शूल लौकिक व्यवहार का शब्द है, जो कालांतर से उदर में होनेवाली तीव्र पीड़ा के आक्रमणों का द्योतक है, जिसका कारण क्रमहीन और अव्यवस्थित संकोच होता है। उदर में चार अंगों में इस प्रकार की पीड़ा होती है। संबंधित अंगों के अनुसार शूल आंत्रिक (intestinal), पैत्तिक (biliary), वृक्कीय (renal) और उंडकी (appendicular) कहलाता है। रोगी भला चंगा स्वस्थ दशा में होता है। अकस्मात् बिना किसी पूर्वलक्षण पीड़ा, जो दारुण होती है, प्रारंभ हो जाती है, जिससे रोगी छटपटाता है।

आंत्रिक शूल, क्षुद्रांत में ऐंठन होने से होता है। यह ठहर ठहरकर, नाभि के चारों ओर प्रतीत होता है। पैत्तिक शूल उस समय होता है, जब कोई छोटी अश्मरी पैत्तिक या संयुक्क्ता पैत्तिक नलिका में होकर, पित्ताशय से अग्न्याशय में जाती है। नलिका से अश्मरी के निकल जाने के पश्चात् शूल बंद हो जाता है। वह शूल उदर के दाहिने पार्श्व में तथा दाहिने स्कंध में प्रतीत होता है। बाई ओर भी शूल प्रतीत हो सकता है।

वृक्कीय शूल, अश्मरी के वृक्क से गवीनी में चले जाने पर एवं वहाँ पर अटक जाने से होता है और वहाँ से निकलकर अश्मरी के मूत्राशय में चले जाने पर शूल का अंत हो जाता है। शूल बाएँ कटि प्रांत में पीछे की ओर आरंभ होकर, नीचे और सामने शिश्न की नोक की ओर जाता प्रतीत होता है। उंडकी शूल दाहिने श्रोणिखात (fossa) में परिमित रहता है। शामक औषधियों और स्थानीय सेंक से सब दशाओं में लाभ होता है। (शिव शरण मिश्र)