श्रमिक विधि (लेबर ला) श्रमिक विधि के अंतर्गत उन नियमों का समावेश है, जिनसे मालिक (Employer) एवं मजदूर (Employee) के बीच पारस्परिक संबंध का संचालन होता है। इस प्रसंग में 'औद्योगिक विधि' का भी बहुधा प्रयोग होता है। पर यह एक सीमित अर्थ में लिया जाता है अर्थात् औद्योगिक कारखानों से संबंधित नियमों का ही इससे संकेत मिलता है।

जब मालिक मजदूर का वास्तविक या प्रच्छन्न (Potential) संबंध स्थापित होता है, तब हम श्रमिक विधि की सीमा के अंदर आ जाते हैं। मजदूर पर मालिक का आधिपत्य इस प्रसंग में मुख्य कसौटी है। 'मजदूर', 'स्वतंत्र कंट्रैक्टर' तथा कुशल कर्मी (Skilled worker) के बीच बहुधा परस्पर अंतर परिलक्षित नहीं होता। पर इंग्लैंड के कानून के अनुसार मालिक का मजदूर पर पूर्ण आधिपत्य होना चाहिए। मजदूर किस प्रकार काम करता है, उसके काम की मात्रा क्या है, इसकी उपादेयता क्या है, इन सब पर उसका नियंत्रण हो। (दे. क्वारमैन बनाम बेनेट, १८४०, ६ एम. तथा डब्ल्यू. ४९९)

मालिक और मजदूर के बीच संबंधित काम से उत्पन्न परस्पर एक दूसरे के प्रति कानूनी बाध्यता (obligations) एवं मजदूर के कमजोर पार्टी होने के कारण उसकी समुचित रक्षा के लिए राज्य ओर से निर्दिष्ट नियम श्रमिक विधि के सार अंश हैं। किंतु ट्रेड यूनियन; दुर्घटना, बीमारी तथा बुढ़ापा के प्रसंग में जीवन बीमा; बेकारी दूर करने तथा मजदूर के बेकार हो जाने पर उसे सहायता देनेवाली संस्थाएँ (यथा, एंप्लायमेंट एक्सचेंज, एंप्लयमेंट बीमा); मजदूरों के निष्क्रमण एवं आगमन (Emigration तथा Immigration) के कानून भी श्रमिक विधि के अंतर्गत हैं। श्रमिक विधि या कानून सर्वांग किसी देश के कानून में कोड के रूप में नहीं पाया जाता। यह देश के साधारण अलिखित कानून, विधान परिषद् एवं पार्लिमेंट द्वारा निर्मित हर प्रकार के विधेयक, तानाशाही सरकार की डिगरी (डिक्री, आज्ञप्ति) एवं असैनिक औद्योगिक, तिजारती तथा श्रमिक कोड में मिलता है।

अमरीका में सन् १८४२ तक इंग्लैंड के साधारण कानून के सिद्धांत - आपराधिक षड्यंत्र (Criminal conspiracy) - का प्रभाव रहा। किसी भी श्रमिक संघ के लिए मजदूरों पर अपनी समिति की सदस्यता के लिए अर्थनीतिक अथवा सामाजिक दबाव देना अपराध था। पर इससे ट्रेड यूनियन मूवमेंट (श्रमिक संघ आंदोलन) को प्रोत्साहन ही मिला। कोर्ट ने प्रतिग्राहकता (Receivership) के मामलों में व्यादेश (Injunction) निकालना शुरु किया। ये आदेश व्यक्तिगत अन्याय टार्ट, (Tort या civil wrong) होने पर लागू किए जा सकते थे। मजदूरों द्वारा हड़ताल किए जाने पर पूँजीपतियों को क्षति अवश्य उठानी पड़ती थी; पर यह क्षति (Tort) में मान्य नहीं थीं। सन् १८८०-१९३० के मध्य संयुक्त राज्य अमरीका के भिन्न भिन्न राज्यों ने श्रमिक विधि को पास किया, जिसके द्वारा न्यूनतम मजदूरी तथा श्रम की अधिक से अधिक अवधि निर्धारित की गई। बच्चों के श्रम एवं जेल में बनी चीजों की बिक्री पर नियंत्रण हुआ। पर न्यायालय ने इस प्रकार के कानून को अवैधानिक घोषित कर दिया। पूँजीपतियों ने मजदूरों को काम देने के पहले उनसे ऐसी शर्तें लिखाना आरंभ किया कि वे श्रमिक संघ के सदस्य न होंगे। अब न्यायालय ने इसी आधार पर व्यादेश जारी करना शुरु किया। निदान नैशनल इंड-स्ट्रियल रिकवरी ऐक्ट (National Industrial Recovery Act) १९३३ की धारा ६ (ए) के अनुसार श्रमिकों को यह अधिकार दिया गया कि वे अपना संघटन कर सकते हैं। राष्ट्र के श्रमिक संबंधोंवाले अधिनियम (National Labour Relations Act,) १९३५ में उक्त अधिकार की पुष्टि करते हुए कहा गया कि मजदूर मजदूरी तथा साधारण स्थिति का विकास करने के उद्देश्य से अपना संघटन कर समष्टि रूप से अपने प्रतिनिधियों के द्वारा पूँजीपतियों से वार्तालाप कर सकते हैं।

इंग्लैंड में भी श्रमिक विधि का विकास क्रमश: हुआ है। १८वीं शताब्दी में जब उस देश में औद्योगिक क्रांति शुरु हुई एवं बड़ी बड़ी फैक्टरियाँ या निर्माणाशालाएँ शहरों में स्थापित होने लगीं तो श्रमिक जीविका उपार्जन के उद्देश्य से शहरों में आकर इन फैक्टरियों में काम करने लगे। पूँजीपतियों का व्यवहार बड़ा कठोर था। वे मजदूरों पर अपना आधिपत्य उसी प्रकार रखना चाहते थे, जैसा माल-मवेशी पर रखते थे। चूँकि कानून भी वे ही बनते थे, इसलिए मजदूरों को कहीं शरण नहीं मिलती थी। निदान मजदूर जब अपनी रक्षा के लिए अपना संघटन कायम करने लगे तो उनके संघ को न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया। वर्तमान शताब्दी के आरंभ से ही इंग्लैंड में पूँजीपतियों और मजदूरों में पूर्ण रूप से संघर्ष आरंभ हुआ। सन् १९२३ और सन् १९३१ ई. वहाँ मजदूर दल ने संयुक्त सरकार कायम की। सन् १९४६ ई. में तो मजदूर दल ने अत्यधिक बहुमत से शासन का भार अपने हाथ में लिया तथा कानून के माध्यम से उसने ब्रिटेन को एक जनकल्याणकारी राज्य में परिणत कर दिया।

भारत में श्रमिक विधि इंग्लैंड के समसामयिक श्रमिक विधान एवं अंतरराष्ट्रीय श्रम संघटन (International Labour Organisation) के द्वारा मजदूरों के हित में अनुमोदित प्रस्तावों से प्रभावित है। इस प्रसंग में फैक्टरीज ऐक्ट (ऐक्ट ६३/१९४८) एक विशिष्ट स्तंभ है। इसके पूर्व श्रम से संबंधित कानून फैक्टरीज ऐक्ट, १९३४ में लिपिबद्ध था। यह समय से बहुत पीछे था। मजदूरों की सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कल्याण की दृष्टि से इमें बहुत सी त्रुटियाँ थी। फिर, यह ऐक्ट एक सीमित वर्ग के मजदूरों के लिए ही लागू था। सन् १९४८ के ऐक्ट के अनुसार सभी प्रकार की फैक्टरियों में मजदूरों के स्वास्थ्य, काम की अवधि, अवकाश, प्रकाश, हवा आदि की समुचित व्यवस्था की गई है। साल भर नियमित रूप से चलनेवाली फैक्टरी तथा थोड़ी अवधि तक चलनेवाली फैक्टरी में मजदूरों की दृष्टि से जो अंतर था, उसे समाप्त कर दिया गया है। फैक्टरियों में काम करनेवाले बच्चों की न्यूनतम अवस्था १२ से बढ़ाकर १३ कर दी गई है और उनके काम की सीमा ५ घंटे से घटाकर श्घंटे कर दी गई है। प्रांतीय सरकार को यह भी अधिकार दिया गया है कि अधिक खतरावाले उद्योगों में मजदूरों की न्यूनतम अवस्था और भी अधिक की जा सकती है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघटन (I. L.O.) संसार के विभिन्न देशों के श्रमिक कानून की सतत समीक्षा करता रहता है एवं इसमें एकरूपता लाने का प्रयास भी वह करता रहा है। सदस्य देशों के फैक्टरी मालिक, मजदूर एवं सरकारी प्रतिनिधियों का अधिवेशन जेनीवा (स्विटजरलैंड) में हुआ करता है, जिसमें मजदूरों के कल्याण से संबंधित प्रस्ताव स्वीकृत होते हैं तथा विभिन्न राष्ट्रों से निवेदन किया जाता है कि वे इन्हें अपने अपने देश में कार्यान्वित करें। इस प्रकार संसार की श्रमिक विधि के विकास में काफी प्रेरणा मिली है।

सं. ग्रं. - इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, भाग १३ (१९५९), पृ. ५३७-५५७; एस. एन. बोस : इंडियन लेबर कोड (१९५७) (नगेंद्र कुमार)