शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन निर्देशन प्रक्रिया में उन सभी वैयक्तिक, शैक्षिक एव व्यावसायिक परामर्श सेवाओं का समावेश हो जाता है जिनका प्रमुख उत्तरदायित्व व्यक्ति में उसकी अपनी क्षमताओं का ज्ञान कराकर उन्हें उचित प्रयोग में लाना है, जिससे उसका समुचित वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास हो सके। निर्देशक व्यक्ति को मार्ग नहीं दिखाता, न ऐसा कुछ आदेश देता है कि वह उसके बताए हुए मार्ग पर चले, अपितु उसमें एक ऐसी सूझ, ऐसी आत्मशक्ति एवं विश्वास को विकसित करने में सहायता देता है जिससे व्यक्ति अपनी स्वाभाविक एवं अर्जित क्षमताओं की सीमा एवं प्रकृति का ठीक रूप से समझ सके और अपने आस पास के बाह्य वातावरण को ठीक रूप से परखकर समायोजन कर सके। इस तरह व्यक्ति में धीरे धीरे आत्मविश्वास और सूझ बूझ से व्यवहार करने की सामर्थ्य विकसित होती है और वह आत्मनिर्देशित हो जाता है। यही निर्देशनप्रक्रिया का चरमोद्देश्य है।

सामान्य रूप से यह माना जाता रहा है कि निर्देशनप्रक्रिया की आवश्यकता प्रमुख रूप से तभी समझी जाती है जब कोई ऐसी समस्या उत्पन्न हो जाए जिसे व्यक्ति सुलझा न सके, परंतु अब मनोविश्लेषण एवं मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों के निष्कर्षों ने यह सिद्ध कर दिया है कि समस्या के समाधान से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास है। अत: निर्देशनप्रक्रिया की आवश्यकता जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक है। व्यक्ति के विकास में एक निरंतरता है, जिसके साथ निर्देशन की प्रक्रिया भी जुड़ी हुई। फिर भी प्रक्रिया की सरलता के लिए इसे जीवन के अलग अलग पक्षों के आधार पर भिन्न भिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न रूप से विभाजित किया है। बहुधा इसे सामाजिक, शैक्षिक, वैयक्तिक, शारीरिक, नैतिक नागरिक एवं धार्मिक आदि विभागों में विभाजित किया जाता है परंतु जीवन की आवश्यक दशाओं का विश्लेषण करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निर्देशन प्रमुखत: तीन तरह का हो सकता है : (१) वैयक्तिक निर्देशन, जिसका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की वैयक्तिक समस्याओं के समाधान में व्यक्ति को सहायता देना है। ये समस्याएँ वैवाहिक एवं गार्हस्थिक, भावनात्मक एवं अंत क्रिया से संबंधित हो सकती हैं। (२) शैक्षिक निर्देशन, जिसका उद्देश्य व्यक्ति के शैक्षिक जीवन की समस्याओं का निराकरण करना है। (३) व्यावसायिक निर्देशन, जिसका उद्देश्य व्यक्ति को उसके कार्यव्यापार जगत् में सुखपूर्ण एवं संतुष्ट जीवन निर्वाह करने में मदद देना है। नीचे हम बाद की दो निर्देशन विधाओं का ही विस्तारपूर्वक विश्लेषण करेंगे।

शैक्षिक निर्देशन - शैक्षिक प्रक्रिया का विश्लेषण करने पर हमें ज्ञात होगा कि इसमें प्रमुखत: तीन तत्व सम्मिलित हैं : शिक्षार्थी (उसकी बौद्धिक, भावानात्मक एवं शारीरिक क्षमताएँ); उसका वातावरण (विद्यालय का कार्यव्यापार और पाठ्यक्रम); उसे इस वातावरण से संबंधित करनेवाला व्यवहार (शिक्षणपद्धति, शिक्षक का व्यक्तित्व आदि)। इस त्रिमुखी क्रिया का आयोजन शिक्षार्थी के वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास के उद्देश्य से होता है।

यह तो पूर्वनिश्चित धारण है कि विद्यालय का वातावरण सामान्य रूप से पूर्वनिर्धारित होता है जिसका स्वरूप, स्वभाव एवं प्रभाव बालक के सामान्य जीवन से भिन्न होता है दूसरी ओर बालक को अपनी स्वाभाविक क्षमताओं का न पूर्ण आभास होता है, न उनकी प्रयोगविधि से वह परिचित होता है और न वह यह जानता है कि वातावरण के परिवर्तन के साथ साथ उसे अपनी क्षमताओं का उपयोग किस तरह करना है। इस संदर्भ में शिक्षक का कार्य तो पाठ्यक्रम से शिक्षार्थी को अवगत करा देने में ही समाप्त हो जाता है। शिक्षक के इस सीमित और विशिष्ट कार्यक्षेत्र के अंतर्गत बहुत सी ऐसी समस्याएँ नहीं आ पातीं जिनके सामयिक एवं समुचित समाधान से शिक्षाविधि सरल हो सके और शिक्षार्थी का विकास सहज ढंग से हो। वातावरण की विविधता, पारिवारिक परिवेश की विविधता, रुचियों की विविधता, मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं की विविधता आदि से उत्पन्न समस्याओं का केंद्रविदु शिक्षार्थी स्वयं है। परंतु कुछ दूसरी प्रकार की समस्याएँ हैं जिनका स्रोत विद्यालय एवं विद्यालय में होनेवाली क्रियाओं में ढूँढ़ा जा सकता है; यथा, विद्यालय का संगठन, अनुशासन, परंपरा, समयविभाजन, अध्यापकों की संख्या तथा स्वभाव अध्यापनविधि, प्रयोगात्मक, व्यावहारिक एवं सैद्धांतिक पाठ्यक्रम का नियोजन आदि। तीसरी प्रकार की समस्याएँ वे हैं जिनका संबंध उन अनुभवों से है जिन्हें विद्यालय पाठ्यक्रम के माध्यम से छात्र को देना चाहता है; यथा, पाठ्यक्रमगत एवं पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का वर्गीकरण, पाठ्यक्रम का विषयगत वर्गीकरण, वर्गों का संगठन, चुनाव के आधार एवं सुविधाएँ, पाठ्यक्रम का सामाजिक वातावरण, सामाजिक आवश्यकता एवं व्यावसायिक कार्यव्यापार से सामंजस्य आदि। निर्देशक छात्र को मार्गनिर्देशन नहीं करता, वह केवल उसे मार्ग ढूँढ़ने में सहायता भर देता है। इस सहायता का क्रम तीन स्तरां पर चलता है। शिक्षार्थी के वातावरण का प्रत्यक्षीकरण, उसका अपनी स्वाभाविक, अर्जित एवं भौतिक क्षमताओं का मूल्यांकन, और तदनुसार मार्ग का निर्धारण। यदि यह क्रिया स्वाभाविक रूप से निरंतर चलती रहती है तो शिक्षाक्रम में किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न नहीं होता। यही कारण है कि विद्यालयों में निर्देशन कार्यक्रम का संगठन प्रत्येक स्तर पर किया जाता है।

निर्देशन कार्यक्रम का संगठन आजकल के विद्यालयों के लिए बहुत आवश्यक हो गया है। इसके कई कारण हैं, यथा, शिक्षा का सार्वजनीक होना, शैक्षिक पद्धति में तेजी से होते हुए परिवर्तन, विषयों की अधिकता और चुनाव में ऐच्छिक विषयों का बाहुल्य, विषयों के तथ्यगत क्षेत्र का वैविध्य और विस्तार, विशिष्टीकरण के प्रति झुकाव, सामाजिक अंत:क्रिया एवं गत्यात्मक्ता में नएपन का आविर्भांव, आदि के अलावा मनोवैज्ञानिक तथ्यों के अनुसंधान ने भी इस समस्त क्रिया को अधिक महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य बनाने में काफी योग दिया है।

शिक्षा में निर्देशन के पीछे एक महत्वपूर्ण तत्व व्यावसायिक चुनाव भी है। शिक्षा का उद्देश्य आज सांस्कृतिक प्रवीणता की उपलब्धि मात्र नहीं है। जीवनयापन के लिए मनुष्य किसी न किसी व्यवसाय को अपनाता है। आधुनिक औद्योगीकरण के कारण व्यवसाय में कौशल प्राप्त करना आवश्यक हो गया है। कौशलहीन व्यक्ति व्यावसायिक क्षेत्र में अपना समायोजन ठीक रूप से नहीं कर पाता और इस असंगति के कारण वह स्वयं में ही असंतुष्ट नहीं रहता अपितु व्यावसायिक उत्पादन को भी ठेस पहुंचाता है। इस सामाजिक एवं व्यक्तिगत हानि को रोकने के लिए व्यावसायिक क्षेत्र में भी निर्देशन की आवश्यकता होने लगी और इन कुछ दशकों में इस प्रक्रिया का पूर्ण रूप से नियोजन भी किया जा चुका है।

व्यावसायिक निर्देशन - व्यावसायिक निर्देशन शैक्षिक निर्देशन के समान ही तीन तत्वों पर आधारित है - व्यक्तिपरीक्षण, व्यवसाय विश्लेषण, एवं व्यक्ति का व्यवसाय से सामंजस्य। व्यवसाय के चुनाव में व्यक्ति की रुचियाँ, अभिवृत्तियाँ, इच्छाएँ और आकांक्षाएँ अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। परंतु इनका प्रयोग एवं उपयोग उसकी बौद्धिक, शारीरिक एवं भावनात्मक क्षमताओं पर निर्भर रहता है। अत: निर्देशन के प्रथम चरण में इन्हीं बातों का निश्चयीकरण होता है।

जिस व्यवसाय का व्यक्ति चुनाव कर रहा है उसकी क्या सीमाएँ, माँगे एवं संभावनाएँ हैं इसका निर्धारण करना भी आवश्यक है। इस तरह व्यावसायिक निर्देशन में व्यावसायिक निर्देशन का कार्य निरीक्षण एवं परीक्षण के द्वारा व्यक्ति के समक्ष उसकी क्षमताओं को स्पष्ट करने में सहयोग देना है तथा व्यवसाय में निहित अनेक तत्वों को स्पष्ट रख देना है जिससे व्यक्ति स्वयं अपना मार्गनिर्धारण कर सके।

व्यावसायिक निर्देशन का अंतिम चरण है व्यक्ति का व्यवसाय से समायोजन स्थापित करना। इस समायोजन की प्रक्रिया के दो स्तर हैं - पूर्वसूचना, अर्थात् उन सभी प्रकार की सूचनाओं का सुलभ होना जिनके द्वारा व्यक्ति व्यावसायिक क्षेत्र के विषय में अवगत रहता है। व्यवसाय में लग जान पर भी निर्देशक का व्यक्ति से संपर्क बना रहना चाहिए। बहुत सी ऐसी समस्याएँ हो सकती हैं जिनका सूत्रपात व्यक्ति के व्यवसाय में लग जाने के बाद हो सकता है।

यहाँ पर दो प्रमुख तत्वों की ओर भी संकेत करना आवश्यक है। इनका संबंध उचित व्यक्ति को उचित स्थान' या योग्यतानुरूप व्यवसाय के सिद्धांत से है। वे हैं 'व्यवसाय का चुनाव' जिसका विश्लेषण हम ऊपर कर चुके हैं और 'व्यवसाय के लिए चुनाव' जिसका तात्पर्य व्यवसाय के लिए योग्यतम व्यक्ति का चुनाव। प्रथम व्यक्तिपरक है और द्वितीय व्यवसायपर।

उपर्युक्त विश्लेषण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि व्यवसायिक निर्देशन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा निर्देशक व्यक्ति को व्यवसाय के अनुरूप योग्यता एवं क्षमताओं का अनुसंधान कर उसके लिए तैयारी, प्रवेश और प्रयास करने में सहायता पहुंचता है जिससे व्यक्ति व्यावसायिक क्षेत्र में अपना समुचित विकास कर सके और संतुष्ट रह सके। अविचारजन्य चुनाव से न केवल व्यक्ति का अहित होता है। अपितु समाज को भी हानि पहुँचती है। यदि व्यक्ति उस व्यवसाय के लिए योग्य नहीं होता, जिसमें वह बाह्य प्रभावों के कारण प्रविष्ट हो जाता है तो उस व्यवसाय की उन्नति में वह बाधक होता है, और जिस व्यवसाय के लिए उसमें समुचित योग्यता हो यदि उसमें वह प्रवेश नहीं करता तो उसकी उपयोगिता से वह व्यवसायक्षेत्र वंचित रह जाता है। जिस समाज में व्यक्ति अपने व्यवसायिक जीवन में जितना ही सुनियोजित एवं संतुष्ट होता है उस समाज के मूल्य उतने ही स्थायी होते हैं और उसमें विघटनकारी एवं घातक तत्वों की उपस्थिति उतनी ही कम होती है।

निर्देशन प्रक्रिया का नियोजन केवल वैयक्तिक विकास के लिए ही अर्थयुक्त नहीं है, अपितु समाज में उपयुक्त वातावरण का संचार करने के लिए तथा मानववृत्ति की भिन्न भिन्न अंसगतियों के निराकरण के लिए भी बहुत आवश्यक है। व्यक्ति के विकास में ही सामाजिक विकास निहित है। अत: व्यक्ति विकास के सिद्धांत को गतिशील उपयोगी एवं अर्थपूर्ण बनाए रखने के लिए व्यक्ति का अध्ययन, विश्लेषण एवं पर्यालोचन होना आवश्यक है। निर्देशन प्रक्रिया इन्हीं मानववादी मूल्यों पर खड़ी है। (एस. के. पी.)