शुजा शाहंशाह शाहजहाँ के द्वितीय पुत्र शाहज़ादा शुजा का जन्म २३ जून, १६१६ ई. को अजमेर में हुआ। पिता के विद्रोह के समय वह उन्हीं के साथ अपनी माँ की गोद में रहा, लेकिन विद्रोह का दमन होने के पश्चात् अपने भाइयों, दारा और औरंगजेब के साथ वह दक्षिण से लाहौर, शाही दरबार में लाया गया और अपने पितामह की मृत्यु के समय तक ये लोग नूरजहाँ के संरक्षण में रहे। दरबार में ही अन्य राजकुमारों के समान और मुगल परंपरा के अनुसार उसकी भी शिक्षा और दीक्षा का प्रबंध किया गया। जहाँगीर की मृत्यु के पश्चात् आसफ खाँ ने तीनों राजकुमारों को नूरजहाँ से अलग कर सादिक खाँ को उनकी रक्षा के लिए सौंप दिया। शाहजहाँ के सिंहासनारोहण के पश्चात् आसफ खाँ के साथ वह शाही दरबार में अपने भाइयों के साथ आया। पिता ने उसे अतुल्य धनराशि प्रदान की।

उसके राजनीतिक जीवन का प्रारंभ १६३२-१६३३ में हुआ। दौलताबाद के किले पर अधिकार करने के बाद महावत खाँ ने बीजापुर पर आक्रमण करने का आदेश पाकर सम्राट् से यह प्रार्थना की कि राजकुमार के संरक्षण में यथेष्ट सेना उसके सहायतार्थ भेजी जाए। अतएव सम्राट् ने शुजा को १०००० जात व १०००० सवार का मंसब देकर दक्षिणी सीमांत पर भेजा। परेंदा के दुर्ग को घेरने और बीजापुरी फौजों से युद्ध करने में तथा मराठा सरदारों के छापामार हमलों से निपटने में शुजा ने अपनी यौद्धिक क्षमता और साहस का परिचय दिया। बाद में शाहजहाँ ने उसे दक्षिण से बुला लिया। १६२८ में जब मुगलों का कंधार पर पुन: अधिकार हो गया तब शाहजहाँ ने उसके मन्सव को उन्नत करके उसे काबुल में रहने का आदेश दिया। उसे आज्ञा दी गई कि यदि ईरान का शाह सेना लेकर कंधार पर फिर अपना अधिकार जमाने को अग्रसर हो तो वह उसका विरोध करे और दुर्ग की रक्षा करे। लेकिन अगले कुछ वर्षों तक आक्रमण न होने के कारण शुजा को आगरे के पास बुला लिया गया तथा बंगाल का सूबेदार बनाकर भेजा गया। १६४९ में कंधार का ईरानी फौजों ने फिर अपने अधिकार में कर लिया। जब १६५२ में शाहजहाँ ने दूसरी बार कंधार पर अभियान की योजना बनाई तब उसने शुजा को बंगाल से बुला लिया। औरंगजेब की कमान में सेना ने धावा बोला परंतु पूर्व के समान इस बार भी सफलता न मिली। अतएव शुजा बंगाल वापस गया और वहाँ वह १६५२ से १६५६ तक शांतिपूर्वक रहा। इस प्रकार बंगाल में रहते रहते उसे सत्रह वर्ष हो चुके थे।

बंगाल की जलवायु तथा वहाँ के आलस्य एवं विलासपूर्ण जीवन ने उसके शरीर पर कुछ हानिकारक प्रभाव तो डाला परंतु उसकी चेतना, स्फूर्ति, बुद्धिक्षमता में कोई कमी न आई। पिता की बीमारी तथा दारा के राजनीतिक बागडोर के सम्हालने का समाचार सुनकर उत्तराधिकार युद्ध के लिए वह अधीर हो गया। इस विषय पर उसने औरंगजेब और मुराद से भी पत्रव्यवहार किया। तीनों ने एक समझौते के अनुसार विभिन्न दिशाओं से दिल्ली पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इतना ही नहीं, उसने अपने आपको स्वतंत्र कर अपने नाम का खुतवा पढ़वाया और सिक्के चलाए। औपचारिक रूप से तो उसके शाही पद में काई कमी न रह गई थी, अब केवल अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराने और दिल्ली के सिंहासन को हस्तगत करने की बात रह गई थी। अतएव वह एक विशाल सेना लेकर पश्चिम की ओर चल पड़ा। बिहार के सूबे को पार करता हुआ वह बनारस तक बिना किसी रोकटोक के पहुँच गया। शाहजहाँ और दारा ने उसे आगे बढ़ने से राकने के लिए सुलेमान शिकोह व मिर्जा राजा जयसिंह को भेजा, पर जब वह वापस न हुआ तब शाही फौजों ने उसपर आकस्मिक आक्रमण कर उसे बहादुरपुर की लड़ाई में परास्त किया और उसका पीछा किया। सुलेमान शिकोह सूरजगढ़ तक आगे बढ़ता ही गया और वह अपने शत्रु से केवल १४ मील दूर था जब उसे अपने पिता का यह आदेश मिला कि औरंगजेब व मुराद की संयुक्त सेनाओं का विरोध करने के लिए वह तुरंत आगरा वापस आ जाए। अत: सुलेमान शिकोह ने शुजा से संधि कर ली और उसे बंगाल, उड़ीसा तथा मुंगेर के पूर्व का बिहार का क्षेत्र देकर वह आगरा की ओर चल पड़ा, पर रास्ते में ही उसे अपने पिता की हार की खबर मिली।

गद्दी पर बैठने के पश्चात् औरंगजेब ने शुजा को मैत्रीपूर्ण पत्र लिखा, उसे बंगाल के सूबे के अतिरिक्त बिहार का समस्त सूबा प्रदान कर दिया और दारा को परास्त करने के पश्चात् धन और भूमि के रूप में उसे अधिक सम्मान देने का वचन भी दिया। तत्काल तो शुजा को संतोष और हर्ष हुआ परंतु औरंगजेब के अपने पिता और भाई मुराद के प्रति व्यवहार को देखकर उसे अपने ज्येष्ठ भाई की उदारता में संदेह हुआ। अत: जब शुजा को यह सूचना मिली कि औरंगजेब दिल्ली छोड़कर पंजाब चला गया है और दारा को परास्त करने में व्यस्त है तब उसकी महत्वाकांक्षा फिर उग्र हो उठी। अत: उसने लड़ाई की तैयारियाँ प्रारंभ कर दी और बंगाल से प्रस्थान करके पटना होता हुआ वह इलाहाबाद आ पहुँचा। उसके बढ़ने की खबर औरंगजेब को मुल्तान में मिली। अत: दारा का पीछा करने का कार्य उसने अपने अफसरों को सौंप दिया, और स्वयं आगरे आया (नवंबर, १६५८)। यहाँ से उसने शुजा का रास्ता रोकने के लिए राजकुमार सुलतान मुहम्मद को भेजा। परंतु शुजा आगे बढ़ता ही गया। अंततोगत्वा औरंगजेब ने स्वयं खजुवा के मैदान में उससे होड़ ली और उसे हराकर भगा दिया। मीर जुमला की फौजों ने उसका पीछा किया। फरवरी, १६५९ से अप्रैल १६६० तक बंगाल में शुजा ने शाही फौजों का मुकाबला वीरता और साहस से किया। अंत में विवश होकर मई, १६६० में अपने कुटुंब के साथ वह आराकन की ओर भाग गया। वहाँ पहुँचकर शुजा ने आराकान राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र रचा। उसके राज्य पर अधिकार कर फिर बंगाल पर हमला करने की योजनाएँ बनाई। पर इस षड्यंत्र का आभास जैसे ही वहाँ के राजा को हुआ, वैसे ही उसने शुजा का वध करने की एक योजना बनाई। शुजा डरकर जंगलों में भागा जहाँ जनवरी, १६६१ ई. में वह मार डाला गया। मुहम्मद शुजा, युग को देखते हुए बुद्धिमान, साहसी एवं महत्वकांक्षी व्यक्ति था। (बनारसी प्रसाद सक्सेना)