शीया संप्रदाय सभी शीया लोग इस्लाम के प्रथम तीन खलीफाओं आबू वक्र, उमर और उस्मान को पैगंबर के आधिकारिक उत्तराधिकारी नहीं मानते किंतु इस धारणा को छोड़कर, जो निश्चित रूप से निषेधात्मक है, शीयावादी दो वर्गों में विभक्त हैं : (क) कट्टरपंथी अस्ना अशरी शीया, जिन्होंने सुन्नी पंथियों की भाँति ही कुरान और पैगंबर में विश्वास प्रकट किया है और (ख) संप्रदायवादी इस्माइली शीया जो वाटिनी, साबी भी कहे जाते थे, किंतु सामान्यतया सुन्नी लोग उन्हें इबहाती के नाम से पुकारते थे, क्योंकि वे निषिद्ध कार्यों की अनुमति देते थे। कभी कभी किए जानेवाले उत्पीड़नों और प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति से वंचित किए जान के बावजूद सुन्नी पंथियों और अस्ना अशरी शीयाओं ने एक दूसरे का मुस्लिम होना अस्वीकार नहीं किया है। उन दोनों में वास्तविक मतभेद है, किंतु यह मतभेद कुरान में दी हुई बातों और धार्मिक सिद्धांतों को तत्वत: स्पर्श नहीं करता। सुन्नियों का विश्वास है कि जब किसी विषय पर कुरान और पैगंबर का कोई निर्देश न प्राप्त होता हो, तो सभी समस्याएँ इज्मा-ए-उम्मत या जनता के बहुमत का विचार करके सुलझाई जानी चाहिए, क्योंकि कुरान में लिखा है 'वे (मुसलमान) अपने कार्यों का निर्णय परामर्श या मंत्रणा से करते हैं।' शीया लोग उन मामलों में, जिनका निर्णय करना सर्वसाधारण की शक्ति से परे हो, और जो किसी दैवी शक्ति द्वारा ही निर्णीत हो सकते हैं, जनता का हस्तक्षेप उचित नहीं मानते। इसलिए सुन्नियों के 'खिलाफत' की टक्कर में शीयाओं का इमामत या इमाम वंश है। मैं तुमसे इसके सिवा और कोई पारिश्रमिक नहीं चाहता कि तुम मेरे बंधुओं से प्यार करो ऐसा कुरान में लिखा है। शीयाओं का विश्वास है कि पैगंबर के बाद अली पहला इमाम था और उसने अपने पुत्रों हसन और हुसेन को अपना उत्तराधिकारी बनाया और कहा कि उनके बाद इमाम पद हुसेन वंश के उत्तराधिकारियों को ज्येष्ठाधिकार के सिद्धांत के अनुसार प्राप्त होता रहेगा। किंतु कोई भी इमाम, दैवी आदेशों के अनुसार कार्य करते हुए, इमाम पद का अधिकार अपने छोटे बेटे को भी दे सकता था।
इमामत के मुख्य लक्षण फारस के एक शीया विद्वान् अब्दुल बाकर मजलिसी (मृत्यु १७०० ई.) ने निम्न प्रकार से वर्णित किए हैं :
(१) इमामत, ईश्वर और पैगंबर की सत्ता पर आधारित है, और जनमत या जनता की इच्छाओं से निर्धारित नहीं होती। जनता द्वारा इमाम के अमान्य ठहरा दिए जाने पर भी उसके ईश्वरप्रदत्त धर्माधिकार या पद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। (२) पैगंबरों की नियुक्ति की भाँति, इमाम की भी नियुक्ति ईश्वर के लिए आवश्यक है, क्योंकि वह अपने द्वारा निर्मित मनुष्यों के उचित पथप्रदर्शन के लिए भी उत्तरदायी है। (३) इमाम अभ्रांत (इंफेलिविल) और पापमुक्त हैं। (४) 'प्रत्येक जनसमूह या जनता के लिए एक पथप्रदर्शक हो, ऐसा कुरान में कहा गया है। इमाम कुरान और कानेन के आधिकारिक अर्थविधायक और व्याख्याता हैं।' (५) अंत में इमाम ही ईश्वर और मानव जाति के बीच मध्यस्थता करनेवाले हैं। 'उनकी मध्यस्थता के सिवा अन्य किसी भी स्थिति में मानव जाति के लिए ईश्वर के दंड से बच सकना संभव नहीं है'।
पैगंबरों के वचनों (हदीस) के चार मुख्य शीया संग्रह ये हैं - कुलामी का 'काफी फी इल्मुद्दीन' अल कुंमी का मान ला यह जरुल फकीह, और अत-तूसी के 'तहजीबुल अहकम' इस्तिबसार। ये बगदाद के बुवई हिंदों के राज्यकाल (९४६-१०५५) में तैयार किए गए थे। शीयों और सुन्नियों के वचनसंग्रहों के बीच परिवार के सदस्यों जैसी समानता है।
बारह शीया इमामों का संक्षिप्त परिचय - (१) शीया और सुन्नियों दोनों द्वारा मान्य सदियों तक प्रचलित हदीसों से अली की सर्वप्रमुखता सिद्ध होती है - 'मैं ज्ञान का नगर हूँ, और अली इसका मुख्य द्वार है' तथा 'वह जो मेरी प्रभुता मानता है, अली की भी प्रभुता मानता है'। शीया लेखकों का दावा है कि पैगम्बर जब अपनी अंतिम तीर्थयात्रा से लौट रहे थे, धादिर खुम नामक जलापूर्ति स्थान के निकट उन्होंने अली को अपना उत्तराधिकारी (वसी) तथा इमाम नामांकित किया और अपने शिष्यों से कहा कि वे अली के पास जाएँ और उसे बधाई दें। (२) अली से पुत्र हसन ने ६६१ ई. में मुसलमानों के नागरि कलह को शांत करने के लिए मुआविया से सुलह कर ली लेकिन पदत्याग के बाद भी आठ वर्ष वह जीवित रहा। (३) अली के पुत्र हसन का ५९ वर्ष की आयु में कर्बला में मोहर्रम के दिन १०, ६१, (हिजरी) ए.एच. (अक्तू. १०, ६८० ई.) शहीद हो जाना ऐसी घटना है जो मुसलिम जगत् को हमेशा से आंतरिक चोट पहुँचाती रही है। कूफा के अस्थिरचित्त निवासियों ने हुसेन कको आमंत्रित किया कि वह आकर उनके नगर पर अधिकार कर ले। इमाम लगभग ५०० घुड़सवारों के साथ मदीना से चल पड़ा। किंतु मुआविया के पुत्र मेजिद की ओर से कूफ़ा और बसरा के गवर्नर ओबेदुल्ला बिन जियाद ने कूफ़ा की जनता को भयाक्रांत कर आत्मसमर्पण के लिए विवश कर दिया। इमाम के अनुयायियों को क्रूरता के साथ अनावश्यक युद्ध के लिए विवश किया गया जिसमें उसके ८७ रिश्तेदार और अनुयायी मारे गए। कहा जाता है कि इमाम के शरीर पर तलवार और भाले के ६७ घाव गिने जा सकते थे। इसलाम के इतिहास में 'कर्बला ट्रैजेडी' के सदृश ऐसी कोई दूसरी घटना नहीं है जिसने शीयावाद के विकास में इससे अधिक सहायता पहुँचाई हो। लेकिन कट्टर शीयावादी मत के अनुसार हुसेन मानव जाति के उद्धारक के रूप में चित्रित हैं। दैवी प्रेरणा से उन्हें यह पहले ही मालूम हो गया था कि आगे क्या होनेवाला है और उन्होंने स्वेच्छा से आत्मबलिदान करना स्वीकार किया। (४) हुसेन के पुत्र अली ने राजनीति से अलग रहकर ३५ वर्ष (६८१-७१४) इमाम के रूप में उपासना और धर्मप्रचार में व्यतीत किए और अब धार्मिक पथप्रदर्शक के रूप में इमाम के कर्तव्य खलीफा के कर्तव्यों से, जो शासन का अध्यक्ष होता था, बिलकुल अलग कर दिए गए। (५) उसका पुत्र मुहम्मद बकर उसी के चरणचिन्हों पर चला और १९ वर्षों तक शीयावाद के निदेशक के रूप में प्रतिष्ठित रहा। (६) इमाम जफर सादिक (७०२-७६५) को शीया सुन्नी दोनों का आदर प्राप्त है। हालाँकि उसके नाम से बहुत सी किताबें उसकी मृत्यु के बाद ही लिखी गई, पर वह सचमुच बड़ा विद्वान् तथा शिक्षक था और सुन्नियों को इस बात का गर्व है कि उनके विधिविधान के चार स्थापकों में से दो, मलिक बिन अनस और अबू हनीफ़ा, उसे शिष्यों में से थे। (७) उमय्या और अबासी खलीफाओं ने पैगंबर के वंशजों को सताया लेकिन अत्याचार के बावजूद शीयाई इमामों ने शांतिपूर्ण मार्ग का अवलंबन किया। ज़फर सादिक के उत्तराधिकारी मूसा काज़िम को हारूँ रशीद ने कैद कर लिया और कैदखाने में ही ७९७ ई. में उसकी मृत्यु हुई। (८) खलीफा मामूँ रशीद न इमाम अली रजा को मदीने से मर्व बुला लिया और उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, लेकिन जब मामूँ मर्व से बगदाद आ रहा था, इमाम ज़हरीले अंगूर खाने से मशहद में मर गया। (९) मामूँ ने अली रजा के पुत्र मुहम्मद तकी को शिक्षित किया और अपनी पुत्री ज़ेनब या उम्मी फ़्ज़ल से उसका विवाह कर दिया। (१०) तकी का पुत्र अली नकी समार्रा में शीया विरोधी खलीफ़ा मुतवकिल और उसके उत्तराधिकारियों द्वारा २१ वर्ष तक कैद कर दिया गया। (११) उसके बेटा हसन अस्करी ने विद्वान् और भाषाविज्ञ के रूप में ख्याति अर्जित की, यद्यपि वह किशोरावस्था में अपने पिता के साथ समर्रा में कैद रहा था। (१२) अंतिम इमाम मोहम्मद महदी, अपने पिता की मृत्यु पर केल ४ या ५ वर्ष का था। अन्नतुल खुल्द के अनुसार वह अपने समर्रा के घर के तहखाने में छिप गया। शीयों का यह दृढ़ विश्वास है कि इमाम छिपा हुआ है और वह समय का अंत होने पर अपने को प्रकट करेगा। इमाम के प्रकट न होने तक धार्मिक विवेचन का कार्य मुज़तहीवियों द्वारा संपन्न होगा। शीया मुजतहीद वह विद्वान् होता है जिसके पास कोई ऐसा प्रमाणपत्र हो, जो किसी इमाम द्वारा दिया गया हो। सुन्नियों में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होता।
(ब) इस्माइली शीया - इस संप्रदाय के लोग जो अभी तक पाए जाते हैं, (यथा, बोहरा, खोजा, आगाखानी, द्रूस इत्यादि) धर्म परिवर्तन न करानेवाले समुदाय हैं, जो अपने अन्य मुस्लिम भाइयों के साथ मिल जुलकर रहते हैं, और जहाँ तक उनके राज्य का कानून अनुमति देता है, वे अपने सारे कार्यों का प्रबंध इमाम (नेता) या दाई (इमाम का कार्यवाहक) के नियंत्रण में करते हैं। किंतु मध्य काल में इस्माइली शीयाओं ने इमाम के संबंध में ऐसे सिद्धांतों का प्रचार किया, जो प्राचीन रूढ़ इस्लाम से पूर्णतया असंगत प्रतीत हुए। वे हुलूल में विश्वास करते थे (कि परमात्मा इमाम के रूप में अवतरित हुआ), और तनासुख याने पुनर्जन्म में भी अर्थात् जब इमाम मरता था, तो परमात्मा उसका शरीर छोड़कर उसके उत्तराधिकारी में अवतरित हो जाता था जो वयोज्येष्ठता के आधार पर इमाम पद प्राप्त करता था। इन दो आर्य विचारों के आधार पर यह मान लिया गया था कि इमाम पैगंबर से अधिक उच्च था। चूँकि ईश्वर का कर्तव्य है कि वे सदा मानव का पदथप्रदर्शन करे, इसलिए इमामों की शृंखला का कभी अंत नहीं होगा। इमाम प्रकट अथवा अप्रकट रह सकता है। यदि इमाम अप्रकट हो तो उसका प्रतिनिधित्व दाई याने प्रधान कार्यवाहक करेगा, जो पुन: पारी पारी से अन्य कार्यवाहक या उप कार्यवाहक नियुक्त करेगा। यह अपेक्षित था कि प्रकट और अप्रकट इमाम सात सात की संख्या के दलों में एक दूसरे का अनुगमन करेगें अर्थात् सात प्रकट इमामों के बाद सात अप्रकट इमाम हुआ करेंगे, जब तक समय का अंत न हो जाए। दिव्य आत्मा का अवतार कुरान के नियमों का निराकरण या उनमें संशोधन कर सकता था। कट्टर इस्माइलियों के विचार से तथाकथित रसूल इमामों के दाई या कार्यवाहक ही हैं। अंत में यह उल्लेख्य है कि सामान्य जनवर्ग से तो कुछ नहीं कहा जाता था किंतु चुने हुए लोगों को, जो ७ सा ९ श्रेणियों में विभक्त थे, कुरान के प्रतीकात्मक अर्थ की व्याख्या की जाती थी। ओ लियरी के अनुसार चतुर्थ श्रेणी में शिक्षार्थी को यह बताया जाता था, कि सातवें इमाम (अर्थात् जफ़र सादिक़ के बेटे ने इस्माइल के बेटे मोहम्मद) ने रसूल मोहम्मद की शिक्षाओं का निराकरण कर नया दैवी संदेश (इल्हाम) दिया है। ज़फर सादिक का सबसे बड़ा बेटा इस्माइल मादक वस्तुओं का सेवन करता था; वह अपने पिता के जीवनकाल में ही मर गया और ज़फ़र सादिक ने, जिसने उसे पहले ही अपने उत्तराधिकार से वंचित कर दिया था, उसे मदीना के मज़ार बाकी में प्रतिष्ठित नागरिकों की उपस्थिति में दफना दिया। किंतु इस्माइलियों का कहना है कि इस्माइल और उसके उत्तराधिकारियों का सुन्नियों के अत्याचारों से बचाने के लिए ही यह फ़रेब किया गया था।
इस्माइली संप्रदाय की स्थापना का श्रेय अब्दुल्ला बिन साबा को है, जो यमन का मुसलिम धर्मदीक्षित यहूदी था। उसने उसमान के खलीफाकाल में अली को दैवी अवतार घोषित किया था। किंतु इसके विशिष्ट सिद्धांतों का विवेचन, ज़फ़र सादिक की मृत्यु (७६५ ई.) के कुछ दिनों बाद अब्दुल्ला विन मेमीन ने किया।
आंदोलन - फ़ारस की खाड़ी क्षेत्र के किरमाती विद्रोह, मिस्र में फातिमों विप्लव और अलामुत के इमामों के विद्रोहों से स्पष्ट है कि शासक मुस्लिम वर्ग द्वारा जनसाधारण का इतना दमन हुआ था कि वे असहाय होकर एक असंभव मुक्तिदायक की कल्पना करने लगे थे। प्रोफेसर बर्नार्ड लावेस ने राज़ली महान् के एक वक्तव्य का उल्लेख कर कहा है : 'ईरानी श्रमिक वर्ग को इस्माइली पाखंडधर्मियों से प्रभावित होने से बचाना असंभव था।' उपर्युक्त तीन बड़े आंदोलनों की असफलता के पश्चात् इस्माइली क्रांतिकारी नहीं रह गए, और उनका भी सुन्नियों तथा शीयाओं की तरह रूढ़िवादी संप्रदाय बन गया।