श्लीपद या फीलपाँव (Elephantiasis) पाँव का फूलकर हाथी के पाँव के समान हो जाने का द्योतक है, परंतु यह आवश्यक नहीं कि पाँव ही सदा फूले; कभी हाथ, कभी अंडकोष, कभी स्तन आदि विभिन्न अवयव भी फूल जाते हैं।

श्लीपद सदा फाइलेरिया बैंक्रॉफ्टी (Filaria Bancrofti) नामक विशेष प्रकार के कृमियों द्वारा होता है और इसका प्रसार क्यूलेक्स (Culex) नामक विशेष प्रकार के मच्छरों के काटने से होता है। इस कृमि का स्थायी स्थान लसीका (lymph) वाहिनियाँ हैं, परंतु ये निश्चित समय पर, विशेषत: रात्रि में रक्त में प्रवेश कर भ्रमण करते रहते हैं। कभी कभी ये ज्वर तथा लसीकावाहिनियों में शोथ उत्पन्न कर देते हैं। यह शोथ न्यूनाधिक होता

श्लीपद का रोगी

रहता है, परंतु जब ये कृमि अंदर ही अंदर मर जाते हैं, तब लसीकावाहिनियों का मार्ग सदा के लिए बंद हो जाता है और उस स्थान की त्वचा मोटी तथा कड़ी हो जाती है। लसीका वाहिनियों के मार्ग बंद हो जाने से यदि अंग फूल जाएँ, तो कोई भी औषध ऐसी नहीं है जो अवरुद्ध लसीकामार्ग को खोल सके। कभी कभी किसी किसी रोगी में शल्यकर्म द्वारा लसीकावाहिनी का नया मार्ग बनाया जा सकता है। इस रोग के समस्त लक्षण फाइलेरिया के उग्र प्रकोप के समान होते हैं।

उपचार - यद्यपि इसके कृमि और अंडों को मारनेवाली किसी भी औषध का ज्ञान नहीं हो पाया है, तथापि श्लीपद अवस्था उत्पन्न होने के पूर्व, जब इस रोग के अंडे रक्त और लसीका में भ्रमण कर रहे होते हैं, तब हेट्राज़ान (Hetraazan) तथा इसके समकक्ष अन्य ओषधियों से पर्याप्त लाभ होता है। शल्यकर्म श्लीपद का एकमात्र उपचार है। (प्रिय कुमार चौबे)