श्यामसुंदर दास, डॉ. (सन् १८७५-१९४५ ई.) हिंदी के अनन्य साधक, विद्वान्, आलोचक और शिक्षाविद्, जन्म काशी में हुआ और यही क्वींस कालेज से सन् १८९७ में बी. ए. किया। जब इंटर के छात्र थे तभी सन् १८९३ में मित्रों के सहयोग से काशी नागरीप्रचारिणी सभा की नींव डाली और ४५ वर्षों तक निरंतर उसके संवर्धन में बहुमूल्य योग देते रहे। १८९५-९६ में 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका' निकलने पर उसके प्रथम संपादक नियुक्त हुए और बाद में कई बार वर्षों तक उसका संपादन किया। 'सरस्वती' के भी आरंभिक तीन वर्षों (१८९९-१९०२) तक संपादक रहे। १८९९ में हिंदु स्कूल के अध्यापक नियुक्त हुए और कुछ दिनों बाद हिंदू कालेज में अंग्रेजी के जूनियर प्रोफेसर नियुक्त हुए। १९०९ में जम्मू महाराज के स्टेट आफिस में काम करने लगे जहाँ दो वर्ष रहे। १९१३ से १९२१ तक लखनऊ के कालीचरण हाई स्कूल में हेडमास्टर रहे। इनके उद्योग से विद्यालय की अच्छी उन्नति हुई। १९२१ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग खुल जाने पर इन्हें अध्यक्ष के रूप में बुलाया गया। पाठ्यक्रम के निर्धारण से लेकर हिंदी भाषा और साहित्य की विश्वविद्यालयस्तरीय शिक्षा के मार्ग की अनेक बाधाओं को हटाकर योग्यतापूर्वक हिंदी विभाग का संचालन और संवर्धन किया। इस प्रकार इन्हें हिंदी की उच्च शिक्षा के प्रवर्तन और आयोजन का श्रेय है। उस समय विश्वविद्यालय स्तर की पाठ्य पुस्तकों और अलोचना ग्रंथों का अभाव था। इन्होंने स्वयं अपेक्षित ग्रंथों का संपादन किया, समीक्षाग्रंथ लिखे और अपने सुविज्ञ सहयोगियों से लिखवाए।
काशी नागरीप्रचारिणी सभा के माध्यम से श्री श्यामसुंदरदास ने हिंदी की बहुमुखी सेवा की और ऐसे महत्वपूर्ण कार्यों का सूत्रपात एवं संचालन किया जिनसे हिंदी की अभूतपूर्व उन्नति हुई। न्यायालयों में नागरी के प्रवेश के लिए मालवीय जी आदि की सहायता में उन्होंने सफल उद्योग किया। हिंदी वैज्ञानिक कोश के निर्माण में भी योग दिया। हिंदी की लेख तथा लिपि प्रणाली के संस्कार के लिए आरंभिक प्रयत्न (१८९८) किया। हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों की खोज का काम आरंभ कर इन्होंने उसे नौ वर्षों तक चलाया और उसकी सात रिपोर्टें लिखीं। 'हिंदी शब्दसागर' के ये प्रधान संपादक थे। यह विशाल शब्दकोश इनके अप्रतिम बुद्धिबल और कार्यक्षमता का प्रमाण है। १९०७ से १९२९ तक अत्यंत निष्ठा से इन्होंने इसका संपादन और कार्यसंचालन किया। इस कोश के प्रकाशन के अवसर पर इनकी सेवाओं को मान्यता देने के निमित्त 'कोशोत्सव स्मारक संग्रह' के रूप में इन्हें अभिनंदन ग्रंथ अर्पित किया गया।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापनकार्य के समय उच्च अध्ययन में उपयोग के लिए इन्होंने भाषाविज्ञान, आलोचना शास्त्र और हिंदी भाषा तथा साहित्य के विकास क्रम पर श्रेष्ठ ग्रंथ लिखे।
इन्होंने परिचयात्मक और आलोचनात्मक ग्रंथ लिखने के साथ ही कई दर्जन पुस्तकों का संपादन किया। पाठ्यपुस्तकों के रूप में इन्होंने कई दर्जन सुसंपादित संग्रह ग्रंथ प्रकाशित कराए। इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं - हिंदी कोविद रत्नमाला भाग १,२ (१९०९-१९१४), साहित्यालोचन (१९२२), भाषाविज्ञान (१९२३), हिंदी भाषा और साहित्य (१९३०) रूपकहस्य (१९३१), भाषारहस्य भाग १ (१९३५), हिंदी के निर्माता भाग १ और २ (१९४०-४१), मेरी आत्मकहानी (१९४१), कबीर ग्रंथावली (१९२८), साहित्यिक लेख (१९४५)।
श्यामसुंदरदास का व्यक्तित्व तेजस्वी और जीवन हिंदी की सेवा के लिए अर्पित था। जिस जमाने में उन्होंने कार्य शुरु किया उस समय का वातावरण हिंदी के लिए अत्यंत प्रतिकूल था। सरकारी कामकाज और शिक्षा आदि के क्षेत्रों में वह उपेक्षित थीं। हिंदी बोलनेवाला अशिक्षित समझा जाता था। ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में हिंदी के प्रचार प्रसार और संवर्धन के लिए उन्होंने कशी नागरीप्रचारिणी सभा को केंद्र बनाकर जो अभूतपूर्व संघबद्ध प्रयत्न किया उसका ऐतिहासिक महत्व है। ये उच्च कोटि के संगठनकर्ता और व्यवस्थापक थे। समर्थ मित्रों के सहयोग औैर अपने बुद्धिबल तथा कर्मठता से उन्होंने हिंदी की उन्नति के मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों का डटकर सामना किया और सफलता प्राप्त की। उनकी दृष्टि व्यक्तियों की क्षमता पहचानने में अचूक थी। उन्होंने अनेक व्यक्तियों को प्रोत्साहित कर साहित्य के क्षेत्र में ला खड़ा किया। इसीलिए कहा गया है कि उन्होंने 'ग्रंथों की ही नहीं, ग्रंथकारों की भी रचना की'।
उनकी हिंदीसेवाओं से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने 'रायबहादुर', हिंदी साहित्य सम्मेलन ने 'साहित्यवाचस्पति' और काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने डी. लिट्. की सम्मानोपाधि प्रदान की। (विजयशंकर मल्ल)