएंजा, फुप्फुसावरणशोथ, न्यूमोनिया, कुकरखाँसी, राजयक्ष्मा आदि श्वसनतंत्र के कतिपय महत्वपूर्ण एवं भयानक स्वरूप के रोग हैं। इनमें इनफ्ल्यूएंजा, कुकरखाँसी तथा राजयक्ष्मा संक्रामक स्वरूप के हैं तथा इनफ्ल्यूएंजा तो कभी कभी महामारी रूप से भी फैल जाता है। किसी समय में यह महामारी (epidemic) के रूप में फैलता था तथा इसे भयंकर जनपदोध्वंस हुआ करते थे। श्वसनतंत्र के रोग विशेषत: बिंदुक संक्रमण (droplet infection) से फैलते हैं।
श्वासनलस्फीति (bronchiectasis) में जीवाणु उपसर्ग के साथ साथ श्वासनलिकाओं का विस्फाण हो जाता है। यह सहज जन्मजात तथा जन्मोत्तर दो प्रकार का होता है। बाह्यागत अवरोधक द्रव्य, अर्बुद, दीर्घकालिक नासाकोटरशोथ, राजयक्ष्मा एवं अन्य औपसर्गिक अवस्थाओं के कारण श्वसनीअवरोध के परिणामस्वरूप यह रोग उत्पन्न होता है। जीर्णकास एवं अत्यधिक दुर्गंधित बलगम का निकलना (कभी कभी रक्त भी आता है) तथा हाथ पैर की अँगुलियों के अग्र सिरों का मोटा हो जाना इस रोग के प्रधान च्ह्रि होते हैं (देखें श्वासनल स्फीति)।
सामान्य कायिक संज्ञाहरण द्वारा मुख एव गले के शल्यकर्म में कभी कभी भोज्यकण, द्रव या अन्य विजातीकण या संक्रांत ऊतकों का श्वसनपथ में चूषण हो जाने से, अथवा उदरगत या श्रोणिगत शल्यकर्म में पूतिदूषित रक्तस्रोतरोधी (emboli) के फुफ्फुस में पहुँचने से, फुफ्फुस या ग्रासनली (vesophagus) के अर्बुद से, फुफ्फुसशोथ तथा बाह्याघातजन्य फुफ्फुसक्षत से फुफ्फुस के विद्रधि की उत्पत्ति होती है। इसमें खाँसी, दुर्गंधित तथा रक्तमय बलगम का आना, छाती में दर्द, अनियमित स्वरूप का ज्वर तथा अँगुलिगों के सिरों का मोटा होना आदि लक्षण होते हैं।
फुफ्फुस में कवल के उपसर्ग के परिणामस्वरूप निम्न विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं : ऐम्परजिलस रोग (aspergillosis), मोनिलिऐसिस (moniliasis), कॉक्सीडिओ आइडोमाइकोसिस (coccidioidomycosis), स्पोरोट्राइकोसिस, (sporotrichosis), ब्लास्टोमाइकोसिस (blastomycosis), तथा एक्टिनोमाइकोसिस (actinomycosis) आदि। इनमें सामान्यरूप से ज्वर, जीर्णकास, कफोत्सारण, वक्ष में पीड़ा, कभी रक्तोत्सारण तथा बलक्षीण्ता आदि लक्षण होते हैं। रोग की उग्र या तरुण अवस्था बहुत कुछ न्युमोनिया के अनुरूप तथा दीर्घकालिक अवस्था फुफ्फुसीय राजयक्ष्मा के अनुरूप होती है।
व्यावसायिक एवं उघोगधंधों के कारखानों, मिलों तथा खानों में काम करने वाले व्यक्तियों एवं संगतराशी का काम करनेवालों में, या इसी प्रकार की अन्य दस्तकारी में, सिलिका के सूक्ष्म कण श्वसन के साथ फुफ्फुसों में पहुँचकर यत्रतत्र जमा होकर, कालांतर में सिलिकोसिस (silicosis) की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं, जिससे फुफ्फुसों में सूत्रणरोग (fibrosis) उत्पन्न हो जाता है। रोगी में मंदश्वसन, जो आयास से अधिक स्पष्ट होती है, कास, कफोत्सारण एवं उरोवेदना आदि लक्षण प्रकट होते हैं। कभी कभी रक्तोत्सारण (haemoptysis) भी होता है। दिनोंदिन शक्ति का क्षय होता जाता है। दीर्घकालिक सिलिकोसिस से फुफ्फुसावरणों का मोटा होना, वातस्फीति आदि उपद्रव होते हैं तथा फुफ्फुसीय राजयक्ष्मा के समान लक्षण दिखाई देते हैं। इन रोगियों में हृद्घात् की भी आशंका रहती है। रोग से बचने के लिए मुख और नासा पर कपड़ा बाँधकर काम करना चाहिए। प्रवृद्ध सिलिकोसिस में राजयक्ष्मा की निर्दिष्ट चिकित्सा से भी कोई विशेष लाभ नहीं होता और रोगी को प्राण से हाथ धोना पड़ता है। इसी प्रकार ऐस्बेस्टॉस के कारखानों में काम करनेवालों को तथा ईख की खोई (begasse) के छोटे छोटे कणों के कारण इक्षुधूलिमयता (begassosis) एवं रूई के सूक्ष्म रेशों के करण तूलोर्णमयता (byssinoris) नामक विकृतियाँ होती हैं। इन सभी के स्वभाव एवं उपद्रवक्रम प्राय: समान हैं। कभी कभी उग्र स्वरूप के रासायनिक द्रव्यों के आघ्राणन द्वारा फुफ्फुसों में शोथ हेने से श्वासावरोध उत्पन्न होकर सहसा दुर्घटनाएँ हो जाती है। कभी कभी श्वसन द्वारा ऐसे द्रव्यों के सूक्ष्म कणों के फुफ्फुसों में पहुँचने से, जिनके प्रति व्यक्ति को ऐलर्जी हो, सहसा ऐलर्जीजन्य विकृति पैदा हो जाती है, जिससे श्वसनकष्ट, छींक आना तथा नाक से पानी बहना आदि लक्षण पैदा हो जाते हैं और रोगी को दमा जैसे कष्ट की अनुभति होती हैं। ऐसी स्थिति में संवेदनशीलता परीक्षण द्वारा कारण का ज्ञान कर उसका परिवर्धन करना चाहिए। चिकित्सार्थ विसग्राहीकरण करने तथा हिस्टामीन प्रतिरोधी ओषधियों के प्रयोग से बहुत लाभ होता है।
कभी कभी अकस्मात् ऐसे विजातीय द्रव्यों के, जो वायुपथ में स्थित होकर अवरोध उत्पन्न कर देते हैं श्वसनपथ में पहुंचने से फुफ्फुस अनुन्मीलन (एटिलेक्टेसिस) की आत्यधिक स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में अविलंब श्वसनीदर्शक की सहायता से उक्त अवरोधक घटक क र्हिरण आवश्यक हो जाता है। श्वास या दमा दौरे से होनेवाला रोग है। दौरे के समय रोगी को श्वसनकृच्छता होती है, जिसका मुख्य कारण श्वासनलिकाओं का संकोच होता है। दौरे के समय श्वासनलिकाओं का विस्तृत करनेवाली ओषधियों का अविलंब उपयोग होना चाहिए।
रोगनिदान - श्वसनतंत्र के रोगों का निदान सामान्यतया तत्तद्विशिष्ट भौतिक एवं लाक्षणिक च्ह्रोिं के परीक्षण द्वारा किया जाता है। संप्रति वैकृतिक द्रव्यों के प्रयोगशालीय परीक्षणों द्वारा रोग एवं उसके जनक कारणों के निश्चयात्मक निर्धारण में विशेष सहायता मिलती है। औपसर्गिक रोगों एवं पूयजनक विकृतियों में इनका विशेष महत्व है। एक्सकिरण फोटोग्राफी एवं प्रत्यक्षदर्शी यंत्रों द्वारा विकृति के स्वरूप एवं स्थलनिर्धारण में विशेष सहायता मिलती है।
चिकित्सा - रोगी को आराम की स्थिति में स्वच्छ स्थान में रखना चाहिए। लाक्षणिक चिकित्सा के साथ साथ अब यथावश्यक सल्फा वर्ग एवं ऐंटिबायोटिक वर्ग की ओषधियों के उपयोग से चमत्कारी लाभ होता है। इसके अतिरिक्त रोग के कारणों से परहेज करना एवं पथ्यापथ्य का भी पालन होना चाहिए। रक्तऑक्सीक्षीणता की स्थिति में कृत्रिम रूप से ऑक्सीजन का आघ्राणन कराना चाहिए।
(राम सश्लुाी सिंह एवं भृगुनाथ सिंह.)