श्री अरविंद १५ अगस्त, १८७२ को कलकत्ते में जन्म हुआ। ७ वर्ष की उम्र में ही उन्हें अपने भाइयों के साथ इंग्लैंड भेज दिया गया और उन्होंने वहाँ १४ वर्ष तक शिक्षा पाई। १८९० में उन्होंने आई. सी. एस. की परीक्षा तो पास कर ली पर जान बूझकर घुड़सवारी की परीक्षा नहीं दी और इस तरह लोहतंत्र में आने से बच गए। लगभग सभी यूरोपीय भाषाओं और पाश्चात्य संस्कृति का गहरा अध्ययन कर १४ वर्ष बाद (१८९३ ई.) भारत लौटे और बड़ौदा महाराज के यहाँ काम करने लगे। यही उनके आत्मशिक्षण का काल था जब उन्होंने संस्कृत, बँगला आदि का अध्ययन किया और भारतीय संस्कृति को आत्मसात् किया। यहाँ से गुप्त रूप से वे राजनीतिक आंदोलन का संचालन भी करने लगे। बंग भंग के समय उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और बंगाल राष्ट्रीय महाविद्यालय के प्रिंसिपल बन गए।

१९०५ से वे राजनीति कार्यों में सक्रिय सहयोग देने लगे। इसी काल में 'वंदे मातरम्' 'धर्म' और 'कर्मयोगिन' का संपादन किया। तत्कालीन वायसराय के सचिव ने लिखा था - 'सारी क्रांतिकारी हलचल का दिल और दिमाग यही व्यक्ति है जो ऊपर से कोई गैरकानूनी काम नहीं करता और किसी तरह कानून की पकड़ में नहीं आता।' सरकार ने 'वंदे मातरम्' के नाते इनपर अलीपुर बम कांड का मुकदमा चलाया और इन्हें लगभग साल भर तक अलीपुर जेल में नजरबंद रखा गया। यहीं पर उन्हें 'वासुदेवमिदं सर्वम्' का साक्षात्कार हुआ जिसने कुछ ही दिनों में उनके कार्य की दिशा बदल दी। व मुकदमे में निर्दोष सिद्ध हुए और बाहर आकर फिर अपने काम में लग गए। वे दैवी आदेश पाकर १९१० में राजनीति छोड़कर पांडिचेरी में आ बैठे। पांडिचेरी से उन्होंने आर्य नामक अंग्रेजी मासिक का संपादन भी किया। उन्हें २४ नवंबर, १९२६ को सिद्धि प्राप्त हुई। क्रमश: उन्हें और श्रीमाता जी को केंद्र बनाकर एक आश्रम बनता गया।

पांडिचेरी काल में श्री अरविंद ने लोगों से मिलना बंद कर रखा था। उन्होंने द्वितीय महायुद्ध के समय सार्वजनिक रूप से मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया था, और क्रिप्स योजना स्वीकार करने की अपील की थी। उनका कहना था कि इससे भारत विभाजन से बच जाएगा। १९४७ में भारत की स्वाधीनता के अवसर पर उन्होंने घोषणा की कि भारत एक और अविभाज्य है, जल्दी हो या देर में भारत फिर से एक होकर रहेगा। ५ दिसंबर, १९५० को श्री अरविंद ने शरीर त्याग दिया।

श्री अरविंद के योग तथा दर्शन को समझने के पहले कुछ आधारभूत बातों का जान लेना जरुरी है। श्री अरविंद जीवन को मिथ्या अथवा सब कष्टों का मूल नहीं मानते जिससे भागकर निर्वाण प्राप्त करना ही श्रेयस्कर हो। उनके मतानुसार समस्त विश्व और विश्वातीत एक ही चेतना के भिन्न भिन्न रूप हैं। वे अन्नमय, प्राणमय, मनोमय तथा सच्चिदानंद कोषों में विज्ञानमय, अतिमानस तथा चैत्यपुरुष की भी गिनती करते हें। उनके मतानुसार उपरार्ध अपने आपमें विश्वातीत होते हुए भी विश्व तत्वों में संहृत है। सत जड़तत्व में, वित्त प्राण में और आनंद चैत्यपुरुष में निहित है। उसी प्रकार अतिमानस या विज्ञान ने मन का रूप धारण किया है। विकासक्रम में निम्नार्ध के अविद्या, अंधकार और मिथ्या तत्व को बदलना अतिमानस का काम है। वह नीचे अवतरित होकर यहाँ असत् को सत् में, अंधकार को ज्योति में और अज्ञान को ज्ञान में बदल देगा और तब दु:ख, कष्ट और असामंजस्य का अंत हो जाएगा।

मनुष्य में यह क्षमता है कि अपने प्रयास द्वारा प्रकृति की इस गति को तेज कर सके। इस प्रयास का नाम ही योग है। श्री अरविंद ने योग की सभी प्राचीन प्रणालियों का अनुभव प्राप्त किया और उसके सार तत्व को अपने 'पूर्णयोग' में अपना लिया। इस प्रकार उनके मार्ग में ज्ञान, कर्म, भक्ति और तंत्र योगों का सामंजस्य है। पूरी सहृदयता के साथ अभीप्सा और भगवान् के प्रति सहर्ष आत्मसमर्पण इसके मुख्य अंग हैं।

समाज तथा राजनीति के क्षेत्र में श्री अरविंद व्यक्ति को पूर्ण स्वाधीनता देने के पक्ष में हैं। प्रत्येक इकाई अपने आपमें पूर्ण रूप से स्वतंत्र होते हुए भी एक समष्टि का अंग होगी और इन दोनों में किसी प्रकार का संघर्ष न होगा। संसार में एक विश्वराज्य होगा जिसमें प्रत्येक राष्ट्र और प्रत्येक समूह स्वतंत्र रूप से भाग लेगा। कुछ देशों अथवा राष्ट्रों का स्वाभाविक प्रभाव कम या अधिक हो सकता है पर राज्य की दृष्टि में वे सब एक ही स्तर पर होंगे।

इसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में भी श्री अरविंद की अपनी देन है। उनके अनुसार सच्ची कविता आत्मा की गहराइयों में से उठेगी और उसका रूप मंत्र जैसा होगा। उसका छंद, सृष्टिगत छंद के साथ कदम मिलाकर चलता है। उसमें असीम सीमाओं के अंदर प्रकट होता है। शब्द और वाणी के पीछे जो संगीत छिपा है वह शब्दों का चोला पहन लेतो है। श्री अरविंद का महाकाव्य (सावित्री) इस प्रकार की कविता का पहला नमूना है।

श्री अरविंद ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं छोड़ा है। शारीरिक काम को वे शरीर द्वारा की गई प्रार्थना मानते हैं। इसी प्रकार वे शरीर, मन, प्राण और आत्मा चारों की शिक्षा को एक समान आवश्यक और महत्वपूर्ण मानते हैं। शिक्षा का उद्देश्य अपने आपको पहचानना और अपने अंदर निहित सब शक्यताओं का खिल सकने का पूरा अवसर देना है। श्री अरविंद शिक्षाकेंद्र में इस दिशा में कुछ प्रयास किया जा रहा है। विद्यार्थी को पूर्ण स्वाधीनता देते हुए उसके विकास में सहायक होना, सबको एक साँचे में ढालने की जगह प्रत्येक को अपने अलग व्यक्तित्व को विकसित करने का अवसर देना और फिर स्वतंत्र व्यक्तियों में सामंजस्य पैदा करना इस शिक्षा का लक्ष्य है।

श्री अरविंद का आश्रम पांडिचेरी में स्थित है जिसमें भिन्न भिन्न देशों और प्रदेशों के लोग एक साथ रहते हैं। श्रीमाता जी श्री अरविंद के काम को आगे बढ़ाते हुए आश्रम का संचालन भी कर रही हैं। हजार डेढ़ हजार की बस्ती में इतने प्रकार के विभिन्न कार्य इतने सुचारु रूप से चलते हुए शायद ही कहीं मिलें। फिर आश्रमजीवन में कोई नियम ऊपर से नहीं लादा जाता। अंत प्रेरणा ही से पथप्रदर्शन प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।श् (श्रीराम शुक्ल.)