श्रीधर पाठक सारस्वत ब्राह्मणों के उस परिवार में से थे जो ८वीं शती में पंजाब के सिरसा ग्राम से आकर आगरा जिले के जोंधरी गाँव में बसा था जहाँ ११ जनवरी, १८५८ ई. को उनका जन्म हुआ। पिता लीलाधर बड़े भगवद्भक्त और धर्मनिष्ठ थे। पाठक जी को आरंभ में घर पर संस्कृत की शिक्षा मिली। १०।११ वर्ष की अवस्था तक उन्हें संस्कृत का अच्छा ज्ञान हो गया। इस बीच गृहकलह के कारण जोंधरी छोड़ 'सोंठि को नगरा' जाना पड़ा जहाँ उनके दिन बुरे कटे। कुछ फारसी पढ़कर फिर हिंदी प्रवेशिका' (१८७५ ई.), 'अंग्रेजी मिडिल' (१८७९) और 'एंट्रेंस' (१८८०-८१ ई.) की परीक्षाएँ ससमान उत्तीर्ण कीं। एफ. ए. और कानून का भी अध्ययन किया परंतु एकाधिक कारणों से वे परीक्षा न दे पाए। तदुनंतर उनके जीवन का अधिकांश राजकीय सेवा में बीता। कलकत्ते के सेंसस कमिश्नर, लाट साहब तथा केंद्रीय सरकार के कार्यालयों में उन्होंने बहुत दिनों तक काम किया। बाद में नौकरी से अवकाश पाकर लूकरगंज (प्रयाग) में 'पद्मकोट' संज्ञक रमणीय भवन बनवाकर रहने लगे। हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था। वे प्रकृतिप्रेमी, सरल, उदार, नम्र, सहृदय, स्वच्छंद तथा विनोदी थे। वे हिंदी साहित्यसम्मेलन के पाँचवें अधिवेशन (१९१५, लखनऊ) के सभापति हुए और 'कविभूषण' की उपाधि से विभूषित भी। पिछले दिनों वे असाध्य श्वासरोग से दुष्पीड़ित रहे। शरीरपा १३ सितंबर, १९२८ ई. को हुआ।

रचनाएँ - मनोविनोद, बाल भूगोल, एकांतवासी योगी, जगत सचाई सार, ऊजड़ग्राम, श्रांत पथिक, काश्मीरसुषमा, आराध्य शोकांजलि, जार्ज वंदना, भक्ति विभा, श्री गोखले प्रशस्ति, श्री गोखले गुणाष्टक, देहरादून, श्रीगोपिकागीत, भारतगीत, तिलस्माती मुँदरी और विभिन्न स्फुट निबंध तथा पत्रादि।

पाठक जी मौलिक उद्भावनाओं के कवि हैं। विषय और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से आधुनिक हिंदी काव्य को एक नया मोड़ देने के कारण उन्हें स्वच्छंद भावधारा का सच्चा प्रवर्तक ठहराया गया। उन्होंने काव्य को अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छंद, वैयक्तिक और यथार्थभरी दृष्टि से देखने का सफल प्रयास किया जिससे आगामी छायावादी भावभूमि को बड़ा बल मिला और पूर्वागत परंपरित रूढ़ काव्यढाँचा टूट गया। सफल काव्यानुवादों द्वारा उन्होंने हिंदी को नई दृष्टि देने का प्रयत्न किया। यद्यपि उन्होंने ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों में रचनाएँ कीं तथापि समर्थक वे खड़ीबोली के ही थे। थोड़े में, उनके काव्य की विशेषताएँ हैं - सहज प्रकृतिचित्रण, वैयक्तिक अनुभूति, राष्ट्रीयता, नए छंदों, लयों और बंदिशों की खोज, विषयप्रधान दृष्टि, नवीन भावप्रकाशन की क्षमता से भरकर नवीन भाषाप्रयोग, प्राच्य और पाश्चात्य तथा पुराने और नए का समन्वय।

सं. ग्रं. - आचार्य रामचंद्र शुक्ल: 'हिंदी साहित्य का इतिहास', ना. प्र. सभा, वाराणसी; रामचंद्र मिश्र : 'श्रीधर पाठक तथा हिंदी का पूर्वस्वच्छंदतावादी काव्य', डॉ. श्यामसुंदर दास-हिंदी कोविद रत्नमाला। (रामफेर त्रिपाठी)