शिरपीड़ा (Headache) केवल एक लक्षण है, कोई रोग नहीं। इसके अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे साधारण चिंता से लेकर घातक मस्तिष्क अर्बुद तक। शताधिक कारणों का वर्णन यहाँ संभव नहीं है, पर उल्लेखनीय कारण निम्नांकित समूहों में वर्णित हैं :
१.����� शिर:पीड़ा के करोटि के भीतर के कारण - (क) मस्तिष्क के रोग - अर्बुद, फोड़ा, मस्तिष्कशोथ तथा मस्तिष्काघात; (ख) तानिका के रोग - तानिकाशोथ, अर्बुद, सिस्ट (cyst) तथा रुधिरसमूह (हीमेटोमा); (ग) रक्तनलिकाओं के रोग - रक्तस्राव, रक्तावरोध, ्थ्राॉम्बोसिस (thrombosis) तथा रक्तनलिका फैलाव (aneurism), धमनी काठिन्य आदि।
२.����� शिर:पीड़ा के करोटि के बाहर के कारण - (क) शिरोवल्क के अर्बुद, मांसपेशियों का गठिया तथा तृतीयक उपदश; (ख) नेत्र गोलक के अर्बुद, फोड़ा, ग्लॉकोमा (glauscoma), नेत्र श्लेष्मला शोथ तथा दृष्टि की कमजोरी; (ग) दाँतों के रोग - फोड़ा तथा अस्थिक्षय; (घ) करोटि के वायुविवर के फोड़े, अर्बुद तथा शोथ; (च) कर्णरोग - फोड़ा तथा शोफ़; (छ) नासिका रोग - नजला, पॉलिप (polyp) तथा नासिका पट का टेढ़ापन और (ज) गले के रोग - नजला, टांन्सिल के रोग, ऐडिनाइड (adenoid) तथा पॉलिप।
३.����� विषजन्य शिर:पीड़ा के कारण - (क) बहिर्जनित विष - विषैली गैस, बंद कमरे का वातावरण, मोटर की गैस, कोल गैस, क्लोरोफॉर्म, ईथर और औषधियाँ, जैसे कुनैन, ऐस्पिरिन, अफीम, तंबाकू, शराब, अत्यधिक विटामिन डी, सीसा विष, खाद्य विष तथा ऐलर्जी (allergy); (ख) अंतर्जनित विष - रक्तमूत्र विषाक्तता, रक्तपित्त विषाक्तता, मधुमेह, गठिया, कब्ज, अपच, यकृत के रोग, मलेरिया, टाइफॉइड, (typhoid), टाइफस (typhus) इंफ्ल्यूएंज़ा, फोड़ा, फुंसी तथा कारबंकल।
४.����� शिर:पीड़ा के क्रियागत कारण - (क) अति रुधिर तनाव - धमनी काठिन्य तथा गुर्दे के रोग; (ख) अल्प तनाव - रक्ताल्पता तथा हृदय के रोग; (ग) मानसिक तनाव - अंतद्वैद्व, चेतन एवं अचेतन मस्तिष्क का संघर्ष (घ) शिर पर अत्यधिक दबाव; (च) अत्यधिक शोर; (छ) विशाल चित्रपट से आँखों पपर तनाव; (ज) लंबी यात्रा (मोटर, ट्रेन, हवाई यात्रा); (झ) लू लगना; (ट) हिस्टीरिया; (ठ) मिरगी; (ड) तंत्रिका शूल; (ढ) रजोधर्म; (त) रजोनिवृत्ति; (थ) सिर की चोट तथा (द) माइग्रेन (अर्ध शिर:पीड़ा)।
शिर:पीड़ा की उत्पत्ति के संबंध में बहुत सी धारणाएँ हैं। मस्तिष्क स्वयं चोट के लिए संवेदनशील नहीं है, किंतु इसके चारों ओर जो झिल्लियाँ या तानिकाएँ होती हैं, वे अत्यंत संवेदनशील होती हैं। ये किसी भी क्षोभ, जैसे शोथ, खिंचाव, तनाव, विकृति या फैलाव द्वारा शिर:पीड़ा उत्पन्न करती हैं। आँख तथा करोटि की मांसपेशियों के अत्यधिक तनाव से भी दर्द उत्पन्न होता है।
शिर:पीड़ा निम्नलिखित कई प्रकार की हो सकती है :
(१)�� मंद - करोटि के विवर के शोथ के कारण मंद पीड़ा होती है। यह दर्द शिर हिलाने, झुकने, खाँसने, परिश्रम करने, यौन उत्तेजना, मदिरा, आशंका, रजोधर्म आदि से बढ़ जाता है।
(२)�� स्पंदी - अति रुधिरतनाव पेट की गड़बड़ी या करोटि के भीतर की धमनी के फैलाव के कारण स्पंदन पीड़ा होता है। यह दर्द लेटने से कम हो जाता है तथा चलने फिरने से बढ़ता है।
(३)�� आवेगी - तंत्रिकाशूल के कारण आवेगी पीड़ा होती है। यह दर्द झटके से आता है और चला जाता है।
(४)�� तालबद्ध - मस्तिष्क की धमनी का फैलाव, धमनीकाठिन्य तथा अतिरुधिर तनाव से इस प्रकार की पीड़ा होती है।
(५)�� वेधक - हिस्टीरिया में जान पड़ता है जैसे कोई करोटि में छेद कर रहा हो।
(६)�� लगातार - मस्तिश्क के फोड़े, अर्बुद, सिस्ट, रुधिरस्राव तथा तानिकाशोथ से लगातार पीड़ा होती है।
शिर:पीड़ा के स्थान, समय, प्रकार तथा शरीर के अन्य लक्षणों एवं चिन्हों के आधार पर शिर:पीड़ा के कारण का निर्णय या रोग का निदान होता है।
चिकित्सा - सर्वप्रथम शिर:पीड़ा के कारण की खोज करनी चाहिए और उसकी उचित चिकित्सा करनी चाहिए। विश्राम अत्यावश्यक है। साधारण शिर:पीड़ा के लिए कुछ औषधियाँ प्रयुक्त होती हैं, जैसे ऐस्पिरिन, सोडा-सेलिसिलास, नोवलजीन, इरगापाइरीन आदि। तीव्र शिर:पीड़ा के लिए पेथिडीन या मॉर्फिया की सूई दी जा सकती है। (गो.दा.अ.)