श्वसनतंत्र की रचना ईसा से १,००० वर्ष पूर्व, भारत के महर्षियों को इस तंत्र की रचना का ज्ञान समुचित रूप से था, जैसा चरक, सुश्रुत आदि के ग्रंथों के अवलोकन से ज्ञात होता है।

पाश्चात्य शरीर-रचना-शास्त्र के अनुसार श्वसनतंत्र इन छह अंगों द्वारा निर्मित होता है : नासागुहा (Nasal cavity), ग्रसनी (Pharynx), कंठ (Larynx), (Trachea), श्वसनी (Bronchus) तथा फुफ्फुस (Lungs)।

नासा गुहा - शरीररचना अनुसार गंध ग्रहणतंत्र नासागुहा से बना हुआ है। इसका ऊपरी भाग गंधग्राही श्लेष्माकला से संलग्न रहता है तथा निम्न भाग श्वसन अंग का कार्य करता है। नासिका का अस्थिढाँचा खोपड़ी का ही एक भाग है, जिसमें नासिका का ऊपरी भाग आश्रित है तथा निम्न भाग केवल उपास्थियों से निर्मित है। नासा के दोनों ओर के बाह्य विस्तृत हिस्से, नासिका एला (ala), त्वचा तथा वसांततवीय ऊतक से निर्मित रहते हैं। नासागुहा, नासापट (nasal septum) द्वारा दो गुहाओं में विभाजित होती है। नासापट का निचला दो तिहाई भाग स्थूल एवं अधिक रुधिरवाहिनियों वाली श्लेष्माकला से, जो स्तंभाकार, पक्ष्माभिकामय उपकला (columnar ciliated epithelium) तथा गुच्छकोष्ठक (acinus) ग्रंथिसमूहों से निर्मित होती है, आवृत है। नासापट का ऊपरी हिस्सा विशिष्ट गंधग्राही कला से आवृत रहता है। ऊपर की ओर झर्झरिका (ethnoid) अस्थि, नीचे की ओर सीरिका (vomer) तथा नासापट की उपास्थित अग्र भाग में, यही नासापट का ढाँचा है। नासागुद्दा की बाह्य दीवार में तीन कुहर (meatuses) रहते हैं, जो तीन नासालट्टूरूपी (turbinated) अस्थियों के लटकने के कारण बनते हैं। उच्च नासालट्टू, के ऊपर तथा नासागुहा छत के मध्य, एक अवकाश (space) है, जिसको जतुक-झर्झरिका-दरी (Spheno-ethmoial recess) कहते हैं। इस अवकाश के पश्चभाग में जतुक वायुकोशिका खुलती है। ऊपरी एवं मध्य नासालट्टू के बीच में उच्च कुहर (superior meatus) है, जिसमें पश्चझर्झरी-वायुकोशिका खुलती है। मध्य एवं निम्न लट्टूरूपी अस्थि के मध्य में मध्यकुहर है, जो तीनों कुहरों में सबसे बड़ा है। तथा इसमें गोल उभार है, जिसे झर्झरिका कंद (Bulla ethemoidalis) कहते हैं। इस झर्झरिका कंद के पीछे ऊपरी ओर, मध्यझर्झरी वायुकोशिका खुलती है तथा नीचे की ओर अग्र भाग में एक हँसुए के आकार की नाली रहती है, जिसे अर्धचंद्रभंग (Hiatus semiluneris) कहते हैं, जो ऊपर पूर्व कपाल वायुकोशिका और नीचे की ओर जंभिका गह्वर (maxillary antrum) को जोडता है। जब निम्न नासाशंखास्थि उठती है, तो नासावाहिनी (nasal duct) का द्वार दिखाई देता है।

ग्रसनी - इसकी रचना एक गह्वर के समान है, जिसमें नासिका तथा मुखगुहा खुलती हैं। यह नीचे की ओर अन्ननलिका से संबंधित है, जहाँ कंठ की रचना नीचे और सामने की ओर रहती है। अग्र भाग में नासा तथा मुखगुहा खुलने के अनुसार इसके भी दो भाग हैं : नासाग्रसनी तथा मुखग्रसनी। इस गह्वर के बगल तथा पीछे की ओर तीन संकीर्णक (constrictor) मांसपेशियाँ रहती हैं, जो इसका निर्माण भी करती हैं। आंतरिक भाग मोटी श्लेष्माकला से बना है। ग्रसनी ऊपर पालास्थि से तथा नीचे त्रंयगिकापट्ट (pterygoid plate) से टिकी तथा तनी रहती है। निचले भाग में अग्र पश्च दीवारें सटी रहती हैं। इसकी सामने की दीवार में कठोर तालु के पीछे एक मृदुतालु (soft palate) रहता है, जो ऊपर नासाग्रसनी तथा नीचे मुखग्रसनी को अलग करता है। मृदुतालु के स्वतंत्र किनारे मे मध्य में मांसल अलिजिह्वा (uvula) होती है। मृदुतालु के ऊपर, नासाग्रसनी के दोनों तरफ, यूस्टेकी नलिका (eustachian tube) का त्रिकोणाकर मुख खुलता है, जिसके द्वारा वायुचलन कर्णपटह (tympanum) तक होता है।

इस छिद्र के पीछे ग्रसनी में लसीकाभ तंतुओं का समूह है, जिसे ग्रसनी टांसिल कहते हैं। यह ऐडिनाइड (adenoid) रोग में वृद्धि करता है।

मुखग्रसनी ऊपर की ओर, नासाग्रसनी से मृदु तालु की स्वतंत्र धारा द्वारा विभाजित है। मुखग्रसनी के अग्र भाग में मुखगुहा है। इसके दोनों ओर मृदुगुहा है। इसके दोनों ओर मृदु तालु से जिह्वा तक श्लेष्माकला के दो वलन

टांसिल, यह अंडाकार रचना है, जो लसीकाभ ऊतक द्वारा निर्मित होती है तथा श्लेष्माकला द्वारा आच्छादित रहती है, यह रुधिरवाहिनयों द्वारा घिरी रहती है। यहाँ पाँच धमनियाँ एकत्र होती हैं। बाह्य त्वचा की ओर से यह चिबुकास्थि के कोण पर स्थित है।

टांसिल की नीचे, ग्रंसनी की अग्रसीमा जिह्वा के पश्च भाग या ग्रसनी की सतह से निर्मित होती है तथा इसके नीचे का भाग घाँटीढक्कन (epiglottis) एवं कंठ के ऊपरी द्वार से निर्मित होता है।

कंठ का ऊपरी द्वार पार्श्व में दर्विकाय घाँटीढक्कन वलन (arytenoid epiglottis fold) से सीमित है। इन वलनों के पार्श्व में नाशपाती के अकार के नाखरूपी कोटर (sinus pyriformis) नाम के दो गर्त रहते हैं। इनके नीचे ग्रसनी संकुचित होने लगती है, जब तक मुद्रिका उपास्थि (cricoid cartilage) छठे कशेरुक तक न पहुँच जाएँ। नासाग्रसनी की श्लेष्माकला तथा श्वसननलिका का बचा हुआ भाग भी स्तंभ उपकला से बना होता है। पद मुखग्रसनी में उपकला स्तरित, शल्की प्रकार की होती है। असंख्य द्राक्षाभ ग्रंथियाँ (racemose glands) यहाँ रहती है एवं लसीकाभ ऊतक (lymphoid tissue) भी विकृत रहता है, जो बालकों में विशष रूप से होता है।

(३) कंठ (Larynx) - यह वायुनलिका का ऊपरी भाग है तथा ध्वनि के नाना तारत्व (pitch) के स्वरो (notes) की उत्पत्ति करता है। यह पूर्ण स्वर के लिए जिम्मेदार नहीं है।

इसका ढाँचा उपास्थि का बना हुआ है, जो मांसपेशियों द्वारा गतिमान होती है। अंदर की ओर इसमें श्लेष्माकला का अस्तर होता है। यह ग्रसिका के सामने स्थित है तथा चार, पाँच तथा छह ग्रीवाकशेरूक तक विस्तृत रहता है। कंठ में अवटु उपास्थि (thyoid cartilage) सबसे बड़ी उपास्थि है, जिसके दो पट्टे अग्र भाग में मध्य अधररेखा में जुड़े रहते हैं। इसकी दूसरी सीमा पर मध्य में अवट गर्त के ठीक नीचे मध्य अधर रेखा (mid ventral) में एक उभरा हुआ भाग है, जो युवावस्था में अधिक उभरता है। इसे आदम का सेब कहते हैं। इस उपास्थि के पश्च किनारे का ऊपरी कोना शृंग (cornu) रूप में रहता है, जिसपर पार्श्वीय अवटु स्नायु लगी रहती है। यह स्नायु ऊपर कंठिका अस्थि (hyoid bone) के बृहत् शृंग (superior cornu) पर भी लगी रहती है। इसकी मुद्रिका उपास्थि (cricoid cartilage) एक अँगूठी के समान होती है। इसके ऊपरी किनारे पर अग्रमध्य भाग में वलयावटु (crico-thyroid) कला का मध्यवर्ती भाग लगा रहता है तथा यह कला अवटु उपास्थि के निचले किनारे पर लगती है। कंठ की लंबाई ३८ से ४४ मिमी. होती है।

इस कला का पार्श्वीय भाग भीतर से ऊपर, जहाँ अवटु उपास्थि है, और उसके ऊपरी स्वतंत्र किनारे तक, जहाँ वास्तविक वाक्तंतु (vocal cords) बनता जाता है। मुद्रिका के सिगनेट (segnet) भाग के ऊपर दो दर्विकाभ (arytenoid) अस्थियाँ रहती हैं, जो पिरामिड बनाती हैं और जिसकी चोटी ऊपर होती है। इस अस्थि का तल उन्नतोदर होकर मुद्रिका के साथ संधि बाता है, जो वलयदर्विकाकला से घिरी रहती है। ये दर्विकाभ उपास्थियाँ आपस में फिसलती रहती हैं तथा लंब अक्ष पर घूमती रहती हैं। इनके तल के प्रवर्ध पर वास्तविक वाक्तंतु संलग्न रहते हैं तथा तल के बाहरी मजबूत प्रवर्ध वलयदर्विका (crico arytenoid) मांसपेशियाँ संलग्न रहती हैं।

घाँटी ढक्कन (Epiglottis) - यह पत्राकार ढक्कन है तथा कंठपेटी के ऊपर रहता है। इसका अग्रतल जिह्वा एवं कंठिका अस्थि से संलग्न है तथा पश्चतल कंठ के ऊर्ध्वमुख पर झुका रहता है। यह भोजन को कंठ में जाने से रोकता है। इसका डंठल अवटु अस्थि से कंठ के भीतरी भाग तक लगा रहता है। पत्र का ऊपरी भाग कंठिका अस्थि से, तथा जिह्वामूल के समीप, लगता है।

कंठ की केवल तीन उपास्थियों को छोड़कर, जो पीत लचीली प्रकार की होती है, प्राय: सभी उपास्थियाँ काचाभ (hyaline) प्रकार की होती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि इन तीनों उपास्थियों को छोड़कर अन्य सब उपास्थियाँ युवावस्था में अस्थियों में परिवर्तित हो जाती हैं।

कंठ की मांसपेशियाँ - प्रथम पेशी वलयावटु (cricothyroidens) है यह अवटु के अधोभाग पर लगी रहती है। इसका अगला हिस्सा मुद्रिका को ऊपर की ओर खींचता हुआ सिगनेट का ऊपरी हिस्सा बनाता है, जहाँ दर्विकाभ इससे लगा रहता है तथा पीछे की ओर गति करता है और वाक्तंतु को ठीक से ताने रखता है।

द्वितीय पेशी - अवटु दर्विकाभ के पक्षक (alae) के जोड़ से पीछे की ओर जाती है तथा दर्विकाभ के सामने तथा घाँटी ढक्कन के बगल में रहती है। ये दर्विकाभ को अवटु की ओर खींचती हैं और तंतु को ढीला करती हैं ताकि वे सट जाएँ। तृतीय पेशी, दर्विकाभ के पीछे से चलती है तथा उपास्थियों को सम समान रखती है। इसके दो भाग होते हैं एक तिर्यक् तथा दूसरा अनुप्रस्थ। चतुर्थ पेशी, पार्श्वीय वलय दर्विका (crico arytenoid) पेशी है। यह दर्विकाभ अस्थि के पेशीप्रवर्ध को आगे की ओर खींची है और इस तरह स्वरप्रवर्ध और तंतुओं को मोड़ देती है। पंचम देशी, पश्च वलयदर्विका है, जो सिगनेट भाग के पिछले भाग से लेकर दर्विकाभ के प्रवर्ध के पीछे तक रहती है। यह स्वरप्रवर्ध को पीछे खींचकर वाक्तंतु को विलग करती है।

केवल वलयावटु पेशी को, जो ऊर्ध्व स्वरतंत्रिका की बाह्य शाखा से संचारित होती है, छोड़कर अन्य चारों पेशियाँ आवर्तक (recurrent) स्वरतंत्रिका द्वारा संचालित होती हैं।

कंठ की श्लेष्माकला ग्रसनी कला से सतत जारी रहती है, विशेषत: दर्विघाँटी ढक्कन वलय (aryteno-epiglottis fold) पर घाँटी ढक्कन के पार्श्व से दर्विकाभ उपास्थि के शिखर तक जाती है। इन वलयों के बाहर की ओर प्लांडुरूपी विवर रहता है। अवटु के पक्षक (alae) के संयोजन के मध्य से लेकर दर्विकाभ के स्वरप्रबंध तक यह कला परावर्तित एवं संलग्न रहती है। वलयावटु कला के पार्श्वीय स्वतंत्र भाग ही स्वररज्जु बनाते हैं। स्वतंत्र स्वररज्जुओं के मध्य के खात को घाँटी (Glottis) कहते हैं। स्वररज्जुओं के ऊपर आगे से पीछे की ओर खात है, जिसे कंठविवर (laryngeal sinus) कहते हैं। इस खात में कंठ लघुकोश (laryngeal saccule) का मुख रहता है। कंठविवर के ऊपरी भाग को कूट स्वररज्जु कहते हैं।

घाँटी ढक्कन और स्वररज्जु पर श्लेष्मल कला संलग्न है, परंतु अन्य जगह पर्याप्त ध-श्लेष्मल ऊतक रहते हैं। कंठ के ऊपरी भाग के अग्र एव पार्श्व में शल्की उपकला (squamous epithelium) रहती है, परंतु और स्थानों पर स्तंभाकार या पक्षिमाभिकामय उपकला रहती है। इसकी तंत्रिका ऊर्ध्व स्वरतंत्रिका (वेगस की शाखा) है।

श्वासनली (Trachea) - यह ४ से ४।। इंच लंबी वायुनलिका है। वायु, नासा से ग्रसनी में होकर, कंठ से गुजरकर इस नली से फुफ्फुस को जाती है। इसका कुछ भाग गर्दन में तथा कुछ वक्ष में रहता है। यह नली कंठ के अधोभाग से प्रारंभ होकर पंचम वक्ष कशेरुक के ऊपरी किनारे पर दो श्वासप्रणालियों (bronchi) में विभाजित हो जाती है। यह नलिका अस्थियों के छल्लों से बनी होती है। इसे पीछे ग्रसिका (oesophagus) रहती है। इसके सामने और पार्श्व में अवटु ग्रंथि रहती है। इसके वाम पार्श्व में अनामी शिरा (innominate vein), धमनी तथा महाधमनी (arota) का चाप रहता है। इसका ग्रीवा भाग १ इंच का है। इसी भाग में ट्रेकियाटामी नामक शल्यकर्म किया जाता है। यह फाइब्रो-इलैस्टिक तंतु से निर्मित है तथा तरुणास्थियों के छल्लों का पृष्ठ भाग अनैच्छिक मांसपेशियों से निर्मित होता है। जब ये मांसपेशियाँ संकुचित होती हैं तब श्वासनली का व्यास एवं परिधि कम हो जाती है। इसके भीतर उपकला में स्तंभाकार उपकला रहती है।

श्वसनी - दो नलिकाएँ है, जिनमें श्वासनली विभाजित होकर फुप्फुस के मध्यभाग तक जाती है। श्वसनी की संरचना श्वासनली के समान होती है। श्वसनी विभाजित होकर फुप्फुस के अलग अलग खंडों तथा प्रखंडों में जाती है। इनका एक भाग फुप्फुस के अंदर रहता है। इनके संकुचित होने पर श्वासोच्छ्वास में कठिनाई होती है, जैसा दमा रोग में देखा जाता है। प्रत्येक श्वसनी की कई सूक्ष्म शाखाएँ होती हैं।

फुप्फुस - दो पिरैमिड आकार के स्पंजी रुधिरवाहिनी अंग हैं। इनमें रुधिर ऑक्सीजनजनित रहता है। यह सामान्यत: गुलाबी रंग का होता है। नगरवासियों के फुप्फुस का रंग कार्बन जमा होने के कारण स्लेटी रंग का होता है। यह चारों से फुप्फुसावरणी गुहा (pleural cavity) से आवृत रहता है। इसका शीर्ष ग्रीवा में रहता है तथा आधार (base) महाप्राचीरा पेशी पर। इसका वाह्य भाग (धरातल) उन्नतोदर तथा पर्शुकाओं की ओर रहता है। इसका भीतरी भाग (धरातल) हृदयावरण तथा महारुधिर वाहिनियों की तरफ रहता है और पश्च किनारा गोलाई लिए होता है एवं कशेरुक नली की ओर होता है।

प्रत्येक फुप्फुस दो खंडों में (lobes) में एक प्राथमिक विदर (primary fissure) द्वारा विभाजित रहता है। यह विदर ऊपर से नीचे तिरछी दिशा में रहता है। दक्षिण फुप्फुस में एक और विदर रहता है, जिसके कारण यह तीन खंडों में विभाजित होता है तथा वाम फुप्फुस केवल दो खंडों में विभाजित रहता है। प्रत्येक फुप्फुस के, हृदय की ओर के धरातल पर मध्य भाग में नाभिक (hilum) रहता है, जहाँ से इसमें वाहिकाएँ, धमनियाँ तथा शिराएँ

प्रवेश करती हैं। इन्हें फुप्फुसमूल कहा जाता है। प्रत्येक फुप्फुस के इस मूल में फुप्फुसीय धमनी, शिरा तथा श्वसनी रहती है और तंत्रिकाओं का जाल एवं लसीका वाहिनियाँ तथा लसीका पर्व रहते हैं। फुप्फुस में जानेवाली धमनियाँ हृदय से अशुद्ध रुधिर को इसमें ऑक्सीजन वायु को ले जाती हैं तथा कार्बन डाईऑक्साइड को इससे बाहर ले जाती हैं। रुधिर इस आशय में अपने कार्बन डाइऑक्साइड को त्यागकर ऑक्सीजन ग्रहण करता है। इसे ही रुधिर का शोधन कहते हैं। श्वसनी की अंतिम शाखाओं में उपास्थि नहीं होती। फुप्फुस एवं श्वसनी के इस भाग को कूपिका (Aleol) कहा जाता है। फुप्फुस के रुधिरवहन को फौप्फुसीय रुधिर परिवहन कहते हैं। सद्य:जात में फुप्फुस घन होते हैं। जन्म लेते ही पहला श्वसन होने पर फुप्फुस घन हो, अर्थात् पानी में डालने पर डूब जाता हो, तो यह माना जाता है कि शिशु मृतावस्था में पैदा हुआ था। मनुष्य एक फुप्फुस के द्वारा भी जीवित रह सकता है। फुप्फुसावरण की एक पर्त फुप्फुस पर सटीश् रहती है तथा दूसरी वक्षगुहा की दीवार के अंतभाग पर। इन दोनों पर्तों के मध्य में चिकना तरल रहता है। (लक्ष्मी शंकर विश्वनाथ गुरु तथा झारखंडेय ओझा.)