श्रीनगर (गढ़वाल) स्थिति : ३० १३ उ. अ. तथा ७८ ४६ पू. दे.। यह आधुनिक ऋषिकेश बद्रीनाथ यात्रामार्ग पर स्थित सबसे बड़ा नगर है। यह विस्तृत एवं आकर्षक उपत्यका में समुद्र तल से १,७०६ फुट की ऊँचाई पर अलकनंदा के तट पर स्थित है तथा वर्तमान गढ़वाल जिले का प्रसिद्ध स्थल है। यहाँ बालक बालिकाओं की शिक्षा हेतु राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, तकनीकी शिक्षा के कई विद्यालय तथा एक राजकीय स्नातक महाविद्यालय भी है।

प्राचीन काल में इसे गढ़वाल नरेशों की राजधानी रहने का श्रेय प्राप्त रहा है। पुराणों, अंग्रेज प्रशासकों द्वारा लिखित विवरणिकाओं तथा किंवदंतियों एवं जनश्रुतियों में इसका इतिहास बिखरा पड़ा है।

ऐतिहासिक श्रीनगर की स्थापना १३७५ ई. के आसपास गढ़वाल के द्वितीय प्रसिद्ध शासक महाराज अजयपाल के समय में हुई। उन्होंने वहाँ विपणि तथा प्रासाद का निर्माण किया। इस संबंध में किंवदंती है कि एक दिन मृगया में संलग्न वे उस भूमि में पहुंचे जहाँ अनेक भग्नावशेष थे। वहाँ उनके मृगदंश को शशक ने मार दिया। रात्रि में उन्हें स्वप्न हुआ, ''यह परम सिद्ध स्थान है। यहाँ अकलनंदा के मध्य में एक शिला पर श्रीयंत्र है, जिससे इसका नाम श्रीक्षेत्र है। उसी के प्रभाव से एक निर्बल शशक मने मृगदंश को मार डाला। तेरे लिए यह अनिष्टसूचक नहीं है। तू इस स्थान में अपनी राजधानी स्थापित कर तथा नित्य प्रति मेरे यंत्र का पूजन अर्चन करता रहे। तेरी सब बातें सिद्ध होंगी।'' इस आदेश के अनुसार उन्होंने अपनी राजधानी वहाँ बसाई। श्रीनगर के संबंध जनश्रुति है कि वह ग्यारह बार बसाया गया और उजड़ा।

महाकवि भारवि के 'किरातार्जुनीयम्' का क्रीडास्थल यहीं था तथा संभवत: इस महाकाव्य की रचना यहीं अलकनंदातट पर हुई थी। विभिन्न मतों की समीक्षा से प्रतीत होता है कि हुयेन सांग के यात्रावृत्तांत में वर्णित ब्रह्मपुर (पो-बो-ली-ही-मो-पु लो) श्रीनगर ही है। चीनी यात्री ६३४ ई. के लगभग यहाँ आया था। स्थापना के काल से लेकर गोरखा आक्रमण तक श्रीनगर को गढ़वाल नरेशों की राजधानी रहने का सौभाग्य रहा और निरंतर उसके सौंदर्य तथा ऐश्वर्य की वृद्धि हुई। १८२८ के 'एशियाटिक रिसचेंज़' के सोलहवें खंड में कुमायूँ प्रांत पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखते हुए श्री ट्रेल ने श्रीनगर के प्रासाद के स्थापत्य की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता को उत्तराखंड की यात्रा के समय श्रीनगर के मंदिरों के स्थापत्य को देख आश्चर्य हुआ था। राज्यश्री की समाप्ति के साथ १८९४ ई. में बिरही गंगा की बाढ़ में प्राचीन प्रासाद तथा विपण (बाज़ार) बह गए। वर्तमान श्रीनगर इस बाढ़ के उपरांत बसा है।

गढ़वाल राज्य के प्रथम शासक महाराज कनकपाल थे। वैसा प्राप्त सामग्री के आधार पर ज्ञात है, वे ८८८ ई. में सिंहासनारूढ़ हुए। उनकी सैंतीसवीं पीढ़ी में महाराज अजयपाल हुए। इन्हीं के समय में ऐतिहासिक श्रीनगर की स्थापना हुई। महाराज अजयपाल के पश्चात् महाराज बलभद्रपाल हुए। उन्हें दिल्ली के सम्राट् से शाह की उपाधि मिली (१४९६ ई.)। तभी से यह उपाधि गढ़वाल नरेशों के नाम के साथ चली आ रही है। महाराज बलभद्र शाह के पश्चात् प्रसिद्ध गढ़वाल नरेशों में महाराज फतेहशाह, महाराज प्रदीपशाह, महाराज प्रद्युम्नशाह तथा महाराज सुदर्शनशाह के नाम उल्लेखनीय हैं। महाराज फतेहशाह के समय में कुमायूँ राज्य से अनवरत युद्ध हुए। गढ़वाल के नानाफड़नवीस श्रीपुरिया नैथाणी ने बड़ी चतुरता से श्रीनगर की रक्षा की। अल्पवयस्क महाराज प्रदीपशाह के समय में कठैत उपद्रवों से श्रीनगर की रक्षा का श्रेय भी श्रीपुरिया नैथाणी को ही है। महाराज प्रद्युम्नशाह के समय में गोरखा आक्रमण हुए। प्रथम आक्रमण के फलस्वरूरूप गोरखा राजदूत श्रीनगर दरबार में रहने लगा (१७९० ई.)। द्वितीय आक्रमण (१८०३ ई.) में महाराज प्रद्युम्नशाह वीरगति को प्राप्त हुए तथा गढ़वाल पर गोरखों का अधिकार हो गया। गोरखा शासनकाल में प्रजा को बड़ा कष्ट हुआ। गोरखा युद्ध के फलस्वरूप अलकनंदा तथा मंदाकिनी से पूर्व का गढ़वाल अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया (१८१५ ई.)। शेष गढ़वाल टिहरी गढ़वाल के नाम से महाराज सुदर्शन शाह को दे दिया गया। टिहरी गढ़वाल राज्य के अन्य नरेश महाराज कीर्तिशाह, महाराज नरेंद्रशाह तथा महाराज मानवेंद्रशाह हुए। १ अगस्त, १९४९ को टिहरी राज्य का भारत में विलीनीकरण हो गया।

श्रीनगर का सांस्कृतिक इतिहास कम गौरवपूर्ण तथा आकर्षक नहीं है। श्रीनगर तथा श्रीनगर दरबार को सदा साहित्यकों, कलाकारों तथा पंडितों एवं विद्वानों की क्रीड़ास्थली रहने का सौभाग्य रहा है। महाराज फतेहशाह साहित्य तथा संगीत के प्रेमी एवं कलामर्मज्ञ थे। इनकी राजसभा में दूर दूर के कवि आते रहते थे। प्रसिद्ध कवि रत्नाकर त्रिपाठी तथा भूषण इनकी राजसभा में पधारे थे। गढ़वाली चित्रांकन शैली के सर्वप्रमुख आचार्य, सुकवि तथा इतिहासलेखक श्री मोलाराम श्रीनगर दरबार की विभूति थे। (रत्नाकर उपाध्याय.)