शिरार्ति (Phlebitis) शिराओं को प्रभावित करनेवाले प्रदाह को कहते हैं। प्राय: शिराओं को घेरनेवाले तथा इनकी दीवारों तक जानेवाले ऊतकों में प्रदाह के कारण शिरात्मक दशा (venous condition) हो जाती है। शिरार्ति में शिरा मोटी तथा संभवत: लाल हो जाती है, जिससे उसे निश्चयात्मक रूप से पहचाना जा सकता है। यदि शिरा पृष्ठीय होती है, तो शिरार्ति बड़ी कष्टदायी होती है। जब प्रदाह शिरा के आंतर आवरण की ओर बढ़ता है और अंत:कला (endothelium) का पोषण क्षीण हो जाता है, तब शिरा में रुधिर थक्का बनने लगता है। शिरा में जहाँ प्रथम बार रुधिर थक्का बनता है, वह वहीं पर दीवार पर चिपक जाता है और ल्यूमेन (lumen) के बीच में, ऊपर नीचे, तीनों ओर फैलने लगता है। थक्का प्रमुख शिराओं से सहायक शिराओं में फैलने लगता है और इस प्रकार रुधिर के लौटने में बाधा उत्पन्न हो जाती है, जिससे शिरा से संबंधित अंग में शोफ (oedema) आ जाता है। इस दशा में रोगी को पूर्ण विश्राम दिया जाता है, ताकि थक्के के विस्थापन से रुधिर-स्रोत-रोधन (embolism) का खतरा न उत्पन्न हो जाए। जब पूतिदूषित (septic) अवस्था होती है, तब रोगी के जीवन का खतरा अधिक रहता है। विश्राम करने पर, अधिकांश रोगियों में प्रदाह शांत हो जाता है और प्रारंभ में प्रभावित शिरा, नवीन तंतुओं के बनने के कारण, स्थायी रूप से अधिधारित (occluded) हो जाती है। प्रभावित शिरा से संबंधित अंग के रुधिर परिसंचरण का पुन:स्थापन, समपार्श्वी मार्ग को खोलकर, किया जाता है। शरीर के कुछ भागों की शिरार्ति खतरनाक होती है, जैसे पार्श्व शिरानाल (lateral sinus) की शिरार्ति, जिसमें प्रदाह मध्यकर्ण के रोगों के कारण होता है और यह प्रदाह परिवर्ती, प्रमस्तिष्क फोड़े के रूप में, या पूयमय मैनिजाइटिस (purulent meningtis), या सामान्य रुधिरप्यता (pyaemia) के रूप में फैलता है। इस अवस्था में केवल शल्यकर्म के द्वारा ही रोगी के प्राणों की रक्षा की आशा की जा सकती है। (अजित नारायण मेहरोत्रा)