शूद्रक संस्कृत साहित्य में सुप्रसिद्ध रूपक मृच्छकटिक के यह निर्माता माने जाते है। इनकी एक और कृति पद्मप्राभृतक नामक भाण है। इनकी रचनाशैली बड़ी मनोहर एवं समाज की सच्ची अवस्था प्रतिबिंबित करनेवाली है। शूद्रक ने समाज में विविध स्तर के मानवों के सहज अनुभवों का चित्रण बड़ी मार्मिकता के साथ किया है। प्रयुक्त भाषा शैली के आधार पर इनकी प्राचीनता सिद्ध होती है। यह कालिदास से पूर्व और भास के बाद के कवि प्रतीत होते हैं। कई पाश्चात्य संस्कृतज्ञों ने शूद्रक को काल्पनिक पुरुष माना है। वे यह स्वीकार नहीं करते कि शूद्रक कोई ऐतिहासिक पुरुष था। उसी तरह उनकी प्रसिद्ध कृति मृच्छकटिक को भी वे मौलिक रचना नहीं मानते। उनका मत है कि मृच्छकटिक भासरचित 'चारुदत्त' नामक रूपक का ही एक परिवर्धित संस्करण मात्र है। (दे. मृच्छकटिक)।
वस्तुत: शूद्रक के संबंध में सूक्ष्म एवं तात्विक विचार किया जाए तो उनके अस्तित्व में संदेह करने के लिए कहीं अवकाश नहीं मिलता। कविवर राजशेखर ने वंदनीय कवियों का स्मरण करते हुए रामिलसीमिल को शूद्रक पर रचित एक परिकथा का निर्माता बताया है - 'तौ शूद्रक कथाकारौ वंद्यौ रामिल सौमिलौ'। यह प्रसिद्ध उक्ति है - 'वररुचिरोश्वरदत्तश्यामिलुक शूद्रकाश्च चत्वार एते भाणान् वभणु:, का शक्ति: कालिदासस्य' जिसमें भी शूद्रक का उल्लेख है। कथा सरित्सागर में शूद्रक को शोभावती का राजा बताया गया है; वेतालपंचविंशति में उन्हें वर्धमाननरेश कहा है; हर्षचरित् में महाराज चंद्रकेतु के साथ शूद्रक के विपक्ष का उल्लेख मिलता है और कादंबरी में कथारंभ विदिशाधिपति शूद्रक से होता है। ऐतिहासिक कवि कल्हण ने शूद्रक को सत्यसंघ एवं दृढ़ प्रशासक बताते हुए विक्रमादित्य से पूर्वतन कहा है (राज.त. ३-३४३)। शूद्रक के उदात्त चरित् पर विरचित अनेक रचनाओं के उद्धरण भी परवर्ती ग्रंथों में मिलते हैं। भोजदेव ने अपने श्रृगांरप्रकाश (अ. २८) में 'शूद्रककथायां हरिमतीवृत्तान्ते यथा-' कहकर एक अंश उद्धृत किया, पुन: ३०वें अध्याय में 'सभ्रातस्त्वरितमसौ.....' पद्य को शूद्रकचरित् नामक आख्यायिका से उद्धृत बताया है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने काव्यानुशासन में शूद्रककथा का 'आनंद: पंचशिखस्य शूद्रककथायाम्' कहकर उल्लेख किया है। अनंत कवि कृत 'वीरचरित्' नामक महाकाव्य में शकप्रवर्तक शालिवाहन के मित्र रूप में शूद्रक का वर्णन किया और साथ ही यह भी कहा है कि शालिवाहन के पुत्र शक्तिकुमार के उद्दंड हो जाने पर शूद्रक ने उसे पदच्युत कर स्वयं राज्यवासन ग्रहण किया था। पाजिंटर के मत से कातंत्र व्याकरण के प्रवर्तक हाल सातवाहन ईसवी पहली शताब्दी के राजा हुए जो आंध्र नरेशों की परंपरा में १०वें राजा थे और कातंत्र पद्धति का उपहास करनेवाले महाराज शूद्रक उनके समकालिक थे (व्यूहलर-कश्मीर विवरण)। पुराणों के आधार पर महाराज शिवस्वाती के समकालिक महाराज शूद्रक के होने का प्रमाण मिलता है। पार्जिटर शिवस्वाती का काल ईसवी सन् का आरंभ मानते है अत: शूद्रक की तिथि ईसा पूर्व ठहरती है। लासन शूद्रक का काल सन् १५० ई. के लगभग तथा विलसन स्कंदपुराण के आधार पर ई. सन् १९० मानते हैं। विल्फर्ड का मत है कि शूद्रककाल ईसा पूर्व १-३ श्ताब्दी के मध्य है। नक्षत्रगणना के आधार पर श्री पाठक महोदय शूद्रक का समय ईसा पूर्व ३री शताब्दी निर्धारित करते हैं। मोनियर विलियम्स 'इंडियन विज़्डम' नामक ग्रंथ में शूद्रक का अस्तित्व ई. प्रथम शताब्दी में सिद्ध करते हैं। प्रिंसेप, रेग्नाँग, पिशेल एवं मैक्डानल आदि लेखको के मत में ई. २०० से ई. ६०० के बीच की विभिन्न तिथियाँ शूद्रक के सबंध में कल्पित की गई हैं। अतएव अधिकांश प्रमाण इसी तथ्य को प्रकट करते हैं कि शूद्रक एक ऐतिहासिक पुरुष थे और उनका आविर्भावकाल ईसवी सन् के प्रारंभ के लगभग निश्चित होता है। इससे यह भी निर्विवाद है कि मृच्छकटिक उनकी ही मौलिक कृति है जिसका संक्षेप केरल के चकियार (नटमडली) द्वारा अभिनयार्थ नाटकीय शैली में प्रमाणित किया गया जो त्रिवेंद्रम रूपकसंग्रह में संगृहीत उपलब्ध होने मात्र से भास की रचना माना जा रहा है।
अश्मकवासी विप्रकुल में प्रसूत शूद्रक राजकुमार स्वाती के साथ शैशव में संबंधित हुए और उनका एक अभिन्नहृदय मित्र बंधुदत्त नामक विप्र था। कहा जाता है कि एक बार संघालिका नामक भदंत ने शूद्रक को किसी कंदरा में बंद कर वध करना चाहा था, परंतु अपने पराक्रम से उसे परास्त कर शूद्रक बच निकले और अनेक देशों का पर्यटन करते हुए उज्जयिनी पहुँचे और वहाँ के राजा को पदच्युत कर स्वयं राज्यारूढ हुए। वह ऋक्साम के विशिष्ट वेत्ता थे और श्रौत परंपरा से उन्होंने अनेक याग किए और अश्वमेघ भी किया। वह शतायु हुए। वस्तुत: वही शकारि महाराज शूद्रक थे जो विक्रमादित्य प्रथम कहलाए तथा विक्रम संवत् के प्रवर्तक हुए। महाराज समुद्रगुप्त स्वयं अपने कृष्णचरित् स्वयं अपने कृष्णचरित् काव्य के आरंभ में शूद्रक का उल्लेख करते हुए लिखते हैं - ''वत्सरं स्वं शञ््ा जित्वा प्रावर्त्तयत वैक्रमम्''। ब्रिटिश म्युज़ियम में सुरक्षित हस्तलिखित 'सुमतितंत्र' में 'राजा शूद्रक देवश्च वर्षसप्ताब्धि चाश्विनौ' और यल्लयकृत ज्यौतिषदर्पण (पद्म ७१) में 'बाणाब्धिगुणदस्रोना- शूद्रकाब्दा: कलेर्गता:' आदि सुदृढ़ लिखित प्रमाणों के आधार पर संवत्प्रवर्तक महाराज शूद्रक का व्यक्तित्व सिद्ध होता है। (सुरेंद्रनाथ शास्त्री)